पत्नी का सम्मान गृहस्थ का उत्थान

पतिव्रत के साथ-साथ पत्नीव्रत धर्म भी

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नारी को क्या करना चाहिए, कैसे रहना चाहिए, किन के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए और किस तरह सोचना चाहिए? इस संदर्भ में धर्म शास्त्रियों और समाज सेवियों द्वारा निरन्तर एक से एक बड़े-चढ़े उपदेश दिए जाते रहे हैं। पतिव्रत धर्म की अथक महत्ता बताई गई है। साथी का उच्चस्तरीय सहयोग करने की प्रवृत्ति को जगाया जाना श्रेयस्कर ही है। बात विचारणीय इतनी भर है कि क्या उपयुक्त परिस्थितियां उत्पन्न किए बिना, आवश्यक सामर्थ्य उत्पन्न किए बिना, इतना गुरुत्तर भार वहन करना मनुष्य जैसे दुर्बल प्राणी के लिए सम्भव हो सकता है या नहीं? ताली दोनों हाथों से बजती है, आदर्शों का निर्वाह दोनों ही ओर से होता है।
पति और पत्नी को मित्रता के समस्त आदर्शों का पालन करना चाहिए। जिस पक्ष से भूल होती हो उसे तत्काल सुधारना चाहिए। आज की स्थिति में पत्नी जिस योग्य रह गई है उसके अनुरूप वह भोजन बनाने, चौकीदारी करने और काम तृप्ति का उपकरण बने रहने के तीनों ही उत्तरदायित्व मरते-खपते अधिक से अधिक सीमा तक पूरे कर रही है। उसकी वफादारी में कमी होने के प्रसंग भी कभी अपवाद रूप में ही देखे सुने जाते हैं। साथी के प्रति कर्तव्य निष्ठा की न्यायनिष्ठ जांच में 99 प्रतिशत पुरुष ही दोषी पाए जायेंगे।
पत्नी व्रत की सबसे पहली और सबसे मार्मिक पुकार यह है कि पत्नी के मानवोचित अधिकार उसे वापस लौटा दिए जायें। उसे सच्चा मित्र समझा जाय। अपनी ही समान स्थिति तक शारीरिक और मानसिक दृष्टि से ऊंचा उठा लेने का प्रबल प्रयत्न किया जाय।
उन सभी उपायों पर विचार किया जाना चाहिए जिनसे नारी का खोया हुआ स्वास्थ्य पुनः प्राप्त हो सके। इसके लिए उन्हें पर्दे के कैदखाने से छुटकारा देना सबसे अधिक आवश्यक है। शील सदाचार के लिए आंखों में लज्जा होना पर्याप्त है। घूंघट की किसी भी दृष्टि से कोई उपयोगिता नहीं।
इससे तो घरेलू बात-व्यवहार में पूछने-बताने की सामान्य प्रक्रिया में भारी बाधा पड़ती है। इस पर्दे से हानि ही हानि है, अनौचित्य ही अनौचित्य है, फिर उसे क्यों पकड़े-जकड़े रहा जाय?
नारी के बिगड़े हुए स्वास्थ्य की ओर प्रत्येक ईमानदार पति को तत्काल ध्यान देना चाहिए। उसके आहार-विहार में, विश्राम दिनचर्या में ऐसे हेर-फेर करने चाहिए जिससे अवांछनीय दबावों में पिसने से उसे राहत मिल सके। काम क्रीड़ा मादक हो सकती है पर उसका अमर्यादित होना साथी को चौपट करके रख देने के बराबर है, विशेषतया तब जब वह दुर्बलता और रुग्णता से जल रही हो।
नारी को बहुत समय से पतिव्रत धर्म की शिक्षा दी जाती रही है। उसने यथासम्भव पूरी ईमानदारी से उसका पालन भी किया है। अब समय आ गया है कि पुरुष भी पत्नीव्रत धर्म का पालन करें और उस पुण्य परम्परा को सफल, सार्थक एवं उभयपक्षीय बनाने में समुचित योगदान करें। पत्नी को यदि स्वजन और सुहृद माना गया है तो उसके साथ मूर्खों और दुष्टों जैसा क्रूर खिलवाड़ नहीं ही करना चाहिए। इन दबावों के कुचक्र में पिसने से बचाना, उसे राहत की सांस लेने देना वह प्रथम कार्य है जिसका आज के प्रत्येक ईमानदार पति को पत्नीव्रत के आरंभिक कर्तव्य के रूप में पालन करना ही चाहिए।
हम अपने घरों से इसका शुभारंभ करें। अपना दृष्टिकोण और व्यवहार बदलें। नारी को भी नर के स्तर का एक पूर्ण मनुष्य मानें, व्यवहार, अधिकार तथा सम्मान की दृष्टि से जो भूलें अब तक बन पड़ी हों, उनका सुधार तो किया ही जाय, उनकी क्षति पूर्ति भी की जाय। आज इस प्रकार के परिवर्तन की नितान्त आवश्यकता है।

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