कोई भी स्थिति या अवस्था प्रत्यक्ष लाभदायक तथा उपयोगी सिद्ध होती हो और वह आसानी से बिना कुछ अधिक श्रम किए लाई जा सके, फिर भी उस ओर ध्यान न दिया जाता हो तो यह सबसे बड़ी मूर्खता होगी। उदाहरण के लिए घर में बने हुए शांत और अच्छे वातावरण को केवल इस हठ के कारण नष्ट-भ्रष्ट किया जाय कि इससे घर वालों पर अपना रौब जमेगा तो यह अमृत में विष घोलने जैसी कुचेष्टा ही होगी। केवल रौब जमाने के लिए ठीक तरह से काम कर रहे घर के सदस्यों को तंग करना और वहां की शान्ति नष्ट करना उद्दण्डता नहीं, व्यक्ति की विक्षिप्तता का भी परिचायक होगा। सब लोग इस तरह विक्षिप्त न हों, पर नारी की जो स्थिति है, उसकी दयनीय और दुर्भाग्यपूर्ण दुर्दशा है, उसके कारणों पर विचार किया जाय तो तमाम पुरुषों पर इस तरह की कलंक कालिमा पुती हुई है।
नारी की वर्तमान स्थिति दयनीय और दुर्भाग्यपूर्ण है, इसमें कोई दो राय नहीं है। दयनीय तो इसलिए कि उसे मनुष्योचित अधिकारों से वंचित कर दिया गया है। पशुओं की तरह उसके गले में जंजीर, पांवों में बेड़ियां और चार दीवारी में कैद रहने के प्रतिबन्ध हैं और दुर्भाग्य इसलिए कि सब तरह से उस पर लगे प्रतिबन्धों का अनौचित्य सिद्ध होने के बाद भी उन्हें स्वाभाविक ही समझा जा रहा है। सब जानते हैं कि नारी-योग्यता, प्रतिभा, क्षमता और सामर्थ्य में पुरुष से किसी भी तरह उन्नीस नहीं है, फिर भी उसे घर तक ही सीमित रहने, बच्चे पैदा करने और घर की रखवाली करने भर के लिए उपयोगी समझा जाता है। इतिहास, घटनाओं और विचारों से भी उसकी क्षमताओं को परिचय मिलने के बावजूद भी उसे न जाने क्यों विकसित नहीं होने दिया जाता? प्रत्येक व्यक्ति यह अनुभव करता है कि नारी उसकी सहयोगी बनने के स्थान पर उसके लिए एक अनचाहा और उबाऊ बोझ ही सिद्ध होती है। पूछा जाना चाहिए कि सहयोगी को बोझ बना लेने के लिए जिम्मेदार कौन है? प्रायः लोग रटा-रटाया उत्तर देते हैं कि यह हमेशा से चला आ रहा है।
पहली बात तो यह है कि इस तरह के उत्तर में अपनी कमजोरियों को ही ढोया जाता है। अन्यथा प्राचीनकाल से यह स्थिति और परम्परा रूप में नारी का दर्शन इसी रूप में होता तो भी क्या हम प्राचीनकाल की सभी बातों को इसी कारण चलते रहने दे रहे हैं कि वे पुरानी हैं। आश्रम धर्म, संस्कार, यज्ञ, कर्मकाण्ड, दान, समाज-व्यवस्था आदि के प्राचीन रूप अब लुप्त होते जा रहे हैं और लोग इसी में प्रगति का गौरव मानते हैं। प्राचीन होने की बात यहां तो आड़े नहीं आती, फिर नारी के सम्बन्ध में ही उसकी दुहाई क्यों दी जाने लगती है?
विवेक की दृष्टि से विचारपूर्वक देखा जाय तो असलियत कुछ और ही सामने आती है और सिद्ध होता है कि इस अति महत्वपूर्ण विषय को प्रत्येक वर्ग किसी न किसी स्वार्थ के कारण उपेक्षित किए हुए है। उनमें सबसे बड़ा अहंकार है—पुरुष का अहंकार। यह तो सभी मानते हैं कि विचारशीलता जहां भी उत्पन्न होगी और विकास के चरण जहां भी बढ़ेंगे, वहीं उचित को मानने और अनुचित को इन्कार करने की बात भी उत्पन्न होगी। नारी चूंकि अविकसित है, इसलिए वह पुरुष की हर उचित-अनुचित बात को मान लेती है और इससे पुरुष का अहं तुष्ट होता चलता है। नारी यदि विकसित हो तो पुरुष का अहंकार उसकी हर बात ज्यों की त्यों स्वीकार न करने के रूप में आहत हो सकता है और इस छोटी-सी बात के लिए पुरुष वर्ग नारी को अविकसित ही देखना अधिक पसन्द करता है।
दीखने में यह बात भले ही छोटी-सी लगती हो, पर अहंकार की भावना इतनी प्रबल और दुष्ट है कि वह बड़ी से बड़ी हानि की भी परवाह नहीं करती। रावण और कंस जैसे दैत्यों से लेकर चंगेजखां, मुहम्मद गौरी और हिटलर तक इतिहास के कलंकित व्यक्तियों ने केवल अहंकार वशीभूत होकर बड़े-बड़े अत्याचार किए और उत्पात मचाए। इनका अहंकार विवेक को पूरी तरह समाप्त कर चुका था, पर सामान्य जन तो अहंकार की अपेक्षा लाभ और उपयोगिता के पक्ष को महत्व देते हैं। यदि विचारपूर्वक सोचें तो निश्चय ही उन्हें अपनी रीति-नीति में परिवर्तन करना पड़ेगा।
व्यक्तियों से ही वर्ग और समाज बनता है। पर जब समूह की दृष्टि से देखा जाय तो वहां अहंकार के अतिरिक्त स्वार्थ भी कारण रूप में विद्यमान मिलेगा। उदाहरण के लिए कलाकार इस स्वार्थ के कारण स्थिति को यथावत् बनाये रखना चाहता है कि उसे नारी को अश्लील और भद्दे रूप में उभार कर व्यावसायिक लाभ कमाने की छूट मिले। लेखक, चित्रकार, मूर्ति-शिल्पकार, गायक और अभिनेता आदि सभी इस वर्ग में आ जाते हैं, जो नारी के शरीर को खिलौना बनाकर पेश करने में अपना लाभ देखते हैं और दोनों हाथों से धन बटोरने की संभावना भी। व्यापारियों को अपनी वस्तुओं के प्रचार का सस्ता उपाय मिल जाता है और अर्ध नग्न देह के चित्रों सहित प्रचारित की जाने वाली वस्तुएं लोगों का ध्यान भी आकर्षित करती है। समाज इसलिए चुप रहता है कि लोगों में असन्तोष की भावनाएं वैसे ही बढ़ रही हैं, नारियों में जागृति आई तो वे भी अपनी स्थिति से असन्तुष्ट हो उठेंगी। यहां तक कि स्वयं नारियां भी इसी स्थिति में अपना भला देखती हैं। ये समझती हैं कि पिंजड़े में बन्द ही सही, पर निश्चिन्त तो रहती हैं। सारी जिम्मेदारियां, सारे उत्तरदायित्व और सभी बाहरी कार्य पुरुष निबटा लेता है। स्वयं की श्मशान शान्ति को क्यों भंग किया जाय और क्यों मुक्ति व जागरण की गुहार मचाई जाय।
जो भी हो, समाज का हर वर्ग चाहे पुरुष हो, चाहे व्यापारी हो, चाहे नौकरी-पेशा, चाहे लेखक हो, चाहे चित्रकार इस विडम्बना को यथावत् चलने देने में ही अपना स्वार्थ अनुभव करते हैं या अपने अहं की तुष्टि पाते हैं। और केवल ‘अहं’ को तुष्ट करने के लिए यह स्थिति बनी नहीं रहनी चाहिए तथा नारी की क्षमता और शक्ति का उपयोग समाज को आगे बढ़ाने में करना चाहिए।
कहा जाता है कि नारी का प्रधान कार्यक्षेत्र घर और पुरुष का बाहर है। पर यह कोई ‘लक्ष्मण रेखा’ नहीं है न ही इसमें नारी को बन्धनों से जकड़ने की गुंजायश। सुविधा और व्यवस्था की दृष्टि से ही इस कार्यक्षेत्र का विभाजन किया गया है। आवश्यकता पड़ने पर पुरुष भी घर का काम कर सकते हैं और स्त्रियां भी आजीविका उपार्जन में लग सकती हैं। लेकिन दोनों ही वर्गों के लिए एक दूसरे के काम में हाथ बंटाना अशोभनीय और लज्जाजनक-सा समझा जाता है। घरेलू नौकर के रूप में भोजन बनाने, बर्तन साफ करने तथा बच्चों को खिलाने वाले पुरुषों की बात जाने भी दें तो भी सामान्य व्यक्ति पत्नी की हारी-बीमारी में घर का काम करना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। बात यह नहीं है कि काम बुरा है, पर पुरुष के मन में नारी के प्रति हीन दृष्टिकोण जमा हुआ है, इसलिए उसके काम भी छोटे दिखाई देते हैं और इसी कारण कई असुविधाएं होने के बावजूद भी पुरुष घरेलू काम करने से कतराते दिखाई देते हैं।
इसी प्रकार आवश्यकता या अन्य कारणों से महिलाएं जब घर से बाहर कदम निकालती हैं, तो भी उन्हें उपहास की दृष्टि से देखा जाता है। लोग कहने लगते हैं—आज के जमाने में महिलाएं पुरुषों की प्रतिद्वन्द्वी बन गई हैं और उन्हें पीछे खींचना चाहती हैं। जिन महिलाओं में वस्तुतः इस तरह की मनोवृत्ति हो, उनकी बात अलग है, पर विवशता या आवश्यकता की दृष्टि से जो स्त्रियां स्वावलम्बी बनने का प्रयत्न कर रही हों, उन्हें निरुत्साहित नहीं किया जाना चाहिए। न ही यह सोचना चाहिए कि ये कार्य केवल पुरुषों की ही जायदाद है और स्त्रियों में नाम मात्र को भी प्रतिभा योग्यता नहीं है। वे स्वावलम्बी हो ही नहीं सकतीं।
दास युग की इस मान्यता ने समाज को बड़ी हानि पहुंचाई है। जब नारी को अयोग्य, निर्बल, आश्रित और असमर्थ मान लिया गया हो अथवा बना दिया गया हो तो अवरोध न केवल नारी के आगे बढ़ने में उत्पन्न होगा, वरन् उसका असर समूचे समाज पर पड़ेगा। बोझ, भार से लगाकर पंगुता तक का अभिशाप केवल नारी को ही नहीं, पूरे समाज को, जिसमें पुरुष वर्ग भी आ जाता है, उसे भी भोगना पड़ेगा। एक छोटा-सा उदाहरण लिया जाय। बाजार से घरेलू उपयोग का—रोजमर्रा का सामान साग-सब्जियां, मसाले आदि स्त्रियां खरीद कर ला सकती हैं, पर परम्परागत रूप से पर्दा रखने वाले परिवारों में यह काम पुरुषों को ही करना पड़ता है। एक तो अधिक कोई काम न होने से महिलाएं खाली रहती हैं, उनका भी समय नष्ट होता है—दूसरे पुरुष को उपार्जन के अतिरिक्त बाहर से आवश्यक सामान लाने में भी अपना समय खपाना पड़ता है। बर्बादी दोनों के ही समय की होती है और कारण इतना मात्र कि स्त्रियां घर से बाहर नहीं निकल सकतीं, चूंकि इसी में वहां कुलीनता सुरक्षित समझी जाती है।
इसी प्रकार सुशिक्षित और योग्य महिलाएं चाहें तो अपने बच्चों को स्वयं पढ़ा सकती हैं, उनकी ठीक प्रकार से देखरेख कर सकती है। पर कन्या शिक्षा को अनावश्यक समझने के कारण अधिकांश घरों में स्त्रियां पढ़ी लिखी नहीं रहतीं। घर का काम-काज और बच्चों की देखभाल तो वे कर लेती हैं, पर निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता है कि उनके इन कार्यों में अभीष्ट दक्षता परिलक्षित होती होगी या बच्चों के पालन पोषण के साथ-साथ उनके निर्माण की आवश्यकता भी पूरी हो जाती है।
स्त्रियों में योग्यता का अभाव इन विडम्बनाओं का कारण नहीं है। स्त्रियां योग्य हैं और पुरुष के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर वे समाज निर्माण तथा राष्ट्र निर्माण के कार्य में भाग ले सकती हैं। तथ्यों पर दृष्टिपात किया जाय तो इतिहास में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं ने ही अधिक उल्लेखनीय कर्म किया। स्वतंत्र रूप से तो वे अपनी प्रतिभा तथा क्षमता का उपयोग करती ही रही हैं, युग की दिशा को मोड़ने वाले महापुरुषों के निर्माण का श्रेय भी उनकी माताओं को दिया जाता है और उन महामानवों की अपेक्षा उनकी माताओं को ही अधिक प्रशंसा योग्य पाया जाता है।
सामाजिक दृष्टि से भी देखें तो मालूम पड़ेगा कि जिन देशों में स्त्रियों को मनुष्योचित अधिकार मिले हुए हैं, वे वहां पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर राष्ट्र निर्माण के यज्ञ में लगी हुई हैं और कितने ही क्षेत्र स्वयं महिलाओं ने संभाल कर पुरुषों को राष्ट्र के अन्य मोर्चे पर निश्चिन्तता पूर्वक काम करने जैसी परिस्थितियां बना दी हैं। युगोस्लावाकिया की महिलाएं उस देश की कृषि-व्यवस्था संभालती हैं और पुरुष कारखाने, दफ्तर, फौज तथा पुलिस का काम देखते हैं, उन्हें खेती या पशुपालन जैसे काम देखने की जरा भी जरूरत नहीं पड़ती। इसी प्रकार रूस, चीन आदि देशों में महिलाएं राष्ट्रीय-सम्पदा बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। रूस में शिक्षा-व्यवस्था अधिकांशतः महिलाओं द्वारा ही संचालित की जाती है। स्कूलों, अस्पतालों एवं स्वास्थ्य संस्थाओं में पुरुषों की संख्या बहुत कम रहती है। जापान की महिलाएं घरेलू उद्योग धन्धों का विकास करने में पुरुषों से एक कदम भी पीछे नहीं हैं। वे जापानी अर्थ व्यवस्था की इस रीढ़ को मजबूत बनाने में पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर संलग्न हैं। जर्मनी में भी कल-कारखानों को संभालने के लिए महिलाएं, पुरुष इंजीनियरों, व्यवस्थापकों और कारीगरों के समान ही योग्य सिद्ध हो रही हैं। कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों में दुकानें चलाने और उत्पादन की विक्रय-व्यवस्था के लिए महिलाएं-पुरुषों से कम योग्य सिद्ध नहीं हुई हैं।
दूर क्यों? अपने ही देश के उन प्रान्तों तथा क्षेत्रों में, जहां महिलाओं पर अपेक्षाकृत कम प्रतिबन्ध हैं, महिलाओं की योग्यता का लाभ पूरे परिवार ही नहीं, समाज को भी सम्पन्नता, समृद्धि और विकास के रूप में मिले हैं। कहने का अर्थ यह कि अहंकार या स्वार्थपरता के कारण नारी के विकास में रुकावटें डालना अनुपयुक्त है, अनुचित है। यह बात पूरे समाज को नोट कर लेनी चाहिए कि नारी को साथ लिए बिना नर रंचमात्र भी आगे बढ़ नहीं सकता, न समाज ही प्रगति कर सकेगा।