पत्नी का सम्मान गृहस्थ का उत्थान

पुरुष अपना कर्तव्य निबाहें

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यह तथ्य भली प्रकार हृदयंगम कर लिया जाना चाहिए कि हजार वर्ष के अज्ञानान्धकार युग की फैलाई गई विकृतियों को, अवांछनीयताओं को, साफ करने के लिए ऐसी मजबूत झाडू चाहिए जो कचरे के ढेर को कुरेदने, उखाड़ने, हटाने में समर्थ हो सके। यह झाडू एक-दो सीकों से नहीं बनेगी, उसमें सैकड़ों तीलियों का सम्मिलित सहयोग होना चाहिए। इतना महत्वपूर्ण किन्तु इतना कठिन प्रयोजन संघ शक्ति का उदय किए बिना और किसी भी तरह सम्भव नहीं हो सकता। छुटपुट वैयक्तिक प्रयत्नों की कुछ बूंदें इस जलते तवे को ठण्डा करने में कुछ कारगर सिद्ध न होंगी। इस दावानल को शांत करने के लिए घटाओं की अनवरत बूंद-वर्षा ही कारगर होगी। नारी को पद दलित स्थिति से उबारकर उसको सहज स्वाभाविक उच्च स्थान पर पहुंचाने के युगान्तरीय प्रयत्न संघ के सहारे ही सफल हो सकेंगे।
राष्ट्र के स्वतंत्रता आन्दोलन में लाखों ने बलिदान दिए, पर जो अग्रणी रहे, यश उन्हीं को दिया जाता रहा, श्रेय उन्हीं ने पाया। यह उचित भी था, वातावरण बनाने, आगे रहने और शुभारंभ कराने में असाधारण आत्म-बल चाहिए। उपहास, व्यंग, असहयोग और विरोध रहते हुए भी जो बढ़े, वे मनस्वी इसी योग्य हैं कि उन्हें भरपूर सराहा जाय। चलती गाड़ी पर तो कोई भी सवार हो सकता है। बहती नदी में तो तिनका भी बहने लगता है।
आरंभ यहीं से होना है कि जाग्रत आत्माएं स्वयं आगे बढ़ें। अपने साहस का परिचय अपने निजी परिवार में उस तरह का वातावरण बनाकर दें, जिसकी मांग नवयुग ने प्रत्येक विवेकशील और न्यायनिष्ठ व्यक्ति से की है। घर परिवार में नारी को उचित सम्मान और सहकार मिलना चाहिए। उन्हें अपने पिछड़ेपन से पिण्ड छुड़ाने और आगे बढ़ने के लिए अवसर देना चाहिए और साधन जुटाने चाहिए, साथ ही उस संघ शक्ति के साथ मिलकर नई चेतना ग्रहण करने और नई प्रेरणा प्रस्तुत कर सकने की स्थिति में पहुंचना चाहिए। इसके लिए यह आवश्यक है कि वह अभियान में सम्मिलित होकर बहुत कुछ पाने और बहुत कुछ देने का दुहरा लाभ प्राप्त कर सकें। उन्हें महिला जागरण अभियान की सदस्या बनने से लेकर प्रत्येक साप्ताहिक सत्संग में सम्मिलित हो सकने की सुविधा दी जानी चाहिए। वस्तुस्थिति से परिचित न होने के और झिझक एवं आत्महीनता से ग्रसित होने के कारण यदि उनमें इसके लिए आवश्यक उत्साह एवं साहस न हो तो नारी को यह देना प्रत्येक विवेकशील पुरुष का काम है।
इसके लिए पुरुष वर्ग को अपने दृष्टिकोण में मौलिक परिवर्तन करना होगा। परिवर्तन हुआ, इसके कुछ महत्वपूर्ण चिह्न प्रकट होने चाहिए। दृष्टिकोण बदला, इसके कुछ प्रमाण प्रस्तुत होने चाहिए। हमारे घरों में पिछली रीति-नीति में प्रारंभिक परिवर्तन यह होना चाहिए कि पुरुष वर्ग अपने घर की स्त्रियों को घूंघट की निरर्थकता समझाएं। स्वयं आगे बढ़कर धीरे-धीरे करके उसे कम करते चलने और जैसे-जैसे बड़े-बूढ़ों को सह्य होता चले, वैसे-वैसे उसे समाप्त कर देने का प्रोत्साहन दें। पर्दे के प्रतिबन्ध से मुक्त हुए बिना नारी संगठन की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति नहीं कर सकती।
हर विचारशील व्यक्ति अपने-अपने घरों में महिलाओं को प्रेरित करे, यह आवश्यक तो है, किन्तु इतना मात्र पर्याप्त नहीं। कार्य बड़ा है इसलिए उसे बड़े पैमाने पर ही करना होगा। इसके लिए संगठित रूप से प्रयास किए जाने चाहिए। बड़े कार्य सदा संगठित रूप से ही होते रहे हैं। भगवान राम ने लंका विजय के लिए रीछ वानरों की सेना संगठित की थी। भगवान कृष्ण ने गोवर्धन उठाने के लिए ग्वालबालों को लाठी का सहारा लगाने के लिए सहमत किया था। महाभारत लड़ने के लिए कृष्ण ने सुदूर देशों के शक्तिशाली लोगों की सेनाएं पाण्डवों के पक्ष में खड़ी की थीं। समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी के लिए साधन जुटाने के लिए सैकड़ों महावीर स्थान बनाए और प्रयुक्त किए थे। गुरु गोविन्द सिंह ने एक बड़ी सेना संगठित की थी। जन मानस का परिष्कार करने के लिए भगवान बुद्ध ने लाखों भिक्षु-भिक्षुणी एकत्रित एवं प्रशिक्षित किए थे। महात्मा गांधी ने सत्याग्रह संग्राम लोक शक्ति को साथ लेकर ही जीता था।
नारी पुनरुत्थान जैसे आधी जनसंख्या को गहरे गर्त में से उठाकर प्रगति के उच्च शिखर तक पहुंचाने का कार्य संगठित शक्ति से ही हो सकता है। विशालकाय क्रेन से ही उतना बड़ा वजन उठेगा। यह क्रेन लोकशक्ति का सामूहिक उपयोग संगठित करने से ही बनेगी।
शक्ति का उद्भव किए बिना और कोई मार्ग नहीं। इस संघशक्ति का सृजन कर सकना पूर्णतया पुरुष के ही हाथ में है। नारियां घरों में कैद हैं, उन्हें इतनी सुविधा नहीं कि घर-घर जाकर संगठन का शंख बजा सकें। फिर उनमें उतनी योग्यता एवं कुशलता भी कहां रह गई है। अनुभव के अभाव में साधारण कार्य भी ठीक तरह पूरा नहीं हो सकता, फिर नारी संगठन तो बहुत ही कठिन कार्य है। घर के कामों से ही फुरसत नहीं, फिर संगठन के लिए समय कौन निकालेगी? जहां बिना संरक्षक के घर की देहरी पार करना जुर्म समझा जाता है, वहां घर-घर जाकर संगठन का कार्य कैसे हो सकेगा। फिर जिन घरों में वे जायेंगी वहीं आशंका की दृष्टि से देखा जायगा। कोई हमारे घरों की औरतों को बहकाने तो नहीं आया है, यह सोचकर संगठनकर्ताओं की उपेक्षा और अवज्ञा ही होगी। नारी स्वयं भी दबी हुई और सभीत है। घर के लोगों की अप्रसन्नता का एक और कारण खड़ा करने का वे कैसे साहस कर सकेंगी? पहले से ही आये दिन डांट-डपट के अनेक आधार खड़े रहते हैं, फिर एक और नया कारण उसमें क्यों जोड़ा जाय? ऐसे अनेक कारण हैं जिनकी वजह से न नारियां संगठन के लिए घर घर जा सकती हैं और न जिन घरों में वे जाएंगी वहां उन्हें स्वागत-सहयोग मिल सकता है। यदि नारी के जिम्मे नारी संगठन का, नव जागरण अभियान के लिए अभीष्ट क्रिया-प्रक्रिया आरम्भ करने का काम छोड़ दिया गया तो समझना चाहिए कि वह सम्भावना ही समाप्त हो गई।
नवयुग की सर्वोपरि मांग पूरी करने के लिए प्रत्येक पुरुष को अपने घरों की नारियों को ही महिला जागरण अभियान की संघ शक्ति में सम्मिलित होने के लिए, आगे धकेलना चाहिए। उन्हें उसकी उपयोगिता, आवश्यकता और प्रतिक्रिया से परिचित कराना चाहिए। संगठन के लिए उत्साह पैदा करने से पूर्व उन्हें कठिनाई से ही नव जागरण का सन्देश समझाया जा सकेगा। जिस बात की उन्होंने कभी कल्पना तक नहीं की, जिस सम्बन्ध में कभी सुना-समझा-देखा भी नहीं, उसके लिए एकाएक तत्पर कर लेना बहुत कठिन है। पहली कठिनाई यही है, जिसे हल करके संगठन के लिए दूसरा कदम उठेगा।
पुरुष पर्दे के पीछे रहें और अपने घरों की स्त्रियों को नव जागरण की भूमिका निभाने के लिए प्रोत्साहन दें, प्रशिक्षित करें और घसीट-पकड़ कर मोर्चे पर खड़ा कर दें। उनके लिए आवश्यक परिस्थितियां उत्पन्न करें और सुविधा जुटाएं, तभी यह आशा की जा सकेगी कि अभीष्ट संघ शक्ति का उद्भव हो सकेगा। संघ शक्ति के सहारे ही यह संभव है कि सुविस्तृत क्षेत्र में फैली हुई सघन निशा जैसी अवांछनीयता को कम समय में निरस्त किया जा सकेगा। व्यक्तिगत, एकाकी और पृथक-पृथक प्रयत्न चलते रहेंगे तो उनका परिणाम नगण्य होगा। इतने बड़े कार्य के लिए जनशक्ति का साधन जुटाये बिना और कोई उपाय हो नहीं सकता, इसलिए इस दिशा में कारगर कदम उठाए जाने में तनिक भी विलम्ब नहीं किया जाना चाहिए।

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