अवाँछनीयता के आगे शिर न झुकाएँ

June 1982

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महत्व निर्माण का ही है। उपलब्धियाँ उसी पर निर्भर हैं। इतना होते हुए भी पहले से ही जड़ जमाकर बैठी हुई अवाँछनीयता निरस्त करने पर सृजनात्मक कदम उठाने की सम्भावना बनती है। खेत में कंकड़, पत्थर, झाड़ झंखाड़ जड़ जमाये बैठे हों तो उपयुक्त बीज बोने पर भी फसल न उगेगी। इस प्रसंग में सर्वप्रथम जोतने, उखाड़ने, बीनने और साफ करने का काम हाथ में लेना होगा। पहलवान बनने से पूर्व बीमारियों से छुटकारा पाना आवश्यक है। बर्तन में पानी भरने का प्रयत्न करने से पूर्व उसके छेद बन्द करने चाहिए। उद्यान लगाने वालों को पौधे चर जाने वाले पशुओं और फल कुतरने वाले पक्षियों से रखवाली का प्रबन्ध भी करना होता है।

अवतारों को पहले दुष्ट दमन करना पड़ा है तभी धर्म स्वामना का उपक्रम बना है। लंका विजय, महाभारत ही नहीं, व्यक्ति विशेष को भी इसी मार्ग पर चलना होता है। दुष्प्रवृत्तियों जड़ जमाये बैठी रहें तो सदाशयता को पनपने का अवसर ही न मिलेगा।

जीवन साधना में सर्वप्रथम यह देखना होता है कि चिन्तन और व्यवहार में अवाँछनीयताओं ने कहाँ−कहाँ अपने घोंसले बना रखे हैं। इन मक्कड़ जंजालों को सफा करना ही चाहिए। भोजन बनाने से पूर्व रसोई घर की−पात्र उपकरणों की सफाई आवश्यक होती है अन्यथा गन्दगी घुस पड़ने से खाद्य सामग्री विषैली हो जायगी और पोषण के स्थान पर स्वास्थ्य संकट उत्पन्न करेगी

मलीनता साफ करने के उपरान्त ही बात बनती है। प्रातः उठते ही शौच, स्नान, मंजन, कंघी, साबुन बुहारी का काम निपटाना पड़ता है तब अगली गतिविधियाँ अपनाने का कदम उठता है। जन्मते ही बालक गन्दगी में लिपटा आता है, सर्वप्रथम उस जंजाल से मुक्त कराने की व्यवस्था बनानी पड़ती है, सुन्दर कपड़े पहनाना उसके बाद होता है। त्योहार मनाने का पहला काम है— सफाई। पूजा उपचार भी प्रथम चरण यही है। प्रगतिशील स्थापनाओं का एक पक्ष दुष्ट दुरभि संधियों से निपटना भी है अन्यथा ‘अन्धी पीसे कुत्ता खाय’ वाली उक्ति चरितार्थ होती रहेगी। पानी खींचने से पहले कुआं खोदना पड़ता है। नींव खोदना पहला और दीवार चुनना दूसरा काम है। अनुपयुक्त से न निपटा जाय तो उपयुक्त प्राण प्रतिभा हो नहीं सकेगी। बौद्धों की एकाँगी अहिंसा को मध्य एशिया के वुतरे मुट्ठी भर आक्रमणकारी किस प्रकार देखते−देखते चट कर गये इसका स्मरण इतिहास के हर विद्यार्थी को होगा।

मक्खी, मच्छर, खटमल, पिस्सू, जुएँ, घुन, मकड़े चूहे आदि कृमि−कीटकों से न निपटा जाय—घरों में रहने वाले कनखजूरे, साँप बिच्छू, आदि आत्मरक्षा के उपाय न बरते जाँय तो अच्छे−खासे घर में भी जाना कठिन हो जायगा। पूजा कक्ष में अगरबत्ती जलाना अच्छी बात है पर नाली फिनायल छिड़कने की भी तो उपेक्षा नहीं होनी चाहिए।

दुर्व्यसनों, दुर्गुणों, उच्छृंखलताओं एवं बुरी आदतों से उत्पन्न होने वाली हानियाँ इतनी अधिक हैं कि उनकी आग में उपार्जन, स्वास्थ्य, सम्मान, सन्तुलन, भविष्य परिवार सभी कुछ ईंधन तरह जलते और समाप्त होते देखा जा सकता है। इसलिए संगति की योजनाएँ बनाते समय—यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि दुष्प्रवृत्तियों ने कहाँ−कहाँ डेरे तम्बू गाढ़ रखे हैं। अनुपयुक्त आदतों की विष बेलें कितनी गहराई तक अपनी जड़ें जमाती जा रही हैं। इस उखाड़−पछाड़ के बिना सुखद सम्भावनाओं का बीजारोपण ही नहीं सकेगा।

प्रत्यक्ष शत्रुओं से निपटना आसान है। चोर उचक्कों को सुरक्षा चौकीदारी से हो सकती है किन्तु उन दुष्प्रवृत्तियों से निपटना तो दूर उनको ढूँढ़ निकालना और होने वाली हानियों का अनुमान लगाना तक कठिन पड़ता है। अदृश्य को कैसे देखा जाय? अप्रत्यक्ष को कैसे पकड़ा जाय। सूक्ष्मदर्शी विवेक का माइस्क्रोप ही इन विषाणुओं का अता−पता बता सकता है जो दुर्गुणों के रूप में विषाणुओं की भूमिका निभाते और सर्वनाश का ताना−बाना बुनते रहते हैं।

अपने गुण, कर्म, स्वभाव में किस हेय स्तर की दुष्प्रवृत्तियाँ अधिकार जमाती हैं, इसका तीखा− निष्पक्ष पर्यवेक्षण करना चाहिए। शरीर क्षेत्र का शत्रु नम्बर एक−आलस्य है और मनःक्षेत्र का—प्रमाद। आलसी और प्रमादी प्रकारान्तर से आत्म हत्यारे हैं, वे अपने इन बहुमूल्य यन्त्रों को जंग लगाकर भोंथरे, अनुपयोगी एवं अपंग बना देते हैं। पक्षाघात पीड़ित जीते तो हैं किन्तु अशक्त असमर्थ, अर्ध मृतक की तरह रहकर। जिनके शरीर पर आलस्य का शनिश्चर छाया है वे काम से जी चुराते, और परिश्रम में बेइज्जती अनुभव करते देखे जाते हैं। प्रमादी मस्तिष्क पर जोर नहीं डालते। उचित अनुचित के पक्ष विपक्ष पर माथा−पच्ची नहीं करते जो चल रहा है उसी ढर्रे पर बेपैंदी के लोटे की तरह लुढ़कते रहते हैं। न समय की परवा होती है न हानि−लाभ की। किसी तरह दिन काटते चलना ही अभीष्ट होता है। सुख सुविधाओं की कल्पना भर करते हैं, उन्हें प्राप्त करने के लिए किस प्रकार योजनाबद्ध कदम उठाना और साहस जुटाना आवश्यक है इसके लिए दिमाग पर जोर नहीं डालते। वस्तुस्थिति समझने और तद्नुरूप सोचने करने की सूझ−बूझ न रहने से ऐसे ही शेखचिल्ली की सनक सनकते रहते हैं। श्रम बिन्दुओं में लक्ष्मी रहती है और सुव्यवस्थित संकल्पों में प्रगति। आलसी और प्रमादी इन दोनों से वंचित रहते हैं। पराक्रम रहित शरीर अपंग है और उत्साह रहित मस्तिष्क मूढ़ मति। ऐसी दीन दयनीय स्थिति मनुष्य की अपनी बनाई होती है। यदि दिनचर्या बनाकर समय के एक−एक क्षेत्र का उपयोग करने के लिए दिन भर के—भविष्य के—कार्य निर्धारित कर लिये जाँय और उन्हें प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर श्रमशील तत्परता और रुचि रस से भरा पूरी तन्मयता का संयुक्त नियोजन किया जा सके तो सफलता चरण चूमेगी और प्रगति पथ पर सरपट दौड़ने वाली चाल चौगुनी सौगुनी बढ़ती दीखेगी।

न शरीर पर आलस्य का शनिश्चर चढ़ा रहने देना चाहिए और न मस्तिष्क पर प्रमाद का राहु−केतु। समय, श्रम और मनोयोग का ऐसा समन्वय किया जाय कि प्रगतिशील, सफल सौभाग्यवानों की राह अपनाने का श्रेय गौरव उपलब्ध हो सके।

स्वभाव में कटुता, कर्कशता, उतावली, अधीरता उत्तेजना की उद्दण्डता भी उतनी ही घातक है जितनी कि दीनता, भीरुता, निराशा, कायरता। यह दोनों ही असन्तुलन भिन्न प्रकार के होते हुए भी हाई ब्लड प्रेशर−’लो ब्लड प्रेशर’ की तरह अपने−अपने ढंग से हानि पहुँचाते हैं। स्वभाव की सहिष्णु, धैर्यवान, गम्भीर, दूरदर्शी, सहनशील बनाने का प्रयत्न यदि निरन्तर जारी रखा जाय तो शिष्टता, सज्जनता के ढाँचे में प्रकृति ढलती जाएगी और हर किसी की दृष्टि में अपना मूल्य बढ़ेगा।

ईमानदारी, सच्चाई, सहकारिता, उदारता, मिल−जुलकर रहन—मिल−बाँटकर खाना—हँसने− हँसाने की हलकी−फुलकी जिन्दगी जीना जैसी आदतें यदि अपने चरित्र का अंग बन सकें तो इसमें घाटा कुछ भी नहीं लाभ ही लाभ है। बेईमान, झूठे, ईर्ष्यालू, स्वार्थान्ध, विद्वेषी, मनहूस प्रकृति के लोग अपनी चतुरता और अहम्यता का ढिंढोरा भर पीटते हैं। वस्तुतः वे कुछेक चापलूसों और अनाड़ियों को छोड़कर हर समझदार की दृष्टि से ओछे, बचकाने और घिनौने प्रतीत होते हैं। ऐसों से न किसी को सहानुभूति होती है और न आड़े वक्त में कोई साथ देता है। वह बात उन ढोंगियों के सम्बन्ध में है जो वस्त्र, आभूषण, शृंगार, ठाठ−बाट की फिजूलखर्ची पर पैसा उड़ाते, कार्टून बनते इधर−उधर मटकते फिरते हैं। सज−धज में समय और पैसा गँवाना न अमीरी है न सभ्यता। बड़प्पन दिखाने के लिए रचा गया यह ढकोसला कितनों की आँखों में धूल झोंकने, चकाचौंध उत्पन्न करने में सफल हुआ यह कहना कठिन है। वस्तुतः ऐसे लोग जोकर भर समझे और अप्रामाणिक ठहराये जाते हैं। फिजूलखर्ची, बड़प्पन, बेईमानी गरीबी के गर्त में गिरने की पूर्व सूचना है। ऐसी आदतें अपने में थोड़ी मात्रा में भी पनपी हों तो उन्हें छोटी दीखने वाली उस चिनगारी को लात से मसलकर बुझा ही देना चाहिए।

ऐसे−ऐसे और भी अनेकों दोष−दुर्गुण हैं जो विभिन्न व्यक्ति यों में विभिन्न प्रकार की अनुपयुक्त आदतों के रूप में प्रकट होते हैं। एक सभ्य सुसंस्कारी मनुष्य की प्रतीक प्रतिमा मन में बसानी चाहिए और उसकी तुलना में अपनी जो भी कमियाँ दीखती हों उन्हें संकल्प और साहस के सहारे उलटने का प्रयत्न करना चाहिए। उलटने का तरीका एक ही है कि अनौचित्य के स्थान पर उसका प्रतिपक्षी औचित्य अपनाया जाय। उसे अपने दैनिक जीवनक्रम में सम्मानित रखते हुए धीरे− धीरे स्वभाव को ही उस ढाँचे में ढाल लिया जाय। बुराई कोसते रहने से नहीं मिट जाती उसकी प्रतिपक्षी भलाई को प्रयोग में लाने की नियमित कार्य पद्धति अपनानी होती हैं। काँटे को काँटे से निकालते हैं और दुष्प्रवृत्तियों को हटाने के लिए सत्प्रवृत्तियों को उन से जूझने के लिए मोर्चे पर खड़ा करते हैं।

जीभ का चटोरपन अनावश्यक मात्रा में अभक्ष्य पेट पर लादता है और क्रमशः अपच, रक्त − दूषण बढ़ाते−बढ़ाते समूची स्वास्थ्य सम्पदा को ही बर्बाद करके रख देता है। इसी प्रकार कामुक चिन्तन में निरत रहने वाले पाते तो कुछ नहीं अपनी एकाग्रता, और चिन्तन की शालीनता गिराते−गिराते, घटाते−घटाते खोखला बनाने वाली दुश्चरित्र के मानसिक मरीज बन जाते हैं। ऐसे लोग बौद्धिक दृष्टि से तो दुर्बल होते ही जाते हैं। शरीरबल, मनोबल और चरित्र बल की दृष्टि से भी गई−गुजरी स्थिति में जा पहुँचते हैं। इन्द्रिय संयम, समय संयम, धन संयम, विचार संयम के महत्व को न समझने वाले, महत्वपूर्ण क्षेत्रों की बर्बादी अपने पैरों कुचल मारने की तरह करते हैं। आरम्भ की उच्छृंखलता कुछ ही दिनों में पहले सिरे की मूर्खता सिद्ध होने लगती है।

व्यक्तित्व को खोखला करने वाली दुष्प्रवृत्तियों को अपने चिन्तन, स्वभाव और व्यवहार में ढूँढ़ते रहा जाय साथ ही उन्हें संक्रामक बीमारी मानकर समय रहते उन्मूलन का उपाय उपचार किया जाता रहे तो यह अपने आपे से स्वयं लड़ते रहने की शूरता, किसी सफल सेनापति को विजयश्री मिलने जैसी मानी जायगी। जो अपने को जीतता है वह विश्व विजयी बनता है” इस उक्ति को सर्वथा सारगर्भित समझा जाना चाहिए। गीता में ऐसे ही धर्मक्षेत्र, कर्मक्षेत्र में अर्जुन को लड़ने का उपदेश भगवान ने दिया था। वह हर विचारशील के लिए सदा सर्वदा अनुकरणीय है।

यह व्यक्तिगत सुधार परिधि की—गुण, कर्म, स्वभाव क्षेत्र की चर्चा हुई। अब एक कदम और आगे बढ़ना चाहिए। परिवार एवं समाज के प्रयुक्त होने वाले प्रचलनों को भी इसी दृष्टि से देखना चाहिए और खोजना चाहिए कि सर्वत्र न सही अपने निज के व्यवहार तथा सम्बद्ध परिवार में ऐसी क्या अवाँछनीयताएँ हैं जो व्यक्तिगत क्षेत्र में पनपने पर भी समूचे समाज के लिए घातक सिद्ध होती हैं। टिड्डी दल किसी कन्दरा में जन्मता है, पर जब उड़ने लगता है तो दूर−दूर तक के खेत खलिहानों को उजाड़ता चला जाता है। हैजा प्लेग के विषाणु आरम्भ में किसी छोटे क्षेत्र में होते हैं पर छूत की बीमारी बनकर दूर−दूर तक फैलते और असंख्यों का प्राण हरण करते चले जाते हैं। मूढ़ मान्यताएँ, कुरीतियाँ और अनैतिकताएँ एक प्रकार से चरित्र एवं समाज क्षेत्र की बीमारियाँ हैं। यह जहाँ पनपती हैं उतने ही क्षेत्र में तबाही नहीं करती वरन् अपनी चपेट में सुविस्तृत क्षेत्र को जकड़ती और पतन पराभव का वातावरण बनाती चली जाती हैं। तालाब में एक जगह डेला फेंकने पर उससे उत्पन्न होने वाली लहरें समूचे सतह को हिलाने उछालने लगती हैं।

मूढ़ मान्यताओं के क्षेत्र में ऐसी अनेकों बातों का समावेश है जो अभ्यास में आ जाने से निर्दोष भी लगती है और रुचिकर भी। पर उनमें आदि से अन्त तक अवास्तविकता ही भरी रहती है। जादू−टोना, भूत− पलीत, देवी−देवता, भविष्य कथन, भाग्यवाद, फलित ज्योतिष के कुचक्र में कितने ही अपनी शान्ति गँवाते, भ्रम जंजालों में उलझते, विग्रह मोल लेते, जिस−तिस पर लाँछन लगते और भूल सुधारने के स्थान पर भाग्य को कोसते देखे जाते हैं। यदि इन भ्रम जंजालों से निकला जा सके तो भ्रान्तियों से उत्पन्न होने वाली विकृतियों एवं क्षतियों से बड़ी मात्रा में बचा जा सकता है।

आहार−बिहार सम्बन्धी कितनी ही मूढ़ मान्यताएँ इस विज्ञान के युग में भी बुद्धिमानों की मूर्खता बनकर रह रही हैं। आहार को स्वाभाविक रूप में लेने की अपेक्षा लोग उसे भुनते, तलते, मसालों, जायकों से विकृत करते हैं। फलतः खाद्य अखाद्य बन जाता है और खाद्य का कोयला खाकर किसी प्रकार जीवित रहना पड़ता है। कामुकता में इन्द्रिय उत्तेजना कम और दिमागी खुराफात के रूप में विकसित हुई— काल्पनिक शृंगारिता मुख्य है। इसे कला का व्यभिचार कहा सकते हैं। अन्यथा नर−नारी के बीच साधन सहयोग तो समझ में आता है, पर उस कामुकता के घटाटोप में कोई सार नहीं दीखता, जो इन दिनों हर आदमी को भूत−पिशाच की तरह जकड़े हुए है। नशेबाजी—माँसाहार को अपनाने वाले तथ्यों के समर्थक नहीं, वरन् प्रचलन के साथ जुड़े हुए तथाकथित सभ्यता के अभिशाप ही समझे जा सकते हैं। इन मान्यताओं का यदि नये सिरे से परीक्षण, पर्यवेक्षण किया जा सके तो प्रतीत होगा कि आदिम काल के अन्ध−विश्वासी मनुष्य में आज के सभ्यताभिमानियों की विचारशीलता में कोई विशेष अन्तर नहीं आया है। कम से कम प्रचलनों और मान्यताओं के क्षेत्र में तो अभी भी अन्ध विश्वासों का बोलबाला है। चिकित्सा क्षेत्र में तो अभी भी टोना−टोटका की तरह ही अभी भी अन्धेरे में पत्थर फेंक जाती है। इसमें तथाकथित मूर्धन्य चिकित्साशास्त्री भी सम्मिलित हैं।

कुरीतियों की दृष्टि से यों आत्म समाज भी अछूते नहीं हैं, पर अपना देश तो इसके लिए संसार भर में बदनाम है। विवाह योग्य लड़के लड़कियों के उपयुक्त जोड़ों का विवाह कर दिया जाय और सार्वजनिक घोषणा के रूप में उनका पंजीकरण करा देने या घरेलू त्यौहार जैसा कोई हलका-सा हर्षोत्सव कर देना यही औचित्य की मर्यादा है। पर अपने यहाँ उसे युद्ध जीतने या पहाड़ उठाने जैसा बना लिया गया है। उस घमात में पैसे की समय की जितनी बर्बादी होती है, उसका हिसाब लगाने पर प्रतीत होता है कि आजीविका का एक तिहाई अंश इसी कुप्रचलन में होली की तरह जल जाता है। खर्चीली शादियाँ हमें किस तरह दरिद्र और बेईमान बनाती हैं। कितने ही परिवारों की सुख−शान्ति और प्रगति किस प्रकार इस नरभक्षी पिशाचिनी की बलिवेदी पर नष्ट होती है इसे अधिकाँश लोग समझते भी हैं और कोसते भी। फिर भी आश्चर्य यह है कि छोड़ते किसी से नहीं बनता, इसे कुरीतियों का माया जाल ही कहना चाहिए जो तोड़ने का दमखम करने वालों को भी अपने शिकंजे से छूटने नहीं देता।

जाति−पाँति के नाम पर प्रचलित ऊँच−नीच की मान्यता के पीछे न कोई तर्क है न तथ्य, न प्रमाण, न कारण। फिर भी अपने समाज में ब्राह्मण−ब्राह्मण के —ठाकुर−ठाकुर के—अछूत−अछूत के बीच जो ऊँच− नीच का भेदभाव चलता है उसे देखते हुए लगता है कि यह सवर्ण असवर्ण के मध्य चलने वाला विग्रह नहीं है, वरन् हर बिरादरी वाले अपनी ही उपजातियों में ऊँच− नीच का भेद बरतते−बरतते इस प्रकार बँट गये हैं मानो उनका कोई एक देश, धर्म, समाज या संस्कृति रह ही नहीं गई हो। हर जाति, उपजाति ने अपने छोटे गड्ढे घरोदे बना लिये हैं और उतने से दायरे में कूपमंडूकों की तरह अपने को सीमाबद्ध किये बैठे हैं। इसी विलगाव का कारण है कि अपना कोई धर्म समाज बन ही नहीं पाता। इस दुर्विपाक से सभी परिचित हैं, सभी दुःखी हैं, सभी विरुद्ध हैं। फिर भी कुरीतियों का कुचक्र तो देखिये कि बरताव में सुधारक भी पिछड़े लोगों की तरह ही आचरण करते हैं।

नर−नारी के बीच बरता जाने वाला भेदभाव कुरीतियों की दृष्टि से और भी घिनौना है। इसने पर्दे के प्रतिबन्ध में आये जन समुदाय को दूसरे दर्जे के नागरिक की− नजरबन्द कैदी की—स्थिति में ले जाकर पटक दिया है। नारी आज की स्थिति में देश की अर्थ व्यवस्था में—सामाजिक प्रगति में कुछ योगदान दे सकने की स्थिति रही ही नहीं। अशिक्षा, उपेक्षा, अयोग्यता, पराधीनता, अस्वस्थता के बन्धनों में जकड़ी हुई, अन्धा−धुन्ध प्रजनन के प्राण घातक भार अत्याचार से लदी हुई नारी अपने आपके लिए—नर समुदाय के लिए—समूचे समाज के लिए−भारभूत बरकर रह रही है। कन्या और पुत्र के बीच बरता जाने वाला भेदभाव कितना कष्टकर है। उसके रहते सन्तान और अभिभावक के बीच बरते जाने वाली सद्भावना का एक प्रकार से समापन ही हो जाता है।

भिक्षा व्यवसाय, मृतक भोज, बाल−विवाह, कन्या विक्रय, वर विक्रय, पत्नी त्याग आदि अनेकानेक प्रचलन ऐसे हैं जो औचित्य की कसौटी पर किसी भी प्रकार खरे सिद्ध नहीं होते फिर भी हमारे गले में फाँसी के फंदे की तरह कसे हुए हैं। इन कुरीतियों को इसी प्रकार सहते रहा गया, उनका मोह न छोड़ा गया तो समझना चाहिए कि हम दिन−दिन गलते, फिसलते, पिछड़ते और घटते गिरते ही जायेंगे।

अनैतिकताओं का तो कहना ही क्या? समय का पालन, वचन का पालन, विश्वास का पालन घटता जा रहा है। व्यवसाय, आचरण कर्त्तव्य, उत्तरदायित्व के क्षेत्रों में तनिक−तनिक-सी बात पर मनुष्य ऐसी कला− मुण्डी खाता है मानो नीति मर्यादा, पालन की नहीं, कहने−सुनने भर की बार रह गई है। कामचोरी, हराम− खोरी, करचोरी, रिश्वत, धोखाधड़ी, छल, स्वार्थांधता, नागरिक कर्त्तव्यों की अवहेलना, आदि की अवांछनीयताएं अब सामान्य व्यवहार का—चातुर्य कौशल का− अंग बनती जा रही है। लगता है मनुष्य अपनी गरिमा का परित्याग कर प्रेत पिशाच जैसी अपनाई जाने वाली दुष्टता, भ्रष्टता अपनाने के लिए तेजी से अग्रसर हो रहा है।

ऊपर की पंक्तियों में कुछ ऐसी अवाँछनीयताओं की चर्चा हो जो प्रचलन का अंग बनती जा रही है। अपना परिवार परिकर भी इन सर्वव्यापी छूत से बचा हुआ नहीं है। नौकरी के लिए पढ़ाई की अब कोई उपयोगिता रह नहीं गई है फिर भी लोग घर फूँककर तमाशा देखते और बालकों को उच्च शिक्षा के नाम पर ऐसी स्थिति में पटक देते हैं जिनमें से नौकरी न मिलने पर किसी काम के नहीं रहते। सन्तानोत्पादन का अब कोई तुक नहीं रहा। परिवार के लोगों को स्वावलम्बी सुसंस्कारी भर बनाने की बात किसी की समझ में नहीं आती। उत्तराधिकारियों को मुफ्त में खाने के लिए कुबेर जितनी संपदा छोड़ मरने की हर किसी योग्य अयोग्य के सिर पर सनक सवार है।

यह कथा पुराण की चर्चा नहीं है। हम सबसे व्यवहार में आये दिन प्रयुक्त होने वाली अनुपयुक्तताएँ हैं जिन्हें एक दिन के लिए भी सहन नहीं किया जाना चाहिए। कूड़े करकट की तरह बुहार के सड़ने को किसी गड्ढे में दबा दिया जाना चाहिए। किन्तु हम हैं जो मरे बच्चे को छाती से चिपकाये फिरने वाली बंदरों की तरह उन्हें आत्मसात किये बैठे हैं! उन्हें छोड़ने का नाम नहीं लेते।

प्रज्ञा परिजनों की व्यस्तता को देखते हुए उनसे यह आशा तो नहीं की जा सकती कि चक्रव्यूह तोड़ने वाले अभिमन्यु की भूमिका निभायें। पर इतनी आशा तो की ही जा सकती है कि वे अपने निजी जीवन में—परिवार के क्षेत्र में—जो मूढ़ मान्यताएँ, कुरीतियाँ, अवाँछनीयताएँ पनपती देखें उन्हें समय रहते उखाड़ने का प्रयत्न करें। कम से कम इतना तो हो ही सकता है कि उनका समर्थन न करें उनकी प्रशंसा भी न करे। विरोध बन पड़े तो करे पर यदि− वैसा साहस न हो तो कम से कम असहमति और असहयोग करी स्थिति तो बनाये ही रहें। यह भी गाँधीजी का बताया हुआ व्यक्तिगत सत्याग्रह का एक छोटा रूप है। उसे तो अपनाया ही जा सकता है।

निजी जीवनक्रम और परिवार क्षेत्र हर व्यक्ति का अपना है। उस पर प्रभाव का रहना भी असंदिग्ध है। एक क्षेत्र में दुष्प्रवृत्तियों को पनपने से रोका जा सकता है और उन्हें उखाड़ने में सफल भी रहा जा सकता है। यदि सत्य निष्ठा उमँगे, औचित्य के प्रति श्रद्धा जगे तो उसे साहस भरे संघर्ष के रूप में परिणति करना चाहिए और जितना सम्भव हो उतना विरोध अथवा असहयोग जारी रखना ही चाहिए। इतनी प्रखरता यदि जीवन्त रखी जा सकती तो उतने से भी अनौचित्य के असुर का मनोबल टूटेगा और देवत्व पनपेगा।


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