डडडड

June 1982

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इसे विधि विडम्बना ही कहना चाहिए कि बहिर्मुखी इन्द्रियों पर निर्भर मस्तिष्क की दृश्यमान सत्ता ही परिलक्षित होती है। अदृश्य उपेक्षित ही परिलक्षित होती है। अदृश्य उपेक्षित ही पड़ा रहता है। जबकि प्रत्यक्ष की तुलना में परोक्ष की सामर्थ्य अत्यधिक है। शरीर दीखता है, आत्मा नहीं। वर्तमान दीखता है भविष्य नहीं। स्वाद दीखता है अपच नहीं। वासना दीखती है जर्जरता नहीं वैभव दीखता है व्यक्तित्व नहीं। इसी को बुद्धिमान द्वारा अपनाई गई मूर्खता कह सकते हैं। विवेक युक्त दूरदर्शिता अपनाई जा सके तो ही प्रेय की तुलना में श्रेय का महत्व मिल सकता है। दैवी अनुग्रह में जिस वरदान की अपेक्षा की जानी चाहिए उसे ऋतम्भरा प्रज्ञा दूरदर्शी विवेक शीलता ही माना गया है। देवताओं के पास देने के लिए उच्चस्तरीय प्रेरणा भर है। शेष उपलब्धियाँ तो मनुष्य के उस पराक्रम का प्रतिफल हैं जिसकी अजस्र क्षमता उसे जन्मजात उपहार के रूप में अनायास ही उपलब्ध है।

अन्तः प्रज्ञा जगे तो एक सूझ सूझे कि शरीर और उससे सम्बन्धित साधन एवं कुटुम्बी ही सब कुछ नहीं हैं। लोभ और मोह की पूर्ति में ही सफलता की इति श्री नहीं हो जाती,वरन् करने योग्य एक और भी बड़ा काम है− आत्मोत्कर्ष। इसके लिए अपनाये जाने वाले उपाय अवलम्बनों में प्रमुखता उपासना की है। सृष्टा की अगणित क्षमताएँ इस विश्व ब्रह्माण्ड की दृश्य और अदृश्य गति विधियों का सूत्र संचालन करती है उनमें से एक सत्ता है−परमात्मा। यह आत्मा के चरम उत्कर्ष की परिणति है। आत्मा के चरम उत्कर्ष की परिणति है आत्मा क्षुद्र है परमात्मा महान। आत्मा सीमित है—परमात्मा असीम। आत्मा की लिप्साएँ घेरे रहती है—कषाय−कल्मष चढ़े रहते हैं−लोभ,मोह के भव−बंधन जकड़े रहते हैं। किन्तु परमात्मा की उत्कृष्टता इससे बहुत आगे की है। वह आदर्शों की समुच्चय है। परब्रह्म के इस अंश की उपासना आत्मा की करनी होती है। समग्र परमेश्वर तो अचिन्तय है। साक्षी, दृष्टा भी। उसकी व्यापकता और विधि −व्यवस्था तो मानवी बुद्धि की कल्पना से भी परे हैं। इसलिए परब्रह्म की सत्ता के साथ जुड़े हुए अनुशासन का निर्वाह की पर्याप्त माना जाता है उपासना परमात्मा की,की जाती है। परमात्मा का अर्थ फिर एक बार समझ लेना चाहिए। विराट्−महान उदात्त। उसे आदर्शों का समुच्चय कह सकते हैं। उसके साथ सम्बन्ध स्थापित करने का नाम ही प्रतिफल है− संकीर्ण स्वार्थपरता से मुक्ति। व्यक्तित्व में श्रद्धा,प्रज्ञा, निष्ठा की सन्तोषजनक मात्रा में अभिवृद्धि। अंतःक्षेत्र की विशिष्टताओं को विभूतियाँ कहते हैं। जहाँ वे रहेगी वहाँ सफलताओं−सम्पदाओं की कमी न रहेगी। फूल खिलता है तो तितलियाँ, मधु मक्खियां अनायास ही उससे लिपटने दौड़ पड़ती हैं। महानता अपने साथ ऋषि सिद्धियों का परिकर भी समेटे रहती है। आत्मोत्कर्ष के साथ वैभव भी रहता है। यह दूसरी बात है कि कोई उदात्त सम्वेदनाओं से प्रेरित होकर उसे उपभोग की अपेक्षा परमार्थ प्रयोजनों में लगा दे। आत्मवान् विभूतिवान् भी होते है। उपासना की दिशा में कदम बढ़ाने का तात्पर्य है आत्मा में महानता के समावेश का उपक्रम इससे तत्काल प्रत्यक्ष कितना लाभ होता है। इसका तो निश्चय नहीं किन्तु कुछ ही कदम बढ़ने पर समय को बर्बादी जैसा असमंजस दूर हो जाता है। बीज बोकर धैर्य पूर्व अंकुर उगने और समयानुसार फसल पकने पर विश्वास करने वाले किसान जैसी मनःस्थिति उपासना मार्ग पर चलने वाले की भी हो जाती है।

स्तोत्र पाठ की चापलूसी और पूजा पत्री को रिश्वत मानकर जो देवता को बरगलाने फुसलाने की बाल बुद्धि अपनाये रहते हैं, उन्हें लाटरी ने फलने की तरह निराशा भी होती है। जिनने तन्त्र मन्त्र को मनोकामना पूर्ति की जादूगरी समझा है और राई जैसी क्रिया−कृत्य के बदले कर्मफल की मर्यादा को लाँघकर मनमानी ऋद्धि−सिद्धियाँ समेटने का दिवास्वप्न गढ़ा है उनका निराश होना स्वाभाविक है। संसार के हाट बाजार में हर बाजार में हर वस्तु उचित मूल्य पर खरीदी बेची जाती है। देवता भी इस विधि− व्यवस्था से अनुशासन मुक्त नहीं हैं। कोई मन्त्र−तन्त्र ऐसा नहीं है जो पात्रता उपार्जन किये बिना मनचाही सफलताएँ लाकर हथेली पर रख दे। अध्यात्म प्रबल पुरुषार्थ का नाम है जिसमें आत्म परिष्कार के लिए महाभारत जैसी लड़ाई लड़नी पड़ती हैं। इस अग्निपरीक्षा में जो उत्तीर्ण होते है वे खरे सोने की तरह अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करते और मन्डी में महंगे मोल बिकते हैं। यही है आध्यात्मिक उपलब्धियों का तत्वदर्शन राजमार्ग, विधि−विधान और सुनिश्चित निर्धारण। जो इस झंझट से बचाकर मनुहार के सहारे बहुत कुछ झटक लेने का जाल−जंजाल बुनते रहते हैं वही तथाकथित ‘भक्त जन’ रोते−कलपते पाये जाते हैं। आत्मा का परमात्मा स्तर तक पहुँचाने के लिए अपनाया गया उपासना उपक्रम सुनिश्चित आधार पर अवलम्बित सुनिश्चित विज्ञान है। उसमें न भटकाव है न दिवास्वप्न देखने का जंजाल। पुरुषार्थ का प्रतिफल हर क्षेत्र में सुनिश्चित है फिर आत्मोत्कर्ष के क्षेत्र में ही क्यों कोई व्यतिरेक खड़ा होगा।

प्रज्ञा परिजनों को इस तथ्य पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए और जिस प्रकार अभाव को वैभव में बदलने के लिए सतत् प्रयत्न किया जाता है उसी प्रकार आत्मा को परमात्मा स्तर तक पहुँचाने के लिए भी दूरदर्शी विवेकशीलता अपनाकर— उपासनात्मक पुरुषार्थ का अवलम्बन करना चाहिए। इसके लिए लक्ष्य−इष्ट−निर्धारण करना होता है। भारत की सनातनी परम्परा में वह महाप्रज्ञा के रूप में ही निर्धारित है। गुरु मन्त्र गायत्री है। संध्या−वन्दन का आधार वही है। योग और तप को उसे धुएँ कहा गया है। आद्यशक्ति और आत्मशक्ति को पर्यायवाचक माना गया है। अनेक देवी−देवता, अवतार उसी के अंग अवयव मात्र हैं। जड़ को सींचना चाहिए। शाखा−प्रशाखाओं—टहनियों पत्तियों के साथ तो सम्बन्ध अनायास ही सध जाता है। उपनिषदों में जिसे ब्रह्म विद्या, आत्म−विद्या कहा जाता है— उसे महाप्रज्ञा का ही दार्शनिक ढाँचा कहना चाहिए। परमात्मा की उपलब्धि में ऋतम्भरा का आश्रय ग्रहण करना ही राजमार्ग है। प्रज्ञा परिजनों को यह उच्च समझने में तनिक भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए। वे आत्मशक्ति गायत्री के सम्बन्ध में चिरकाल से बहुत कुछ पड़ते−सुनते आ रहे हैं। पूर्ण शक्ति के रूप में उस के सामयिक प्रकटीकरण की बात भी सर्वविदित है। नव युग, प्रज्ञायुग होगा। अपने समय का अवतार इसी रूप में प्रकट होगा। आस्था संकट के निवारण में युग साधकों को महाप्रज्ञा का अवलम्बन ही अपनाना होगा।

जो अन्य देवी देवताओं के मन्त्र उपचारों के अभ्यासी रहे हों। वे उन्हें भी अपनाये रह सकते हैं। छोड़ने को कुछ नहीं कहा जा रहा है। जोर अपनाने पर दिया जा रहा है। कहा जा रहा है कि अपनी उपासना का केन्द्र बिन्दु परमात्मा सविता को—महाशक्ति−सावित्री पर अवलम्बित होना चाहिए। उसका दृश्य स्वरूप सविता और शब्द शक्ति सावित्री है। सविता सूर्य को कहते हैं। सावित्री वही है जो ॐकार, तीन व्याहृति सहित चौबीस अक्षरों वाली गायत्री के रूप में प्रख्यात है। सविता का ध्यान किया जाता है और गायत्री का जप। जप और ध्यान का समन्वय ही अन्तः चेतना में उतना लोच उत्पन्न करता है जिससे आत्मा को परमात्मा के साथ जुड़ने का सौभाग्य मिल सके। जप और ध्यान अदृश्य प्राण पर शरीर का कलेवर चढ़ा रहता है उसी प्रकार उपासना के सूक्ष्म पुरुषार्थ पर पूजा अर्चा को उपचार प्रक्रिया का भी समावेश करना पड़ता है। महाप्रज्ञा के रूप में परमात्मा सत्ता के साथ घनिष्ठता साधने की विधि−व्यवस्था के तीन आधार समझे जाने चाहिए (1) प्रतीकोपचार (2)गायत्री जप (3)सविता की ध्यान धारणा। तीनों का त्रिवेणी संगम बनता है। आत्मोत्कर्ष में इन तीनों की वैसी ही उपयोगिता है जैसी कि शरीर निर्वाह में अन्न, जल और वायु की।

इन पंक्ति यों में न्यूनतम की चर्चा की जा रही है। ताकि अनभ्यस्त लोगों को तनिक-सा अधिक भार पड़ने पर अनख मानने और व्यस्तता, चिन्ता आदि की आड़ लेकर असमर्थता का कोई बहाना न गढ़ना पड़े। आरम्भ सरल हो। पीछे जैसी श्रद्धा बढ़े, रुचि बदले जैसे−वैसे अधिक मात्रा में कठिन स्तर के उपचार भी अपनाये जा सकते हैं। बच्चों को बेबी फ्रूड दिया जाता है और पहलवान को बादाम का हलुआ। यही नीति उपासना क्षेत्र में भी अपनाई जानी चाहिए। यहीं यह मानकर चला जा रहा है कि सभी प्रज्ञा परिजनों का पट्टी पूजन हो रहा है। वर्णमाला का ककहरा पढ़ाया जा रहा है। जिसकी प्रगति आगे तक पहुँची हो वे गायत्री महाविज्ञान ग्रन्थ एवं युग शक्ति गायत्री के पिछले अंक पढ़लें निजी पत्र−व्यवहार करके अपने उपयुक्त अगला मार्ग दर्शन प्राप्त कर लें इन पंक्ति यों का उद्देश्य श्रीगणेश शुभारम्भ कराना है। अच्छा हो सभी एक साथ कदम मिलाकर चलें और नये पुराने का भेद न करके एक ही पंक्ति में बैठ कर भोजन करें। सर्वजनीन सुविधा की दृष्टि से यही उपाय अवलम्बन सफल और श्रेयस्कर है।

हमारे घरों में गायत्री माता का चित्र सुसज्जित चौकी पर स्थापित रहना चाहिए। उसे घर परिवार का देवालय माना जाय। जिस प्रकार बड़ों के अभिवादन की परम्परा सभी सद्गृहस्थों में होती है उसी प्रकार परमात्म सत्ता की प्रतिनिधि गायत्री माता की चित्र प्रतिमा का नमन वन्दन भी दैनिक शिष्टाचार का अंग होना चाहिए। घर के सदस्यों को कहा जाना चाहिए कि वे नित्यकर्म से निवृत्त होकर उस प्रतीक स्थापना के सम्मुख पहुँचें। हाथ जोड़कर सिर नवाकर नमन वन्दन करें। पाँच मिनट आँखें बन्द करके सविता के प्रकाश अवतरण का ध्यान करें साथ ही गायत्री मन्त्र का मानसिक जप भी। यह पाँच मिनट का न्यूनतम संध्या− वन्दन परिवार के जो सदस्य प्रसन्नतापूर्वक अपना सकें उनके इसके लिए अनुरोध आग्रह करना चाहिए। दबाना किसी को भी नहीं चाहिए इससे प्रतिरोध उत्पन्न होता है। महत्ता समझने, परामर्श देने से ही जो मान सके उन्हीं को मनाना चाहिए। दबाव देकर विग्रह खड़ा करने से तो उपासना का महत्व ही चला जाता है। जो भी, जितना भी किया जाय श्रद्धा युक्त हो।

यह पारिवारिक परम्परा में उपासना के न्यूनतम समन्वय की बात हुई। अब निष्ठावान् प्रज्ञा परिजनों की बात आगे आती है। उनके लिए न्यूनतम निर्धारण में इतना और जुड़ता है कि प्रातःकाल आँख खुलते ही बिस्तर पर पड़े−पड़े पन्द्रह मिनट मानसिक जप और आलोक अवतरण का ध्यान करें। इसी प्रकार रात्रि को सोने से पूर्व पन्द्रह मिनट निदिध्यासन की साधना करें। इसके दो अंग हैं—मनन और चिन्तन। इन दिनों की— विशेषतया आज की अपनी स्थिति का पर्यवेक्षण मनन हो और भूलों को सुधारने अभीष्ट को अपनाने के लिए अगले दिन का कार्यक्रम बनाना—चिन्तन। संक्षेप उसे सामयिक आत्म समीक्षा और प्रगति चेतना का ताना− बाना बुनना कहा जा सकता है। इतना करते हुए निद्रा की—प्रज्ञा की गोद में सो जाने का नित्य नियम अपनाना चाहिए। यह न्यूनतम है। इसमें स्नान का, समय का, उपचार सामग्री का कोई बन्धन नहीं है। यह कहीं भी−किसी भी स्थिति में किया जा सकता है। पन्द्रह−पन्द्रह मिनट प्रातः−सायं का समय इस प्रयोजन के लिए निर्धारित रखा जाय तो भी काम चल जायगा। यह घर के अन्य लोगों की अपेक्षा प्रज्ञा परिजनों के लिए विशेष साधना पुरुषार्थ हुआ।

इसी प्रकार पूजा की चौकी की सफाई, सज्जा एवं अक्षत, जल, पुष्प, रोली, अगरबत्ती, नैवेद्य से पूजा भी उन्हीं को करनी चाहिए। यह बन्धन रहित उपासना ऐसी है जिसमें उपेक्षा, अश्रद्धा के अतिरिक्त और कोई कठिनाई आड़े नहीं आती। पूजा उपचार देवता का करने से आत्म देव में पात्रता और प्रखरता की प्राण प्रतिष्ठा करने के लिए पवित्रीकरण, आचमन, शिखा− वन्दन, प्राणायाम, न्यास, पृथ्वी पूजन के षट्कर्म करने चाहिए। इसका सरल विधान किसी भी अभ्यस्त उपासक से पूछ लेना चाहिए।

इससे एक कदम आगे की बात है कि प्रातः उठने पर नित्य कर्म स्नानादि से निवृत्त होकर पूजा स्थान पर बैठा जाय और तीन माला गायत्री जप किया जाय। इसमें प्रायः पन्द्रह मिनट लगते हैं। माला न होने पर घड़ी या उँगलियों पर गिनगिन कर भी काम चलाया जा सकता है। जप करने में होठ तो हिलते रहें पर उच्चारण इतना मन्द हो कि दूसरे उसे सुन न सकें।

जप के साथ ध्यान आवश्यक है। पूजा गायत्री माता की और ध्यान सविता पिता का। इस प्रकार उभयपक्षीय उपक्रम से जप और ध्यान का सहज संयोग बन पड़ता है। जप में शरीर और ध्यान में मन को कार्यरत कर देने से एकाग्रता बन पड़ती है और मन की चंचलता पर नियन्त्रण कर सकना सहज सम्भव होता है। ध्यान तो अकेला भी हो सकता है, पर जप के साथ तो ध्यान का संयोग रहना चाहिए। पानी तो अकेला भी पी सकते हैं पर रोटी के साथ पानी का संयोग तो रहना ही चाहिए। ध्यान पानी है और जप रोटी।

ध्यान में उदीयमान स्वर्णिम आभा वाले सूर्य का ध्यान करना चाहिए उसे परमात्म सत्ता का प्रतीक ऋतम्भरा आदि शक्ति गायत्री का प्राण अनुभव करना चाहिए। सविता परमात्मा की प्रतीक प्रतिमा प्रभात कालीन सूर्य को माना गया है। नेत्र बन्द करके उसका ध्यान करना चाहिए, साथ ही भावना करनी चाहिए कि निस्सृत ज्योति किरणें साधन के सम्पूर्ण कायकलेवर में प्रवेश करके उसमें ऊर्जा तथा आभा भर देती हैं। ऊर्जा अर्थात् प्रतिभा प्रखरता। आभा अर्थात् पवित्रता उत्कृष्टता। ध्यान द्वारा महाप्रज्ञा की प्राणधारा दिव्य− ज्योति को आत्म सत्ता में ओत−प्रोत करने का भावनात्मक पुरुषार्थ करना चाहिए। इसे कल्पना नहीं संकल्प पुरुषार्थ मानकर चना चाहिए।

सविता की प्राण ऊर्जा शरीर में पुरुषार्थ, मन में विवेक और अन्तःकरण में श्रद्धा का संचार कर रही है इस भावना को अधिकाधिक सुदृढ़ एवं सुनिश्चित करना चाहिए। गर्मी और रोशनी आत्म सत्ता में घुसती, बढ़ती और सदा सर्वदा के लिए प्रतिष्ठित होती चली जा रही है। इस विश्वास को ध्यान−धारणा के समय अधिकाधिक परिपक्व करना चाहिए। भागीरथ के तप ने स्वर्ग से गंगा को धरती पर उतरने के लिए बाधित किया था। अपनी ध्यान धारणा दिव्यलोक से परमात्म सत्ता को स्वर्णिम ज्योतिधारा के रूप में अन्तराल में अवतरित कर सकने में सफल हो रही है। यही विश्वास भरा भावचित्र जप के साथ−साथ ध्यान रूप में अन्तःकरण को प्रभावित, प्रकाशित करने लगे तो समझना चाहिए कि ध्यान में प्रगति चल पड़ी। यह ज्योति धारा प्रेरणा बनकर उभरती हैं। कारण शरीर में श्रद्धा—सूक्ष्म शरीर में प्रज्ञा होती है। आदर्शवादी उत्कृष्टता के अन्तराल में अभिवर्धन ही आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ने में समर्थ होता है। यह संयोग क्षुद्र को महान, बन्दी को मुक्त बनाने में समर्थ होता है। तृप्ति, तुष्टि और शान्ति के रूप में इसके प्रतिफल की अनुभूति होने लगती है।

युग सन्धि की इस पुण्य बेला में प्रज्ञा परिजनों के लिए एक विशेष शक्ति संचार उपक्रम है। हिमालय के अध्यात्म ध्रुव केन्द्र से युग सन्धि के बीस वर्षों में एक विशिष्ट शक्ति धारा प्रवाहित होती रहेगी। यह विभिन्न स्तर के लोगों की बदलती समय सारणी के द्वारा उपलब्ध होगी। प्रज्ञा परिजनों के लिए गुरुवार का एक दिन निर्धारित है। सूर्योदय से एक घंटा पूर्व से लेकर सूर्योदय तक धारा प्रवाहित होगी। परिजन सप्ताह में एकबार इसका लाभ उठा सकते हैं। नित्यकर्म से निवृत्त होकर कोलाहल रहित एकांत में पालथी मार कर—आँखें बन्द रख कर दोनों हाथ गोदी में रखकर शान्त चित्त स्थिर शरीर से ध्यान मुद्रा में बैठना चाहिए। भावना करनी चाहिए कि हिमालय के सर्वोच्च शिखर सुमेरु पर्वत से एक दिव्य प्रेरणा बहती हुई साधक तक पहुँचती है। अन्तराल तक पहुँचती है और वहाँ दिव्य लोक के कुछ अभिनव सन्देशों से अवगत कराती है।

यह न्यूनतम उपासना पद्धति प्रज्ञा परिजनों के लिए इन दिनों निर्धारित हो गई है जो इसे अपनायेंगे वे अनुभव करेंगे कि उनकी आत्मा परमात्मा के साथ जुड़ने के लिए अग्रसर हो रही है। यह मिलन संयोग ही आत्म−साक्षात्कार, या ब्रह्म साक्षात्कार कहलाता है। आरम्भ में इसकी मात्रा थोड़ी या सामान्य हो, कोई गहरी अनुभूति न होती हो तो भी हर्ज नहीं। पूर्व संचित और श्रद्धा विश्वास का स्तर उपासना की सफलता में आधार भूत कारण होता है। उसमें जैसे−जैसे वृद्धि होगी आत्मा से परमात्मा का प्रकाश अनुदान भी उसी अनुपात से उतरता बढ़ता चला जायगा। यह उपलब्धि मात्रा में थोड़ी होने पर भी व्यक्तित्व को उभारने और उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना सुनिश्चित बनाने में भावभरी उपासना का असाधारण योगदान रहता है इस तथ्य को समझना और उस मार्ग पर चल पड़ना ही श्रेयष्कर है।


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