अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान-1

वैराग्य ही देगा साधना में संवेग

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      साधना के अभ्यास की पूर्णता के लिए वैराग्य की भी आवश्यकता है। व्यावहारिक जीवन में देखा यह जाता है कि अनेकों प्रयत्नों के बावजूद साधक में चाहत होने पर भी साधना में संवेग नहीं उत्पन्न हो पाता।

       महर्षि पतंजलि अगले सूत्र में स्पष्ट कहते हैं कि साधना में संवेग तब तक नहीं आ पायेगा, जब तक साधक वैराग्य से वंचित है। वैराग्य विहीन साधना में पहले तो गति और संवेग उत्पन्न ही नहीं होता, यदि किसी कारण संकल्प की दृढ़ता पर ऐसा हो भी गया, तो भी इससे मात्र भौतिक प्रयोजन ही पूरे हो पाते हैं। वैराग्य के बिना कैसी भी और कितनी भी साधना क्यों न की जाय, इसे आध्यात्मिक परिणाम नहीं होते। ऐसों को कभी भी आत्म जागृति की अनुभूति नहीं हो पाती। आत्म जागृति एवं आध्यात्मिक सम्पदा की प्राप्ति का एक ही उपाय है- वैराग्य। महर्षि के स्वरों में इस वैराग्य का सूत्र है -
 
  दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥ १/१५॥

शब्दार्थ- दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य= देखे और सुने गये विषयों में सर्वथा तृष्णा रहित चित्त की; वशीकारसंज्ञा = जो वशीकार नामक अवस्था है वह, वैराग्यम् = वैराग्य है।

अर्थात् वैराग्य, निराकांक्षा की ‘वशीकार संज्ञा’ नामक पहली अवस्था है। ऐन्द्रिक सुखों की तृष्णा में सचेतन प्रयास द्वारा भोगासक्ति की समाप्ति।
महर्षि पतंजलि के अनुसार वैराग्य की दो भाव दशाएँ हैं - १. साधन वैराग्य, २. सिद्ध वैराग्य। इन्हें यूँ भी कहा जा सकता है, १. अपर वैराग्य, २. पर वैराग्य। इस साधन वैराग्य या अपर वैराग्य को ही वशीकार संज्ञा दी गयी है। इस का मतलब है—देखे और सुने गए विषयों के प्रति वितृष्णा। इनके प्रति भोगासक्ति का न होना। इन विषय भोगों के लिए मन में गहरी निराकांक्षा। ऐसा होना ही वैराग्य है। इसी से साधना अभ्यास को ऊर्जा मिलती है। प्रकारान्तर से वैराग्य को अभ्यास का ऊर्जा स्रोत भी कहा जा सकता है।

           साधकों के मन में प्रायः जिज्ञासा उठती है कि यह वैराग्य सधे कैसे? अभ्यास तो थोड़ा बहुत जैसे- तैसे हो भी जाता है, परन्तु वैराग्य कहीं से भी नहीं पनपता। माला को पकड़े हुए हाथ मनके भले ही खिसकते रहे, पर मन काम- काज में, बेटी- बेटों में, नाती- पोतों में ही उलझा रहता है। अक्सर देखा यह जाता है कि हर एक की आयु के हिसाब से ये उलझनें अलग- अलग होती हैं। बच्चे अपने साधना अभ्यास के समय कुछ अलग सपने देखते हैं, तो किशोर व युवाओं के ख्वाब कुछ और होते हैं। इन सभी में यदि किसी एक तत्त्व की समानता होती है, तो वह है सभी में भटकाव। जप करते समय, ध्यान करते समय मन यूँ ही भटकता रहता है। रह- रह कर वह इन्द्रिय विषयों, भोग आसक्तियों की कल्पनाओं से घिर जाता है। हममें से किसी के साथ ऐसा होने का मतलब वैराग्य का अभाव है। जो यह कहते हैं कि हमारा जप में, ध्यान में मन नहीं लगता, तो उन्हें इस सत्य को जान लेना चाहिए कि इसका केवल एक कारण वैराग्य का न होना है।       

  वैराग्य हो कैसे? परम पूज्य गुरुदेव अपनी व्यक्तिगत चर्चाओं में इस बारे में एक ही बात कहते थे- बेटा! वैराग्य का जन्म विवेक के गर्भ से होता है। अभ्यास तो विवेक के बिना भी हो सकता है, पर वैराग्य कभी भी विवेक के बिना नहीं होता। पहले विवेक होगा, तभी वैराग्य सधेगा। विवेक का अर्थ है सही- गलत की ठीक समझ, उचित- अनुचित का सही ज्ञान, नाशवान् और अविनाशी तत्त्व का बोध, सत् और असत् की पहचान। ऐसा होने पर ही वैराग्य सधता है। गुरुदेव कहा करते थे कि कोई व्यक्ति जान- बूझकर जहर नहीं खाता, उसी तरह से कोई भी समझदार आदमी कभी भी विषय भोगों में नहीं उलझता।

                 भगवान् श्री कृष्ण ने भगवद्गीता में साफ तौर पर कहा है- ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।’—गीता ५/२२ अर्थात् इन्द्रियों के स्पर्श से अनुभव होने वाले जो भी भोग है, वे सबके सब दुःख के स्रोत हैं। ये सभी आदि और अन्त वाले होने के कारण नाशवान् हैं। इसलिए विवेकवान् लोग इसमें नहीं रमते। यानि कि जो भी विवेकवान है, वह हर कीमत पर विषय भोगों से दूर रहेगा। प्रकारान्तर से जहाँ विवेक है, वहीं वैराग्य होगा ही। इन दोनों को एक- दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। सम्भव नहीं है—इनमें अलगाव।
            
 भोग चाहे लौकिक हो या अलौकिक, सभी निरर्थक है। अर्थपूर्ण केवल आत्मतत्त्व है। अपने सद्गुरु से प्रेम, ईश्वर से प्रेम ही जीवन का सार तत्त्व है। साधना अभ्यास के लिए हमें वैराग्यवान् एवं ईश्वर परायण होना ही पड़ेगा और इसके लिए जरूरी है, सांसारिक दुःखों का बार- बार चेतन। वैराग्य की सच्ची साधना भगवान् बुद्ध को थी, जिन्होंने सारे राजसी सुखों के बीच रहकर भी यही निष्कर्ष निकाला ‘सब दुख:म्’ - यह सब दुःख ही है। श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- वैराग्य साधना है, तो भगवान् को पुकारो। उनके शब्दों में काशी की ओर जितना बढ़ो, कलकत्ता उतना ही पीछे छूटता है। यानि कि भगवान् की ओर जितना बढ़ोगे- संसार की आसक्ति उतना ही घटेगी। यह साधन वैराग्य जितना सघन होगा, उतना ही हम सिद्धवैराग्य की ओर आगे बढ़ेंगे।       साधना के अभ्यास की पूर्णता के लिए वैराग्य की भी आवश्यकता है। व्यावहारिक जीवन में देखा यह जाता है कि अनेकों प्रयत्नों के बावजूद साधक में चाहत होने पर भी साधना में संवेग नहीं उत्पन्न हो पाता।

       महर्षि पतंजलि अगले सूत्र में स्पष्ट कहते हैं कि साधना में संवेग तब तक नहीं आ पायेगा, जब तक साधक वैराग्य से वंचित है। वैराग्य विहीन साधना में पहले तो गति और संवेग उत्पन्न ही नहीं होता, यदि किसी कारण संकल्प की दृढ़ता पर ऐसा हो भी गया, तो भी इससे मात्र भौतिक प्रयोजन ही पूरे हो पाते हैं। वैराग्य के बिना कैसी भी और कितनी भी साधना क्यों न की जाय, इसे आध्यात्मिक परिणाम नहीं होते। ऐसों को कभी भी आत्म जागृति की अनुभूति नहीं हो पाती। आत्म जागृति एवं आध्यात्मिक सम्पदा की प्राप्ति का एक ही उपाय है- वैराग्य। महर्षि के स्वरों में इस वैराग्य का सूत्र है -
 
  दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥ १/१५॥

शब्दार्थ- दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य= देखे और सुने गये विषयों में सर्वथा तृष्णा रहित चित्त की; वशीकारसंज्ञा = जो वशीकार नामक अवस्था है वह, वैराग्यम् = वैराग्य है।

अर्थात् वैराग्य, निराकांक्षा की ‘वशीकार संज्ञा’ नामक पहली अवस्था है। ऐन्द्रिक सुखों की तृष्णा में सचेतन प्रयास द्वारा भोगासक्ति की समाप्ति।
महर्षि पतंजलि के अनुसार वैराग्य की दो भाव दशाएँ हैं - १. साधन वैराग्य, २. सिद्ध वैराग्य। इन्हें यूँ भी कहा जा सकता है, १. अपर वैराग्य, २. पर वैराग्य। इस साधन वैराग्य या अपर वैराग्य को ही वशीकार संज्ञा दी गयी है। इस का मतलब है—देखे और सुने गए विषयों के प्रति वितृष्णा। इनके प्रति भोगासक्ति का न होना। इन विषय भोगों के लिए मन में गहरी निराकांक्षा। ऐसा होना ही वैराग्य है। इसी से साधना अभ्यास को ऊर्जा मिलती है। प्रकारान्तर से वैराग्य को अभ्यास का ऊर्जा स्रोत भी कहा जा सकता है।

           साधकों के मन में प्रायः जिज्ञासा उठती है कि यह वैराग्य सधे कैसे? अभ्यास तो थोड़ा बहुत जैसे- तैसे हो भी जाता है, परन्तु वैराग्य कहीं से भी नहीं पनपता। माला को पकड़े हुए हाथ मनके भले ही खिसकते रहे, पर मन काम- काज में, बेटी- बेटों में, नाती- पोतों में ही उलझा रहता है। अक्सर देखा यह जाता है कि हर एक की आयु के हिसाब से ये उलझनें अलग- अलग होती हैं। बच्चे अपने साधना अभ्यास के समय कुछ अलग सपने देखते हैं, तो किशोर व युवाओं के ख्वाब कुछ और होते हैं। इन सभी में यदि किसी एक तत्त्व की समानता होती है, तो वह है सभी में भटकाव। जप करते समय, ध्यान करते समय मन यूँ ही भटकता रहता है। रह- रह कर वह इन्द्रिय विषयों, भोग आसक्तियों की कल्पनाओं से घिर जाता है। हममें से किसी के साथ ऐसा होने का मतलब वैराग्य का अभाव है। जो यह कहते हैं कि हमारा जप में, ध्यान में मन नहीं लगता, तो उन्हें इस सत्य को जान लेना चाहिए कि इसका केवल एक कारण वैराग्य का न होना है।      

  वैराग्य हो कैसे? परम पूज्य गुरुदेव अपनी व्यक्तिगत चर्चाओं में इस बारे में एक ही बात कहते थे- बेटा! वैराग्य का जन्म विवेक के गर्भ से होता है। अभ्यास तो विवेक के बिना भी हो सकता है, पर वैराग्य कभी भी विवेक के बिना नहीं होता। पहले विवेक होगा, तभी वैराग्य सधेगा। विवेक का अर्थ है सही- गलत की ठीक समझ, उचित- अनुचित का सही ज्ञान, नाशवान् और अविनाशी तत्त्व का बोध, सत् और असत् की पहचान। ऐसा होने पर ही वैराग्य सधता है। गुरुदेव कहा करते थे कि कोई व्यक्ति जान- बूझकर जहर नहीं खाता, उसी तरह से कोई भी समझदार आदमी कभी भी विषय भोगों में नहीं उलझता।

                 भगवान् श्री कृष्ण ने भगवद्गीता में साफ तौर पर कहा है- ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।’—गीता ५/२२ अर्थात् इन्द्रियों के स्पर्श से अनुभव होने वाले जो भी भोग है, वे सबके सब दुःख के स्रोत हैं। ये सभी आदि और अन्त वाले होने के कारण नाशवान् हैं। इसलिए विवेकवान् लोग इसमें नहीं रमते। यानि कि जो भी विवेकवान है, वह हर कीमत पर विषय भोगों से दूर रहेगा। प्रकारान्तर से जहाँ विवेक है, वहीं वैराग्य होगा ही। इन दोनों को एक- दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। सम्भव नहीं है—इनमें अलगाव।
           
 भोग चाहे लौकिक हो या अलौकिक, सभी निरर्थक है। अर्थपूर्ण केवल आत्मतत्त्व है। अपने सद्गुरु से प्रेम, ईश्वर से प्रेम ही जीवन का सार तत्त्व है। साधना अभ्यास के लिए हमें वैराग्यवान् एवं ईश्वर परायण होना ही पड़ेगा और इसके लिए जरूरी है, सांसारिक दुःखों का बार- बार चेतन। वैराग्य की सच्ची साधना भगवान् बुद्ध को थी, जिन्होंने सारे राजसी सुखों के बीच रहकर भी यही निष्कर्ष निकाला ‘सब दुख:म्’ - यह सब दुःख ही है। श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- वैराग्य साधना है, तो भगवान् को पुकारो। उनके शब्दों में काशी की ओर जितना बढ़ो, कलकत्ता उतना ही पीछे छूटता है। यानि कि भगवान् की ओर जितना बढ़ोगे- संसार की आसक्ति उतना ही घटेगी। यह साधन वैराग्य जितना सघन होगा, उतना ही हम सिद्धवैराग्य की ओर आगे बढ़ेंगे।       साधना के अभ्यास की पूर्णता के लिए वैराग्य की भी आवश्यकता है। व्यावहारिक जीवन में देखा यह जाता है कि अनेकों प्रयत्नों के बावजूद साधक में चाहत होने पर भी साधना में संवेग नहीं उत्पन्न हो पाता।

       महर्षि पतंजलि अगले सूत्र में स्पष्ट कहते हैं कि साधना में संवेग तब तक नहीं आ पायेगा, जब तक साधक वैराग्य से वंचित है। वैराग्य विहीन साधना में पहले तो गति और संवेग उत्पन्न ही नहीं होता, यदि किसी कारण संकल्प की दृढ़ता पर ऐसा हो भी गया, तो भी इससे मात्र भौतिक प्रयोजन ही पूरे हो पाते हैं। वैराग्य के बिना कैसी भी और कितनी भी साधना क्यों न की जाय, इसे आध्यात्मिक परिणाम नहीं होते। ऐसों को कभी भी आत्म जागृति की अनुभूति नहीं हो पाती। आत्म जागृति एवं आध्यात्मिक सम्पदा की प्राप्ति का एक ही उपाय है- वैराग्य। महर्षि के स्वरों में इस वैराग्य का सूत्र है -
 
  दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥ १/१५॥

शब्दार्थ- दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य= देखे और सुने गये विषयों में सर्वथा तृष्णा रहित चित्त की; वशीकारसंज्ञा = जो वशीकार नामक अवस्था है वह, वैराग्यम् = वैराग्य है।

अर्थात् वैराग्य, निराकांक्षा की ‘वशीकार संज्ञा’ नामक पहली अवस्था है। ऐन्द्रिक सुखों की तृष्णा में सचेतन प्रयास द्वारा भोगासक्ति की समाप्ति।
महर्षि पतंजलि के अनुसार वैराग्य की दो भाव दशाएँ हैं - १. साधन वैराग्य, २. सिद्ध वैराग्य। इन्हें यूँ भी कहा जा सकता है, १. अपर वैराग्य, २. पर वैराग्य। इस साधन वैराग्य या अपर वैराग्य को ही वशीकार संज्ञा दी गयी है। इस का मतलब है—देखे और सुने गए विषयों के प्रति वितृष्णा। इनके प्रति भोगासक्ति का न होना। इन विषय भोगों के लिए मन में गहरी निराकांक्षा। ऐसा होना ही वैराग्य है। इसी से साधना अभ्यास को ऊर्जा मिलती है। प्रकारान्तर से वैराग्य को अभ्यास का ऊर्जा स्रोत भी कहा जा सकता है।

           साधकों के मन में प्रायः जिज्ञासा उठती है कि यह वैराग्य सधे कैसे? अभ्यास तो थोड़ा बहुत जैसे- तैसे हो भी जाता है, परन्तु वैराग्य कहीं से भी नहीं पनपता। माला को पकड़े हुए हाथ मनके भले ही खिसकते रहे, पर मन काम- काज में, बेटी- बेटों में, नाती- पोतों में ही उलझा रहता है। अक्सर देखा यह जाता है कि हर एक की आयु के हिसाब से ये उलझनें अलग- अलग होती हैं। बच्चे अपने साधना अभ्यास के समय कुछ अलग सपने देखते हैं, तो किशोर व युवाओं के ख्वाब कुछ और होते हैं। इन सभी में यदि किसी एक तत्त्व की समानता होती है, तो वह है सभी में भटकाव। जप करते समय, ध्यान करते समय मन यूँ ही भटकता रहता है। रह- रह कर वह इन्द्रिय विषयों, भोग आसक्तियों की कल्पनाओं से घिर जाता है। हममें से किसी के साथ ऐसा होने का मतलब वैराग्य का अभाव है। जो यह कहते हैं कि हमारा जप में, ध्यान में मन नहीं लगता, तो उन्हें इस सत्य को जान लेना चाहिए कि इसका केवल एक कारण वैराग्य का न होना है।      

  वैराग्य हो कैसे? परम पूज्य गुरुदेव अपनी व्यक्तिगत चर्चाओं में इस बारे में एक ही बात कहते थे- बेटा! वैराग्य का जन्म विवेक के गर्भ से होता है। अभ्यास तो विवेक के बिना भी हो सकता है, पर वैराग्य कभी भी विवेक के बिना नहीं होता। पहले विवेक होगा, तभी वैराग्य सधेगा। विवेक का अर्थ है सही- गलत की ठीक समझ, उचित- अनुचित का सही ज्ञान, नाशवान् और अविनाशी तत्त्व का बोध, सत् और असत् की पहचान। ऐसा होने पर ही वैराग्य सधता है। गुरुदेव कहा करते थे कि कोई व्यक्ति जान- बूझकर जहर नहीं खाता, उसी तरह से कोई भी समझदार आदमी कभी भी विषय भोगों में नहीं उलझता।

                 भगवान् श्री कृष्ण ने भगवद्गीता में साफ तौर पर कहा है- ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।’—गीता ५/२२ अर्थात् इन्द्रियों के स्पर्श से अनुभव होने वाले जो भी भोग है, वे सबके सब दुःख के स्रोत हैं। ये सभी आदि और अन्त वाले होने के कारण नाशवान् हैं। इसलिए विवेकवान् लोग इसमें नहीं रमते। यानि कि जो भी विवेकवान है, वह हर कीमत पर विषय भोगों से दूर रहेगा। प्रकारान्तर से जहाँ विवेक है, वहीं वैराग्य होगा ही। इन दोनों को एक- दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। सम्भव नहीं है—इनमें अलगाव।
           
 भोग चाहे लौकिक हो या अलौकिक, सभी निरर्थक है। अर्थपूर्ण केवल आत्मतत्त्व है। अपने सद्गुरु से प्रेम, ईश्वर से प्रेम ही जीवन का सार तत्त्व है। साधना अभ्यास के लिए हमें वैराग्यवान् एवं ईश्वर परायण होना ही पड़ेगा और इसके लिए जरूरी है, सांसारिक दुःखों का बार- बार चेतन। वैराग्य की सच्ची साधना भगवान् बुद्ध को थी, जिन्होंने सारे राजसी सुखों के बीच रहकर भी यही निष्कर्ष निकाला ‘सब दुख:म्’ - यह सब दुःख ही है। श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- वैराग्य साधना है, तो भगवान् को पुकारो। उनके शब्दों में काशी की ओर जितना बढ़ो, कलकत्ता उतना ही पीछे छूटता है। यानि कि भगवान् की ओर जितना बढ़ोगे- संसार की आसक्ति उतना ही घटेगी। यह साधन वैराग्य जितना सघन होगा, उतना ही हम सिद्धवैराग्य की ओर आगे बढ़ेंगे।       साधना के अभ्यास की पूर्णता के लिए वैराग्य की भी आवश्यकता है। व्यावहारिक जीवन में देखा यह जाता है कि अनेकों प्रयत्नों के बावजूद साधक में चाहत होने पर भी साधना में संवेग नहीं उत्पन्न हो पाता।

       महर्षि पतंजलि अगले सूत्र में स्पष्ट कहते हैं कि साधना में संवेग तब तक नहीं आ पायेगा, जब तक साधक वैराग्य से वंचित है। वैराग्य विहीन साधना में पहले तो गति और संवेग उत्पन्न ही नहीं होता, यदि किसी कारण संकल्प की दृढ़ता पर ऐसा हो भी गया, तो भी इससे मात्र भौतिक प्रयोजन ही पूरे हो पाते हैं। वैराग्य के बिना कैसी भी और कितनी भी साधना क्यों न की जाय, इसे आध्यात्मिक परिणाम नहीं होते। ऐसों को कभी भी आत्म जागृति की अनुभूति नहीं हो पाती। आत्म जागृति एवं आध्यात्मिक सम्पदा की प्राप्ति का एक ही उपाय है- वैराग्य। महर्षि के स्वरों में इस वैराग्य का सूत्र है -
 
  दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥ १/१५॥

शब्दार्थ- दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य= देखे और सुने गये विषयों में सर्वथा तृष्णा रहित चित्त की; वशीकारसंज्ञा = जो वशीकार नामक अवस्था है वह, वैराग्यम् = वैराग्य है।

अर्थात् वैराग्य, निराकांक्षा की ‘वशीकार संज्ञा’ नामक पहली अवस्था है। ऐन्द्रिक सुखों की तृष्णा में सचेतन प्रयास द्वारा भोगासक्ति की समाप्ति।
महर्षि पतंजलि के अनुसार वैराग्य की दो भाव दशाएँ हैं - १. साधन वैराग्य, २. सिद्ध वैराग्य। इन्हें यूँ भी कहा जा सकता है, १. अपर वैराग्य, २. पर वैराग्य। इस साधन वैराग्य या अपर वैराग्य को ही वशीकार संज्ञा दी गयी है। इस का मतलब है—देखे और सुने गए विषयों के प्रति वितृष्णा। इनके प्रति भोगासक्ति का न होना। इन विषय भोगों के लिए मन में गहरी निराकांक्षा। ऐसा होना ही वैराग्य है। इसी से साधना अभ्यास को ऊर्जा मिलती है। प्रकारान्तर से वैराग्य को अभ्यास का ऊर्जा स्रोत भी कहा जा सकता है।

           साधकों के मन में प्रायः जिज्ञासा उठती है कि यह वैराग्य सधे कैसे? अभ्यास तो थोड़ा बहुत जैसे- तैसे हो भी जाता है, परन्तु वैराग्य कहीं से भी नहीं पनपता। माला को पकड़े हुए हाथ मनके भले ही खिसकते रहे, पर मन काम- काज में, बेटी- बेटों में, नाती- पोतों में ही उलझा रहता है। अक्सर देखा यह जाता है कि हर एक की आयु के हिसाब से ये उलझनें अलग- अलग होती हैं। बच्चे अपने साधना अभ्यास के समय कुछ अलग सपने देखते हैं, तो किशोर व युवाओं के ख्वाब कुछ और होते हैं। इन सभी में यदि किसी एक तत्त्व की समानता होती है, तो वह है सभी में भटकाव। जप करते समय, ध्यान करते समय मन यूँ ही भटकता रहता है। रह- रह कर वह इन्द्रिय विषयों, भोग आसक्तियों की कल्पनाओं से घिर जाता है। हममें से किसी के साथ ऐसा होने का मतलब वैराग्य का अभाव है। जो यह कहते हैं कि हमारा जप में, ध्यान में मन नहीं लगता, तो उन्हें इस सत्य को जान लेना चाहिए कि इसका केवल एक कारण वैराग्य का न होना है।      

  वैराग्य हो कैसे? परम पूज्य गुरुदेव अपनी व्यक्तिगत चर्चाओं में इस बारे में एक ही बात कहते थे- बेटा! वैराग्य का जन्म विवेक के गर्भ से होता है। अभ्यास तो विवेक के बिना भी हो सकता है, पर वैराग्य कभी भी विवेक के बिना नहीं होता। पहले विवेक होगा, तभी वैराग्य सधेगा। विवेक का अर्थ है सही- गलत की ठीक समझ, उचित- अनुचित का सही ज्ञान, नाशवान् और अविनाशी तत्त्व का बोध, सत् और असत् की पहचान। ऐसा होने पर ही वैराग्य सधता है। गुरुदेव कहा करते थे कि कोई व्यक्ति जान- बूझकर जहर नहीं खाता, उसी तरह से कोई भी समझदार आदमी कभी भी विषय भोगों में नहीं उलझता।

                 भगवान् श्री कृष्ण ने भगवद्गीता में साफ तौर पर कहा है- ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।’—गीता ५/२२ अर्थात् इन्द्रियों के स्पर्श से अनुभव होने वाले जो भी भोग है, वे सबके सब दुःख के स्रोत हैं। ये सभी आदि और अन्त वाले होने के कारण नाशवान् हैं। इसलिए विवेकवान् लोग इसमें नहीं रमते। यानि कि जो भी विवेकवान है, वह हर कीमत पर विषय भोगों से दूर रहेगा। प्रकारान्तर से जहाँ विवेक है, वहीं वैराग्य होगा ही। इन दोनों को एक- दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। सम्भव नहीं है—इनमें अलगाव।
           
 भोग चाहे लौकिक हो या अलौकिक, सभी निरर्थक है। अर्थपूर्ण केवल आत्मतत्त्व है। अपने सद्गुरु से प्रेम, ईश्वर से प्रेम ही जीवन का सार तत्त्व है। साधना अभ्यास के लिए हमें वैराग्यवान् एवं ईश्वर परायण होना ही पड़ेगा और इसके लिए जरूरी है, सांसारिक दुःखों का बार- बार चेतन। वैराग्य की सच्ची साधना भगवान् बुद्ध को थी, जिन्होंने सारे राजसी सुखों के बीच रहकर भी यही निष्कर्ष निकाला ‘सब दुख:म्’ - यह सब दुःख ही है। श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- वैराग्य साधना है, तो भगवान् को पुकारो। उनके शब्दों में काशी की ओर जितना बढ़ो, कलकत्ता उतना ही पीछे छूटता है। यानि कि भगवान् की ओर जितना बढ़ोगे- संसार की आसक्ति उतना ही घटेगी। यह साधन वैराग्य जितना सघन होगा, उतना ही हम सिद्धवैराग्य की ओर आगे बढ़ेंगे।       साधना के अभ्यास की पूर्णता के लिए वैराग्य की भी आवश्यकता है। व्यावहारिक जीवन में देखा यह जाता है कि अनेकों प्रयत्नों के बावजूद साधक में चाहत होने पर भी साधना में संवेग नहीं उत्पन्न हो पाता।

       महर्षि पतंजलि अगले सूत्र में स्पष्ट कहते हैं कि साधना में संवेग तब तक नहीं आ पायेगा, जब तक साधक वैराग्य से वंचित है। वैराग्य विहीन साधना में पहले तो गति और संवेग उत्पन्न ही नहीं होता, यदि किसी कारण संकल्प की दृढ़ता पर ऐसा हो भी गया, तो भी इससे मात्र भौतिक प्रयोजन ही पूरे हो पाते हैं। वैराग्य के बिना कैसी भी और कितनी भी साधना क्यों न की जाय, इसे आध्यात्मिक परिणाम नहीं होते। ऐसों को कभी भी आत्म जागृति की अनुभूति नहीं हो पाती। आत्म जागृति एवं आध्यात्मिक सम्पदा की प्राप्ति का एक ही उपाय है- वैराग्य। महर्षि के स्वरों में इस वैराग्य का सूत्र है -
 
  दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥ १/१५॥

शब्दार्थ- दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य= देखे और सुने गये विषयों में सर्वथा तृष्णा रहित चित्त की; वशीकारसंज्ञा = जो वशीकार नामक अवस्था है वह, वैराग्यम् = वैराग्य है।

अर्थात् वैराग्य, निराकांक्षा की ‘वशीकार संज्ञा’ नामक पहली अवस्था है। ऐन्द्रिक सुखों की तृष्णा में सचेतन प्रयास द्वारा भोगासक्ति की समाप्ति।
महर्षि पतंजलि के अनुसार वैराग्य की दो भाव दशाएँ हैं - १. साधन वैराग्य, २. सिद्ध वैराग्य। इन्हें यूँ भी कहा जा सकता है, १. अपर वैराग्य, २. पर वैराग्य। इस साधन वैराग्य या अपर वैराग्य को ही वशीकार संज्ञा दी गयी है। इस का मतलब है—देखे और सुने गए विषयों के प्रति वितृष्णा। इनके प्रति भोगासक्ति का न होना। इन विषय भोगों के लिए मन में गहरी निराकांक्षा। ऐसा होना ही वैराग्य है। इसी से साधना अभ्यास को ऊर्जा मिलती है। प्रकारान्तर से वैराग्य को अभ्यास का ऊर्जा स्रोत भी कहा जा सकता है।

           साधकों के मन में प्रायः जिज्ञासा उठती है कि यह वैराग्य सधे कैसे? अभ्यास तो थोड़ा बहुत जैसे- तैसे हो भी जाता है, परन्तु वैराग्य कहीं से भी नहीं पनपता। माला को पकड़े हुए हाथ मनके भले ही खिसकते रहे, पर मन काम- काज में, बेटी- बेटों में, नाती- पोतों में ही उलझा रहता है। अक्सर देखा यह जाता है कि हर एक की आयु के हिसाब से ये उलझनें अलग- अलग होती हैं। बच्चे अपने साधना अभ्यास के समय कुछ अलग सपने देखते हैं, तो किशोर व युवाओं के ख्वाब कुछ और होते हैं। इन सभी में यदि किसी एक तत्त्व की समानता होती है, तो वह है सभी में भटकाव। जप करते समय, ध्यान करते समय मन यूँ ही भटकता रहता है। रह- रह कर वह इन्द्रिय विषयों, भोग आसक्तियों की कल्पनाओं से घिर जाता है। हममें से किसी के साथ ऐसा होने का मतलब वैराग्य का अभाव है। जो यह कहते हैं कि हमारा जप में, ध्यान में मन नहीं लगता, तो उन्हें इस सत्य को जान लेना चाहिए कि इसका केवल एक कारण वैराग्य का न होना है।      

  वैराग्य हो कैसे? परम पूज्य गुरुदेव अपनी व्यक्तिगत चर्चाओं में इस बारे में एक ही बात कहते थे- बेटा! वैराग्य का जन्म विवेक के गर्भ से होता है। अभ्यास तो विवेक के बिना भी हो सकता है, पर वैराग्य कभी भी विवेक के बिना नहीं होता। पहले विवेक होगा, तभी वैराग्य सधेगा। विवेक का अर्थ है सही- गलत की ठीक समझ, उचित- अनुचित का सही ज्ञान, नाशवान् और अविनाशी तत्त्व का बोध, सत् और असत् की पहचान। ऐसा होने पर ही वैराग्य सधता है। गुरुदेव कहा करते थे कि कोई व्यक्ति जान- बूझकर जहर नहीं खाता, उसी तरह से कोई भी समझदार आदमी कभी भी विषय भोगों में नहीं उलझता।

                 भगवान् श्री कृष्ण ने भगवद्गीता में साफ तौर पर कहा है- ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।’—गीता ५/२२ अर्थात् इन्द्रियों के स्पर्श से अनुभव होने वाले जो भी भोग है, वे सबके सब दुःख के स्रोत हैं। ये सभी आदि और अन्त वाले होने के कारण नाशवान् हैं। इसलिए विवेकवान् लोग इसमें नहीं रमते। यानि कि जो भी विवेकवान है, वह हर कीमत पर विषय भोगों से दूर रहेगा। प्रकारान्तर से जहाँ विवेक है, वहीं वैराग्य होगा ही। इन दोनों को एक- दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। सम्भव नहीं है—इनमें अलगाव।
           
 भोग चाहे लौकिक हो या अलौकिक, सभी निरर्थक है। अर्थपूर्ण केवल आत्मतत्त्व है। अपने सद्गुरु से प्रेम, ईश्वर से प्रेम ही जीवन का सार तत्त्व है। साधना अभ्यास के लिए हमें वैराग्यवान् एवं ईश्वर परायण होना ही पड़ेगा और इसके लिए जरूरी है, सांसारिक दुःखों का बार- बार चेतन। वैराग्य की सच्ची साधना भगवान् बुद्ध को थी, जिन्होंने सारे राजसी सुखों के बीच रहकर भी यही निष्कर्ष निकाला ‘सब दुख:म्’ - यह सब दुःख ही है। श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- वैराग्य साधना है, तो भगवान् को पुकारो। उनके शब्दों में काशी की ओर जितना बढ़ो, कलकत्ता उतना ही पीछे छूटता है। यानि कि भगवान् की ओर जितना बढ़ोगे- संसार की आसक्ति उतना ही घटेगी। यह साधन वैराग्य जितना सघन होगा, उतना ही हम सिद्धवैराग्य की ओर आगे बढ़ेंगे।       साधना के अभ्यास की पूर्णता के लिए वैराग्य की भी आवश्यकता है। व्यावहारिक जीवन में देखा यह जाता है कि अनेकों प्रयत्नों के बावजूद साधक में चाहत होने पर भी साधना में संवेग नहीं उत्पन्न हो पाता।

       महर्षि पतंजलि अगले सूत्र में स्पष्ट कहते हैं कि साधना में संवेग तब तक नहीं आ पायेगा, जब तक साधक वैराग्य से वंचित है। वैराग्य विहीन साधना में पहले तो गति और संवेग उत्पन्न ही नहीं होता, यदि किसी कारण संकल्प की दृढ़ता पर ऐसा हो भी गया, तो भी इससे मात्र भौतिक प्रयोजन ही पूरे हो पाते हैं। वैराग्य के बिना कैसी भी और कितनी भी साधना क्यों न की जाय, इसे आध्यात्मिक परिणाम नहीं होते। ऐसों को कभी भी आत्म जागृति की अनुभूति नहीं हो पाती। आत्म जागृति एवं आध्यात्मिक सम्पदा की प्राप्ति का एक ही उपाय है- वैराग्य। महर्षि के स्वरों में इस वैराग्य का सूत्र है -
 
  दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥ १/१५॥

शब्दार्थ- दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य= देखे और सुने गये विषयों में सर्वथा तृष्णा रहित चित्त की; वशीकारसंज्ञा = जो वशीकार नामक अवस्था है वह, वैराग्यम् = वैराग्य है।

अर्थात् वैराग्य, निराकांक्षा की ‘वशीकार संज्ञा’ नामक पहली अवस्था है। ऐन्द्रिक सुखों की तृष्णा में सचेतन प्रयास द्वारा भोगासक्ति की समाप्ति।
महर्षि पतंजलि के अनुसार वैराग्य की दो भाव दशाएँ हैं - १. साधन वैराग्य, २. सिद्ध वैराग्य। इन्हें यूँ भी कहा जा सकता है, १. अपर वैराग्य, २. पर वैराग्य। इस साधन वैराग्य या अपर वैराग्य को ही वशीकार संज्ञा दी गयी है। इस का मतलब है—देखे और सुने गए विषयों के प्रति वितृष्णा। इनके प्रति भोगासक्ति का न होना। इन विषय भोगों के लिए मन में गहरी निराकांक्षा। ऐसा होना ही वैराग्य है। इसी से साधना अभ्यास को ऊर्जा मिलती है। प्रकारान्तर से वैराग्य को अभ्यास का ऊर्जा स्रोत भी कहा जा सकता है।

           साधकों के मन में प्रायः जिज्ञासा उठती है कि यह वैराग्य सधे कैसे? अभ्यास तो थोड़ा बहुत जैसे- तैसे हो भी जाता है, परन्तु वैराग्य कहीं से भी नहीं पनपता। माला को पकड़े हुए हाथ मनके भले ही खिसकते रहे, पर मन काम- काज में, बेटी- बेटों में, नाती- पोतों में ही उलझा रहता है। अक्सर देखा यह जाता है कि हर एक की आयु के हिसाब से ये उलझनें अलग- अलग होती हैं। बच्चे अपने साधना अभ्यास के समय कुछ अलग सपने देखते हैं, तो किशोर व युवाओं के ख्वाब कुछ और होते हैं। इन सभी में यदि किसी एक तत्त्व की समानता होती है, तो वह है सभी में भटकाव। जप करते समय, ध्यान करते समय मन यूँ ही भटकता रहता है। रह- रह कर वह इन्द्रिय विषयों, भोग आसक्तियों की कल्पनाओं से घिर जाता है। हममें से किसी के साथ ऐसा होने का मतलब वैराग्य का अभाव है। जो यह कहते हैं कि हमारा जप में, ध्यान में मन नहीं लगता, तो उन्हें इस सत्य को जान लेना चाहिए कि इसका केवल एक कारण वैराग्य का न होना है।      

  वैराग्य हो कैसे? परम पूज्य गुरुदेव अपनी व्यक्तिगत चर्चाओं में इस बारे में एक ही बात कहते थे- बेटा! वैराग्य का जन्म विवेक के गर्भ से होता है। अभ्यास तो विवेक के बिना भी हो सकता है, पर वैराग्य कभी भी विवेक के बिना नहीं होता। पहले विवेक होगा, तभी वैराग्य सधेगा। विवेक का अर्थ है सही- गलत की ठीक समझ, उचित- अनुचित का सही ज्ञान, नाशवान् और अविनाशी तत्त्व का बोध, सत् और असत् की पहचान। ऐसा होने पर ही वैराग्य सधता है। गुरुदेव कहा करते थे कि कोई व्यक्ति जान- बूझकर जहर नहीं खाता, उसी तरह से कोई भी समझदार आदमी कभी भी विषय भोगों में नहीं उलझता।

                 भगवान् श्री कृष्ण ने भगवद्गीता में साफ तौर पर कहा है- ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।’—गीता ५/२२ अर्थात् इन्द्रियों के स्पर्श से अनुभव होने वाले जो भी भोग है, वे सबके सब दुःख के स्रोत हैं। ये सभी आदि और अन्त वाले होने के कारण नाशवान् हैं। इसलिए विवेकवान् लोग इसमें नहीं रमते। यानि कि जो भी विवेकवान है, वह हर कीमत पर विषय भोगों से दूर रहेगा। प्रकारान्तर से जहाँ विवेक है, वहीं वैराग्य होगा ही। इन दोनों को एक- दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। सम्भव नहीं है—इनमें अलगाव।
           
 भोग चाहे लौकिक हो या अलौकिक, सभी निरर्थक है। अर्थपूर्ण केवल आत्मतत्त्व है। अपने सद्गुरु से प्रेम, ईश्वर से प्रेम ही जीवन का सार तत्त्व है। साधना अभ्यास के लिए हमें वैराग्यवान् एवं ईश्वर परायण होना ही पड़ेगा और इसके लिए जरूरी है, सांसारिक दुःखों का बार- बार चेतन। वैराग्य की सच्ची साधना भगवान् बुद्ध को थी, जिन्होंने सारे राजसी सुखों के बीच रहकर भी यही निष्कर्ष निकाला ‘सब दुख:म्’ - यह सब दुःख ही है। श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- वैराग्य साधना है, तो भगवान् को पुकारो। उनके शब्दों में काशी की ओर जितना बढ़ो, कलकत्ता उतना ही पीछे छूटता है। यानि कि भगवान् की ओर जितना बढ़ोगे- संसार की आसक्ति उतना ही घटेगी। यह साधन वैराग्य जितना सघन होगा, उतना ही हम सिद्धवैराग्य की ओर आगे बढ़ेंगे।       साधना के अभ्यास की पूर्णता के लिए वैराग्य की भी आवश्यकता है। व्यावहारिक जीवन में देखा यह जाता है कि अनेकों प्रयत्नों के बावजूद साधक में चाहत होने पर भी साधना में संवेग नहीं उत्पन्न हो पाता।

       महर्षि पतंजलि अगले सूत्र में स्पष्ट कहते हैं कि साधना में संवेग तब तक नहीं आ पायेगा, जब तक साधक वैराग्य से वंचित है। वैराग्य विहीन साधना में पहले तो गति और संवेग उत्पन्न ही नहीं होता, यदि किसी कारण संकल्प की दृढ़ता पर ऐसा हो भी गया, तो भी इससे मात्र भौतिक प्रयोजन ही पूरे हो पाते हैं। वैराग्य के बिना कैसी भी और कितनी भी साधना क्यों न की जाय, इसे आध्यात्मिक परिणाम नहीं होते। ऐसों को कभी भी आत्म जागृति की अनुभूति नहीं हो पाती। आत्म जागृति एवं आध्यात्मिक सम्पदा की प्राप्ति का एक ही उपाय है- वैराग्य। महर्षि के स्वरों में इस वैराग्य का सूत्र है -
 
  दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥ १/१५॥

शब्दार्थ- दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य= देखे और सुने गये विषयों में सर्वथा तृष्णा रहित चित्त की; वशीकारसंज्ञा = जो वशीकार नामक अवस्था है वह, वैराग्यम् = वैराग्य है।

अर्थात् वैराग्य, निराकांक्षा की ‘वशीकार संज्ञा’ नामक पहली अवस्था है। ऐन्द्रिक सुखों की तृष्णा में सचेतन प्रयास द्वारा भोगासक्ति की समाप्ति।
महर्षि पतंजलि के अनुसार वैराग्य की दो भाव दशाएँ हैं - १. साधन वैराग्य, २. सिद्ध वैराग्य। इन्हें यूँ भी कहा जा सकता है, १. अपर वैराग्य, २. पर वैराग्य। इस साधन वैराग्य या अपर वैराग्य को ही वशीकार संज्ञा दी गयी है। इस का मतलब है—देखे और सुने गए विषयों के प्रति वितृष्णा। इनके प्रति भोगासक्ति का न होना। इन विषय भोगों के लिए मन में गहरी निराकांक्षा। ऐसा होना ही वैराग्य है। इसी से साधना अभ्यास को ऊर्जा मिलती है। प्रकारान्तर से वैराग्य को अभ्यास का ऊर्जा स्रोत भी कहा जा सकता है।

           साधकों के मन में प्रायः जिज्ञासा उठती है कि यह वैराग्य सधे कैसे? अभ्यास तो थोड़ा बहुत जैसे- तैसे हो भी जाता है, परन्तु वैराग्य कहीं से भी नहीं पनपता। माला को पकड़े हुए हाथ मनके भले ही खिसकते रहे, पर मन काम- काज में, बेटी- बेटों में, नाती- पोतों में ही उलझा रहता है। अक्सर देखा यह जाता है कि हर एक की आयु के हिसाब से ये उलझनें अलग- अलग होती हैं। बच्चे अपने साधना अभ्यास के समय कुछ अलग सपने देखते हैं, तो किशोर व युवाओं के ख्वाब कुछ और होते हैं। इन सभी में यदि किसी एक तत्त्व की समानता होती है, तो वह है सभी में भटकाव। जप करते समय, ध्यान करते समय मन यूँ ही भटकता रहता है। रह- रह कर वह इन्द्रिय विषयों, भोग आसक्तियों की कल्पनाओं से घिर जाता है। हममें से किसी के साथ ऐसा होने का मतलब वैराग्य का अभाव है। जो यह कहते हैं कि हमारा जप में, ध्यान में मन नहीं लगता, तो उन्हें इस सत्य को जान लेना चाहिए कि इसका केवल एक कारण वैराग्य का न होना है।      

  वैराग्य हो कैसे? परम पूज्य गुरुदेव अपनी व्यक्तिगत चर्चाओं में इस बारे में एक ही बात कहते थे- बेटा! वैराग्य का जन्म विवेक के गर्भ से होता है। अभ्यास तो विवेक के बिना भी हो सकता है, पर वैराग्य कभी भी विवेक के बिना नहीं होता। पहले विवेक होगा, तभी वैराग्य सधेगा। विवेक का अर्थ है सही- गलत की ठीक समझ, उचित- अनुचित का सही ज्ञान, नाशवान् और अविनाशी तत्त्व का बोध, सत् और असत् की पहचान। ऐसा होने पर ही वैराग्य सधता है। गुरुदेव कहा करते थे कि कोई व्यक्ति जान- बूझकर जहर नहीं खाता, उसी तरह से कोई भी समझदार आदमी कभी भी विषय भोगों में नहीं उलझता।

                 भगवान् श्री कृष्ण ने भगवद्गीता में साफ तौर पर कहा है- ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।’—गीता ५/२२ अर्थात् इन्द्रियों के स्पर्श से अनुभव होने वाले जो भी भोग है, वे सबके सब दुःख के स्रोत हैं। ये सभी आदि और अन्त वाले होने के कारण नाशवान् हैं। इसलिए विवेकवान् लोग इसमें नहीं रमते। यानि कि जो भी विवेकवान है, वह हर कीमत पर विषय भोगों से दूर रहेगा। प्रकारान्तर से जहाँ विवेक है, वहीं वैराग्य होगा ही। इन दोनों को एक- दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। सम्भव नहीं है—इनमें अलगाव।
           
 भोग चाहे लौकिक हो या अलौकिक, सभी निरर्थक है। अर्थपूर्ण केवल आत्मतत्त्व है। अपने सद्गुरु से प्रेम, ईश्वर से प्रेम ही जीवन का सार तत्त्व है। साधना अभ्यास के लिए हमें वैराग्यवान् एवं ईश्वर परायण होना ही पड़ेगा और इसके लिए जरूरी है, सांसारिक दुःखों का बार- बार चेतन। वैराग्य की सच्ची साधना भगवान् बुद्ध को थी, जिन्होंने सारे राजसी सुखों के बीच रहकर भी यही निष्कर्ष निकाला ‘सब दुख:म्’ - यह सब दुःख ही है। श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- वैराग्य साधना है, तो भगवान् को पुकारो। उनके शब्दों में काशी की ओर जितना बढ़ो, कलकत्ता उतना ही पीछे छूटता है। यानि कि भगवान् की ओर जितना बढ़ोगे- संसार की आसक्ति उतना ही घटेगी। यह साधन वैराग्य जितना सघन होगा, उतना ही हम सिद्धवैराग्य की ओर आगे बढ़ेंगे।       साधना के अभ्यास की पूर्णता के लिए वैराग्य की भी आवश्यकता है। व्यावहारिक जीवन में देखा यह जाता है कि अनेकों प्रयत्नों के बावजूद साधक में चाहत होने पर भी साधना में संवेग नहीं उत्पन्न हो पाता।

       महर्षि पतंजलि अगले सूत्र में स्पष्ट कहते हैं कि साधना में संवेग तब तक नहीं आ पायेगा, जब तक साधक वैराग्य से वंचित है। वैराग्य विहीन साधना में पहले तो गति और संवेग उत्पन्न ही नहीं होता, यदि किसी कारण संकल्प की दृढ़ता पर ऐसा हो भी गया, तो भी इससे मात्र भौतिक प्रयोजन ही पूरे हो पाते हैं। वैराग्य के बिना कैसी भी और कितनी भी साधना क्यों न की जाय, इसे आध्यात्मिक परिणाम नहीं होते। ऐसों को कभी भी आत्म जागृति की अनुभूति नहीं हो पाती। आत्म जागृति एवं आध्यात्मिक सम्पदा की प्राप्ति का एक ही उपाय है- वैराग्य। महर्षि के स्वरों में इस वैराग्य का सूत्र है -
 
  दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥ १/१५॥

शब्दार्थ- दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य= देखे और सुने गये विषयों में सर्वथा तृष्णा रहित चित्त की; वशीकारसंज्ञा = जो वशीकार नामक अवस्था है वह, वैराग्यम् = वैराग्य है।

अर्थात् वैराग्य, निराकांक्षा की ‘वशीकार संज्ञा’ नामक पहली अवस्था है। ऐन्द्रिक सुखों की तृष्णा में सचेतन प्रयास द्वारा भोगासक्ति की समाप्ति।
महर्षि पतंजलि के अनुसार वैराग्य की दो भाव दशाएँ हैं - १. साधन वैराग्य, २. सिद्ध वैराग्य। इन्हें यूँ भी कहा जा सकता है, १. अपर वैराग्य, २. पर वैराग्य। इस साधन वैराग्य या अपर वैराग्य को ही वशीकार संज्ञा दी गयी है। इस का मतलब है—देखे और सुने गए विषयों के प्रति वितृष्णा। इनके प्रति भोगासक्ति का न होना। इन विषय भोगों के लिए मन में गहरी निराकांक्षा। ऐसा होना ही वैराग्य है। इसी से साधना अभ्यास को ऊर्जा मिलती है। प्रकारान्तर से वैराग्य को अभ्यास का ऊर्जा स्रोत भी कहा जा सकता है।

           साधकों के मन में प्रायः जिज्ञासा उठती है कि यह वैराग्य सधे कैसे? अभ्यास तो थोड़ा बहुत जैसे- तैसे हो भी जाता है, परन्तु वैराग्य कहीं से भी नहीं पनपता। माला को पकड़े हुए हाथ मनके भले ही खिसकते रहे, पर मन काम- काज में, बेटी- बेटों में, नाती- पोतों में ही उलझा रहता है। अक्सर देखा यह जाता है कि हर एक की आयु के हिसाब से ये उलझनें अलग- अलग होती हैं। बच्चे अपने साधना अभ्यास के समय कुछ अलग सपने देखते हैं, तो किशोर व युवाओं के ख्वाब कुछ और होते हैं। इन सभी में यदि किसी एक तत्त्व की समानता होती है, तो वह है सभी में भटकाव। जप करते समय, ध्यान करते समय मन यूँ ही भटकता रहता है। रह- रह कर वह इन्द्रिय विषयों, भोग आसक्तियों की कल्पनाओं से घिर जाता है। हममें से किसी के साथ ऐसा होने का मतलब वैराग्य का अभाव है। जो यह कहते हैं कि हमारा जप में, ध्यान में मन नहीं लगता, तो उन्हें इस सत्य को जान लेना चाहिए कि इसका केवल एक कारण वैराग्य का न होना है।      

  वैराग्य हो कैसे? परम पूज्य गुरुदेव अपनी व्यक्तिगत चर्चाओं में इस बारे में एक ही बात कहते थे- बेटा! वैराग्य का जन्म विवेक के गर्भ से होता है। अभ्यास तो विवेक के बिना भी हो सकता है, पर वैराग्य कभी भी विवेक के बिना नहीं होता। पहले विवेक होगा, तभी वैराग्य सधेगा। विवेक का अर्थ है सही- गलत की ठीक समझ, उचित- अनुचित का सही ज्ञान, नाशवान् और अविनाशी तत्त्व का बोध, सत् और असत् की पहचान। ऐसा होने पर ही वैराग्य सधता है। गुरुदेव कहा करते थे कि कोई व्यक्ति जान- बूझकर जहर नहीं खाता, उसी तरह से कोई भी समझदार आदमी कभी भी विषय भोगों में नहीं उलझता।

                 भगवान् श्री कृष्ण ने भगवद्गीता में साफ तौर पर कहा है- ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।’—गीता ५/२२ अर्थात् इन्द्रियों के स्पर्श से अनुभव होने वाले जो भी भोग है, वे सबके सब दुःख के स्रोत हैं। ये सभी आदि और अन्त वाले होने के कारण नाशवान् हैं। इसलिए विवेकवान् लोग इसमें नहीं रमते। यानि कि जो भी विवेकवान है, वह हर कीमत पर विषय भोगों से दूर रहेगा। प्रकारान्तर से जहाँ विवेक है, वहीं वैराग्य होगा ही। इन दोनों को एक- दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। सम्भव नहीं है—इनमें अलगाव।
           
 भोग चाहे लौकिक हो या अलौकिक, सभी निरर्थक है। अर्थपूर्ण केवल आत्मतत्त्व है। अपने सद्गुरु से प्रेम, ईश्वर से प्रेम ही जीवन का सार तत्त्व है। साधना अभ्यास के लिए हमें वैराग्यवान् एवं ईश्वर परायण होना ही पड़ेगा और इसके लिए जरूरी है, सांसारिक दुःखों का बार- बार चेतन। वैराग्य की सच्ची साधना भगवान् बुद्ध को थी, जिन्होंने सारे राजसी सुखों के बीच रहकर भी यही निष्कर्ष निकाला ‘सब दुख:म्’ - यह सब दुःख ही है। श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- वैराग्य साधना है, तो भगवान् को पुकारो। उनके शब्दों में काशी की ओर जितना बढ़ो, कलकत्ता उतना ही पीछे छूटता है। यानि कि भगवान् की ओर जितना बढ़ोगे- संसार की आसक्ति उतना ही घटेगी। यह साधन वैराग्य जितना सघन होगा, उतना ही हम सिद्धवैराग्य की ओर आगे बढ़ेंगे।       साधना के अभ्यास की पूर्णता के लिए वैराग्य की भी आवश्यकता है। व्यावहारिक जीवन में देखा यह जाता है कि अनेकों प्रयत्नों के बावजूद साधक में चाहत होने पर भी साधना में संवेग नहीं उत्पन्न हो पाता।

       महर्षि पतंजलि अगले सूत्र में स्पष्ट कहते हैं कि साधना में संवेग तब तक नहीं आ पायेगा, जब तक साधक वैराग्य से वंचित है। वैराग्य विहीन साधना में पहले तो गति और संवेग उत्पन्न ही नहीं होता, यदि किसी कारण संकल्प की दृढ़ता पर ऐसा हो भी गया, तो भी इससे मात्र भौतिक प्रयोजन ही पूरे हो पाते हैं। वैराग्य के बिना कैसी भी और कितनी भी साधना क्यों न की जाय, इसे आध्यात्मिक परिणाम नहीं होते। ऐसों को कभी भी आत्म जागृति की अनुभूति नहीं हो पाती। आत्म जागृति एवं आध्यात्मिक सम्पदा की प्राप्ति का एक ही उपाय है- वैराग्य। महर्षि के स्वरों में इस वैराग्य का सूत्र है -
 
  दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥ १/१५॥

शब्दार्थ- दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य= देखे और सुने गये विषयों में सर्वथा तृष्णा रहित चित्त की; वशीकारसंज्ञा = जो वशीकार नामक अवस्था है वह, वैराग्यम् = वैराग्य है।

अर्थात् वैराग्य, निराकांक्षा की ‘वशीकार संज्ञा’ नामक पहली अवस्था है। ऐन्द्रिक सुखों की तृष्णा में सचेतन प्रयास द्वारा भोगासक्ति की समाप्ति।
महर्षि पतंजलि के अनुसार वैराग्य की दो भाव दशाएँ हैं - १. साधन वैराग्य, २. सिद्ध वैराग्य। इन्हें यूँ भी कहा जा सकता है, १. अपर वैराग्य, २. पर वैराग्य। इस साधन वैराग्य या अपर वैराग्य को ही वशीकार संज्ञा दी गयी है। इस का मतलब है—देखे और सुने गए विषयों के प्रति वितृष्णा। इनके प्रति भोगासक्ति का न होना। इन विषय भोगों के लिए मन में गहरी निराकांक्षा। ऐसा होना ही वैराग्य है। इसी से साधना अभ्यास को ऊर्जा मिलती है। प्रकारान्तर से वैराग्य को अभ्यास का ऊर्जा स्रोत भी कहा जा सकता है।

           साधकों के मन में प्रायः जिज्ञासा उठती है कि यह वैराग्य सधे कैसे? अभ्यास तो थोड़ा बहुत जैसे- तैसे हो भी जाता है, परन्तु वैराग्य कहीं से भी नहीं पनपता। माला को पकड़े हुए हाथ मनके भले ही खिसकते रहे, पर मन काम- काज में, बेटी- बेटों में, नाती- पोतों में ही उलझा रहता है। अक्सर देखा यह जाता है कि हर एक की आयु के हिसाब से ये उलझनें अलग- अलग होती हैं। बच्चे अपने साधना अभ्यास के समय कुछ अलग सपने देखते हैं, तो किशोर व युवाओं के ख्वाब कुछ और होते हैं। इन सभी में यदि किसी एक तत्त्व की समानता होती है, तो वह है सभी में भटकाव। जप करते समय, ध्यान करते समय मन यूँ ही भटकता रहता है। रह- रह कर वह इन्द्रिय विषयों, भोग आसक्तियों की कल्पनाओं से घिर जाता है। हममें से किसी के साथ ऐसा होने का मतलब वैराग्य का अभाव है। जो यह कहते हैं कि हमारा जप में, ध्यान में मन नहीं लगता, तो उन्हें इस सत्य को जान लेना चाहिए कि इसका केवल एक कारण वैराग्य का न होना है।      

  वैराग्य हो कैसे? परम पूज्य गुरुदेव अपनी व्यक्तिगत चर्चाओं में इस बारे में एक ही बात कहते थे- बेटा! वैराग्य का जन्म विवेक के गर्भ से होता है। अभ्यास तो विवेक के बिना भी हो सकता है, पर वैराग्य कभी भी विवेक के बिना नहीं होता। पहले विवेक होगा, तभी वैराग्य सधेगा। विवेक का अर्थ है सही- गलत की ठीक समझ, उचित- अनुचित का सही ज्ञान, नाशवान् और अविनाशी तत्त्व का बोध, सत् और असत् की पहचान। ऐसा होने पर ही वैराग्य सधता है। गुरुदेव कहा करते थे कि कोई व्यक्ति जान- बूझकर जहर नहीं खाता, उसी तरह से कोई भी समझदार आदमी कभी भी विषय भोगों में नहीं उलझता।

                 भगवान् श्री कृष्ण ने भगवद्गीता में साफ तौर पर कहा है- ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।’—गीता ५/२२ अर्थात् इन्द्रियों के स्पर्श से अनुभव होने वाले जो भी भोग है, वे सबके सब दुःख के स्रोत हैं। ये सभी आदि और अन्त वाले होने के कारण नाशवान् हैं। इसलिए विवेकवान् लोग इसमें नहीं रमते। यानि कि जो भी विवेकवान है, वह हर कीमत पर विषय भोगों से दूर रहेगा। प्रकारान्तर से जहाँ विवेक है, वहीं वैराग्य होगा ही। इन दोनों को एक- दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। सम्भव नहीं है—इनमें अलगाव।
           
 भोग चाहे लौकिक हो या अलौकिक, सभी निरर्थक है। अर्थपूर्ण केवल आत्मतत्त्व है। अपने सद्गुरु से प्रेम, ईश्वर से प्रेम ही जीवन का सार तत्त्व है। साधना अभ्यास के लिए हमें वैराग्यवान् एवं ईश्वर परायण होना ही पड़ेगा और इसके लिए जरूरी है, सांसारिक दुःखों का बार- बार चेतन। वैराग्य की सच्ची साधना भगवान् बुद्ध को थी, जिन्होंने सारे राजसी सुखों के बीच रहकर भी यही निष्कर्ष निकाला ‘सब दुख:म्’ - यह सब दुःख ही है। श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- वैराग्य साधना है, तो भगवान् को पुकारो। उनके शब्दों में काशी की ओर जितना बढ़ो, कलकत्ता उतना ही पीछे छूटता है। यानि कि भगवान् की ओर जितना बढ़ोगे- संसार की आसक्ति उतना ही घटेगी। यह साधन वैराग्य जितना सघन होगा, उतना ही हम सिद्धवैराग्य की ओर आगे बढ़ेंगे।       साधना के अभ्यास की पूर्णता के लिए वैराग्य की भी आवश्यकता है। व्यावहारिक जीवन में देखा यह जाता है कि अनेकों प्रयत्नों के बावजूद साधक में चाहत होने पर भी साधना में संवेग नहीं उत्पन्न हो पाता।

       महर्षि पतंजलि अगले सूत्र में स्पष्ट कहते हैं कि साधना में संवेग तब तक नहीं आ पायेगा, जब तक साधक वैराग्य से वंचित है। वैराग्य विहीन साधना में पहले तो गति और संवेग उत्पन्न ही नहीं होता, यदि किसी कारण संकल्प की दृढ़ता पर ऐसा हो भी गया, तो भी इससे मात्र भौतिक प्रयोजन ही पूरे हो पाते हैं। वैराग्य के बिना कैसी भी और कितनी भी साधना क्यों न की जाय, इसे आध्यात्मिक परिणाम नहीं होते। ऐसों को कभी भी आत्म जागृति की अनुभूति नहीं हो पाती। आत्म जागृति एवं आध्यात्मिक सम्पदा की प्राप्ति का एक ही उपाय है- वैराग्य। महर्षि के स्वरों में इस वैराग्य का सूत्र है -
 
  दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥ १/१५॥

शब्दार्थ- दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य= देखे और सुने गये विषयों में सर्वथा तृष्णा रहित चित्त की; वशीकारसंज्ञा = जो वशीकार नामक अवस्था है वह, वैराग्यम् = वैराग्य है।

अर्थात् वैराग्य, निराकांक्षा की ‘वशीकार संज्ञा’ नामक पहली अवस्था है। ऐन्द्रिक सुखों की तृष्णा में सचेतन प्रयास द्वारा भोगासक्ति की समाप्ति।
महर्षि पतंजलि के अनुसार वैराग्य की दो भाव दशाएँ हैं - १. साधन वैराग्य, २. सिद्ध वैराग्य। इन्हें यूँ भी कहा जा सकता है, १. अपर वैराग्य, २. पर वैराग्य। इस साधन वैराग्य या अपर वैराग्य को ही वशीकार संज्ञा दी गयी है। इस का मतलब है—देखे और सुने गए विषयों के प्रति वितृष्णा। इनके प्रति भोगासक्ति का न होना। इन विषय भोगों के लिए मन में गहरी निराकांक्षा। ऐसा होना ही वैराग्य है। इसी से साधना अभ्यास को ऊर्जा मिलती है। प्रकारान्तर से वैराग्य को अभ्यास का ऊर्जा स्रोत भी कहा जा सकता है।

           साधकों के मन में प्रायः जिज्ञासा उठती है कि यह वैराग्य सधे कैसे? अभ्यास तो थोड़ा बहुत जैसे- तैसे हो भी जाता है, परन्तु वैराग्य कहीं से भी नहीं पनपता। माला को पकड़े हुए हाथ मनके भले ही खिसकते रहे, पर मन काम- काज में, बेटी- बेटों में, नाती- पोतों में ही उलझा रहता है। अक्सर देखा यह जाता है कि हर एक की आयु के हिसाब से ये उलझनें अलग- अलग होती हैं। बच्चे अपने साधना अभ्यास के समय कुछ अलग सपने देखते हैं, तो किशोर व युवाओं के ख्वाब कुछ और होते हैं। इन सभी में यदि किसी एक तत्त्व की समानता होती है, तो वह है सभी में भटकाव। जप करते समय, ध्यान करते समय मन यूँ ही भटकता रहता है। रह- रह कर वह इन्द्रिय विषयों, भोग आसक्तियों की कल्पनाओं से घिर जाता है। हममें से किसी के साथ ऐसा होने का मतलब वैराग्य का अभाव है। जो यह कहते हैं कि हमारा जप में, ध्यान में मन नहीं लगता, तो उन्हें इस सत्य को जान लेना चाहिए कि इसका केवल एक कारण वैराग्य का न होना है।      

  वैराग्य हो कैसे? परम पूज्य गुरुदेव अपनी व्यक्तिगत चर्चाओं में इस बारे में एक ही बात कहते थे- बेटा! वैराग्य का जन्म विवेक के गर्भ से होता है। अभ्यास तो विवेक के बिना भी हो सकता है, पर वैराग्य कभी भी विवेक के बिना नहीं होता। पहले विवेक होगा, तभी वैराग्य सधेगा। विवेक का अर्थ है सही- गलत की ठीक समझ, उचित- अनुचित का सही ज्ञान, नाशवान् और अविनाशी तत्त्व का बोध, सत् और असत् की पहचान। ऐसा होने पर ही वैराग्य सधता है। गुरुदेव कहा करते थे कि कोई व्यक्ति जान- बूझकर जहर नहीं खाता, उसी तरह से कोई भी समझदार आदमी कभी भी विषय भोगों में नहीं उलझता।

                 भगवान् श्री कृष्ण ने भगवद्गीता में साफ तौर पर कहा है- ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।’—गीता ५/२२ अर्थात् इन्द्रियों के स्पर्श से अनुभव होने वाले जो भी भोग है, वे सबके सब दुःख के स्रोत हैं। ये सभी आदि और अन्त वाले होने के कारण नाशवान् हैं। इसलिए विवेकवान् लोग इसमें नहीं रमते। यानि कि जो भी विवेकवान है, वह हर कीमत पर विषय भोगों से दूर रहेगा। प्रकारान्तर से जहाँ विवेक है, वहीं वैराग्य होगा ही। इन दोनों को एक- दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। सम्भव नहीं है—इनमें अलगाव।
           
 भोग चाहे लौकिक हो या अलौकिक, सभी निरर्थक है। अर्थपूर्ण केवल आत्मतत्त्व है। अपने सद्गुरु से प्रेम, ईश्वर से प्रेम ही जीवन का सार तत्त्व है। साधना अभ्यास के लिए हमें वैराग्यवान् एवं ईश्वर परायण होना ही पड़ेगा और इसके लिए जरूरी है, सांसारिक दुःखों का बार- बार चेतन। वैराग्य की सच्ची साधना भगवान् बुद्ध को थी, जिन्होंने सारे राजसी सुखों के बीच रहकर भी यही निष्कर्ष निकाला ‘सब दुख:म्’ - यह सब दुःख ही है। श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- वैराग्य साधना है, तो भगवान् को पुकारो। उनके शब्दों में काशी की ओर जितना बढ़ो, कलकत्ता उतना ही पीछे छूटता है। यानि कि भगवान् की ओर जितना बढ़ोगे- संसार की आसक्ति उतना ही घटेगी। यह साधन वैराग्य जितना सघन होगा, उतना ही हम सिद्धवैराग्य की ओर आगे बढ़ेंगे।       साधना के अभ्यास की पूर्णता के लिए वैराग्य की भी आवश्यकता है। व्यावहारिक जीवन में देखा यह जाता है कि अनेकों प्रयत्नों के बावजूद साधक में चाहत होने पर भी साधना में संवेग नहीं उत्पन्न हो पाता।

       महर्षि पतंजलि अगले सूत्र में स्पष्ट कहते हैं कि साधना में संवेग तब तक नहीं आ पायेगा, जब तक साधक वैराग्य से वंचित है। वैराग्य विहीन साधना में पहले तो गति और संवेग उत्पन्न ही नहीं होता, यदि किसी कारण संकल्प की दृढ़ता पर ऐसा हो भी गया, तो भी इससे मात्र भौतिक प्रयोजन ही पूरे हो पाते हैं। वैराग्य के बिना कैसी भी और कितनी भी साधना क्यों न की जाय, इसे आध्यात्मिक परिणाम नहीं होते। ऐसों को कभी भी आत्म जागृति की अनुभूति नहीं हो पाती। आत्म जागृति एवं आध्यात्मिक सम्पदा की प्राप्ति का एक ही उपाय है- वैराग्य। महर्षि के स्वरों में इस वैराग्य का सूत्र है -
 
  दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥ १/१५॥

शब्दार्थ- दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य= देखे और सुने गये विषयों में सर्वथा तृष्णा रहित चित्त की; वशीकारसंज्ञा = जो वशीकार नामक अवस्था है वह, वैराग्यम् = वैराग्य है।

अर्थात् वैराग्य, निराकांक्षा की ‘वशीकार संज्ञा’ नामक पहली अवस्था है। ऐन्द्रिक सुखों की तृष्णा में सचेतन प्रयास द्वारा भोगासक्ति की समाप्ति।
महर्षि पतंजलि के अनुसार वैराग्य की दो भाव दशाएँ हैं - १. साधन वैराग्य, २. सिद्ध वैराग्य। इन्हें यूँ भी कहा जा सकता है, १. अपर वैराग्य, २. पर वैराग्य। इस साधन वैराग्य या अपर वैराग्य को ही वशीकार संज्ञा दी गयी है। इस का मतलब है—देखे और सुने गए विषयों के प्रति वितृष्णा। इनके प्रति भोगासक्ति का न होना। इन विषय भोगों के लिए मन में गहरी निराकांक्षा। ऐसा होना ही वैराग्य है। इसी से साधना अभ्यास को ऊर्जा मिलती है। प्रकारान्तर से वैराग्य को अभ्यास का ऊर्जा स्रोत भी कहा जा सकता है।

           साधकों के मन में प्रायः जिज्ञासा उठती है कि यह वैराग्य सधे कैसे? अभ्यास तो थोड़ा बहुत जैसे- तैसे हो भी जाता है, परन्तु वैराग्य कहीं से भी नहीं पनपता। माला को पकड़े हुए हाथ मनके भले ही खिसकते रहे, पर मन काम- काज में, बेटी- बेटों में, नाती- पोतों में ही उलझा रहता है। अक्सर देखा यह जाता है कि हर एक की आयु के हिसाब से ये उलझनें अलग- अलग होती हैं। बच्चे अपने साधना अभ्यास के समय कुछ अलग सपने देखते हैं, तो किशोर व युवाओं के ख्वाब कुछ और होते हैं। इन सभी में यदि किसी एक तत्त्व की समानता होती है, तो वह है सभी में भटकाव। जप करते समय, ध्यान करते समय मन यूँ ही भटकता रहता है। रह- रह कर वह इन्द्रिय विषयों, भोग आसक्तियों की कल्पनाओं से घिर जाता है। हममें से किसी के साथ ऐसा होने का मतलब वैराग्य का अभाव है। जो यह कहते हैं कि हमारा जप में, ध्यान में मन नहीं लगता, तो उन्हें इस सत्य को जान लेना चाहिए कि इसका केवल एक कारण वैराग्य का न होना है।      

  वैराग्य हो कैसे? परम पूज्य गुरुदेव अपनी व्यक्तिगत चर्चाओं में इस बारे में एक ही बात कहते थे- बेटा! वैराग्य का जन्म विवेक के गर्भ से होता है। अभ्यास तो विवेक के बिना भी हो सकता है, पर वैराग्य कभी भी विवेक के बिना नहीं होता। पहले विवेक होगा, तभी वैराग्य सधेगा। विवेक का अर्थ है सही- गलत की ठीक समझ, उचित- अनुचित का सही ज्ञान, नाशवान् और अविनाशी तत्त्व का बोध, सत् और असत् की पहचान। ऐसा होने पर ही वैराग्य सधता है। गुरुदेव कहा करते थे कि कोई व्यक्ति जान- बूझकर जहर नहीं खाता, उसी तरह से कोई भी समझदार आदमी कभी भी विषय भोगों में नहीं उलझता।

                 भगवान् श्री कृष्ण ने भगवद्गीता में साफ तौर पर कहा है- ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।’—गीता ५/२२ अर्थात् इन्द्रियों के स्पर्श से अनुभव होने वाले जो भी भोग है, वे सबके सब दुःख के स्रोत हैं। ये सभी आदि और अन्त वाले होने के कारण नाशवान् हैं। इसलिए विवेकवान् लोग इसमें नहीं रमते। यानि कि जो भी विवेकवान है, वह हर कीमत पर विषय भोगों से दूर रहेगा। प्रकारान्तर से जहाँ विवेक है, वहीं वैराग्य होगा ही। इन दोनों को एक- दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। सम्भव नहीं है—इनमें अलगाव।
           
 भोग चाहे लौकिक हो या अलौकिक, सभी निरर्थक है। अर्थपूर्ण केवल आत्मतत्त्व है। अपने सद्गुरु से प्रेम, ईश्वर से प्रेम ही जीवन का सार तत्त्व है। साधना अभ्यास के लिए हमें वैराग्यवान् एवं ईश्वर परायण होना ही पड़ेगा और इसके लिए जरूरी है, सांसारिक दुःखों का बार- बार चेतन। वैराग्य की सच्ची साधना भगवान् बुद्ध को थी, जिन्होंने सारे राजसी सुखों के बीच रहकर भी यही निष्कर्ष निकाला ‘सब दुख:म्’ - यह सब दुःख ही है। श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- वैराग्य साधना है, तो भगवान् को पुकारो। उनके शब्दों में काशी की ओर जितना बढ़ो, कलकत्ता उतना ही पीछे छूटता है। यानि कि भगवान् की ओर जितना बढ़ोगे- संसार की आसक्ति उतना ही घटेगी। यह साधन वैराग्य जितना सघन होगा, उतना ही हम सिद्धवैराग्य की ओर आगे बढ़ेंगे।       साधना के अभ्यास की पूर्णता के लिए वैराग्य की भी आवश्यकता है। व्यावहारिक जीवन में देखा यह जाता है कि अनेकों प्रयत्नों के बावजूद साधक में चाहत होने पर भी साधना में संवेग नहीं उत्पन्न हो पाता।

       महर्षि पतंजलि अगले सूत्र में स्पष्ट कहते हैं कि साधना में संवेग तब तक नहीं आ पायेगा, जब तक साधक वैराग्य से वंचित है। वैराग्य विहीन साधना में पहले तो गति और संवेग उत्पन्न ही नहीं होता, यदि किसी कारण संकल्प की दृढ़ता पर ऐसा हो भी गया, तो भी इससे मात्र भौतिक प्रयोजन ही पूरे हो पाते हैं। वैराग्य के बिना कैसी भी और कितनी भी साधना क्यों न की जाय, इसे आध्यात्मिक परिणाम नहीं होते। ऐसों को कभी भी आत्म जागृति की अनुभूति नहीं हो पाती। आत्म जागृति एवं आध्यात्मिक सम्पदा की प्राप्ति का एक ही उपाय है- वैराग्य। महर्षि के स्वरों में इस वैराग्य का सूत्र है -
 
  दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥ १/१५॥

शब्दार्थ- दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य= देखे और सुने गये विषयों में सर्वथा तृष्णा रहित चित्त की; वशीकारसंज्ञा = जो वशीकार नामक अवस्था है वह, वैराग्यम् = वैराग्य है।

अर्थात् वैराग्य, निराकांक्षा की ‘वशीकार संज्ञा’ नामक पहली अवस्था है। ऐन्द्रिक सुखों की तृष्णा में सचेतन प्रयास द्वारा भोगासक्ति की समाप्ति।
महर्षि पतंजलि के अनुसार वैराग्य की दो भाव दशाएँ हैं - १. साधन वैराग्य, २. सिद्ध वैराग्य। इन्हें यूँ भी कहा जा सकता है, १. अपर वैराग्य, २. पर वैराग्य। इस साधन वैराग्य या अपर वैराग्य को ही वशीकार संज्ञा दी गयी है। इस का मतलब है—देखे और सुने गए विषयों के प्रति वितृष्णा। इनके प्रति भोगासक्ति का न होना। इन विषय भोगों के लिए मन में गहरी निराकांक्षा। ऐसा होना ही वैराग्य है। इसी से साधना अभ्यास को ऊर्जा मिलती है। प्रकारान्तर से वैराग्य को अभ्यास का ऊर्जा स्रोत भी कहा जा सकता है।

           साधकों के मन में प्रायः जिज्ञासा उठती है कि यह वैराग्य सधे कैसे? अभ्यास तो थोड़ा बहुत जैसे- तैसे हो भी जाता है, परन्तु वैराग्य कहीं से भी नहीं पनपता। माला को पकड़े हुए हाथ मनके भले ही खिसकते रहे, पर मन काम- काज में, बेटी- बेटों में, नाती- पोतों में ही उलझा रहता है। अक्सर देखा यह जाता है कि हर एक की आयु के हिसाब से ये उलझनें अलग- अलग होती हैं। बच्चे अपने साधना अभ्यास के समय कुछ अलग सपने देखते हैं, तो किशोर व युवाओं के ख्वाब कुछ और होते हैं। इन सभी में यदि किसी एक तत्त्व की समानता होती है, तो वह है सभी में भटकाव। जप करते समय, ध्यान करते समय मन यूँ ही भटकता रहता है। रह- रह कर वह इन्द्रिय विषयों, भोग आसक्तियों की कल्पनाओं से घिर जाता है। हममें से किसी के साथ ऐसा होने का मतलब वैराग्य का अभाव है। जो यह कहते हैं कि हमारा जप में, ध्यान में मन नहीं लगता, तो उन्हें इस सत्य को जान लेना चाहिए कि इसका केवल एक कारण वैराग्य का न होना है।      

  वैराग्य हो कैसे? परम पूज्य गुरुदेव अपनी व्यक्तिगत चर्चाओं में इस बारे में एक ही बात कहते थे- बेटा! वैराग्य का जन्म विवेक के गर्भ से होता है। अभ्यास तो विवेक के बिना भी हो सकता है, पर वैराग्य कभी भी विवेक के बिना नहीं होता। पहले विवेक होगा, तभी वैराग्य सधेगा। विवेक का अर्थ है सही- गलत की ठीक समझ, उचित- अनुचित का सही ज्ञान, नाशवान् और अविनाशी तत्त्व का बोध, सत् और असत् की पहचान। ऐसा होने पर ही वैराग्य सधता है। गुरुदेव कहा करते थे कि कोई व्यक्ति जान- बूझकर जहर नहीं खाता, उसी तरह से कोई भी समझदार आदमी कभी भी विषय भोगों में नहीं उलझता।

                 भगवान् श्री कृष्ण ने भगवद्गीता में साफ तौर पर कहा है- ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।’—गीता ५/२२ अर्थात् इन्द्रियों के स्पर्श से अनुभव होने वाले जो भी भोग है, वे सबके सब दुःख के स्रोत हैं। ये सभी आदि और अन्त वाले होने के कारण नाशवान् हैं। इसलिए विवेकवान् लोग इसमें नहीं रमते। यानि कि जो भी विवेकवान है, वह हर कीमत पर विषय भोगों से दूर रहेगा। प्रकारान्तर से जहाँ विवेक है, वहीं वैराग्य होगा ही। इन दोनों को एक- दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। सम्भव नहीं है—इनमें अलगाव।
           
 भोग चाहे लौकिक हो या अलौकिक, सभी निरर्थक है। अर्थपूर्ण केवल आत्मतत्त्व है। अपने सद्गुरु से प्रेम, ईश्वर से प्रेम ही जीवन का सार तत्त्व है। साधना अभ्यास के लिए हमें वैराग्यवान् एवं ईश्वर परायण होना ही पड़ेगा और इसके लिए जरूरी है, सांसारिक दुःखों का बार- बार चेतन। वैराग्य की सच्ची साधना भगवान् बुद्ध को थी, जिन्होंने सारे राजसी सुखों के बीच रहकर भी यही निष्कर्ष निकाला ‘सब दुख:म्’ - यह सब दुःख ही है। श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- वैराग्य साधना है, तो भगवान् को पुकारो। उनके शब्दों में काशी की ओर जितना बढ़ो, कलकत्ता उतना ही पीछे छूटता है। यानि कि भगवान् की ओर जितना बढ़ोगे- संसार की आसक्ति उतना ही घटेगी। यह साधन वैराग्य जितना सघन होगा, उतना ही हम सिद्धवैराग्य की ओर आगे बढ़ेंगे।       साधना के अभ्यास की पूर्णता के लिए वैराग्य की भी आवश्यकता है। व्यावहारिक जीवन में देखा यह जाता है कि अनेकों प्रयत्नों के बावजूद साधक में चाहत होने पर भी साधना में संवेग नहीं उत्पन्न हो पाता।

       महर्षि पतंजलि अगले सूत्र में स्पष्ट कहते हैं कि साधना में संवेग तब तक नहीं आ पायेगा, जब तक साधक वैराग्य से वंचित है। वैराग्य विहीन साधना में पहले तो गति और संवेग उत्पन्न ही नहीं होता, यदि किसी कारण संकल्प की दृढ़ता पर ऐसा हो भी गया, तो भी इससे मात्र भौतिक प्रयोजन ही पूरे हो पाते हैं। वैराग्य के बिना कैसी भी और कितनी भी साधना क्यों न की जाय, इसे आध्यात्मिक परिणाम नहीं होते। ऐसों को कभी भी आत्म जागृति की अनुभूति नहीं हो पाती। आत्म जागृति एवं आध्यात्मिक सम्पदा की प्राप्ति का एक ही उपाय है- वैराग्य। महर्षि के स्वरों में इस वैराग्य का सूत्र है -
 
  दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥ १/१५॥

शब्दार्थ- दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य= देखे और सुने गये विषयों में सर्वथा तृष्णा रहित चित्त की; वशीकारसंज्ञा = जो वशीकार नामक अवस्था है वह, वैराग्यम् = वैराग्य है।

अर्थात् वैराग्य, निराकांक्षा की ‘वशीकार संज्ञा’ नामक पहली अवस्था है। ऐन्द्रिक सुखों की तृष्णा में सचेतन प्रयास द्वारा भोगासक्ति की समाप्ति।
महर्षि पतंजलि के अनुसार वैराग्य की दो भाव दशाएँ हैं - १. साधन वैराग्य, २. सिद्ध वैराग्य। इन्हें यूँ भी कहा जा सकता है, १. अपर वैराग्य, २. पर वैराग्य। इस साधन वैराग्य या अपर वैराग्य को ही वशीकार संज्ञा दी गयी है। इस का मतलब है—देखे और सुने गए विषयों के प्रति वितृष्णा। इनके प्रति भोगासक्ति का न होना। इन विषय भोगों के लिए मन में गहरी निराकांक्षा। ऐसा होना ही वैराग्य है। इसी से साधना अभ्यास को ऊर्जा मिलती है। प्रकारान्तर से वैराग्य को अभ्यास का ऊर्जा स्रोत भी कहा जा सकता है।

           साधकों के मन में प्रायः जिज्ञासा उठती है कि यह वैराग्य सधे कैसे? अभ्यास तो थोड़ा बहुत जैसे- तैसे हो भी जाता है, परन्तु वैराग्य कहीं से भी नहीं पनपता। माला को पकड़े हुए हाथ मनके भले ही खिसकते रहे, पर मन काम- काज में, बेटी- बेटों में, नाती- पोतों में ही उलझा रहता है। अक्सर देखा यह जाता है कि हर एक की आयु के हिसाब से ये उलझनें अलग- अलग होती हैं। बच्चे अपने साधना अभ्यास के समय कुछ अलग सपने देखते हैं, तो किशोर व युवाओं के ख्वाब कुछ और होते हैं। इन सभी में यदि किसी एक तत्त्व की समानता होती है, तो वह है सभी में भटकाव। जप करते समय, ध्यान करते समय मन यूँ ही भटकता रहता है। रह- रह कर वह इन्द्रिय विषयों, भोग आसक्तियों की कल्पनाओं से घिर जाता है। हममें से किसी के साथ ऐसा होने का मतलब वैराग्य का अभाव है। जो यह कहते हैं कि हमारा जप में, ध्यान में मन नहीं लगता, तो उन्हें इस सत्य को जान लेना चाहिए कि इसका केवल एक कारण वैराग्य का न होना है।      

  वैराग्य हो कैसे? परम पूज्य गुरुदेव अपनी व्यक्तिगत चर्चाओं में इस बारे में एक ही बात कहते थे- बेटा! वैराग्य का जन्म विवेक के गर्भ से होता है। अभ्यास तो विवेक के बिना भी हो सकता है, पर वैराग्य कभी भी विवेक के बिना नहीं होता। पहले विवेक होगा, तभी वैराग्य सधेगा। विवेक का अर्थ है सही- गलत की ठीक समझ, उचित- अनुचित का सही ज्ञान, नाशवान् और अविनाशी तत्त्व का बोध, सत् और असत् की पहचान। ऐसा होने पर ही वैराग्य सधता है। गुरुदेव कहा करते थे कि कोई व्यक्ति जान- बूझकर जहर नहीं खाता, उसी तरह से कोई भी समझदार आदमी कभी भी विषय भोगों में नहीं उलझता।

                 भगवान् श्री कृष्ण ने भगवद्गीता में साफ तौर पर कहा है- ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।’—गीता ५/२२ अर्थात् इन्द्रियों के स्पर्श से अनुभव होने वाले जो भी भोग है, वे सबके सब दुःख के स्रोत हैं। ये सभी आदि और अन्त वाले होने के कारण नाशवान् हैं। इसलिए विवेकवान् लोग इसमें नहीं रमते। यानि कि जो भी विवेकवान है, वह हर कीमत पर विषय भोगों से दूर रहेगा। प्रकारान्तर से जहाँ विवेक है, वहीं वैराग्य होगा ही। इन दोनों को एक- दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। सम्भव नहीं है—इनमें अलगाव।
           
 भोग चाहे लौकिक हो या अलौकिक, सभी निरर्थक है। अर्थपूर्ण केवल आत्मतत्त्व है। अपने सद्गुरु से प्रेम, ईश्वर से प्रेम ही जीवन का सार तत्त्व है। साधना अभ्यास के लिए हमें वैराग्यवान् एवं ईश्वर परायण होना ही पड़ेगा और इसके लिए जरूरी है, सांसारिक दुःखों का बार- बार चेतन। वैराग्य की सच्ची साधना भगवान् बुद्ध को थी, जिन्होंने सारे राजसी सुखों के बीच रहकर भी यही निष्कर्ष निकाला ‘सब दुख:म्’ - यह सब दुःख ही है। श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- वैराग्य साधना है, तो भगवान् को पुकारो। उनके शब्दों में काशी की ओर जितना बढ़ो, कलकत्ता उतना ही पीछे छूटता है। यानि कि भगवान् की ओर जितना बढ़ोगे- संसार की आसक्ति उतना ही घटेगी। यह साधन वैराग्य जितना सघन होगा, उतना ही हम सिद्धवैराग्य की ओर आगे बढ़ेंगे।
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