अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान-1

आखिर कैसे मिले सम्यक् ज्ञान

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        पंच वृत्तियों का उल्लेख करने के उपरांत महर्षि पतंजलि इनमें पहली वृत्ति प्रमाण के बारे में सुस्पष्टता से समझाते हैं। वह कहते हैं-

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणामि॥ १/७॥

      अर्थात् सम्यक् ज्ञान अथवा प्रमाणवृत्ति के तीन स्रोत हैं : प्रत्यक्ष बोध,अनुमान और योग सिद्ध आप्त पुरुषों के वचन। यही वे तीन विधियाँ हैं, जिनके द्वारा योग साधक को ठीक- ठीक ज्ञान हो सकता है। इनमें पहली विधि प्रत्यक्ष बोध की है। यह सम्यक् ज्ञान का प्रथम स्रोत है। इसका मतलब है, आमने- सामने का साक्षात्कार। ज्ञाता और ज्ञेय के बीच किसी मध्यस्थ की जरूरत नहीं रहती। सत्य को समझाने- बतलाने के लिए किसी दुभाषिये की आवश्यकता नहीं रह जाती।

      बात बिल्कुल साफ है,सरल और सीधी है। फिर भी अनेकों अड़चनें हैं—इसे समझने में। प्रायः योग सूत्र के भाष्यकारों, वार्तीककारों ने इस सीधी, सरल और साफ बात की बड़ी गलत व्याख्या की है। उन्होंने प्रत्यक्ष बोध को इन्द्रिय बोध की सँकरी सीमा में समेट दिया है। उदाहरण के लिए कई आचार्यों का कहना है कि प्रत्यक्ष वही है- जो आँखों के सामने है। लेकिन यह ठीक- ठीक आमने- सामने कहाँ हुआ? आँखें तो बीच में हैं ही। इसी तरह यदि कुछ सुना जाता है, तो कान माध्यम बनते हैं और ये आँखें या कान गलत खबर भी तो देख सकते हैं। इन्द्रिय बोध- सत्य बोध ही हो,यह कोई जरूरी तो नहीं ।। इन्द्रियों में थोड़ा सा भी दोष आ गया, तो सारी खबर गलत मिलती हैं। कुछ का कुछ दिखाई- सुनायी देने लगता है।

फिर प्रत्यक्ष बोध क्या है? इस सवाल के उत्तर में परम पूज्य गुरुदेव का चिंतन सूत्र कहता है ‘चेतना प्रत्यक्ष।’ यानि कि हमारी चेतना बिना किसी इन्द्रिय माध्यम के सब कुछ साफ- साफ आमने- सामने देखे। गहरे ध्यान अथवा समाधि की भाव दशा में ही साधक को यह स्थिति प्राप्त होती है। तब देखने के लिए, जानने के लिए किसी माध्यम की जरूरत नहीं रह जाती। किसी इन्द्रिय की तो बिल्कुल भी नहीं। महात्मा बुद्ध, महर्षि रमण, श्री अरविन्द एवं परम पूज्य गुरुदेव जैसे महायोगी इसी रीति से सत्ता और सत्य की प्रत्यक्ष अनुभूति करते हैं। इससे इन्द्रियों की किसी तरह की कोई भागीदारी नहीं होती। ज्ञाता और ज्ञेय एकदम आमने- सामने होते हैं, उनके बीच कुछ और नहीं होता। केवल प्रत्यक्षता ही सत्य अनुभव बनकर प्रकट होता है।

     परम पूज्य गुरुदेव कहते थे कि प्रत्यक्ष को चेतना- प्रत्यक्ष मानने से ही महर्षि पतंजलि जैसे महायोगी का भाव प्रकट होगा। यदि हम प्रत्यक्ष को केवल इन्द्रिय- प्रत्यक्ष की सीमा में सिकोड़ दें, तो हम उन्हें चार्वाक जैसे नास्तिक एवं जड़वादी दार्शनिकों की श्रेणी में खड़ा कर देंगे। क्योंकि चार्वाक दर्शन के प्रवर्तक बृहस्पति का प्रमुख मत यही तो है कि जो कुछ इन्द्रियाँ अनुभव करती हैं, जो नजरों के सामने है- वही प्रमाण है। चार्वाक को भारतीय भौतिकवाद का स्रोत माना जाता है। इस दर्शन में बुद्धि चातुर्य तो है,पर चेतना का बोध नहीं है। चार्वाक कोरे बुद्धिवादी हैं, जबकि महर्षि पतंजलि सम्यक् बोध प्राप्त महायोगी हैं। उनके भाव को ठीक- ठीक समझने के लिए किसी महायोगी का बोध ही सहायक बन सकता है। परम पूज्य गुरुदेव हमें यही सहायता प्रदान करते हैं।             

   वह कहते हैं कि गहरे ध्यान अथवा समाधि में हमारी  अर्न्तचेतना जिस ज्ञान की अनुभूति करती है,वही सत्य है। उसी को प्रमाण माना जा सकता है। इन्द्रियों से हमें जो जानकारी मिलती है,वह प्रायः आधी- अधूरी और दोषग्रस्त होती है। यही कारण है कि इन्द्रियाँ हमें भटकाती और भ्रमित करती हैं। काम- क्रोध,लोभ की दशाएँ इन्द्रियों को जब- तब आच्छादित करती है और परिणाम में व्यक्ति को कुछ का कुछ समझ में आने लगता है। कभी- कभी यही दशा नशेड़ी व्यक्ति की होती है। इस संबंध में गुरुदेव अपने गाँव के पास का किस्सा सुनाया करते थे। उनके गाँव के पास के गाँव में एक ठाकुर बच्ची सिंह रहा करते थे। उनकी अफीम खाने की आदत थी। अफीम खाने के बाद वे नशे में काफी ऊट- पटांग, हरकतें करते थे। एक बार उन्होंने शाम को ज्यादा अफीम खा ली। नशा गहरा होने पर वे कहने लगे,देखो अब मेरे पास उड़ने की ताकत आ गयी है, अब मैं उड़ सकता हूँ। ऐसा कहते हुए वह अपने मकान की छत से हाथ फैलाए हुए उड़ने की मुद्रा में नीचे कूद पड़े। सिर पर गहरी चोट लगने से उनकी मृत्यु हो गयी। बेचारे वह जान भी नहीं सके कि नशे के असर में वह अपनी इन्द्रियों द्वारा धोखा खा गए।

             इन्द्रियाँ भरोसे काबिल हैं भी नहीं। बिना नशे के वे हमें भटकाती और भ्रमित करती रहती हैं। जो बचपन में समझ में आया, वह किशोरावस्था में बेकार नजर आती है। किशोरावस्था की बातें प्रौढ़ावस्था में बेमानी हो जाती है। यही सिलसिला चलता रहता है। ऐसे में सवाल उठता है कि प्रत्यक्ष बोध आखिर है क्या? तो जवाब यह है कि प्रत्यक्ष बोध वह है, जिसे इन्द्रियों के बिना जाना जा सके। इसलिए पहला सम्यक् ज्ञान केवल अपनी आन्तरिक सत्ता का हो सकता है। क्योंकि इसके लिए किसी भी इन्द्रिय सहायता की जरूरत नहीं है। कोई भी गहरे ध्यान अथवा समाधि में उतरकर इसे पा सकता है।
          
  प्रमाणवृत्ति अथवा सम्यक् ज्ञान का दूसरा स्रोत अनुमान है। यह उनके लिए है, जो अभी प्रत्यक्ष बोध के लायक नहीं हुए हैं। जिनकी स्थिति अभी ध्यान और समाधि की गहराई में प्रवेश करने की नहीं है। जो सम्यक् ज्ञान पाना चाहते हैं, अनुमान उनके लिए एक सम्भावना है। यह अनुमान क्या है? परम पूज्य गुरुदेव के शब्दों में यह है विवेक युक्त तर्क। तर्क के बारे में गुरुदेव का कहना था कि तर्क दुधारी तलवार की तरह है, इसके इस्तेमाल के लिए गहरे विवेक की जरूरत है। विवेक के अभाव में यह सत्य ज्ञान की प्राप्ति में सहायक बनने की बजाय असत्य ज्ञान का पोषक भी हो सकता है। उदाहरण के लिए तर्क का प्रयोग चार्वाक एवं मार्क्स ने भी किया और आचार्य शंकर एवं महर्षि अरविन्द ने भी। परन्तु एक में विवेक का अभाव है, तो दूसरे में विवेक का प्रभाव। इस स्थिति में इनके दर्शन और दार्शनिकता का पूरा का पूरा ढाँचा बदल गया है।  
           
 पतंजलि का कहना है कि सम्यक् ज्ञान के लिए हमें सम्यक् तर्क करना आना चाहिए। उदाहरण के लिए यदि हम इस विराट् सृष्टि को देखें,गौर से निहारें और तर्क का सम्यक् प्रयोग करें, तो ईश्वर के अस्तित्व का अनुमान होता है। यह ठीक है कि ईश्वर की सत्ता इन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं है। ईश्वर कहीं दिखाई नहीं देता, नजर नहीं आता। किन्तु यदि सम्यक् तर्क का प्रयोग करें,यह सोचें कि विश्व ब्रह्माण्ड की व्यवस्था कितनी सुसंगत है,कितनी उद्देश्यपूर्ण है,तो इस निश्चय पर जरूर पहुँचेंगे कि ईश्वर के रूप में इसकी संचालक सत्ता का भी अस्तित्व होगा। इस तरह सम्यक् तर्क से ईश्वरीय सत्ता का बड़ा ही स्पष्ट अनुमान हो सकता है। बाद में योग साधना के द्वारा उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति भी पायी जा सकती है।

     अब है सम्यक् ज्ञान का तीसरा स्रोत- आगम। यह सबसे अधिक सौन्दर्यपूर्ण है। आगम को सम्यक् ज्ञान के स्रोत के रूप में स्वीकारना महर्षि पतंजलि की अपनी विशिष्टता है। यह आगम क्या है? तो महर्षि कहते हैं कि आगम महायोगियों के वचन हैं। ये ऋषियों की अनुभति की अभिव्यक्ति देने वाले शब्द है। इस बात को थोड़ा और स्पष्ट रीति से कहें, तो आगम- उन महान् विभूतियों के वचन हैं,जो जान चुके हैं। जो लक्ष्य तक पहुँच चुके हैं,जो कैवल्य ज्ञान को पा चुके हैं, जो ईश्वरीय सत्य का साक्षात्कार कर चुके हैं,उनके शब्द भी सम्यक् ज्ञान का स्रोत है।

           परम्परा में आगम को वेद कहा जाता है। यह ठीक भी है क्योंकि वेद सत्य द्रष्टा ऋषियों के वचन है। परन्तु रूढ़ियों से ग्रस्त मूढ़ जन वेद के विराट् स्वरूप को केवल कतिपय मंत्र समुच्चय तक ही समेट देते हैं। यह ठीक नहीं है। आगम सत्य द्रष्टा ऋषियों के वचन है। भले ही संस्कृत में कहा गया हो,अथवा किसी अन्य भाषा में। व्यापक अर्थों में आगम में कबीर की साखी, मीरा के पद, श्रीरामकृष्ण का वचनामृत, महर्षि रमण के वचन, योगीराज अरविन्द का दिव्य जीवन संदेश और स्वयं परम पूज्य गुरुदेव के स्वर सभी कुछ समाहित हो जाता है। इन सत्य द्रष्टा ऋषियों—संतों के वचनों पर श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान का स्रोत है। योगपथ पर चलने वाले साधकों के लिए सम्यक् ज्ञान का यह तीसरा स्रोत सबसे अधिक मत्त्वपूर्ण एवं व्यावहारिक है। योग साधना करने वालों के लिए यह भी कहा जा सकता है कि अपने सद्गुरु के वचनों पर परिपूर्ण श्रद्धा- सम्यक् ज्ञान का स्रोत है। सद्गुरु के वचन कभी- कभी बड़े अटपटे होते हैं। परन्तु वे प्रेम लपेटे होते हैं। उन्हें ठीक- ठीक समझ न पाने पर भी यदि कोई साधक उन पर समग्र श्रद्धा के साथ आचरण करने लगता है,तो उसे अपने आप ही सम्यक् ज्ञान हो जाता है।

              सद् गुरु के वचनों के सम्बन्ध में तर्क का कोई स्थान नहीं है, क्योंकि ये चेतना के जिस तल से कहे गए हैं, वहाँ तर्क, बुद्धि की पहुँच ही नहीं है। यदि इस बारे में तर्क किया जाए, तो हम वह सब गवाँ बैठेंगे, जो हमें हमारे सद् गुरु देना चाहते हैं। क्योंकि वे न केवल यह जानते हैं कि उन्हें हम शिष्यों को क्या देना है? बल्कि वे यह भी जानते हैं कि जो हमारे लिए देने योग्य है,वह सब किस तरह से देना है। इसलिए केवल और केवल भक्ति पूर्ण श्रद्धा ही एकमात्र उपाय है। महर्षि पतंजलि कहते हैं कि सद्गुरु जो कहें,जिस भी तरह कहें,उसे परिपूर्ण श्रद्धा के साथ करने पर सम्यक् ज्ञान सुनिश्चित है। इसमें कोई संदेह नहीं। प्रमाणवृत्ति के ये तीनों स्रोत हमारी अन्तर्यात्रा में सहायक है।
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