पत्नी का सम्मान गृहस्थ का उत्थान

पुरुष प्रायश्चित के लिए आगे आयें !

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
पढ़ी-लिखी कन्याएं अच्छी गृहणी सिद्ध होती हैं और वे अपनी योग्यता से परिवार को सुघड़ तथा सुसंस्कृत बनाने में सफल रहती हैं। पढ़े-लिखे और कुलीन युवक अच्छी शिक्षित और सभ्य पत्नी चाहते भी हैं, पर बात वहां पर आकर पेचीदा बन जाती है जब पढ़ी-लिखी लड़की के लिए उससे अधिक पढ़ा-लिखा युवक खोजा जाता है और युवक अथवा उसके अभिभावक उच्च शिक्षा का सारा हर्जा-खर्चा दहेज के रूप में प्राप्त करने के लिए दबाव डालते हैं। इस दबाव की आशंका से ही अभिभावक अपनी बच्चियों को ज्यादा पढ़ाते-लिखाते नहीं हैं और पढ़ा-लिखा भी देते हैं तो उसके योग्य वर का मूल्य चुका नहीं पाते। परिणाम यह होता है कि स्त्रियां शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी रह जाती हैं। केवल शिक्षा की दृष्टि से ही स्त्रियां पिछड़ी हुई हों ऐसी बात भी नहीं है। स्त्रियां सामाजिक और पारिवारिक जीवन में भी काफी पिछड़ी हुई हैं।
यह एक तथ्य है कि नारी जब तक परिवार और समाज में पुरुष के समान योग्यता और क्षमता से सम्पन्न नहीं बनती, तब तक न परिवारों का सांस्कृतिक स्तर सुधर सकता है और न समाज का उत्कर्ष ही हो सकता है। यह बात कई अवसरों पर बताई और दोहराई जाती है, पर नारी की योग्यता विकसित करने की आवश्यकता उसे गम्भीरता से अनुभव नहीं की जाती, जिस गम्भीरता से अनुभव की जानी चाहिए। अक्सर नारी उत्कर्ष की वकालत करने वाले लोग यह कहकर अपने को उत्तरदायित्व से मुक्त मान लेते है कि नारियां अपना उत्कर्ष स्वयं करें।
सैद्धान्तिक रूप से यह बात ठीक है कि व्यक्ति को अपना उत्थान करने के लिए स्वयं सचेष्ट होना चाहिए। पर जब हम नारी उत्कर्ष के सन्दर्भ में इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो कुछ और भी बातें विचारों को प्रभावित करती हैं। नारी की दुर्दशा और पतित अवस्था जिस प्रकार स्वयं उसके लिए प्रगति अवरोधक है, पुरुष की प्रगति में भी कम अवरोधकारी नहीं है। यह तो सभी जानते हैं कि स्त्री-पुरुष का अन्योन्याश्रित संग है। दोनों की प्रगति और उन्नति एक-दूसरे के सहयोग से ही सम्भव है। इस इकाई का एक घटक यदि अयोग्य या अविकसित रहा तो उसका प्रभाव निश्चित रूप से दूसरे घटक पर भी पड़ता है। जैसे परिवार में सुसंस्कृत वातावरण की आवश्यकता है। यह वातावरण पढ़ी-लिखी और सुशिक्षित पत्नी आसानी से निर्मित कर सकती है। यदि पति-पत्नी अनपढ़ और अशिक्षित हों तथा पति इस तरह के वातावरण में रहता हो, परन्तु वहां के वातावरण को परिष्कृत, सुसंस्कृत रखने की आवश्यकता अनुभव की जाय तो इसके लिए भी पति को ही सारा उत्तरदायित्व अनुभव करना तथा निबाहना पड़ेगा।
महत्व की दृष्टि से देखा जाय तो भी स्त्री का स्थान और दायित्व पुरुष की तुलना में महत्वपूर्ण है। साधन जुटाने भर का एक छोटा-सा काम पुरुष के जिम्मे है, अन्यथा निर्माण और व्यवस्था तो स्त्री के दायित्व वर्ग में ही आते हैं। सृष्टि निर्माण में भी पुरुष की अपेक्षा उसी का योगदान अधिक है। सन्तान को जन्म देने से लेकर उसका पालन-पोषण करने और घर-गृहस्थी चलाने का सारा उत्तरदायित्व नारी पर है। पुरुष तो अपने आप में एक उच्छृंखल इकाई मात्र है। अविवाहित और विधुर व्यक्तियों के घरों का स्तर तथा वातावरण देखकर इस तथ्य का अनुभव भली भांति किया जा सकता है। एकाकी पुरुष का स्त्री रहित परिवार व्यवस्था और सुन्दरता-सुघड़ता की दृष्टि से बिखरा तथा अस्त-व्यस्त ही पाया जायगा। उसके सुव्यवस्थित बनने की शुरूआत तभी होती है, जब कि परिवार में पत्नी का, गृहिणी का पदार्पण होता है।
परिवार संस्था में स्त्री का इतना महत्वपूर्ण स्थान, इतनी महिमामय भूमिका होते हुए भी उसे दासी-नौकरानी से अधिक स्थान न दिया जाय, यह शोचनीय है। यों यथार्थ की दृष्टि से पुरुष परिवार को प्रधान कहने भर के लिए है। उसका मूल आधार, जीवन-चेतना, अस्तित्व-धात्री शक्ति तो स्त्री ही है। संसदीय-लोकतंत्र में जो स्थान राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का होता है, वही स्थान परिवार व्यवस्था में पति और पत्नी का रहता है। शासन व्यवस्था का सूत्रधार जिस प्रकार प्रधानमंत्री है, अधिकांश निर्णय वही लेता है, कार्यक्रमों को वही निर्धारित करता है और उन्हें क्रियान्वित करने के उपाय भी वही खोजता है, राष्ट्रपति तो उन्हें स्वीकृति और सहमति भर देता है, इसी प्रकार गृह व्यवस्था की जिम्मेदारी तथा परिवार के सदस्यों की आवश्यकता का ध्यान रखने की जिम्मेदारी पत्नी पर है। पुरुष कमाता भर है। किस काम में कितना खर्च होना है, इस बात का नियोजन और निर्धारण पत्नी ही करती है। कमाना जितना आसान है, उसे समझदारी के साथ खर्च करना उतना ही कठिन है। इस प्रकार व्यावहारिक सूझबूझ की अपेक्षा भी स्त्री से ही अधिक रहती है।
इसी कारण उन समाजों में, जिन्होंने आधुनिक काल में उल्लेखनीय प्रगति की है, नारी को समुचित महत्व, स्थान और सम्मान दिया गया है, उनके शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक उन्नति की समुचित व्यवस्था रखी गई है। उनकी प्रगति का यही रहस्य है, क्योंकि योग्य, विकसित और सूझबूझ सम्पन्न गृहिणी के घर में रहने पर पुरुष पारिवारिक चिन्ताओं से एक तरह से मुक्त रहकर अपनी बुद्धि तथा क्षमता का भरपूर उपयोग उत्कर्ष के लिए कर सके हैं और स्त्रियां भी समाज की उन्नति में अपना हाथ बंटा सकी हैं। इसके विपरीत जिस समाज ने जब भी नारी के महत्व को घटाकर देखा तथा उसे उसकी गरिमामय स्थिति से गिराया, उस समाज का पतन की ओर लुढ़कना आरंभ हो गया।
उदाहरण देखना है तो हमारे देश से अधिक अच्छा शायद ही कोई उदाहरण, हो, जो हमें प्रभावित कर सके। इस संबंध में स्वामी विवेकानन्द ने एक अवसर पर कहा था—‘‘दो बड़े सामाजिक अनर्थ भारत की प्रगति में रोड़ा अटका रहे हैं। उनमें से एक है—स्त्री जाति के पैरों में पराधीनता की बेड़ी डाल रखना।’’ इस तरह के विचार व्यक्त करने पर स्वामी जी के एक शिष्य ने उनसे कहा था—‘‘स्त्री जाति साक्षात् माया की मूर्ति है। मनुष्य के अधःपतन के लिए ही मानो उसकी सृष्टि हुई है। बौद्ध युग में जब स्त्रियों के लिए मठ खोले जाने लगे तो उनमें अनेक प्रकार से व्यभिचार फैले। सम्भव है, इसीलिए शास्त्रों ने इंगित किया है कि उनके लिए ज्ञान-मुक्ति का लाभ लेना कठिन है।’’
स्वामी विवेकानन्द ने बड़े जोर से फटकारते हुए उक्त शिष्य से कहा था—‘‘समझ में नहीं आता कि इस देश में स्त्री को इतनी नीची निगाह से क्यों देखा जाने लगा जब कि यहां के दार्शनिक-ग्रन्थों में तो यह सिद्धान्त बताया जाता है कि एक ही चित्सत्ता सब भूतों में विद्यमान है। तुम लोग स्त्रियों की निन्दा करते हो और इस देश निवासियों ने तरह-तरह के नीति-नियम बनाकर उसे एकदम बच्चा पैदा करने की मशीन बना डाला। जगदम्बा की साक्षात् मूर्ति इन स्त्रियों को इस तरह गिराने के कारण ने ही इस देश का इतना अधःपतन कर डाला। किस शास्त्र में लिखा है कि स्त्रियां-ज्ञान और मुक्ति की अधिकारिणी नहीं हो सकतीं? जिस अन्ध युग में ब्राह्मण-पण्डितों ने ब्राह्मणेतर जातियों को वेदपाठ का अनाधिकारी घोषित किया, उसी काल में स्त्रियों के भी अधिकार छीन लिए गए। अन्यथा वैदिक युग में, उपनिषद् युग में तुम देखो—मैत्रयी, गार्गी आदि प्रातः स्मरणीय स्त्रियां ब्रह्म विचार में ऋषि तुल्य हो गई थीं। सहस्र वेदज्ञ ब्राह्मणों की सभा में गार्गी ने गर्व के साथ याज्ञवल्क्य का ब्रह्मज्ञान के शास्त्रार्थ के लिए आह्वान किया था। इन सब आदर्श विदुषी स्त्रियों को जब उस समय अध्यात्म का अधिकार था, तब फिर आज भी स्त्रियों को वह अधिकार क्यों न रहेगा?’’
स्वामी विवेकानन्द के इन विचारों से स्पष्ट हो जाता है कि हमारे देश में जब चतुर्दिक उन्नति हुई, तब नारियों को कभी गिरी हुई दृष्टि से नहीं देखा जाता रहा। मातृत्व इतना महिमामय है भी, जिसकी छत्रछाया में पलकर लोग विभूतिवान् बनें और देश व समाज के लिए उल्लेखनीय सेवाएं कर सकें। प्राच्य संस्कृति में सन्तान का अच्छा या बुरा होना मां की मर्यादा के साथ जुड़ा हुआ था। राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, शिवाजी, प्रताप, अशोक, विक्रमादित्य, सुभाष, गांधी और नेहरू सरीखे महान् व्यक्तित्वों को जन्म देने और उनका निर्माण करने का श्रेय मां को ही रहा है। सामान्य लोगों में भी पिता की अपेक्षा मां का स्थान ही सर्वोपरि है। पिता के संरक्षण और प्यार का उतना प्रभाव सन्तान पर नहीं पड़ता, जितना कि मां की ममता और लाड़-प्यार का पड़ता है। मां के आंचल की छाया जिस पुरुष को नहीं मिली, उसने जीवन में आगे चलकर कोई बड़ा कार्य किया हो, ऐसी विभूतियां अपवाद स्वरूप ही मिलती हैं। लेकिन व्यक्तित्व के गठन से लेकर समाज, सभ्यता और संस्कृति के निर्माण में व्यक्ति तब भी सक्षम हुए हैं, जब कि उनके पिता असमय ही छिन गए। कहने का अर्थ यह है कि पिता के अभाव की पूर्ति मां कर सकती है, पर मां के अभाव की पूर्ति पिता के द्वारा सम्भव नहीं।
अतः यह कहना अनुचित नहीं होगा कि पुरुष जाति का अस्तित्व नारी के कारण ही सुरक्षित है। यही नहीं, विभूतिवान व्यक्तित्वों का निर्माण तथा समाज की उल्लेखनीय सेवा करने वाले महामानवों का सृजन भी माताएं ही कर सकी हैं, उन्हें दासी और अनुचरी कहकर पुरुष स्वयं को चाहे जो समझ ले, पर इससे उसी को नहीं, सारे राष्ट्र को ही अपार हानि उठानी पड़ती है। राष्ट्र की जननी, पुरुष की सहयोगिनी, सहचरी और अनुवर्तिनी को पैर की जूती समझकर तथा पशुओं से भी बदतर रखकर उसका अपना क्या हित होगा? जिसका सहारा लेकर, जिसका सहयोग पाकर ऊंचा उठा जा सकता है, उस सहारे को कमजोर बनाकर क्या पाने की आशा की जा सकती है? यह तो उसी डाली को काटने जैसी मूर्खता है, जिस पर बैठा जा रहा हो।
स्त्रियों को विकसित करने के लिए, उनकी योग्यताओं और क्षमताओं का उपयोग राष्ट्रहित में करने के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है कि उनका पिछड़ापन दूर करने के लिए प्रभावशाली पग उठाये जायं। इस दिशा में पहला कदम उनकी अशिक्षा दूर करने का, उन्हें अज्ञानान्धकार से दूर निकालने का हो सकता है। घर की चहार दीवारी में कैद रहने से ही नारी—असभ्य, असंस्कृत, अपंग और अयोग्य बन गई है। उसकी जड़ हो गई चेतना राष्ट्र और समाज के लिए उसकी सारी उपयोगिता को नष्ट करने का कारण बनी है। अज्ञान और दासता के प्रतिबन्धों ने उसे कायर और भीरु बना दिया है। घर में रहते हुए भी वह कितनी दबी-दबी है, मानो उस पर अभी ही जैसे कोई विपत्ति आने वाली है, जिससे वह अपनी रक्षा नहीं कर पाएगी। कोई विपत्ति न होने पर भी वह इतनी भयभीत-सी है, तो जब वास्तव में विपत्ति आ जायगी, तब उसकी क्या दशा होगी—कुछ कहा नहीं जा सकता। सम्भावित विपत्तियों की कल्पना मात्र से वह रोने-चिल्लाने लगती है, उसमें न उसका सामना करने का साहस होता है—न कोई उपाय खोजने की बुद्धि।
इन सबका कारण है—पुरुष! पुरुष ही वह अपराधी है, जिसने नारी को इस दशा में पहुंचाया है और अपने अपराध का प्रायश्चित करने के लिए उसे उत्साहपूर्वक आगे आना चाहिए। इसका ठीक यही समय है, जिसमें कि हम लोग रह रहे हैं।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118