अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान-1

अनूठी हैं—मन की पाँचों वृत्तियाँ

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      समर्पण हुआ, तो निश्चित ही साक्षी भाव की अनुभूति होगी और साधक अपने स्वरूप में अवस्थित होगा। पर यदि समर्पण न हो सका तब? इस प्रश्र का उत्तर महर्षि पतंजलि अपने अगले सूत्र यानि कि समाधि पाद के चौथे सूत्र में देते हैं। वह कहते हैं-

वृत्तिसारूप्यमितरत्र॥ १/४॥

साक्षी होने के अलावा अन्य सभी अवस्थाओं में मन की वृत्तियों के साथ तादात्म्य हो जाता है। ये वृत्तियाँ साधक की अन्तर्चेतना को मनचाहा भटकाती हैं। सुख- दुख के सपने दिखाती हैं। कभी हँसाती हैं, कभी रुलाती हैं। इच्छाओं के कच्चे धागों से बाँधती हैं। कल्पनाओं और कामनाओं की मदिरा पिला कर बेहोश करती हैं।

        साक्षी होने के अतिरिक्त अन्य सभी अवस्थाओं का यही सत्य है। जिसे हम सभी किसी न किसी रूप में रोजमर्रा की जिन्दगी में अनुभव करते रहते हैं। मजे की बात तो यह है कि यदा- कदा हम में से कई या यूं कहें कि प्रायः हम सभी इन्हीं कामनाओं की तृप्ति के लिए साधना भी करने लगते हैं। गाढ़ी बेहाशी को और गाढ़ा करने के लिए जप- तप का सिलसिला शुरू करते हैं। इसकी सफलताओं पर खुशियों की अठखेलों से खेलते हैं और असफल होने पर गम के आँसूओं से अपने- आपको भिगोते हैं। वृत्तियों का यह बहुरंगी तमाशा हमारे जीवन का सामान्य परिचय है। इसमें स्वप्न तो अनेक हैं, सत्य एक भी नहीं। इसी तथ्य का संकेत महर्षि के सूत्र में है।

         परम पूज्य गुरुदेव महर्षि पतंजलि के बारे में कहा करते थे कि वे अद्भुत हैं। वे साधक को तपाने में, उससे साधना कराने में विश्वास करते हैं। उनका इधर- उधर की कहानियाँ- किस्से सुनाने में कतई विश्वास नहीं है। बहलाने- फुसलाने में उनका कोई यकीन नहीं है। एक प्रसंग में गुरुदेव के सामने जब इस सूत्र की चर्चा चली, तो उन्होंने कहा- ‘अब यहीं देखो कैसी दो टूक बात कह दी उन्होंने। साधकों के सामने बिलकुल बात साफ कर दी कि या तो साक्षी भाव को उपलब्ध कर अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाओ या फिर वृत्तियों के साथ तादात्म्य करके भटकते रहो। इन दो के अलावा कोई तीसरी सच्चाई नहीं हो सकती। जान सको तो जानो, मान सको तो मानो।’

         गुरुदेव कहा करते थे, पतंजलि के सूत्र तो साधकों के लिए भेजे गए टेलीग्राम हैं। इनमें इधर- उधर का एक भी फालतू शब्द नहीं है। कभी- कभी तो एक सूत्र पूरा वाक्य तक नहीं है। वह तो अल्पतम सारभूत है। ये सूत्र ऐसे हैं, जैसे कोई तार करने जाय और वहाँ बेकार के अनावश्यक शब्द काट दे। तार का मतलब ही यही है, कम से कम शब्दों में सम्पूर्ण सन्देश कह दिया जाय। तार की जगह अगर पत्र लिखा जाता, तो शायद दस पन्नें भरने के बावजूद बातें पूरी न हो पाती। लेकिन एक तार में, दस शब्दों में वह केवल पूरा ही नहीं होता, बल्कि पूरे से भी थोड़ा अधिक होता है। वह सीधी हृदय पर चोट करता है। उसमें सारतम होता है।

        इसी प्रसंग में गुरुदेव ने यह भी बताया कि उनकी मार्गदर्शक सत्ता ने भी उनसे बड़ी सीधी- सपाट भाषा में एकदम थोड़े शब्दों में कहा था, साधना करनी है, तो इन्द्रिय सुखों से मुँह मोड़ना होगा। एकदम रूखी- सूखी जिन्दगी जीनी होगी। ये बातें बताकर वह थोड़ा रूके, फिर कहने लगे- यह तो बाद में पता चला कि इस रूखे- सूखे पन में आनन्द की अनन्तता समायी है। बस यही बात महर्षि पतंजलि के बारे में है। वह बहुत ही रूखी- सूखी धरती पर ले चलेंगे, मरुस्थल जैसी भूमि पर। लेकिन मरुस्थल का अपना सौन्दर्य है। उसमें वृक्ष नहीं होते, उसमें नदियाँ नहीं होती, लेकिन उसका एक अपना विस्तार होता है। किसी जंगल की तुलना उससे नहीं की जा सकती। जंगलों का अपना सौन्दर्य है, पहाड़ियों का अपना सौन्दर्य है, नदियों की अपनी सुन्दरताएँ हैं। मरुस्थल की अपनी विराट् अनन्तता है। हाँ, इस राह पर चलने के लिए हिम्मत की जरूरत है। पतंजलि का हर सूत्र साधकों के साहस के लिए चुनौती है। उनके विवेक को सावधान रहने की चेतावनी है।

               पतंजलि बिलकुल साफ तौर पर कहते हैं कि यदि आपको, हमको, मनुष्य मात्र को यदि भटकन, उलझन, तनाव, चिन्ता, दुःख, पीड़ा, अवसाद से सम्पूर्ण रूप से मुक्ति पानी है, तो साक्षी भाव को उपलब्ध होने के अलावा अन्य कोई चारा नहीं है। क्योंकि अन्य अवस्थाओं में तो मन की वृत्तियों के साथ तादात्म्य बना ही रहेगा। मनुष्य की प्रकृति ही ऐसी है। यह बात किसी एक पर, किसी व्यक्ति विशेष पर लागू नहीं होती। बात तो सारे मनुष्यों के लिए कही गयी है। मानव प्रकृति की बनावट व बुनावट की यही पहचान है। साक्षी के अतिरिक्त दूसरी सभी अवस्थाओं में मन के साथ तादात्म्य बना रहता है। विचारों के प्रवाह के साथ कब एकात्मता सध जाती है, पता ही नहीं चलता। ये विचार कैसे भी हो सकते हैं, किसी भी तरह के हो सकते हैं। विचारों के बादलों के साथ हम एक हो जाते हैं। कई बार सफेद बादलों के साथ, कई बार वर्षा से भरे बादलों के साथ, तो कई बार वर्षा रिक्त खाली बादलों के साथ। लेकिन कुछ भी हो, किसी न किसी विचार के बादल के साथ तादात्म्यता बनी रहती है। और ऐसे में हम आकाश की शुद्धता गँवा देते हैं। अपने आत्मस्वरूप के अन्तरिक्ष की शुद्धता खो देते हैं। और बादलों का यह घिराव घटित ही इस कारण होता है, क्योंकि हम तादात्म्य जोड़ लेते हैं। विचारों के साथ एक हो जाते हैं।

ख्याल आता है कि हम भूखे हैं और विचार मन में कौंध जाता है। विचार इतना भर है कि पेट को भूख लगती है। बस, उसी क्षण हम तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। उसकी आसक्ति से घिर जाते हैं। हम कहने लगते हैं, मैं भूखा हूँ। मुझे भूख लगी है। मन में तो भूख का विचार भर आया था, पर हमने उसके साथ तादात्म्य बना लिया है। हम कहने लगे, मुझे भूख लगी है। बस यही तादात्म्य है।

ऐसी बात नहीं है कि ज्ञानियों को, योगियों को, साधकों को, सिद्धों को भूख महसूस नहीं होती। भूख तो वे भी महसूस करते हैं। बुद्ध भी भूख महसूस करते थे, पतंजलि भी भूख महसूस करते हैं। लेकिन पतंजलि कभी यह नहीं कहेंगे कि मुझे भूख लगी है। वे तो बस इतना कहेंगे कि शरीर भूखा है, वे कहेंगे, मेरा पेट भूख महसूस कर रहा है। बुद्ध कहेंगे, भूख तो पेट में है। मैं तो केवल साक्षी भर हूँ। पेट भूखा है, लेकिन योगीजन उसके साक्षी मात्र बने रहेंगे। लेकिन हम सब तादात्म्य बना लेते हैं, विचार के साथ एक हो जाते हैं।

विचार और वृत्तियों के बदलते स्वरूप के साथ हमारा तादात्म्य भी बदलता है। कभी हम एक के साथ होते हैं, तो कभी दूसरी, तीसरी, चौथी, और पाँचवी वृत्ति के साथ। ये तादात्म्य ही संसार बनाते हैं। दरअसल यही संसार है। यदि हम तादात्म्यों में हैं, तो संसार में हैं, दुःख में हैं। और यदि इन तादात्म्यों के पार और परे चले गए, तो समझो मुक्त हो गए। योग की परम सिद्धि एवं सम्बोधि की परम अवस्था यही है। यही है निर्वाण और कैवल्य। वृत्तियों से तादात्म्य टूटते ही हम इस दुःख भरे संसार से पार होकर आनन्द के जगत् में प्रविष्ट हो जाते हैं।

आनन्द का यह जगत् बिलकुल अभी और यहाँ है। बिलकुल अभी, इसी क्षण। इसके लिए एक पल भी प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं है। बस मन का साक्षी भर होना है। केवल वृत्तियों से नाता तोड़ना है। यह तथ्य कुछ यूँ है-

सुख कहीं मिलेगा, इस भ्रान्ति का नाम संसार है,
सुख अभी है, यहीं है, इस बोध का नाम निर्वाण है,
सुख किसी से मिलेगा, इस भ्रान्ति का नाम संसार है,
सुख अपना स्वभाव है, इस जागृति का नाम मोक्ष है।
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