अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान-1

ॐकार को जाना, तो प्रभु को पहचाना

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     अन्तर्यात्रा अचेतन की परतों में चेतनता की स्फूर्ति लाती है। यह एक ऐसा सच है, जिसकी समग्र बौद्धिक व्याख्या तो सम्भव नहीं है, लेकिन इसकी सम्पूर्ण अनुभूति बड़ी सहज है। जो अन्तर्यात्रा में संलग्र हैं, वे सब यही कहते हैं। अनुभव कहता है कि अन्तर्यात्रा का पथ अनगिन रहस्यों से भरा है। इस पथ पर कुछ दूर चलने पर एक ऐसा नया अनजान मोड़ जाता है कि सब कुछ बदला नजर आता है। सारे नजारे बदल जाते हैं। मनःस्थिति ही नहीं, परिस्थिति भी अपना एक नया रूप सामने लाती है।

ऐसे में यदा- कदा ही नहीं बल्कि बहुधा इस यात्रा के अवरुद्ध होने की घटना घटती है। अन्तर्यात्रा के इस दौर में चलने वाले पाँव थकते ही नहीं, बहकते भी हैं। पथ की थकान एवं पाँवों के बहकावे से बचना- उबरना आसान नहीं होता है। सच्चे योग साधक कब योगभ्रष्ट हो जाएँगे कोई ठिकाना नहीं। ऐसी स्थिति में एक ही उपाय है- परमात्मा के प्रति अविचलित श्रद्धा, प्रभु के नाम के प्रति अडिग निष्ठा।

प्रभु के सामने साधक भी बालक ही है। वह जानना चाहता है कि

प्रभु को किस नाम से जानें? किस तरह से उसका स्मरण करें? इसकी चर्चा महर्षि अपने अगले सूत्र में करते हैं। वह इसमें कहते हैं-
तस्य वाचकः प्रणवः ॥ १/२७॥

शब्दार्थ- तस्य= उस (ईश्वर का); वाचकः = वाचक (नाम); प्रणवः = प्रणव (ॐकार) है।
अर्थात् उसे ‘ॐ’ के नाम से जाना जाता है।

महर्षि ने इस सूत्र में बताया है कि ‘ॐ’ है नाम प्रभु का। इस ॐ में उतने ही रहस्य हैं, जितने कि स्वयं प्रभु में है। ॐ को जान लिया, तो समझो स्वयं प्रभु को पहचान लिया। वेद, पुराण, उपनिषद् सभी एक स्वर से ओम् की महिमा का गान करते हैं। जो नाम का स्मरण करते हैं, उन्हें अपने आप ही नामी का परिचय मिल जाता है। प्रभु के नाम का स्मरण साधना की सबसे सरल किन्तु प्रभावकारी है। इस रीति से भी योग के शिखर तक पहुँचा जा सकता है। समाधि की सिद्धि पायी जा सकती है। नाम की रटन, नाम की लगन, नाम की धुन, नाम का ध्यान में यदि मन रम जाए, तो समझो कि साधना से सिद्धि का द्वार खुल गया।

गोस्वामी जी महाराज ने अपनी मंत्रमय कृति रामचरित मानस में इस नाम महिमा की बड़ी विस्तृत विवेचना की है। बालकाण्ड के दोहा क्रमांक १८ से दोहा क्रमांक २७ तक इस प्रकरण को बड़े भक्तिपूर्ण ढंग से उकेरा गया है। २८ चौपाइयों का यह प्रसंग भक्तों के मन को सब भाँति मोहने वाला है। जिन्हें प्रभु के नाम की महिमा के यथार्थ के बारे में तुलसी बाबा की अनुभूति को जानने की जिज्ञासा है, उन्हें बालकाण्ड के नाम महिमा के प्रसंग को अवश्य पढ़ना चाहिए। हम तो यहाँ विस्तारभय के कारण तुलसी बाबा की केवल एक चौपाई को उद्धृत करना चाहेंगे। जिसमें वह कहते हैं- अगुन सगुन दुई ब्रह्म सरूपा।

        अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरे मत बढ़ नाम दुहूँ ते।
        किए जेङ्क्षह जुग निजबस  बूते॥

    अर्थात्- परम ब्रह्म परमेश्वर के दो ही स्वरूप है- निर्गुण और सगुण। प्रभु के ये दोनों ही रूप अकथनीय, अथाह, अनादि एवं अनुपम हैं। गोस्वामी जी कहते हैं कि  मेरी सम्मति में नाम इन दोनों से ही बड़ा है। क्योंकि इसने अपने बल से दोनों को वश में कर रखा है। अर्थात् नाम साधना से प्रभु के दोनों रूपों का ज्ञान सहज ही हो जाता है।

    प्रभु के पावन नाम के इस प्रसंग में ब्रह्मॢष परम पूज्य गुरुदेव के अमृत वचनों का स्मरण हो रहा है। उन्होंने ये बातें अपनी निजी चर्चा में कही थीं। बात योग साधना की चल रही थी। गुरुदेव सदा की भाँति अपने पलंग पर बैठे थे। प्रश्रकर्त्ता उनके चरणों के समीप एक टाट के टुकड़े पर बैठा हुआ थ। उसने जिज्ञासा की कि वह प्रभावकारी योग साधना किस तरह से करे? इस  जिज्ञासा के समाधान में गुरुदेव ने कहा—बेटा! इन दिनों प्राण अन्तगत है। लोगों के दैनिक काम-काज का भी कोई ठीक नहीं है। कठिन, कठिन आसन, प्राणायाम, बन्ध मुद्राओं का अभ्यास करके ईश्वर तत्त्व की अनुभूति करना आज के दौर में सुलभ नहीं है।

    शरीर चिकित्सा के लिए कुछ समय के लिए आसन-प्राणायाम या बन्ध, मुद्रा का अभ्यास करना अलग बात है और इन क्रियाओं से कुण्डलिनी जागरण, चक्रबेधन, सहस्रार सिद्धि एकदम अलग बात है। गुरुदेव बोले- ऐसा करने के चक्कर में ज्यादातर लोग रोगी हो जाते हैं। वायु कुपित होने के कारण उन्हें अनेकों शारीरिक, मानसिक परेशानियाँ घेर लेती हैं। तब फिर रास्ता क्या है गुरुदेव? पूछने वाले ने निराश स्वर में कहा। क्योंकि उसे गुरुदेव की बातों से लगने लगा था कि योग साधना के लिए वह सत्पात्र नहीं है। उसके लिए यह सब दूर की कौड़ी है। यह ऐसा आकाश कुसुम है, जिसे वह कभी भी नहीं पा सकता।

    उसकी इस निराशा को तोड़ते हुए गुरुदेव बोले-  एक उपाय है बेटा! गुरुदेव के इन वचनों से प्रश्रकर्त्ता के निराश मन में आशा संजीवनी का संचार हुआ। उसने आतुरता से पूछा कौन सा? वह बोले- भगवान् के नाम का स्मरण। यह ऐसी साधना है, जिसे तुलसी, मीरा, सूर, रहीम, रसखान, कबीर, रैदास आदि अनगिनत भक्तों को योग सिद्धि प्राप्त हुई। नाम साधना के कारण ही उन्हें भगवान् का सहचर्य मिला। भगवान् उनके साथ रहे। सच तो यह है, नाम साधना से बड़ी कोई दूसरी साधना है ही नहीं। पर बहुतेरे लोग इसे आसान समझकर यूँ ही छोड़ देते हैं और उलटी-पलटी साधनाओं के चक्कर में उलझ कर बाद में मदद के लिए करुण पुकार करते हैं।
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