अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान-1

रस्सी की तरह घिस दें—चुनौतियों के पत्थर

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        अन्तर्यात्रा का विज्ञान जीवन के हर झूठ से जूझ रहे योग साधकों के लिए पथ प्रदीप है। योग साधना की डगर कब किस ओर मुड़ती है, इसके प्रकाश में साफ- साफ समझा जा सकता है। साधकों की राह में आने वाले प्रश्र- कंटकों को हटाने- बीनने की पूरी व्यवस्था इसके उजाले में सम्भव है। इसकी किरणें साधकों के अन्तर्मन के अँधियारे की घुटन और घबराहट को हटाती है। इससे साधकों में अपनी साधना के लिए हिम्मत और हौसला बढ़ता है।

      चेतना के धरातल पर देखें, तो यह पुस्तक ऐसे हिम्मती साधकों एवं महान् गुरुओं के बीच निरन्तर चलने वाला रहस्यमय वार्तालाप है। महर्षि पतंजलि एवं परम पूज्य गुरुदेव स्वयं इस योग कथा के माध्यम से अगणित साधकों की भावनाओं को सुनते हैं और उन्हें अपनी योग अनुभूतियों के अमृत रस का भागीदार बनाते हैं। इस योग कथा के शब्द तो बस उनकी विचार तरंगों के माध्यम भर हैं। इससे अधिक और कुछ भी नहीं।

जब साधक के सामने सवाल आता है कि आखिर यह अभ्यास क्या है और इसे करें कैसे? तो महर्षि समाधान करते हुए अगला सूत्र कहते हैं-
  तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः॥ १/१३॥

शब्दार्थ- तत्र= उन दोनों (अभ्यास और वैराग्य) में से, स्थितौ= चित्त की स्थिति में, यत्नः= यत्न करना, अभ्यासः= अभ्यास है। यानि कि इन दोनों में, चित्त की स्थिति में (स्वयं में दृढ़ता से) प्रतिष्ठित होने का प्रयास करना अभ्यास है। अभ्यास की सामान्य महिमा से तो हममें से प्रायः सभी परिचित हैं। छोटे बच्चों और गाँव के किसानों से लेकर विशिष्टों, वरिष्ठों एवं विशेषज्ञों तक इसकी महिमा का गुणगान करते हैं। ग्रामीण जीवन में अभ्यास के बारे में एक कहावत अक्सर सुनी जाती है- करत- करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। रसरी आवत जात है सिल पर परत निसान॥ अर्थात् अभ्यास करते- करते एकदम जड़मति भी सविज्ञ- सुजान हो जाते हैं। कुछ उसी तरह से जैसे निरन्तर रस्सी की रगड़ से पाषाण पर भी निशान पड़ जाते हैं। मनुष्य की सारी क्षमताएँ उसके अभ्यास का ही फल है। यहाँ- तक कि पशु- पक्षी भी अभ्यास के बलबूते ऐसे- ऐसे करतब दिखाने लगते हैं, जिन्हें देखकर दाँतों तले उँगली दबाने का मन करता है।

           बाहरी जीवन में, लौकिक जीवन में अभ्यास के ढेरों चमत्कार हम रोज देखते हैं। खुद की निजी जिन्दगी में भी अभ्यास के अनेकों अनुभवों को हमने जब- तब अनुभव किया है। परन्तु यह अभ्यास आन्तरिक जीवन में, आध्यात्मिक जीवन में किस तरह किया जाय, यह बात समझना अभी बाकी है। आध्यात्मिक जीवन में- आन्तरिक प्रयास। एक ऐसी होशपूर्ण कोशिश, जिसका मतलब है कि इससे पहले हम बाहर बढ़ें, हमें भीतर बढ़ना चाहिए। पहले हमें अपने केन्द्र में स्थित होने का प्रयास करना चाहिए। पहले हम अपने केन्द्र में स्थित होकर विचार करें और फिर कुछ दूसरा निर्णय करें। यह इतनी बड़ी रूपान्तरकारी घटना है कि एक बार जब हम अपने भीतर केन्द्रित हो जाते हैं, तो सारी बात ही अलग दिखाई पड़ने लगती है, सारा का सारा परिदृश्य ही बदल जाता है।        
   इस तरह केन्द्र में स्थित होने के लिए क्या करें? तो इसके जवाब में परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि जप, ध्यान, प्राणायाम आदि योगाभ्यास की सारी प्रक्रियाएँ इसीलिए हैं। योग की सभी प्रक्रियाओं का एक ही मतलब है कि आपको अपना परिचय करा दे। आपको अपने में स्थित कर दे। हालाँकि कभी- कभी यह देखा जाता है कि काफी सालों से जप करने वाले, ध्यान का अभ्यास करने वाले लोगों में भी कोई गुणात्मक मौलिक परिवर्तन नहीं आ पाता। इसकी वजह प्रक्रियाओं का दोष नहीं, बल्कि उसके अभ्यास में खामियाँ हैं। ध्यान रहे योग- प्रक्रियाएँ मात्र क्रियात्मक नहीं हैं, उनमें गहरी विचारणा एवं उच्च भावनाएँ भी समावेशित हैं।

भगवद्गीता में इसके बारे में कहा गया है-
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्‌।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥—गीता- १७/२८

अर्थात्- हे पार्थ! अश्रद्धा से किया गया हवन, दिया गया दान, तपा गया तप और भी जो कुछ आध्यात्मिक क्रिया की गई है, वह सब कुछ असद् है, उसका न कोई परिणाम आध्यात्मिक जीवन में है और नहीं इस लौकिक जीवन में। इसलिए योगाभ्यास की कोइ भी प्रक्रिया हो, उसमें गहरी श्रद्धा और पवित्र विचारणा का समोवश निहायत जरूरी है।

इस सम्बन्ध में वृन्दावन के सन्त स्वामी अखण्डानन्द महाराज का संस्मरण बड़ा ही प्रेरक है। ध्यान रहे कि ये सन्त परम पूज्य गुरुदेव पर गहरी श्रद्धा करते थे। इनकी एक पुस्तक है पावन संस्मरण। इसमें उन्होंने लिखा है कि एक दिन वे ब्रह्ममुहूर्त में बैठकर माला जप रहे थे। उनकी कोशिश यही थी कि ज्यादा से ज्यादा मालाएँ जप ली जाएँ। इस बीच परमहंस जगन्नाथपुरी जी उधर से गुजरे। उन्हें जन सामान्य लोग नेपाली बाबा के नाम से जानते थे। इनका जप देखकर वह बोल पड़े- भला कहीं ऐसे जप किया जाता है? उनके वचनों से इनकी आँख खुली। नमस्कार करने पर परमहंस जी ने इन्हें गले लगाया और बोले- मंत्र साक्षात् भगवान् है, अपने ईष्ट की शब्दमूल है। मंत्र चाहे कोई भी हो, उसे जपने में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए। सत्कार के साथ, धीर गम्भीर भाव के साथ मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए। प्रत्येक शब्द का गहराई से उच्चारण करें। इस तरह एक अक्षर से दूसरे अक्षर तक पहुँचने में कुछ समय लगे। इससे मन में संकल्प नहीं होगा। जब मन खाली होगा, तो उसमें अपने ईष्ट का प्रकाश होगा।

      गायत्री महामंत्र को योग साधक अपनी योग साधना का सर्वस्व मानकर अभ्यास करें। मन ही मन प्रत्येक अक्षर का स्पष्ट उच्चारण, साथ ही यह प्रगाढ़ भाव कि इन चौबीस अक्षरों में स्वयं आदि शक्ति जगन्माता अपनी चौबीस शक्तियों के साथ समायी हैं। यह मंत्र स्वयं ही परमा शक्ति है, साथ ही साधक को सब कुछ देने में समर्थ है। जप करते समय ही नहीं, जप करने के बाद रह- रहकर साधक के मन में माता का स्मरण होते रहना चाहिए। ध्यान रहे जप के साथ मौन- एकान्त एवं अधिक से अधिक ब्रह्मचर्य साधक के अभ्यास को दृढ़ करते हैं।
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