शरतचन्द्र के एक उपन्यास की नायिका नायक से यह प्रश्न करती है—‘‘जितने भी कर्तव्य हैं, दाम्पत्य की जितनी भी मर्यादाएं हैं, वे क्या केवल स्त्रियों के लिए ही हैं। पुरुष जिस स्त्री को वैदिक मंत्रों से ब्याह कर लाता है उस स्त्री के प्रति क्या उसका यही कर्तव्य रह जाता है कि वह बेंत के जोर से उसके अधिकार छीन सकता है और क्या कर्तव्य की सारी जिम्मेदारी पत्नी पर ही बनी रहती है।’’ यह प्रश्न न केवल नायक से किया गया है वरन् नायक के माध्यम से पूरे पुरुष समाज से किया गया है। आमतौर पर हम देखते हैं कि पारिवारिक जीवन में पुरुष ने अपने लिए असीमित अधिकार सुरक्षित कर रखे हैं पर पत्नियों के जिम्मे सेवा, बच्चों का लालन-पालन, चौका-चूल्हा से लेकर निष्ठा-वफादारी। और कर्तव्य परायणता की अपेक्षाएं जुड़ी ही रहती हैं, जबकि अधिकारों के नाम पर उसके पास नाम मात्र को भी कोई निर्णय लेने की छूट नहीं रहती।
तो अनायास ही यह प्रश्न उठता है कि क्या सभी कर्तव्य स्त्रियों के लिए हैं और अधिकारों के उपयोग की क्षमता केवल पुरुषों के पास ही है। ‘भारतीय पारिवारिक जीवन के सम्बन्ध में किसी विचारक ने कहा है—प्रत्येक भारतीय पुरुष अपने लिए सीता, सावित्री के समान पत्नी चाहता है पर खेद है कि राम और सत्यवान कोई भी बनने को तैयार नहीं।’
सीता-सावित्री की अपेक्षा नारी के सतीत्व को लेकर ही की जाती है। जैसे एक मात्र यही दाम्पत्य जीवन की पात्रता हो। पारिवारिक जीवन में शील, सतीत्व का महत्व तो है पर उसके लिए अन्य बातों की उपेक्षा कर देना, यहां तक कि पुरुष द्वारा अपनी शीलता-शुचिता को महत्वहीन मानना पारिवारिक संस्था के लिए बहुत हानिकारक सिद्ध हुआ है। होना तो यह चाहिए कि पति-पत्नी दोनों ही शीलवान और पत्नीव्रती तथा पतिव्रती हों, पर स्त्री पर ही इसका सारा कर्तव्य छोड़ देने से पुरुष अपनी ओर कम ध्यान देने लगा। नारी की परतंत्रता का यहीं से आरम्भ हुआ। पत्नी और साथी से हटकर वह दासी तथा सेविका यहीं से समझी जाने लगी जबकि उसके निष्ठा का अपना कर्तव्य भी पुरुष ने छोड़ दिया।
अपने कर्तव्यों और स्त्री के अन्य गुणों की ओर से ध्यान कम कर या हटाकर उसकी निष्ठा पर ही सारा जोर दे डालने का अर्थ तो यह है कि परिवार का निर्माण केवल सन्तानोत्पादन के लिए ही किया जाता है। आजकल के अर्थों में लें तो विवाह का उद्देश्य केवल काम सेवन ही है। कहने का अर्थ यह नहीं है कि सन्तानोत्पादन का विवाह से-दाम्पत्य जीवन से कोई सम्बन्ध ही नहीं है। सन्तानोत्पादन परिवार बसाने का एक उद्देश्य तो है पर सम्पूर्ण उद्देश्य वही नहीं है। बल्कि सम्पूर्ण उद्देश्य तो इतना ऊंचा है कि उसके सामने सन्तानोत्पादन एक छोटा-सा ही अर्थ प्राप्त कर सकता है।
विवाह का सम्पूर्ण उद्देश्य सेवा, प्रेम, त्याग और सहिष्णुता का सम्बन्ध है। माता-पिता से पुत्र के प्रगाढ़ सम्बन्ध होते हैं, उसके बाद पुरुष का सर्वाधिक प्रगाढ़ सम्बन्ध अपनी पत्नी से ही होता है। स्त्री के सम्बन्ध में भी यही सिद्धान्त लागू होता है। एक अर्थ में तो पति-पत्नी के सम्बन्ध माता पिता के सम्बन्धों से भी अधिक प्रगाढ़ और आत्मिक होते हैं क्योंकि बचपन और किशोरावस्था में पढ़ा लिखा देने के बाद अभिभावकों के संरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं रहती। आजकल माता-पिता से अधिकांश संबंध यहीं आकर निवृत्त हो जाते हैं। इसके लिए केवल सन्तान को ही दोषी ठहराना अनुचित होगा। परिस्थितियां कुछ ऐसी बनती जा रही हैं कि युवक आत्म निर्भर होने के बाद संरक्षण की कम, साथी और मित्र की आवश्यकता अधिक अनुभव करते हैं। जबकि माता-पिता जो कभी संरक्षक रहे हैं अपनी सन्तानों से मित्रवत व्यवहार करना अपनी प्रतिष्ठा का अपमान समझते हैं। भारतीय संस्कृति ने तो इस तथ्य की ओर इंगित करते हुए पहले से ही कह रखा है कि 16 वर्ष की आयु के बाद पुत्र को एक मित्र की दृष्टि से देखना चाहिए।
पति-पत्नी के प्रगाढ़ आत्मीय सम्बन्धों का एक कारण यह है कि वे जितने निकट, जितने खुले हुए और परस्पर त्याग से अपना जीवन प्रारम्भ करते हैं उतना शायद ही अन्य सम्बन्धों में होता है। पत्नी अपना परिवार, माता-पिता, भाई-बहन और सहेलियां छोड़कर पति के पास आती है तथा सर्वस्व सौंप देती है। अब प्रतिदान स्वरूप पुरुष को भी आत्म समर्पण करना चाहिए। परन्तु प्रतिदान के स्थान पर पुरुष आक्रमण कर बैठता है और पत्नी को भी अपनी सम्पत्ति बना लेता है।
पत्नी को सम्पत्ति समझने की बात पिछड़ेपन और असभ्य युग की द्योतक है। पर आज का आधुनिक और प्रगतिशील समाज इसी छलना को जी रहा है। पहली छलना तो यही है कि हम विवाह का अर्थ केवल काम सेवन ही समझते हैं।
काम वासना के नियंत्रण मात्र का उद्देश्य लेकर विवाह करना—एकांगी ही नहीं उपहासास्पद भी है। इसी उपहासास्पद प्रक्रिया को सदियों से अपनाया जाता रहा है और विवाह के महान उद्देश्यों की ओर से आंखें मूंदी जा रही हैं। कहा जा चुका है कि इसी कारण स्त्री को दासी बनाने का रिवाज चला। स्त्री से ही पतिव्रत धर्म की अपेक्षा करना और पुरुष के इस निष्ठा से बचे रहने का कारण कोई वर्णसंकरता उत्पन्न न होने देने तथा प्रगाढ़ प्रेम सम्बन्ध बनाये रखने की सतर्कता नहीं है। वहां तो केवल ‘यही’ भावना रहती है कि पत्नी मेरी दासी है, अतः उस पर केवल मेरा अधिकार है। वह मेरी सम्पत्ति है किसी और के उपभोग में क्यों आए?
प्रश्न उठता है कि पतिव्रत धर्म को क्या निरस्त कर दिया जाय? ऐसा करना तो भूल को सुधारने के लिए दूसरी और बड़ी भूल करने जैसा है। पतिव्रत धर्म न तो अनावश्यक है और न अवांछनीय। अनावश्यक और अवांछनीय तो यह है कि पुरुष इस कर्तव्य से पलायन करता है। यदि समाज में स्वस्थ वातावरण बनाए रखने के लिए ही यह मर्यादा रखी गई है तो स्त्री से भी अधिक पुरुषों के लिए यह अनिवार्य की जानी चाहिए। क्योंकि स्त्रियां कोई बलात्कार नहीं करतीं, किसी को पथभ्रष्ट नहीं करतीं, किसी पुरुष को यौन मर्यादाओं का उल्लंघन करने के लिए प्रेरित नहीं करतीं। यह बात विज्ञान सिद्ध है कि स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा कामुकता नहीं के बराबर रहती है। जो कुछ रहती है वह भी प्रकृति की प्रेरणावश और वह भी एक बच्चे के हो जाने के बाद समाप्त हो जाती है। अपवाद स्वरूप कोई स्त्री इसके लिए बदनाम भी है तो स्मरणीय है कि उसे पथभ्रष्ट करने में पुरुष ही कारण रहा है।
पुरुष अपनी पत्नी पर तो कामुक अत्याचार करता ही है, घर से बाहर भी गन्दगी का वातावरण बनाता है। कामुकता, लम्पटता, व्यभिचार, शीलहरण, बलात्कार के जितने भी सामाजिक और कानूनी अपराध हैं उनकी गिरफ्त में पुरुष ही आता है। स्त्री से एक बार पतिव्रत धर्म पालन की अपेक्षा न भी की जाय और केवल पुरुष ही पत्नी व्रती रहना आवश्यक समझ लें तथा रहने लगें तो कोई कारण नहीं है कि समाज में गन्दगी फैले।
यौन जीवन में एक निष्ठा के मामले में पुरुष ने स्वयं को कर्तव्य पालन से तो छूट दे ही रखी है, गार्हस्थ जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी वह अपनी चालाकी से बच निकलने के लिए कम नहीं है। बच्चों को सम्भालने, खाना बनाने, घर के बीमार सदस्यों की देखरेख करने आदि के सभी दायित्व स्त्री पर ही तो हैं। पुरुष इन कार्यों को करना अहम प्रश्न समझता है। परस्पर आत्म समर्पण के आधार पर आरम्भ किए दाम्पत्य जीवन का आनन्द उठाया जा सकता है अर्थात् स्त्री पतिव्रता रहे पर पुरुष को भी पत्नी व्रती बनना ही होगा।