पत्नी का सम्मान गृहस्थ का उत्थान

सहधर्मिणी के प्रति कर्तव्यनिष्ठ रहिए !

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प्रकृति ने स्त्री और पुरुष में शरीर संरचना को छोड़ कर और कोई भेद नहीं रखा है। उसका कारण कुछ प्राकृतिक आवश्यकताएं भर हैं, अन्यथा जीवन, श्वांस, हृदय, मस्तिष्क, बुद्धि, आंखें और मांस दोनों में एक जैसे ही हैं। उन प्राकृतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए साथ रहना भी जरूरी है और यहीं से वे पति-पत्नी का सम्बन्ध स्थापित करते हैं, जो क्रमशः मन, मस्तिष्क, हृदय, अन्तःकरण तथा प्राणों की एकता तक सघन हो जाता है। प्रेम और आत्मीयता का पाठ मनुष्य परिवार से ही आरम्भ करता है, यहां तक कि परिवार के बिना उसका जीना दूभर हो जाता है।
परिवार निर्माण और उसकी अन्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक-दूसरे का कार्य तथा दायित्व विभाजन एवं उन्हें पूरा करने की परम्परा चली, जो उचित भी है। एक व्यक्ति निर्वाह के साधन जुटाता है, तो दूसरा उसे उपयोग लायक बनाए, एक बाहर का क्षेत्र सम्हालता है, तो दूसरा अन्दरूनी व्यवस्थाएं देखे। यहां तक बात समझ में आती है और ठीक भी लगती है। परन्तु इसी कारण एक अपने को बड़ा समझने लगे और दूसरे का शोषण करे, यह जरा भी उचित नहीं जंचता। दोनों अपने-अपने कार्यों को ही लक्ष्मण रेखा समझ लें, और किन्हीं भी परिस्थितियों में एक-दूसरे का काम न सम्हालें, यह विकृति नहीं, तो क्या है? स्त्री के जिम्मे घर के काम—रसोई बनाना, सफाई करना, बच्चों की देखभाल करना आदि कार्य हैं और पुरुष ने बाहर कमाना, खेती या नौकरी-पेशा करना अपने लिए रखा है। परन्तु वह समय पर आवश्यक होते हुए भी घर के अन्दरूनी कार्यों को करने-देखने में अपनी हेठी समझता है। महिलाएं तो बेचारी आये वक्त पर पुरुष के क्षेत्र में भी काम कर लेती हैं, पर बीमारी और रुग्णावस्था में भी पति, पत्नी से ही यह अपेक्षा करता है कि वह उसे खाना बनाकर खिलाए और बच्चों को सम्हाले। जिस आधार पर सहचरत्व धर्म का पालन करने के लिए दाम्पत्य जीवन आरम्भ किया गया, यह तो उसकी उपेक्षा ही हुई।
विवाह के समय वर और वधू दोनों प्रतिज्ञा करते हैं कि हम परस्पर एक-दूसरे के प्रति कर्तव्य-निष्ठ रहेंगे, एक-दूसरे का सहयोग करेंगे और दोनों प्रगति के पथ पर एक साथ अग्रसर होंगे, पर आगे चलकर प्रतिज्ञा अधूरी ही रह जाती है तथा पुरुष जहां पत्नी के काम करने में अपना छोटापन समझता है, वहीं पत्नी को पुरुष के क्षेत्र में पदार्पण करने से भी रोकता है।
अपने-अपने कार्यों को ही अपनी अन्तिम सीमा-रेखा मान लेना किसी भी दृष्टि से वांछनीय नहीं कहा जा सकता। सचाई तो यह है कि पति और पत्नी दो इकाई मिलकर एक सम्मिलित व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक बनकर ही जीवन पथ पर सफलतापूर्वक आगे बढ़ सकते हैं। सहयोग की दृष्टि से कामों का विभाजन बात और है, परन्तु ऐसी कोई कठोर मर्यादा नहीं बनाई जा सकती कि अमुक कार्य केवल पति ही करे और अमुक कार्य के लिए पत्नी पर ही निर्भर रहा जाय। औचित्य का तकाजा यह है कि दोनों आवश्यकता पड़ने पर वफादार और कर्तव्य-निष्ठ साथी की तरह एक-दूसरे के कामों में मदद करें, चाहे वे कार्य घर के हों, चाहे बाहर के।
पत्नी-स्त्री प्रायः अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटती, पर पति अपने आपको घर का मुखिया (स्वामी) समझने के कारण दूसरे कार्यों में हाथ लगाना अपनी अवमानना समझता है। जैसे पत्नी को परिवार के सभी सदस्यों के लिए भोजन तैयार करना पड़ता है, लेकिन कभी वह बीमार हो जाय तो पति खुद भोजन बनाने की अपेक्षा पत्नी से ही यह आशा करता है कि वह बीमारी की हालत में ही खाना बनाकर दे। या वे होटल में खाने अथवा बच्चे घर में हों तो उनके हाथ से खाना बनवाने की ही बात सोचेगा। पत्नी के होते हुए उसे चूल्हा फूंकने में शर्म आती है। सहज भाव से पत्नी ने किसी कारणवश पति को भोजन बनाने के लिए कह भी दिया तो पति महोदय इस प्रकार तुनक उठेंगे जैसे सरे बाजार उनपर किसी ने जूता फेंक दिया हो।
पत्नी को अपना साथी-सहचर मानने वाले, उसे सहधर्मिणी समझने वाले ऐसे अवसरों पर कभी भी संकोच नहीं करते। प्राचीनकाल में तो यह व्यवस्था भी थी कि लड़कियों की भांति लड़के भी पाक विद्या और गृहकला सीखते थे। गुरुकुलों के आचार्य अपनी पत्नी के साथ ही सभी बच्चों की देखभाल करते और भोजन बनाने से लेकर आश्रम की सफाई करने तक किसी भी काम में संकोच न करते थे। राजा नल पाक विद्या में पारंगत थे और इसी गुण के कारण ऋतुपर्ण के सारथी के रूप में उन्हें दमयन्ती ने पहचाना था। जनक को पाक कला का विशेषज्ञ समझा जाता था, यद्यपि वे सम्राट थे। गदाधारी भीम अज्ञातवास के समय राजा विराट के यहां रसोइए के रूप में नियुक्त हुए थे।
प्राचीनकाल की ही बात क्यों करें, इसी युग में महात्मा गांधी का उदाहरण ताजा है। वे कस्तूरबा के साथ रसोई में काम करने और आश्रमवासियों को खाना परोसने के बेहद शौकीन थे। स्वामी विवेकानन्द अपने हाथों से स्वादिष्ट खाना बनाते थे। जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री आदि प्रख्यात नेता अपनी पत्नी के हर कार्य में सहयोग देने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। कमला नेहरू जब अपने आखिरी दिनों में बीमार रहने लगीं तो नेहरूजी ने कई बार घर के अन्दरूनी काम देखे। हमारे यहां कोई भी महापुरुष ऐसा नहीं रहा है, जिसने घर के कामों को—जिनके लिए केवल पत्नी पर ही निर्भर रहा जाता है—करने में संकोच अनुभव किया हो।
भोजन बनाने की तरह ही पति और बच्चों के कपड़े धोने, घर की सफाई करने, देखभाल और साज-सम्हाल रखने के कार्य भी पत्नी के समझे जाते हैं। इसके अतिरिक्त परिवार का कोई भी सदस्य जब बीमार पड़ता है तो उसकी सेवा-सुश्रूषा के लिए भी पत्नी को ही नियुक्त किया जाता है। लेकिन जरूरत पड़ने पर पति उसके गीले कपड़े निचोड़ने या उसके वस्त्र उठाकर रखने में भी नाक-भौं सिकोड़ते हैं। सेवा का क्या यही मूल्य चुकाया जाना चाहिए? कहां तो हम उसे गृह लक्ष्मी, अर्धांगिनी और सहधर्मिणी घोषित करते-करते नहीं अघाते, और कहां उसका छोटा-सा काम करने में भी घबड़ाते हैं।
कई परिवारों में स्त्रियां दिन-रात काम में लगी रहती हैं। उन्हें जरा भी अवकाश नहीं मिलता। दूसरी ओर पुरुष बहुत-सा समय व्यर्थ आलस्य में पड़े रहने, मौज-मजे करने और ताश-शतरंज खेलने में ही गुजार देते हैं। जबकि जरूरी यह है कि यदि अपने पास समय हो तो उसे पत्नी के सहयोग में लगाया जाय, ताकि उसका कार्य जल्दी पूरा हो और थकान, तनाव से जितना सम्भव हो सके, उसे बचाया जा सके।
काम-काज में सहयोग करना तो दूर, अनेकों लोग अपनी पत्नी के प्रति सहानुभूति भी नहीं रखते, उल्टे अपने अस्त-व्यस्त कार्यक्रमों से उसे परेशानी में डालते रहते हैं। रात को देर तक साथियों से गपशप मारना, सिनेमा-मनोरंजन गृहों से देर से घर लौटना, उधर बेचारी पत्नी भोजन बनाकर थकी-मांदी भूखी बैठी उनकी बाट जोहती रहती है। भारतवर्ष में पत्नी को इतना क्षुद्र बना दिया गया है पतिव्रत के नाम पर कि वह बेचारी पति के खाना खाने से पहले कुछ खा-पी भी नहीं सकती। भले ही पति होटलों में चाटते फिरते हों।
दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाने के लिए इन बातों के अतिरिक्त और भी ऐसी कई सावधानियां रखने की आवश्यकता है, जिनका एक मोटा आधार यही हो सकता कि हम पत्नी के प्रति सच्चे भावनिष्ठ रहें। उसमें और अपने में कोई छोटे-बड़े का भेदभाव न रखें। प्रेम और हार्दिक एकता में न कोई छोटा है और न बड़ा। अतः उन्हें बराबर का साथी मानकर ही व्यवहार करें।
पत्नी को दासी नहीं, साथी मानिए
जिन आधारों पर परिवार की सुख शान्ति निर्भर करती है उनमें मुख्य है पति-पत्नी का सघन सहयोग। सौभाग्य से हमारे परिवार पश्चिमी देशों की अपेक्षा अधिक स्थिर और सुदृढ़ हैं। यहां माना जाता है कि बाप के घर से बेटी की डोली निकलती है तो पति के घर से ही उसकी अर्थी निकलेगी। एक पत्नीव्रत और एक पतिव्रत भारतीय संस्कृति का आदर्श है, परम्परा है। इसी आधार पर पति-पत्नी के सम्बन्ध स्निग्ध, मधुर और प्रेमपूर्ण रहते हैं, जबकि पश्चिमी देशों में सोते समय खर्राटे भरना भी तलाक का कारण बन जाता है। सम्भवतः ही वहां कोई ऐसा दम्पत्ति हो जो कल के लिए एक दूसरे से आश्वस्त हों, जबकि भारतीय परिवारों में पति पत्नी जीवन मरण के साथी हैं।
इतना होने पर भी परिवार को पूर्णतया आदर्श नहीं कहा जा सकता। इसका कारण है पति-पत्नी के बीच रहने वाली ऊंच-नीच की खाई और बड़े छोटे का भेद। सेव्य-सेवक का सम्बन्ध तथा स्वामी-दास का अन्तर। आधुनिक युवक-युवतियों में परम्परागत विवाहों के प्रति विक्षोभ उत्पन्न हो रहा हो तो इसके लिए मात्र वे ही दोषी नहीं है। दोषी उनके अभिभावक और विशेष रूप से पिता हैं जो गृहणियों से दूसरी श्रेणी का व्यवहार करते हैं।
लड़कियों को आरम्भ से ही शिक्षा दी जाती है कि उन्हें घर के अन्य लोगों की सेवा करनी है। उनका काम केवल पति व परिवार के अन्य सदस्यों की सुख-चिन्ता भर करना है। अपने सम्बन्ध में कुछ सोचना नहीं है। जब उनके सामने ही लड़कों को-भाइयों को उनकी अपेक्षा अच्छी सुविधाएं दी जाती हैं तो उनके मन में एक हीनता की भावना जन्म लेती है और लड़कों के मन में मिथ्या अहंकार उत्पन्न हो जाता है। हीनता की यह भावना लड़कियों में कई कुण्ठाओं को जन्म देती है तो लड़कों में अधिकार और अहंकार पूर्ण बड़प्पन के भाव को। इसकी अपेक्षा दोनों को ही त्याग बलिदान करने, एक-दूसरे की सुविधाओं को ध्यान रखने की शिक्षा दी जाय तो सेवा शिक्षा दोहरे प्रयोजन पूरे करती है। उससे न लड़कियों में ही हीनता की ग्रन्थि बनती है और न लड़कों में मिथ्या अहं का भाव, बल्कि दोनों एक-दूसरे की सेवा को अपना कर्तव्य मानकर अपेक्षाकृत अधिक स्नेह और प्रेम पूर्ण सहयोगी जीवन व्यतीत कर सकते हैं। लेकिन इस स्थिति के लिए गहरे प्रयत्नों की आवश्यकता है, बहुत सी भ्रान्तियों को तोड़ देना तथा आदर्शवादी धारणाओं को स्थापित करना आवश्यक है।
आज के बच्चे भविष्य में अपना दाम्पत्य जीवन सुखद, स्निग्ध और मधुर बना सकें, इसके लिए विवाहित दम्पत्तियों को—माता-पिताओं को अपने दृष्टिकोण में सुधार करना चाहिए। तभी बच्चों के सामने दाम्पत्य जीवन की आदर्श मिसाल रखी जा सकती है। बच्चा अपने माता-पिता से जितना सीखता है उससे भी अधिक उनके संस्कार ग्रहण करता है। जिनका सीधा सम्बन्ध उनके व्यवहार, आचरण और रहन-सहन के प्रभाव से है। माता-पिता आपस में जैसा व्यवहार करते हैं, बच्चे भी यह मानने लगते हैं कि पति पत्नी के बीच घर परिवार में ऐसा ही व्यवहार होना चाहिए।
पति अक्सर यह समझता है कि उसके लिए पत्नी एक दासी से अधिक नहीं है। कहने, सिद्ध करने में आदर्शवादिता की बातें कितनी ही कही जाती हों, पर आस्था और मान्यता तो अन्त: प्रेरित आचरण और व्यवहार से ही व्यक्त होती है। नारी के समानाधिकार और उसके व्यक्तित्व को स्वीकार करने के लिए आग्रही प्रवक्ता कितने ही मिल जायेंगे, परन्तु वे अपने विचारों को स्वयं कितना व्यवहार में लाते हैं, यह प्रवचन-उपदेश अथवा सिद्धान्त प्रतिपादन से नहीं, कर्मों और आचरणों से ही पता चलता है। नारी मुक्ति की आवाज उठाने वाले कितने ही लोग अपने व्यावहारिक जीवन में पत्नी से उसी प्रकार व्यवहार करते हैं, जिस प्रकार कि उनके पुरखे नारी को मात्र गृहिणी मान कर करते रहे थे।
दैनिक कामकाज से छुट्टी पाकर शाम के समय पति जब घर लौटता है तो वह सोचता है कि पत्नी उसके हाथ-पांव दबाये, या उसे घर पहुंचते ही तत्काल खाना बनाकर गरम-गरम परोस दे। परम्परागत भारतीय परिवारों में यह भी समझा जाता है कि पत्नी को सबसे बाद में खाना खाना चाहिए, भले ही पति महोदय बाहर मित्रों के साथ नाश्ता कर आये हों या पार्टी में हो आये हों। साथ ही, यह मानने वालों की भी कमी नहीं है कि बच्चे खिलाना या उनका ध्यान रखना केवल पत्नी का ही काम है, उसमें उनको हाथ लगाने की जरा भी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे तो दिन भर काम करके थक चुके हैं। काम से थक जाने की बात ही इस मान्यता का आधार है तो यह भी देखना चाहिए कि घर में पत्नी भी कोई खाली नहीं बैठी रही है। उसे भी दिन भर काम में खपना पड़ता है। इस आधार पर पति महाशय अपना यह अधिकार समझें कि दिन भर में वे थक चुके हैं तो पत्नी भी उनसे कम थकी नहीं होती है। सुबह पुरुषों से पहले जाग कर नाश्ता बनाने, खाना तैयार करने, घर की सफाई, वस्त्रों की धुलाई और बच्चों की देख-रेख में शाम हो जाती है और सोना भी सबके बाद में होता है तो थकने के अधिक कारण तो पत्नी के साथ ही हैं। पति से कहीं अधिक श्रम उसे ही करना पड़ता है। थकान मिटाने के लिए किसे किसकी सेवा करनी चाहिए अब यह निर्णय आसानी से किया जा सकता है।
लेकिन निष्पक्ष निर्णय के लिए विचार मन्थन के बाद न्यायपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद भी पति इस तथ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होगा कि सेवा की पहली अधिकारिणी पत्नी है। क्योंकि उसके मन में यह अहंकार मूलक धारणा बैठी है कि पत्नी की सेवाओं का लाभ उठाने का जन्म सिद्ध अधिकार मुझे है।
कदाचित पुरुष स्वामी होने का दम्भ इसलिए रखते हैं क्योंकि कमाने, उपार्जन करने, निर्वाह व्यवस्था जुटाने का कार्य वे ही करते हैं। बचपन से पालित अहंकार और दम्भ के कारण वे अपना दर्जा भी पत्नी से अधिक बड़ा मानते हैं। यदि कार्य के आधार पर ही बड़प्पन को मूल्यांकन किया जाय तो भी पत्नी का पक्ष ही अधिक वजनदार सिद्ध होता है। उपार्जन से भी अधिक दायित्वपूर्ण है उसका नियोजन। कमाने से भी मुश्किल है खर्च करना। निर्वाहोपयोगी साधन जुटाने से भी गम्भीर और कठिन है उस व्यवस्था के चलाने और निर्धारित करने का काम। यह सारा दायित्व पत्नी को ही सम्भालना पड़ता है और साथ ही साथ अन्य अतिरिक्त कार्य इतने अधिक हैं जो पत्नी की तुलना में कम नहीं अधिक ही श्रम साध्य हैं।
पति का दर्जा बड़ा सिद्ध करने लिए दी जाने वाली तमाम दलीलें थोथी हैं। मूल बात है—पति की अहं भावना, पुरुष का दर्प, जिसके कारण वह अपनी धर्मपत्नी के साथी के समान व्यवहार नहीं कर पाता और न ही उसे इस योग्य समझता है। इसके दुष्परिणाम व्यक्तिगत रूप से ही नहीं, पारिवारिक और सामाजिक संदर्भों में भी हानिकर होते हैं। परिवारों में बच्चों के व्यक्तित्व पर प्रारम्भ से ही इस कारण समुचित ध्यान दे पाना कठिन हो जाता है कि माताएं अनपढ़ और अशिक्षित होती हैं। समाज की आधी जनसंख्या को शेष आधे भाग का बोझ अपने कन्धों पर ढोकर इसलिए खींचना पड़ता है कि लड़कियां इस योग्य नहीं होतीं कि वे अपनी जिम्मेदारियां खुद पूरी कर सकें।
यदि पत्नी के प्रति दासी भाव न रखते हुए साथी का दृष्टिकोण रखा जाय तो लड़कियां भले ही निरक्षर शादी करें परन्तु योग्य और सद्भाव सम्पन्न पति के सान्निध्य में रहकर वे अशिक्षित रह ही नहीं सकतीं। साथी की भावना, मैत्री का आदर्श अपने सहयोगी मित्र को किसी भाव अयोग्य और पिछड़ों देखना सहन नहीं कर सकते लेकिन यह भावना कितने पुरुषों में विकसित होती है? दाम्पत्य जीवन को कलात्मक ढंग से जीने की आकांक्षा कितने हृदयों में होती है? अधिकांश तो जैसे-तैसे गृहस्थी को धक्का देते रहने में ही विश्वास करते हैं। इस भावना को तिलांजलि दे ही देना चाहिए।

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