अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान-1

बाँसुरी बनें तो गूँजे प्रभु का स्वर

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      अन्तर्यात्रा के पथ पर मार्गदर्शन करने वाले प्रदीप भी अनोखे हैं। बाहरी जीवन में हम जो यात्रा करते हैं, उसकी रीतियों से हम सभी प्रायः परिचित होते हैं। मंजिल का पता, राह की तैयारी, रास्ते के अवरोध इन सभी की पड़ताल करनी पड़ती है। सभी से परिचित होना होता है। तभी यात्रा सफल होती है। अन्तर्यात्रा में भी बातें तो लगभग यही है, परन्तु यहाँ सब कुछ अपरिचित सा है। जिन्हें देखा नहीं, जिसे जाना नहीं, जो सुना हुआ नहीं है- ऐसा सब कुछ है यहाँ। पथ अपरिचित है, चलना भी अकेले है। शायद इसीलिए इस पथ को प्रकाशित करने वाले प्रदीप भी अनोखे होने चाहिए।

       गोस्वामी जी महाराज कहते हैं- ‘राम नाम मनि दीप धरू’। यानि कि राम नाम रूपी मणियों के दीप रखो। सचमुच ही अन्तर्यात्रा पथ को प्रकाशित करने वाले दीपक मणियों के होने चाहिए। जिसमें न तेल की जरूरत है, न बाती की और मिट्टी के दीए का भी यहाँ कोई काम नहीं। मणियों के दीपक तो स्व प्रकाशित होते हैं। ये तो बिना किसी दूसरे की सहायता के पथ को प्रकाशित करते रहते हैं।

      मणिदीप रूपी यह ईश्वर कैसे हैं इस विषय में और प्रकाश डालते हुए महर्षि कहते हैं-

तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्॥ १/२५॥

शब्दार्थ- तत्र= उस (ईश्वर) में, सर्वज्ञबीजम्= सर्वज्ञता का बीज (कारण) अर्थात् ज्ञान, निरतिशयम् = निरतिशय (सर्वोच्च) है। अर्थात्- ईश्वर में सर्वज्ञता का बीज अपने उच्चतम विस्तार में विकसित होता है।

    यह योग सूत्र साधना का परम रहस्य है। हालाँकि इसमें सब कुछ सरल, सहज एवं स्पष्ट है फिर भी इसे आत्मसात कर लेना विरल है। इन्सानी फितरत ही कुछ अजीब है। उसे कठिनताएँ, जटिलताएँ लुभाती हैं, ललचाती हैं। सहजता, सरलता को वह प्रायः बेकार समझ लेता है। जीवन की प्रत्येक गतिविधि में, प्रत्येक क्षेत्र में उसे अपने अहं की प्रतिष्ठा करना भाता है। और अहं को प्रतिष्ठता प्रायः कठिनाइयों के बीच ही मिल पाती है। इसी वजह से सहजता को अनावश्यक समझने की भूल की जाती है। इस भूल की वजह से भक्ति पथ पर चलने का विवेक विरले ही साधक जाग्रत् कर पाते हैं। ज्यादातर तो भस्त्रिका, भ्रामरी के चक्करों में ही भ्रमण करते रहते हैं।       

योग पथ पर चलने के लिए जितनी भी तकनीकें हैं, उनके शुरूआती दौर में अहंकार को बड़ा रस मिलता है। लेकिन भक्ति मार्ग में ऐसा कोई रस नहीं है। यहाँ अहंता को प्रारम्भ से ही निराश होना पड़ता है। जबकि दूसरे मार्गों में अहंता अन्तिम छोर पर निराश होती है। जब बात योग साधना की हो, तो अहंता को तो निराश होना ही पड़ेगा। पर हठयोग, राजयोग, ज्ञानयोग, नादयोग आदि जितनी भी योग विधियाँ हैं, वहाँ शुरूआत में बड़ी विचित्रताएँ हैं। तकनीक की विचित्रता, अनुभूति की विचित्रता, पथ की विचित्रता- बड़े ही विचित्र लोभ यहाँ है। तमाशो से भरी जादूगरी यहाँ पर है। यहाँ पर ऐसा बहुत कुछ है, जहाँ अहंकार को रस मिले। उसे मजा आए। इसीलिए इन सबके लिए उसमें भारी आकर्षण है।

     लेकिन ईश्वर भक्ति में ऐसा कोई आकर्षण नहीं है। यहाँ तो पहले ही कदम पर अहंकार को जलना- गलना एवं मरना- मिटना पड़ता है। अहंकार की मौत, ‘जो सिर काटे भुईं धरै’ के कबीर वचन यहाँ पर, इस पथ पर पाँव रखते ही सार्थक होते हैं। यही वजह है कि अहंकारी को भक्ति सुहाती नहीं है। उसे यह सब बड़ा अटपटा- बेतुका लगता है। अहंकारी के लिए भक्ति बुद्धिहीनता से भरा क्रियाकलाप है। यहाँ पर उसे हानि ही हानि नजर आती है। पर जो निष्कपट हृदय है, उनके लिए यह परम तृप्ति का मार्ग है। प्रभु में समर्पित, प्रभु में विसर्जित एवं प्रभु में विलीन। इससे बड़ा सुख और भला कहाँ हो सकता है।

ब्रह्मर्षि गुरुदेव स्वयं अपने बारे में कहा करते थे कि लोग मुझे लेखक समझते हैं, ज्ञानी मानते हैं। किसी की नजरों में मैं महायोगी हूँ। पर अपनी नजर में मैं केवल एक भक्त हूँ। अपने गुरु का, अपने भगवान् का निष्कपट भक्त। मैंने अपनी जिन्दगी का कण- कण, क्षण- क्षण, अणु- अणु अपने प्रभु की भक्ति में गुजारा है। मैंने तो स्वयं को बस केवल एक पोली बाँसुरी भर बना लिया। सच तो यह है कि अपने पूरे जीवन में मैंने कुछ किया ही नहीं। बस, प्रभु जो करते रहे, वही होता रहा। मैंने स्वयं को भगवान् के हाथों में सौंप दिया। मेरे जीवन में वही साधना बने, वही साधक और वही साध्य रहे। एक में तीन और तीन में एक, यही गणित मेरे जीवन में इस्तेमाल होती रही।

   परम पूज्य गुरुदेव के इस जीवन दर्शन में महर्षि पतंजलि के इस सूत्र की सहज व्याख्या है। ईश्वर में समाकर जीव स्वयं ईश्वर बन जाता है। गुरुदेव कहते हैं, गंगाजल में समा जाने वाले गन्दे नाले को भी लोग गंगाजल कहने लगते हैं। इसमें महिमा गंगा की है और भावभरे समर्पण की। समर्पण करने से केवल क्षुद्रताओं का नाश होता है। केवल दुर्बलताएँ- हीनताएँ तिरोहित होती हैं, मिलता बहुत कुछ है। बस जो यह समझ सके। यह समझ में आने पर एक पल में सब कुछ घटित हो जाता है। जो ईश्वर में समर्पित होते हैं- उनके जीवन का अवसाद उत्सव में रूपान्तरित हो जाता है।
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