पत्नी का सम्मान गृहस्थ का उत्थान

क्या बड़प्पन के लिए पुरुष ही एकाधिकृत है

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परिवार में घर गृहस्थी की आवश्यकताएं पूरी करने और निर्वाहोपयोगी उपार्जन करने का कार्य पुरुष को सम्हालना पड़ता है। इस कारण उसका व्यक्तित्व और कार्य क्षेत्र घर परिवार के साथ-साथ बाहर भी बंट जाता है। सम्भवतः यही एक मात्र कारण है कि पुरुष को परिवार में प्रमुख और मुखिया की प्रतिष्ठा मिली हो। लेकिन परिवार के सन्दर्भ में यह भी विचारणीय है कि उसका प्रमुख अंग मुखिया ही नहीं है—एक गृहिणी भी है, जो परिवार की आन्तरिक व्यवस्था को सम्हालती है, घर के सभी सदस्यों की आवश्यकताएं देखती-भालती है। उसे भी समुचित प्रतिष्ठा और महत्व दिया जाना चाहिए ताकि गृहस्थ रूपी गाड़ी के दोनों पहिए एक धुरी पर समानान्तर रूप से टिके और चलते रहें। लेकिन ऐसा होता नहीं है। पिछली शताब्दियों में भारतीय परिवारों का ढांचा कुछ इस प्रकार का बन गया है कि उसमें स्त्री को गौण और पुरुष को प्रधान माना जाने लगा।
स्त्री-पुरुष की असमान प्रतिष्ठा के कारण गृहस्थी की गाड़ी किसी प्रकार चलती भले ही रहे पर वह चलती कम, घिसटती ही अधिक है। प्रसिद्ध अंग्रेज लेखिका मार्गरेट ब्लेयर जान्सन का यह मत? ऐसी परिस्थितियों में स्त्रियों को अपना दायित्व भली-भांति निभाने में अक्षम होने लगने का कारण व्यक्त करता है ‘‘पुरुष का प्यार उसके जीवन का एक हिस्सा है पर वह स्त्री का पूरा जीवन ही है।’’
पुरुष का कार्यक्षेत्र घर की चहारदीवारी से बाहर ही अधिक रहता है, पर स्त्री के लिए जीवन और परिवार इस प्रकार एकाकार हो जाते हैं कि उसके लिए परिवार से पृथक् कुछ रह ही नहीं जाता। परिवार के सदस्यों की आवश्यकताओं से लेकर उनकी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखने और बच्चों को जन्म देने की उनका पालन-पोषण करने की समस्त जिम्मेदारियां स्त्री पर ही अधिक रहती हैं। भारतीय मनीषियों ने इस तथ्य को भली-भांति जाना है। इसीलिए स्त्री शब्द का पर्याय गृहिणी है पर पुरुष के लिए वैसा कोई शब्द नहीं है। स्पष्ट है कि भारतीय महिलाओं का जीवन ही परिवार के निर्माण और विकास का महत्वपूर्ण दायित्व निभाने की आवश्यकता को ध्यान में रखकर संवारा जाता था, जबकि पुरुष के लिए अन्य क्षेत्र सौंपे जाते थे। उस समय की स्थिति के अनुकूल भी था यह। पर परिवार में स्त्रियों के दायित्वों की गम्भीरता आज भी उसी प्रकार बनी हुई है। यही कारण कहा जा सकता है कि जहां अन्य देशों में परिवार संस्था टूटने से लोगों का सामाजिक जीवन भी अस्त-व्यस्त होता रहा है, वहीं भारतवर्ष में परिवार आज भी अपनी गौरव गरिमा के अनुरूप सुदृढ़ स्थिति में हैं।
इस स्थिति का श्रेय स्त्रियों को, गृहिणियों को ही दिया जाना चाहिए। पर पुरुष के अहं ने वहां भी अपनी मान्यता का सिक्का स्त्री के अस्तित्व पर ही लगा दिया जबकि वह परिवार की एक ही आवश्यकता पूरी करता है और परम्परागत रूप से स्त्रियों पर एक ही दायित्व नहीं डाला गया है। हालांकि आज के समय में तो कई पढ़ी-लिखी महिलायें और मजदूर स्त्रियां भी परिवार की आर्थिक आवश्यकताएं पूरी करने में सक्रिय सहयोग देती हैं, लेकिन फिर भी पुरुष प्रधान समाज में अपने अहं को ही प्रमुखता देकर पुरुष ने सारा सम्मान, सारी प्रतिष्ठा स्वयं ही हथिया ली और नारी के लिए छोड़ दिया दासी का—सेविका का स्थान, जिसके बदले में उसे कोई अधिकार देने के स्थान पर उसके मन में यह बात बिठा दी गई कि पुरुष के बिना उसका जीवन तिल भर भी आगे नहीं बढ़ सकता और उसे पुरुष के इस उपकार के लिए कृतज्ञ होना चाहिए।
बड़प्पन पर, प्रतिष्ठा पर अपना अधिकार जमाए रहने की बात इससे स्पष्ट हो जाती है कि भारतीय परिवारों में पुरुष ने स्वयं को अन्तिम सत्ता और सर्वोत्तम मान्यता के आधार पर अब भी प्रतिष्ठित कर रखा है। बाल्यकाल से ही भेदभाव का ही नहीं, दुराव-छलाव का यह कुचक्र चल पड़ता है। घर में एक पुत्र का जन्म होता है तो यह मान कर खुशियां मनाई और मिठाई बांटी जाने लगती हैं कि वंश का नाम चलाने वाला, कुल की शान बढ़ाने वाला एक दीपक जाग उठा है और कन्या जन्म लेती है तो कई लोग छाती पीट लेते हैं कि जन्म भर के लिए एक ऐसी समस्या खड़ी हो गई है जिसके लिए मरने तक चिन्ता करनी पड़ेगी। उसकी योग्यता पढ़ाने-लिखाने और जीवन के लिए आवश्यक विषयों का ज्ञान प्राप्त कराने में नहीं, घरेलू काम काज में दक्ष बनाने के रूप में आंकी जाती है। कुछ अर्थों में इतना सब होता तो भी कोई खास बात नहीं थी। प्रश्न तो तब और ज्वलंत रूप से उठ खड़ा हो जाता है, जब घरेलू काम काजों का अर्थ केवल खाना बनाने, कपड़े साफ करने और बर्तन मांजने तक ही सीमित कर दिया जाता है।
इस आधार पर भी कन्या और पुत्र के लिए सुविधाएं देने और मूल्यांकन करने में भेदभाव बरता जाता है कि लड़की तो पराया धन है। उसे पढ़ाने-लिखाने की क्या आवश्यकता और उसे अच्छा खिलाने-पिलाने, पहनाने-ओढ़ाने का भी लाड़ क्यों किया जाय। आखिर उसे तो पराए घर ही जाना है। जबकि असली बात यह है कि न तो कन्या अन्तिम समय की साथी होती है और न पुत्र ही। आज के समय में, बदलते सन्दर्भों के युग में वृद्ध अभिभावक अपने पुत्रों द्वारा की गई उपेक्षा-अवहेलना के रूप में इस तथ्य को भली-भांति देख परख रहा है।
पराए धन और दूसरे घर की शोभा के रूप में भी उसकी प्रतिष्ठा बन जाती या स्थान सुरक्षित हो जाता तो भी कुछ सन्तोष किया जा सकता था। लड़कियां बहू बनकर ससुराल जाती हैं तो उस घर के पुरुष सदस्यों से लेकर महिलाएं तक अपनी आत्मीयता नहीं बरत पातीं। वे समझती हैं कि रोटी-कपड़े के बदले में एक सस्ती दासी मिल गई है, जो जीवन भर उनकी या उनकी न सही उनके पुत्रों की चाकरी करेगी। परिवार के अन्य लोग तो अस्वाभाविक रूप से बहू के आगमन को लेते ही हैं, स्वयं पति भी उसे स्वाभाविक रूप में कहां ग्रहण कर पाता है। वह समझता है कि उसे सेवा के लिए एक चाकर के साथ-साथ अपनी काम वासना की तृप्ति के लिए भी एक खिलौना मिल गया। बाहर से चाहे जो कुछ भी दिखाई देता हो, आन्तरिक और मानसिक स्थिति कुछ और ही होती है। वर्चस् यहां भी पुरुष ही अपना बनाए रखते हैं।
वर्तमान में, जबकि महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन तीव्रता के साथ आवश्यक अनुभव किया जा रहा है, तो सर्व प्रथम पुरुष को ही अपना कुण्ठित अहं से प्रेरित दुराग्रह पूर्ण रवैया बदलना होगा। पति-विवाहित स्त्री का सर्वाधिक निकटतम और अन्तरंग पुरुष साथी है। अतएव उनके संबंधों की सूक्ष्मताओं को भलीभांति जान लेना चाहिए। उदाहरण के लिए कई पति ऐसे होंगे जो यह मानते हैं कि घर में अवकाश का समय व्यतीत करने की आवश्यकता क्या है और पत्नी को दुःख है भी किस बात का। मैं अच्छे पैसे कमाता हूं। सुविधाजनक मकान है। बच्चे हैं, इनके अलावा उसे और क्या चाहिए। इन सबके रहते हुए हम छुट्टी का समय कहीं मौज मस्ती में न उड़ाकर बच्चों की चिल्लपों सुनते रहें इसकी क्या आवश्यकता है। ‘‘इसका अर्थ है उपलब्ध सुविधा साधन पत्नी के लिए ही हैं और उसे उनमें ही सन्तुष्ट रहना चाहिए क्योंकि उसके लिए काफी हैं ये सब। तो पत्नी के लिए वह सब तो पर्याप्त है पर चूंकि पति महोदय परिवार में विशिष्ट व्यक्ति हैं इसलिए उनके सन्तोष और आनन्द का केन्द्र, आवश्यकताएं तथा रुचियां भी परिवार के सामान्य सदस्यों और पत्नी से भिन्न होना चाहिए।’’
पुरुष की स्वमान्य विशिष्ट प्रतिष्ठा को सिद्ध करने के लिए उपरोक्त कथन पर्याप्त है। जिसका आशय है पति की रुचि पत्नी से भिन्न होनी ही चाहिए तथा उसे पत्नी की भावनात्मक अपेक्षाओं को समझने की भी आवश्यकता नहीं है। दम्पत्ति की दो शरीर एक प्राण से उपमा दी जाती है। लेकिन अधिकांश दम्पत्तियों के पारस्परिक संबंधों में यह उपमा फलितार्थ नहीं होती। विवाह के कुछ दिनों बाद तक पति पत्नी की हर इच्छा को पूरा करने में उत्साह दर्शाता है, उसे सब प्रकार से सुखी रखना चाहता है। लेकिन एक दो बच्चे होने पर वह सारा उत्साह और सारे प्रयत्न शिथिल हो जाते हैं। इसका कारण सम्बन्धों में कोई नई बात का पैदा हो जाना नहीं है। वस्तुतः तो नववधू के प्रति सारा ध्यान वासनात्मक आकर्षण और कामेच्छा तृप्ति का उत्कोच (रिश्वत) ही है, जो आगे चलकर मन्द पड़ जाने पर उदासीनता धारण कर लेता है। अन्यथा नव वधू से प्रेम और जन्म जन्मान्तरों तक के सम्बन्ध रखने की कसमें खाने वाला पति अपनी पत्नी को शैक्षणिक दृष्टि से योग्य बनाने का कितना प्रयत्न करता है? उसकी क्षमताओं के विकास में कितनी रुचि लेता है?
नव दम्पत्तियों के आकर्षण और प्रारंभिक संबंधों की यह स्थिति है पर पुरुष मूल रूप में यहां भी अपने अहं को ही महत्व देता है। नव वधू के स्वास्थ्य, शक्ति और क्षमता के प्रति निश्चिंत रहकर अपनी तुष्टि को ही प्रधानता दी जाती है और घर की बड़ी बुजुर्ग औरतें भी सदा की परम्परा के अनुसार लम्पट और दुराचारी पति को भी देवता मानने की प्रेरणा दिया करती हैं। बाजार में या दोस्तों के साथ पति कितने ही गुलछर्रे उड़ा रहा हो पर पत्नी को भोजन तभी करना चाहिए जब पति थाली से उठ जाए। भले ही वह दोपहर को बारह बजे खाना खाये या अपराह्न तीन बजे। अपने पहने हुए कपड़े धोने की इल्लत भी पुरुष ने पत्नी के गले मढ़ दी, बटन टांकने, मोजे ठीक करने, कपड़ों पर इस्तरी करने और जूतों को साफ रखने की जिम्मेदारी के साथ पति दतौन के समय पानी का लोटा लाने का काम भी पत्नी पर छोड़ दिया करता है। स्त्री के जीवन में पति के घर पर भी क्या सुख और क्या सन्तोष! पिता के घर पर पराया धन बन कर जीयी तो पति के घर पराई बेटी बनकर रहने की विवशता। हर क्षेत्र में पुरुष ने उसका शोषण करने तथा अपने अहं को तुष्ट करने की धृष्टता की है।
स्थिति के रूप में स्त्री यदि परिवार में दूसरे दर्जे का सदस्य बनकर रहती है तो अधिकार के क्षेत्र में भी उसकी यही बात है। परिवार में पुरुष सदस्य अपने या अन्य सदस्यों के लिए स्वतंत्र निर्णय ले सकते हैं। परन्तु वह अधिकार स्त्री को नहीं है। चाहे जब उसकी आवाज को दबाया जा सकता है, उसकी आकांक्षा को कुचला जा सकता है, उसकी आवश्यकताओं की उपेक्षा की जा सकती है। पुरुष समाज की एक स्वतंत्र इकाई हो सकता है तो स्त्री के संबंध में यही बात स्वीकार करने के लिए क्या अड़चन होनी चाहिए। उसे जिम्मेदार तो ठहराया जाता है पर अधिकार सम्पन्न नहीं माना जाता। विवाह के बाद स्वनिर्भर पुत्र अपनी पत्नी को लेकर अलग हो जाता है तो भी अपने बेटे को दूध का धुला और बहू को सारे अनर्थों की खान निःसंकोच घोषित कर दिया जाता है, जबकि बहू बेचारी अपने मन का खाना बनाने के लिए भी स्वतंत्र नहीं है। इसके लिए भी पति से पूछना पड़ेगा और अलग होने का निर्णय अकेले बहू का ही तो नहीं होता, पुत्र भी समान रूप से सहमत हो तभी यह बात बनती है। अक्सर तो बहू विघटन के मामलों में तटस्थ ही रहती है। उन्मुक्त जीवन में पुत्र ही अड़चन अनुभव करते हैं तभी अलग होने की बात सोचते हैं और सारा दोष बहू के मत्थे आ जाता है।
पत्नी को इतना भी तो अधिकार नहीं है कि वह मां बनने के लिए पहले से सहमत हो सके। प्रायः ही अधिक सन्तानें पत्नियों के प्रति किए गये अत्याचार से जन्म लेती हैं, जबकि प्रसव वेदना सहने से लेकर उसे पालने पोसने तक का काम उसी के सिर पर आता है। परिवार से संबंधित प्रत्येक विषय में पत्नी को-स्त्री को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है, जबकि महत्वपूर्ण भूमिका उसी की होती है, उसे सारे काम भले ही अनमनेपन से करने पड़ते हों, यही कारण है परिवारों की शांति नष्ट होने और सुव्यवस्था बिगड़ने का। पुरुषों को इस सम्बन्ध में समझदारी से काम लेना चाहिए तथा पत्नी को भी अपने समान स्तर का उत्तरदायी सदस्य मान कर उसे समुचित प्रतिष्ठा देनी चाहिए। उसकी योग्यता का लाभ परिवार के बसाने में ही नहीं, उसका निर्माण करने में भी उठाना चाहिए, क्योंकि समाज का विकास स्त्री-पुरुषों की शोषित और शोषक सम्बन्धों पर नहीं, मित्र और साथी के सम्बन्धों पर ही निर्भर है।

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