साधक का क्षण-क्षण उत्सव में परिवर्तित करने वाले ईश्वर तत्व का गुह्य रहस्य स्पष्ट करते हुए महॢष पतंजलि अपने अगले सूत्र में कहते हैं-
पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्॥ १/२६॥
शब्दार्थ - (वह ईश्वर सबके) पूर्वेषाम् = पूर्वजों का; अपि = भी; गुरुः = गुरु है; कालेन अनवच्छेदात् = क्योंकि उसका काल से अवच्छेद नहीं है।
अर्थात् समय की सीमाओं के बाहर होने के कारण वह गुरुओं का गुरु है।
इस सूत्र में महॢष ने मुख्यतया तीन संकेत किए हैं। १. ईश्वर गुरु है। जो अभी तक गुरु विहीन है, वे उन परात्पर प्रभु को अपने गुरु के रूप में वरण कर सकते हैं। २. वे गुरुओं के गुरु हैं। अभी तक सम्पूर्ण सृष्टि में जितने भी सद्गुरु हुए हैं, ईश्वर उन सभी के गुरु हैं। क्योंकि सभी सद्गुरु ईश्वर से ही उपजते, ईश्वर में ही वास करते और उन्हीं परम प्रभु में विलीन हो जाते हैं। ३. ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे प्रभु काल की सभी सीमाओं से परे हैं। सच तो यह है कि ईश्वरीय चेतना में काल की सीमाएँ ही विलीन हो जाती हैं।
ये तीन बातें आध्यात्मिक जगत् के तीन रत्न हैं। जो इनके रहस्य को जान जाता है- वह योग के सत्य को पा लेता है। ईश्वर को गुरु के रूप में बताकर महर्षि साधकों को गुरु की गरिमा को बोध कराना चाहते हैं। ईश्वर गुरु है और गुरु ईश्वर है। इस सुपरिचित सत्य से बहुधा साधक अपरिचित रहते हैं। इसी के साथ एक बात और भी देखी जाती है कि कई बार ईश्वरत्व में विलीन हुए बगैर भी कई लोग अपने आपको गुरु के रूप में प्रचारित करने लग जाते हैं।
युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव इस सम्बन्ध में कहते थे कि दरअसल गुरु तीन तरह के होते हैं। इनमें से पहली श्रेणी है—शिक्षक की, जो बौद्धिक ज्ञान देता है। इसके पास तर्कों का जादू होता है, शब्दों का मायाजाल होता है। बोलने में प्रवीण ऐसे लोग कई बार अपने आप को गुरु के रूप में भी प्रस्तुत कर लेते हैं। उनके कथा-प्रवचन, उनकी लच्छेदार वाणी अनेकों को अपने प्रति आकॢषत करती है। ऐसों का मन्तव्य एक ही होता है कि ज्यादा से ज्यादा लोग उन्हें मानें, उनकी सुनें, उन्हें पूजें, उनके प्रति श्रद्धा करें। श्रद्धा का सन्दोहन करने वाले ऐसे गुरुओं की आज कमी नहीं है।
ऐसे ही एक गुरु की कथा गुरुदेव सुनाते थे। उसे यहाँ प्रस्तुत करने का मन है। उच्च शिक्षित ये गुरु एक ख्यातिनामा संस्था के संचालक थे। देश-विदेश में उन्हें प्रवचन के लिए आमंत्रित किया जाता था। आमंत्रित अतिथि के रूप में ये एक बार विदेश में किसी पागलखाने में गए। वहाँ उन्हें सुनने वालों में कर्मचारियों एवं चिकित्सकों के साथ पागलखाने के पागल भी थे। प्रवचन करते समय इन गुरु महोदय का उस समय भारी अचरज हुआ जब उन्होंने देखा कि पागलखाने के सारे पागल उन्हें बड़े ध्यान से सुन रहे हैं। कर्मचारी एवं चिकित्सकों का सुनना तो उन्हें स्वाभाविक लगा, पर पागलों का इस तरह से सुनना....? आखिर इसमें रहस्य क्या है?
इस खोज में उन गुरु ने पागलखाने के अधीक्षक से अपनी जिज्ञासा कही। और उनसे निवेदन किया कि आप जरा इन पागलों से पूछकर तो देखिए कि इन्हें मेरी क्या बात पसन्द आयी। उनके निर्देशानुसार अधीक्षक ने पागलों से बात की और उनके पास आए। बताइए न क्या बातें हुई- गुरु महोदय में भारी उत्सुकता थी। अधीक्षक ने थोड़ा हिचकिचाते हुए बोला- महोदय! आप मुझे क्षमा करें, ये सभी पागल यह कह रहे थे कि ये प्रवचन करने वाले तो बिल्कुल हम लोगों जैसे हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि हम लोग यहाँ भीतर हैं और ये बाहर घूम रहे हैं।
गुरुदेव ने इस हास्य कथा को सुनाते हुए कहा था कि आज के दौर में ज्यादातर गुरुओं की यही स्थिति है। दूसरी श्रेणी के गुरु वे होते हैं, जिन्हें भगवान् अपने प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त करता है। इस श्रेणी में रमण महर्षि, श्री अरविन्द, सन्त गुरजिएफ आदि महापुरुष आते हैं। स्वयं गुरुदेव की चर्चा भी इस कोटि में की जा सकती है। ये सब ईश्वरीय चेतना में निवास करते हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में इनका शरीर भगवान् का घर होता है। भगवान् ही इनके शरीर के माध्यम से कार्य करता है।
तीसरी श्रेणी में ईश्वर स्वयं गुरु होते हैं। अपनी देह विसर्जित करके ब्राह्मी चेतना में विलीन महापुरुष भी इस कोटि में जा पहुँचते हैं। यह स्थिति सभी कालों से परे होती है। क्योंकि ब्राह्मी चेतना की परम भावदशा में काल का अस्तित्व लोप होता है। ईश्वर इसी परम भावदशा का नाम है। जिन साधकों ने उन्हें इस रूप में जान लिया, वे भी उसी स्थिति में जा पहुँचते हैं। अपने गुरु को ईश्वर के रूप में जानकर भी यह स्थिति पायी जा सकती है, वस्तुतः तब प्रयास स्वतःस्फूर्त होने लगते हैं।