अन्तर्यात्रा के प्रयोगों को पूरे यत्न् एवं गहराई के साथ अपनाने वाले साधकों के न केवल बाह्य जीवन में, बल्कि आन्तरिक जीवन में परिष्कार इस कदर होता है कि दूर संवेदन, पूर्वाभास जैसे तथ्य उनकी जिन्दगी का सहज हिस्सा बन जाते। बोध की सूक्ष्मता इस कदर बढ़ती है कि उनकी साधना के समय होने वाले अन्तदर्शन में दिव्य लोकों का वैभव सहज झलकने लगता है। यहाँ तक कि अध्यात्म जगत् की विभूतियों के रूप में लोक विख्यात महर्षियों के संकेत एवं संदेश स्वयमेव प्राप्त होने लगते हैं।
इस पथ पर चल रहे साधक अपने व्यावहारिक जीवन में पारस्परिक सामञ्जस्य, सम्बन्धों में सजल संवेदनाओं का विकास, कार्यकुशलता एवं कार्यक्षमता में अचरज करने जैसी प्रगति अनुभव करते हैं। तब और अब में आकाश- पाताल जैसा अन्तर दिखाई पड़ने लगता है। सच्चाई यही है कि योग साधना व्यक्ति का सम्पूर्ण व समग्र विकास करती है। व्यक्तित्व के सभी आयामों को परिष्कृत कर उनकी अचरज भरी शक्तियों को निखारती है। आन्तरिक जीवन एवं बाह्य जीवन का कायापलट कर देने वाला चमत्कार इससे सहज सम्भव होता है।
साधक चाहे तो क्या नहीं कर सकता। ऐसा नहीं कि जिन्होंने अपने पिछले जन्म में विदेह या प्रकृतिलय अवस्था प्राप्त कर ली, उन्हीं को यह असम्प्रज्ञात समाधि उपलब्ध होगी। सम्भावनाएँ उनके लिए भी हैं, जिन्होंने अभी इसी जन्म में, अपनी साधना का प्रारम्भ किया हैं, उनके लिए भी सम्भावनाओं के द्वार खुले हैं। पर किस तरह? इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए महर्षि कहते हैं-
श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्॥ १/२०॥
शब्दार्थ- इतरेषाम् = दूसरे साधकों का (योग)। श्रद्धावीर्य स्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वकः = श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञापूर्वक सिद्ध होता है।
अर्थात् दूसरे जो असम्प्रज्ञात समाधि को उपलब्ध होते हैं, वे श्रद्धा, वीर्य (प्रयत्न), स्मृति, समाधि और प्रज्ञा के द्वारा उपलब्ध होते हैं।
यह सूत्र महर्षि पतंजलि के सभी सूत्रों से कहीं अधिक मूल्यवान् है। हालाँकि दूसरों सूत्रों में भी गहरी चर्चा है, गहन चिन्तन है। इन सूत्रों में साधना के, साध्य के एवं सिद्धि के अनेकों रहस्य खुलते हैं, लेकिन इस पर भी जो बात इस सूत्र में है, वह कहीं और नहीं है, क्योंकि इस सूत्र में अपने जीवन की चरम सम्भावनाओं को साकार करने वाला सहज मार्ग बता दिया गया है। बुद्धत्व को प्रकट करने की सम्पूर्ण प्रक्रिया इस एक सूत्र में ही समझा दी गई है। बड़ी ही स्पष्ट रीति से महर्षि पतंजलि कहते हैं कि तुम भी, हाँ और कोई नहीं तुम ही, जो इन क्षणों में इस सूत्र की व्याख्या को पढ़ रहे हो इस सूत्र को पकड़कर बुद्ध बन सकते हो, पतंजलि बन सकते हो, युगऋषि आचार्य श्री के जीवन के सार को अनुभव कर सकते हो। बस इसके लिए श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि एवं प्रज्ञा को अपने में जगाना होगा। ध्यान रहे, यह जागरण क्रम से होता है। जो श्रद्धावान् है, वही अगले क्रम में वीर्यवान् होगा। वीर्यवान्, स्मृतिवान् बनेगा। और स्मृतिवान् क्रमिक रूप से समाधि के सत्य को जानेगा और प्रज्ञा को उपलब्ध होगा। योग जीवन का, साधना जीवन का सबसे पहला तत्त्व श्रद्धा है। श्रद्धा शब्द से प्रत्येक अध्यात्म प्रेमी परिचित हैं। श्रद्धा के बारे में पर्याप्त कहा-सुना एवं पढ़ा-लिखा जाता है। लेकिन यह शब्दोच्चार भर पर्याप्त नहीं है। जरूरत कुछ ज्यादा की है। श्रद्धा का सत्य एवं मर्म जब तक जिन्दगी में नहीं उतरता, तब तक बात नहीं बनेगी। युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव कहते थे- श्रद्धा अस्तित्व के गहनतम क्षेत्र कारण शरीर में जन्मती एवं पनपती है। श्रद्धा के तरंगित होने पर समूचा अस्तित्व तरंगित होता है।
जिसके प्रति श्रद्धा है- उसके प्रति समूचा व्यक्तित्व, अपना सारा अस्तित्व अपने आप ही उमड़ने लगता है। सार रूप में श्रद्धा का प्रारम्भ समग्र समर्पण का प्रारम्भ है। इसकी चरम परिणति में साधक का अस्तित्व स्वयं ही साध्य में विलीन हो जाता है। साधना के प्रति श्रद्धा का जन्म होते ही वीर्य अर्थात् साहसिक प्रयत्न प्रारम्भ हो जाते हैं। श्रद्धा हुई इसकी पहचान भी यही है। निष्क्रिय, निठल्ली एवं निकम्मी भावनाओं को कभी भी श्रद्धा का नाम नहीं दिया जा सकता।
यदा-कदा यह भी देखा जाता है कि श्रद्धा के नाम पर लोग अपने आलस्य को प्रश्रय देते हैं, पर यथार्थ स्थिति इसके विपरीत है। श्रद्धा व्यक्ति में चरम साहस को जन्म देती है। युगऋषि गुरुदेव के शब्दों में यह चरम साहस ही वीर्य है। गुरुदेव के अनुसार साधना के सन्दर्भ में वीर्य का सच्चा अर्थ यही है। जो परम साहसी नहीं है, वह साधक नहीं हो सकता। रक्त की बूँद तक, प्राण के अन्तिम कण तक, जीवन के अन्तिम क्षण तक जो साहस करते हैं, वही सच्चे साधक होने का गौरव हासिल करते हैं। ऐसे प्रयत्न से ही स्मृति का जागरण होता है। मालूम पड़ता है, अहसास जगता है कि मैं कौन हूँ। पहले यह स्मृति धुंधली हल्की होती है। परन्तु साधक के साहसिक प्रयत्न ज्यों-त्यों सघन होते जाते हैं, त्यों-त्यों स्पष्ट रीति से स्मृति जगने लगती है।
ध्यान रहे, स्मृति का अर्थ याददाश्त तक सिमटा नहीं है। स्मृति का अर्थ तो होश जगना है। स्वयं अपने बारे में सार्थक अहसास होना है। अस्तित्व की गहराइयों में अपने सच्चे स्वरूप की झलक मिलना है। यह झलक साधना को प्रगाढ़ करती है। साधक के प्रयत्नों में और भी तीव्रता एवं त्वरा पैदा होती है। स्मृति की झलकियों में जब मन तदाकार होने लगता है, तब समाधि प्रस्फुटित होती है। यह भावदशा है, जब साधक अपनी साधना में पूरी तरह डूब जाता है। साधक, साधना एवं साध्य तीनों आपस में घुल-मिल जाते हैं। यही से जीवन रूपान्तरित होना शुरू होता है। अन्तरतम में बदलाव के स्वर फूटते हैं। समाधि में साधक की चेतना समग्र, सम्पूर्ण एवं प्रकाशित होती है और इसी बिन्दु पर प्रज्ञा प्रकट होती है। बोध के स्वर जन्म लेते हैं। सत्य समझ में आता है। जन्म-जन्मान्तर के बन्धन खुलते हैं। वासना-तृष्णा-अहंता तीनों ही ग्रन्थियाँ खुलने लगती है। बड़ी ही अपूर्व अवस्था है यह।