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June 1982

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नीवार शूकवत् शुक्र ज्योतिर्वतश्यं वत्क्वचित्। चन्द्र वच्चाणुवत्सूक्ष्मं प्रादेश परिमाणवत्॥

खद्योतच्च स्फटिकदृशस्तारवत्वक्वचित्॥ नीलज्योतिः क्वचित् रक्तज्योतिः शुभ्रद्यु तिःक्वचित्॥

विविध ज्योतिरन्यत्र ज्योतिरेव सः। अभिव्यक्ति करा एवं अकारा ब्रह्माणि स्थिता॥

ज्योतिरेव परंब्रह्मा ज्योतिरवे परं सुखम्। ज्योतिरेव परा शन्तिर्ज्योतिरेव परं पदम्॥ − महायोग विज्ञान

अर्थात्− यह आत्म−ज्योति किसी को शुक्र के तारे के समान, किसी को सूर्य, चन्द्र,अग्नि, अथवा अणु जैसी प्रतीत होती है। जुगनू, स्फटिक मणि अथवा मोती की तरह यह दीखती है। यह सब अन्तःकरण में विद्यमान ब्रह्मा का अभ्यास कराती हैं। यह आत्मज्योति परब्रह्म है। इसी से परम पद और परम शान्ति की प्राप्ति होती है।


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