दूसरी पंक्ति में हर किसी की साझेदारी सम्भव

June 1982

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सेना के मोर्चे पर लड़ने वाले योद्धाओं को विजय पराजय की प्रशंसा, निंदा मिलती है। वे ही चर्चा का विषय भी रहते हैं किन्तु यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि इन जुझारुओं की एक दूसरी पंक्ति भी रहती है, जो अग्रगामी होने का श्रेय तो नहीं पाते किन्तु उसकी महत्ता उपयोगिता, तत्परता किसी भी प्रकार कम नहीं होती। लड़ना जितना महत्वपूर्ण है उतनी ही आवश्यकता उनके लिए साधन जुटाने वालों की भी है। उनके हाथ ढीले हों तो फिर साधने के अभाव में योद्धाओं की देशभक्ति, कुशलता एवं बलिष्ठ साहसिकता भी कुछ न आवेगी और पराक्रमियों का त्याग बलिदान उच्चस्तरीय होते हुए भी विजय श्री का वरण न करा सकेगा।

बन्दूकें बनाने वाले, बारूद पीसने वाले, गोली छर्रे ढालने वाले, डॉक्टर, इंजीनियर, आपरेटर आदि मिल−जुलकर वह व्यवस्था बनाते है जिसके सहारे योद्धाओं को अपना पराक्रम दिखाने का अवसर मिल सके। इस सफलता में एक बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका उनकी भी है जो सुरक्षा व्यवस्था के अंतर्गत होने वाले खर्च का व्यय भार अपने कन्धों पर उठाते हैं और टैक्स भरते हैं। विजय का श्रेय किसी को भी मिलें। भले ही वह समझने वाले जानते हैं कि अगली पंक्ति की तरह पिछली पंक्ति की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है

प्रज्ञा युग अति निकट है। चिन्तन और चरित्र में बढ़ती हुई निकृष्टता ने महामरण का प्रलय काल जैसा संकट उपस्थित कर दिया हैं। अणु, युद्ध, प्रदूषण, अर्थ वैषम्य, दुर्व्यसन, स्वार्थान्धता, बहु प्रजनन, अवाँछनीय प्रचलन जैसे कारण ऐसे हैं जो मिल जुलकर मानवी सभ्यता के सर्वनाश की तैयारी में जुटें है। ऐसे अवसरों पर सृष्टा ने बागडोर अपने हाथ में समय समय पर सम्भाली है। अयोग्य विधान सभाएँ जब शासनतन्त्र को ठीक तरह संभाल नहीं पातीं तो उन्हें निलम्बित या निरस्त किया जाता है और राष्ट्रपति शासन लागू होता है। विश्व व्यवस्था का उत्तरदायित्व सृष्टा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र−युवराज− मनुष्य के हाथों सौंपा है। वह कुमार्ग अपनाये, मर्यादा छोड़े और अनाचार पर उतरे तो सार्वजनिक व्यवस्था बिगड़ने विभीषिकाएँ उमड़ने में क्या देर लगती? पिछले दिनों से यही कुछ चल रहा है। नाव को डूबती देखकर बेड़े के अधिष्ठाता ने डाँड खेने और पानी उलीचने की कमान सम्भाली है। प्रवाह उलटना आरम्भ हो गया है। गलाई ढलाई वाली भट्टियाँ गरम हो गई हैं और नव निर्माण का कारखाना सृजन सामग्री उपजाने में पूरे जोश खरोश का साथ तत्पर हुआ। ध्वंस के आतंक से सभी परिचित हैं,पर सृजन की सामर्थ्य का जिन्हें पता है वे जानते हैं कि संसार में जो कुछ भी दर्शनीय प्रशंसनीय है उसे सृजन की शक्ति यों का चमत्कार ही कहा जा सकता है। सृजन कटिबद्ध हो तो साधनों का पर्वत वह हिमालय से भी उखाड़कर ला सकता है और वाहनों का अभाव रहने पर भी समय की आवश्यकता पूरी करने के लिए तीर से अधिक वेग अपनाकर मरण को जीवन में बदल सकता है। लक्ष्मण की मूर्छा जगाने में हनुमान ने जो दृश्य रूप से किया वही युग का सृजन प्रवाह आज की व्यापक समस्याओं के समाधान के लिए भी कर गुजरने वाला है। यही है प्रज्ञा युग के अवतरण का आधार। उद्देश्य में चल रहे प्रवाह को जो मानसून उभार की तरह सूक्ष्म दृष्टि से देख सकते हैं वे इस बात की सुनिश्चित सम्भावना बताते हैं कि ध्वंस निरस्त होकर रहेगा और सृजन जीतेगा। युगान्तरीय चेतना का तूफानी प्रवाह जिस गति से चल पड़ा है उसे देखते हुए युग सन्धि की बीस वर्ष वाली अवधि में से मानवी मनःस्थिति और व्यापक परिस्थिति में काया कल्प जैसा परिवर्तन होते देखा जा जाय तो इसमें किसी को भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए।

प्रज्ञा युग मानवी सौभाग्य का अरुणोदय है। उसको सम्भव मोर्चे पर अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित होकर निशाना साधते हुए देखा जा सकता है। दूसरी पिछला मोर्चा सम्भालती है और जुझारुओं को सफल बनाने के से लिए साधन जुटाने एवं वातावरण बनाने में संलग्न है। बहती तो गंगा ही है। पर उसे जलराशि प्रदान करने में व्यापक क्षेत्र की बर्फ गलती है इसे जानते हुए भी अधिकाँश लोग अनजान बने रहते हैं। गंगा की जय बोलते हैं हिमि प्रदेश की नहीं। लोग क्या सोचते हैं यह उनका काम है पर तथ्य अपनी जगह चट्टान की तरह अचल है। जौहर भुजाएँ ही दिखाती हैं, पर उन्हें इस योग्य बनाने के लिए वक्षस्थल के गह्वर में छिपा हुआ रक्त संचार तन्त्र क्या कुछ करता है उस अदृश्य भूमिका को वे लोग कैसे समझ पायेंगे जो भुजाओं के चमत्कार को ही दृश्यमान आँखों से देख सकने तक सीमाबद्ध है।

नव सृजन के दो पक्ष हैं एक भौतिक दूसरा आत्मिक। एक परिस्थिति का सँभालता है दूसरा मनःस्थिति को। परिस्थिति को संभालने का काम समाज एवं शासन का अनुपात बनाये रहने की जिम्मेदारी धर्म और अध्यात्म की है शासन प्रत्यक्ष है और अध्यात्मिक परोक्ष। प्रज्ञा युग का अवतरण अन्तःक्षेत्र में दृष्टिगोचर होगा। प्रकाश उदय होते ही अन्धकार भागेगा। प्रस्तुत विभीषिकाओं का निराकरण महाप्रज्ञा के आलोक द्वारा ही सम्भव होगा। युगान्तरीय चेतना जन जन के मन मन की निकृष्टता से विरत करके उत्कृष्टता की प्रतिष्ठापना करेगी। यह अदृश्य जितना बन पड़ेगा उतना ही वातावरण बदलेगा और सृजन की गतिविधियों का बहुमुखी स्वरूप दृश्यमान घटनाक्रमों के साथ प्रकट होगा।

इस सुनिश्चित सम्भावना को मूर्त रूप देने में प्रज्ञा अभियान की विशिष्ट भूमिका है। गंगा में अगणित धाराएँ पक्ष हैं। उन्हें अनेक प्रयासों द्वारा सम्पन्न किया जाना है किन्तु जनमानस के परिष्कार की मूल धारा को किया जाना है। इतिहास बतायेगा कि अन्धकार को प्रकाश में बदलने के लिए प्रज्ञा अभियान के भागीरथी प्रयास कितने कारगर सिद्ध हुए।

निर्धारणों को क्रियान्वित करने में जिन सृजन सैनिकों की युग वाहिनी मोर्चे पर डटी हुई है उसको दो वर्गों में विभाजित किया जाता है। उसमें से एक को अग्रगामी दूसरी को साधन वाहिनी के रूप में जगना चाहिए। अग्रगामी प्रज्ञापुत्र हैं दूसरी पंक्ति में खड़े प्रज्ञा परिजन। दोनों का अपना अपना महत्व है− अपना−अपना स्वरूप और अपना अपना कार्यक्रम।

प्रज्ञा पुत्रों की चर्चा आये दिन इन पंक्ति यों में होती रहती है। उन्हें लोभ मोह की हथकड़ी बेड़ी काटकर युग पुकार की पूर्ति के लिए पवन पुत्रों की भूमिका निभाने के लिए महाकाल का आमन्त्रण भी सुनाया जाता रहा है युग शिल्पियों की एक बड़ी सेना पहले से ही कार्यरत है। अब गत मास एक हजार और नये रंगरूटों की भर्ती करने −अनुभवियों को तत्काल डाड उठाते और पाल बाँधने के लिए कहा गया है। सृष्टा की इच्छा में अवरोध कैसा? हजार नये युग शिल्पी भी कल परसों तक एकत्रित होने वाले हैं और आपत्ति धर्म पालन करने में बड़े से बड़ा जोखिम भी उठाने वाले हैं। उनके अब तक के प्रयासों और भावी उत्तरदायित्वों की रूप रेखा भी इन पंक्तियों में समय समय पर प्रकट होती रहती है।

इस बार इस अंक में प्रमुखता दूसरी पंक्ति को दी गई है चर्चा उसी की, की जा रही है और कहा जा रहा है। कि उसके महत्व गौरव को तनिक भी कम न आँका जाय। दूसरी पंक्ति में वे प्रज्ञा परिजन आते हैं। जो भावना की दृष्टि से अभियान के पूरी तरह साथ है। उसका सच्चे मन से समर्थन करते हैं। और सफलता देखने के लिए आतुर हैं। किन्तु मनःस्थिति की दुर्बलता एवं परिस्थिति की जटिलता के कारण अभी उस मूड में नहीं है कि प्रज्ञा पुत्रों की तरह समय दे सकें और जोखिम उठा सकें। ऐसी दशा में भी वे बहुत कुछ कर सकते हैं। उनका नव सृजन में परोक्ष योगदान इतना हो सकता है कि तथ्यान्वेषी उसकी भूमिका को भी सराहे बा नहीं रह सकते। नव सृजन एक महाभारत है उसे लंका युद्ध की समता दी जा सकती है। महाभारत का लक्ष्य विशाल भारत की संरचना था और लंका विजय के साथ ही रामराज्य की स्थापना भी अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई थी। प्रज्ञा अभियान को भी अवाँछनीयता उन्मूलन के साथ साथ सत्प्रवृत्ति संवर्धन में भी निरत जा सकता है। दोनों प्रयास साथ साथ चल रहे है। दो पहियों की गाड़ी ही तो ठीक तरह चल पाती है।

चर्चा प्रज्ञा पुत्रों और प्रज्ञा परिजनों की ही रही थी। अखण्ड ज्योति के सदस्यों में से ऐतिहासिक सन्धि बेला में मूक दर्शक किसी को भी नहीं होना चाहिए। किसी को भी ऐसी आत्म प्रताड़ना ही सहनी चाहिए कि कभी−कभी ही आने वाले सौभाग्य सुयोगों में से एक अपने जीवन में आया था। उनमें जीवन्तों जागृतों में रहने या योग्य भूमिका निभाई थी किन्तु हम विवशता व्यक्त करते, कठिनाइयों की आड़ लेते और परिस्थितियों की प्रतिकूलता का रोना रोते रहे। इन दिनों कुछ तो हममें से हर किसी को करना चाहिए। अखण्ड −ज्योति ने अपने प्राणप्रिय पाठकों को वाचन सामग्री ही नहीं दी है उनके अन्तराल को भी छुआ है और प्रयास किया है कि उस क्षेत्र की मूर्छना, नव चेतना में बदले और जीवन्त जागृतों के लिए शोभनीय पराक्रम बनकर उभरे। यह प्रयास कितना प्रत्यक्ष बन सका उसे तो समय की कसौटी पर कसने के बाद भावी इतिहासकार ही बता सकेंगे, पर इतना तो आज भी कहा जा सकता है कि जो इस भट्टी के संपर्क में आया है किसी न किसी मात्रा में गरम अवश्य हुआ है। अखण्ड−ज्योति परिजन पूर्व जन्मों की संचित सुसंस्कारिता के का रण भी “अपने मतलब से मतलब रखने वाले दुनियादारी” से भिन्न हैं। लगातार की अमृत वर्षा ने उनके अन्तराल की और भी अधिक उकसाया है। फलतः उनका सामयिक असमंजस स्वाभाविक है। अधिक करने की मनःस्थिति नहीं और थोड़ा करने के लिए कोई कार्यक्रम सामने नहीं। इस असामंजस्य को दूर करने के निमित्त ही यह अंक लिखा जा रहा है। और कहा जा रहा है कि परिवार का एक भी सदस्य ऐसा न रहे जिस पर युग सन्धि की बेला में सर्वथा निष्क्रिय रहने का लाँछन लग सके। जागृतों का प्रसुप्तों की तुलना में निश्चय ही अधिक उत्तरदायित्व है उसे समझा ही नहीं सम्भाला भी जाना चाहिए। कार्यक्षेत्र में न उतर सकने पर भी व्यक्तिगत क्षेत्र में उन्हें ऐसा कुछ करना ही चाहिए जिस दूसरी पंक्ति वाली साधन वाहिनी का सदस्य तो उन्हें गिना ही जा सके।

प्रज्ञा पुत्रों के लिए तुरन्त कार्यान्वित करने के लिए पंचसूत्री योजना सुपुर्द की गई है। इसके बाद उन्हें बाद उन्हें पाँच सृजनात्मक और पाँच सुधारात्मक कार्यक्रम हाथ में लेने हैं। युग संधि के पाँच वर्षों में हर साल पाँच पाँच बढ़ाते हुए पच्चीस सूत्री निर्धारणों की पूर्ति में जुटना है। इस स्तर की विधि−व्यवस्था और रूपरेखा ‘प्रज्ञा अभियान’ पत्रिका में निरन्तर छपती रहती है। प्रथम पंक्ति के युग प्रहरी उन्हें गतिशील बनाने में प्राण पण से जुटे भी हुए हैं। सर्वत्र उनकी चर्चा और सराहना भी है। निराशा की अधिकारी में उनकी प्रखरता बिजली की तरह कौंधती और आशा की उमंगें उठती देखी जा सकती हैं।

प्रसंग दूसरी पंक्ति दूसरी का चल रहा है। उनकी अखण्ड ज्योति पठन, अवगाहन, बुद्धि विलास तक सीमित न रहना चाहिए। उसे धुने बीज की तरह निरर्थक निष्क्रिय सिद्ध नहीं होने देना चाहिए वरन् वर्षा ऋतु आने पर जीवन्त बीज को अंकुरित होने की तरह अधिग्रहण को गतिशील बनने देना चाहिए। इस समुदाय के लिए सप्त सूत्री योजना निर्धारित की गई है। वह वाले भी उपार्जन और निर्वाह तक सीमित रहने वाले भी बिना किसी कठिनाई के−बिना कोई अतिरिक्त भार उठाये −जीवनचर्या में थोड़ा-सा हेर फेर करके महायज्ञ से अपनी साझेदारी सिद्ध कर सकते हैं।

ढेरों व्यक्ति सचमुच ही ऐसे होते हैं जो प्रज्ञा पुत्र की भूमिका निभाने जैसी परिस्थितियों में होते ही नहीं। न उनकी योग्यता वैसी होती है और न प्रतिभा ऐसी दशा में इच्छा रहते हुए भी उन्हें घर से बाहर निकलना और जन संपर्क साधना का कठिन पड़ता है। अपने देश में महिलाओं की स्थिति ऐसी ही दयनीय है। उन पर घर से बाहर जाने दूसरों से वार्त्तालाप करने में प्रतिबन्ध लगे हुए हैं। बच्चों का लालन पालन और रसोईदारी चौकीदारी, घर की साज सम्भाल के झंझट भी इतने होते हैं कि देखने में बैठी ठाली प्रतीत होते हुए भी वे प्रज्ञा पुत्रों की भूमिका निभाने घर की परिधि से बाहर नहीं जा सकतीं। इस प्रकार किशोरों एवं वृद्धों की भी स्थिति ऐसी ही होती है। किशोरों को लड़का बच्चा समझा जाता है उनके उपदेश कौन सुने? वयोवृद्धों की आँखें, वाणी, घुटने, कमर जबाब दे जाते हैं। स्मृति घट जाती है और स्वभाव में अस्त−व्यस्तता दृष्टिगोचर होती है। ऐसी दशा में वे पवन पुत्र, प्रज्ञा पुत्र की भूमिका कैसे निभायें। कितना का ही आजीविका उपार्जन ऐसा कैसे निभायें। कितनों का ही आजीविका उपार्जन ऐसा होता है जिसमें उठने से लेकर सोने तक निरन्तर जुटा रहना पड़ता है। किन्हीं को भय,संकोच लगता है। कुछ दूसरों के पास जाने में अपने अहंकार में कमी आने की बात सोचते हैं। कुछ ही शिक्षा, प्रतिभा इतनी कम होती है कि जन संपर्क में उनकी कुछ उपयोगिता ही नहीं रह जाती। अपंग असमर्थों को, रोगी दुर्बलों को भी सम्मिलित कर लिया जाय तो प्रतीत होगा कि आधी से अधिक जनसंख्या को, रोगी दुर्बलों को भी सम्मिलित कर लिया जाए तो प्रतीत होगा कि आधी से अधिक जनसंख्या ऐसी है जिसे युग शिल्पी की जागृत भूमिका निभाने में− लोक मानस के परिष्कार कठिनाई है। इस वर्ग का सृजन यज्ञ से अलग नहीं रखा जा सकता। उन्हें अपने व्यक्तिगत क्षेत्र में भी बहुत कुछ करने योग्य है दूसरी पंक्ति वाले उसी वर्ग में आते हैं। उनके लिए सप्तसूत्री योजना युग देवता ने प्रस्तुत की है और कहा है कि हर स्थिति का हर व्यक्ति किसी ने किसी रूप में नव सृजन के निर्धारण में भागीदारी ग्रहण कर सकता है। असमर्थता का असमंजस छोड़कर −हर किसी को इन दिनों अपनी क्षमता के अनुरूप केवट, शबरी, जामवन्त और गिलहरी की देखने में नगण्य किन्तु परिणाम में महान सिद्ध होने वाली तत्परता अपनानी ही चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118