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June 1982

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पथ्यमौषधसेवा च क्रियते येन रोगिणा। आरोग्यसिद्धिदृ ष्टास्यनान्यनुष्ठितकर्मणा॥—विवेक.—55

अर्थात्—’पथ्य और औषधि को सेवन करने वाला रोगी ही आरोग्य लाभ प्राप्त करते देखा गया है,न कि किसी और के द्वारा किये हुए (औषधादि सेवन) कर्म से वह निरोग होता है। इसी प्रकार आत्म−कल्याण के लिए स्वयं ही प्रयास करना होता है।


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