पत्नी का सम्मान गृहस्थ का उत्थान

पति होने का अहंकार त्यागिए

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प्रकृति ने स्त्री और पुरुष में शरीर संरचना को छोड़कर उनमें कोई भेद नहीं रखा है। शरीर संरचना में भी भेद इसलिए है कि दोनों के सहयोग से सृष्टि क्रम चलता रहे। संरचना संबंधी इस अन्तर को छोड़ दें। दोनों के जीवन, श्वांस, हृदय, मस्तिष्क, बुद्धि, आंखें, मांस, मज्जा और रक्त अस्थियां एक जैसे तत्वों से ही बनी हैं। प्रकृति प्रयोजन के लिए और आत्मिक आदान प्रदान के लिए दोनों का साथ रहना आवश्यक है और यह आवश्यकता पति-पत्नी के संबंधों के रूप में पूर्ण होती है, जो क्रमशः मन, मस्तिष्क, हृदय, अन्त:करण तथा प्राणों की एकता के साथ सघन होते जाते हैं। कहना नहीं होगा कि प्रेम और आत्मीयता का पाठ पढ़ना मनुष्य परिवार से ही आरंभ करता है और परिवार उसके लिए इतना आवश्यक है कि उसके बिना किसी व्यक्ति का जीना तक दूभर हो जाता है।
परिवार बसाने और पति पत्नी चुनने की सुविधा प्रकृति ने मनुष्य को ही दी है। इसे एक सामाजिक समझौता भी कहा जा सकता है और आत्मिक विकास का एक उपक्रम भी। कहने को कुछ भी कह लिया जाय पर इस क्षेत्र की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए, एक दूसरे का कार्य तथा दायित्व बांटने एवं उन्हें तत्परता पूर्वक निभाने के लिए ही यह परंपरा चली। एक बाहर का क्षेत्र सम्हालता है तो दूसरा घर की आंतरिक व्यवस्था देखता है। यहां तक बात समझ में आती है और उचित भी है। सुविधा की दृष्टि से दोनों एक-एक क्षेत्र सम्हालें। परन्तु इसका क्या औचित्य है कि इन्हीं में से किसी आधार को लेकर कोई पक्ष अपने को बड़ा समझने लगे तथा दूसरे का शोषण करे? किन्हीं विशेष परिस्थितियों में कोई अपने साथी के उत्तरदायित्वों को स्वयं निभाने में आनाकानी करे, संकोच करे और हेठी समझे, यह विकृति नहीं तो और क्या है?
स्त्री के जिम्मे घर के काम रहते हैं। रसोई बनाने, सफाई करने, बच्चों की देखभाल करने जैसे कार्य गृहस्थी कार्य क्षेत्र में आते हैं। पुरुष ने अपने लिए बाहर से कमाना, नौकरी धन्धा करना, खेती बाड़ी सम्हालने जैसे काम ले रखे हैं। परन्तु यह विडम्बना पुरुषों के मामले में ही अधिकतर देखने को मिलती है कि आवश्यकता पड़ने पर घर के अन्दरूनी कामों की देखभाल करने में अपनी हेठी समझने लगते हैं। महिलाएं तो आये वक्त पर पुरुष के क्षेत्र में भी काम कर लेती हैं, निर्वाह के साधन जुटाने में भी लगती देखी जा सकती हैं परन्तु पति बीमारी की अवस्था में भी पत्नी से ही अपेक्षा करता है कि वह उसे खाना बनाकर खिलाए और बच्चों को सम्हाले।
जिस आधार पर सहचरत्व धर्म का पालन करने के लिए दाम्पत्य जीवन आरंभ किया गया था, यह रीति नीति उस आधार पर ही कुठाराघात करती है। विवाह के समय वर वधू दोनों प्रतिज्ञा करते हैं कि हम एक-दूसरे के प्रति कर्तव्यनिष्ठ रहेंगे, एक-दूसरे का सहयोग करेंगे ओर प्रगति के पथ पर साथ-साथ अग्रसर होंगे। पर आगे चलकर यह प्रतिज्ञा उस समय अधूरी और लूली-लंगड़ी रह जाती है जब पुरुष पत्नी का काम सम्हालने में छोटापन अनुभव करता है और उसी प्रकार उसे पुरुष के क्षेत्र में प्रवेश करने से भी रोकता है।
सुविधा की दृष्टि से कार्यक्षेत्र के विभाजन को अपने दायित्वों और कर्तव्यों की अंतिम सीमा रेखा मान लेना किसी भी दृष्टि से वांछनीय नहीं कहा जा सकता। सचाई तो यह है कि पति और पत्नी दोनों मिलकर ही एक संपूर्ण इकाई-समग्र व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं और दोनों एक-दूसरे के सहयोग से ही आगे बढ़ सकते हैं। सुविधा की दृष्टि से कामों का विभाजन कर लेना और बात है परन्तु ऐसी कोई कठोर मर्यादा नहीं बनाई जा सकती कि अमुक कार्य केवल पति ही करे और अमुक कार्य के लिए पत्नी पर ही निर्भर रहा जाए। औचित्य का तकाजा यह है कि दोनों आवश्यकता पड़ने पर दोनों एक-दूसरे के सहयोगी और पूरक बनने का सिद्धान्त चरितार्थ करें और वफादार तथा कर्तव्यनिष्ठ साथी की तरह एक-दूसरे के काम में मदद करें, चाहे वे कार्य घर के हों या बाहर के हों।
देखा गया है कि स्त्रियां तो फिर भी अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटतीं। अपने को घर का मुखिया-स्वामी समझने के अहंकार से पुरुष ही दूसरे कामों में हाथ लगाना अपनी अवमानना समझता है। जैसे पत्नी को परिवार से सभी सदस्यों के लिए भोजन तैयार करना पड़ता है, लेकिन कभी वह बीमार पड़ जाती है तो पति खुद भोजन बनाने की अपेक्षा पत्नी से ही यह आशा करता है कि वह बीमारी की हालत में भी खाना बना कर दे या वह होटल में खाने की बात सोचेगा अथवा घर में बच्चे हों तो उनके हाथ से भोजन बनवाने का विचार करेगा।
पत्नी के होते हुए पति महाशय को अपने हाथ से खाना बनाने में संकोच लगता है। उसे चूल्हा फेंकने में शर्म आती है। सहज भाव से पत्नी ने किसी कारणवश पति को भोजन बनाने के लिए कह भी दिया तो पति महाराज इस तरह तुनक उठेंगे, जैसे उन्हें कोई बहुत ही गन्दा और नीच काम करने के लिए कह दिया हो। इस मनोभूमि का कारण केवल पति होने का अहंकार ही है, इसके सिवा कुछ नहीं। अन्यथा पत्नी को अपना साथी-सहचर मानने वाले ऐसे अवसरों पर कभी भी संकोच नहीं करते। प्राचीनकाल में तो यह व्यवस्था भी थी कि लड़कियों की भांति ही लड़के भी पाक विद्या और गृहकला सीखते थे। गुरुकुलों के आचार्य अपनी पत्नी के साथ ही गुरुकुल के सभी बच्चों की देखभाल करते और भोजन बनाने से लेकर आश्रम की सफाई करने तक किसी भी काम में संकोच नहीं करते थे। राजा नल पाक विद्या में निपुण थे और उनकी इसी विशेषता के कारण दमयंती ने उन्हें ऋतु पर्वा के यहां छद्म वेश में भी पहचान लिया था, जब वे सारथी के रूप में काम कर रहे थे। गदाधारी, महाबलशाली भीम अज्ञातवास के समय भी राजा विराट के यहां रसोइए के काम पर नियुक्त थे। फिर सामान्य पढ़े-लिखे या सुशिक्षित-सुसंस्कृत लोग ही क्यों संकोच करते हैं? स्पष्ट ही इसका कारण पति होने का अहंकार है।
इस अहंकार के कारण पुरुष घर की आन्तरिक व्यवस्था में से शायद ही किन्हीं कार्यों में रुचि लेता हो। भोजन बनाने की बात तो दूर रही, बच्चों को सम्हालने, बीमार की सेवा सुश्रूषा करने तक के लिए पत्नी को ही नियुक्त किया जाता है। लेकिन जरूरत पड़ने पर पति उसके गीले कपड़े निचोड़ने या उसके वस्त्र उठाकर रखने में भी नाक-भौं सिकोड़ते हैं। सेवा का क्या यही मूल्य चुकाया जाना चाहिए? कहां तो पत्नी को गृहलक्ष्मी, अर्द्धांगिनी और सहधर्मिणी घोषित करते-करते नहीं अघाया जाता और कहां उसका छोटा सा काम करने में भी संकोच या झिझक होती है।
कई बार तो यहां तक देखा जाता है कि स्त्रियां दिन रात काम में लगी रहती हैं। उन्हें जरा भी अवकाश नहीं मिलता। दूसरी ओर पुरुष व्यर्थ आलस्य में पड़े रहने, मौज करने और ताश-शतरंज खेलने में ही दिन गुजार देते हैं जबकि आवश्यक यह है कि यदि अपने पास समय हो तो उसे पत्नी के सहयोग में लगाया जाय, ताकि उसका कार्य जल्दी पूरा हो और थकान, तनाव से जितना संभव हो सके उसे बचाया जा सके। लेकिन लोग काम-काज में सहयोग करना तो दूर रहा, पत्नी के प्रति सहानुभूति तक नहीं रखते, उल्टे अपने काम-काज, कार्यक्रमों से उसे परेशानी में डालते रहते हैं।
पति के इस अहंकार ने भारत में पत्नी को इतना क्षुद्र बना दिया गया है कि पतिव्रत के नाम पर वह बेचारी पति की बिना खरीदी गुलाम और बन्धुआ मजदूर बनकर ही रह जाती है। इस स्थिति को बदला जाना चाहिए और पुरुष को अपने पति होने का अहंकार छोड़कर पत्नी के साथ सच्चे सहयोगी, मित्र का व्यवहार अपनाना चाहिए।

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