जीवन साधना की व्यावहारिक तपश्चर्या

June 1982

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ईश्वर का प्राणी को सबसे बड़ा उपहार मनुष्य जीवन है। इससे श्रेष्ठ एवं बहुमूल्य सम्पदा ईश्वर के विभूति भण्डार में और कोई है नहीं। शरीर संरचना एवं मनःसंस्थान की दृष्टि से मनुष्य अन्य प्राणियों की तुलना में बहुत आगे है। उसे प्रकृति रहस्यों को खोज निकालने और उनके आधार पर पदार्थ वैभव का मनचाहा उपयोग करने की अद्भुत क्षमता मिली है। ज्ञान और विज्ञान के दिव्य अस्त्र−शस्त्रों से उसकी सत्ता सुसज्जित है। क्रियाशीलता विचारणा तथा भावना के तन्त्रों में इतनी उत्कृष्टता भरी पड़ी है कि उनके सहारे भौतिक एवं आत्मिक सम्पदाओं का प्रचुर परिमाण में उपार्जन कर सकना उसके बाँये हाथ का खेल है। गृहस्थ आनन्द, आजीविका के सुनिश्चित आधार अन्य किसी प्राणी को उपलब्ध नहीं। ऐसा क्रिया कौशल और किसी के भाग्य में बदा नहीं है। उपलब्धियों को देखते हुए उसे सृष्टि का मुकुटमणि कहा जाना सर्वथा सार्थक है।

जीवन सत्ता का स्वरूप, लक्ष्य एवं सदुपयोग समझा गया या नहीं, समझने के उपरान्त उत्कर्ष का मार्ग अपनाया गया या नहीं। मार्ग पर उत्साह साहस पुरुषार्थ सहित चला गया या नहीं? इसी चयन निर्धारण पर उत्थान पतन की आधारशिला रखी जाती है। मनुष्य अपने भाग्य का स्वयं निर्माता है। अवाँछनीयता अपनाकर पतन के गर्त में गिरने की उत्कृष्टता का वरण करके उत्कर्ष के चरम लक्ष्य तक जा पहुँचने की उसे पूरी छूट है। कोई परिस्थितियों का रोना रोता रहे और मनःस्थिति को न सुधारे तो उसे विडम्बना रचे बैठे प्रमादग्रस्त से कोई क्या कहे?

देवता अनेक हैं। पर तत्काल फलदायक अत्यन्त निकटवर्ती और अनुदान देने के लिए आतुर—आत्मदेव से बढ़कर और कोई नहीं। जीवन को कल्पवृक्ष कहा गया है। उसकी गरिमा समझने वाले और निर्धारित लक्ष्य के लिए उसे प्रयुक्त करने वाले वह सब कुछ प्राप्त करते हैं जो पाने योग्य है। अन्य देवताओं की अनुकम्पा संदिग्ध है। पर जीवन देवता की साधना का प्रतिफल सर्वथा असंदिग्ध है। दुःख इसी बात का है कि जीवन का महत्व समझा ही नहीं पाया और उसे ऋद्धि−सिद्धियों से सुसम्पन्न स्नान की ओर ध्यान गया ही नहीं। अन्यथा स्थिति वैसी न होती, जैसी कि सामने है।

भूमि की साधना से किसान और माली फसल काटते और उद्यानों को सोना उगलने के लिए विवश करते है। विद्या की साधना वाले विद्वान कहलाते और उच्च पदासीन बनते हैं। व्यवसाय की साधना करने वाले धन कुबेर बनते हैं। शरीर साधने वाले बलवान पहलवान अनेकों पर हावी रहते हैं। कला साधना से गायक, अभिनेता, मूर्तिकार, चित्रकार, कवि साहित्यकार आदि यशस्वी भी बनते हैं और सम्मानित समृद्ध भी। देवताओं की साधना भी जब तब कुछ वरदान अनुदान देती रहती है। इन सबसे उठकर जीवन साधना है, जो उसके लिए अग्रसर हुआ वो निहाल हो गया। ढेले की तरह निरर्थक दीखने वाले जीवन को यदि गहराई में उतरकर कुरेदा जा सके तो उसके अन्तराल में ऐसे अगणित परमाणु खचे मिलेंगे जिनमें से एक−एक कर विस्फोट ही धरती को हिला सकता है। उपेक्षा से तो हीरा भी काँच की तरह ठुकराया जा सकता है। फिर जीवन का स्वरूप और रहस्य न समझने डडडड उसकी साधना विरत रहने पर कोई अभाव डडडड शोक संतत डडडड पतन पराभव से घिरा पड़ा रहे तो इसके लिए अन्य किसी को दोष कैसे दिया जायेगा जीवन की अवहेलना से बढ़कर पाप उस संसार में ओर कोई नहीं। अन्य पापों से कर्त्ता को तत्काल डडडड मिल ही जाता है, पर जीवन की उपेक्षा का पालक ऐसा है जिसमें उस छोर से इस छोर तक−आरम्भ से अन्त तक नरक ही नरक सड़ता देखा जा सकता है।डडडड का डडडड चिन्ह है कि जीवन के साथ जुड़ी हुई महान सम्भावनाओं को समझा जाय और उसे कषाय−कल्मषों के गर्त से उबार कर परिशोधन परिष्कार की प्रयोगशाला में भेजा जाय।

प्रज्ञा युग में धरती पर स्वर्ग अवतरित होगा। इस स्मृति को प्रत्यक्ष करने की पूर्ण भूमिका होगी—मनुष्य में देवत्व का उदय। इसका स्वरूप संचित कुसंस्कारों का परिशोधन—दृष्टिकोण एवं स्वभाव व्यवहार का परिष्कार। इस प्रयास में संलग्न होने वाले योद्धा आत्म विजय करने के उपरान्त विश्व विजयी बनते हैं। गीताकार ने अपने को ही अपना भयंकर शत्रु ओर अपने को ही सर्व समर्थ स्नेह सौजन्य से भरपूर मित्र कहा है। अनगढ़ जीवन ही वह अभिशाप है जिसके रहते कुबेर भी दरिद्रता से, इन्द्र भी असमर्थता से संत्रस्त पाथा जायगा। जिसे जीवन को निखारने में सफलता मिल गई वस्तुतः वही सच्चा कलाकार है। उसी की सूझ−बूझ और भाग्य रेखा को दसों दिशाएँ सराहती पाई जायेंगी।

सर्प, बन्दर, भालू, शेर आदि भयानक पशुओं को सधाकर उपयोगी और कमाऊ बनाया जाता है। असभ्य अनपढ़ और कुसंस्कारी भी आत्म साधना की भट्टी में अभिशप्त जीवन को गलाना और श्रेय सौभाग्य के ढाँचे में ढालना नितान्त सम्भव है। लोग जितना पुरुषार्थ साधन जुटाने प्रतिपक्षी को हराने में करते हैं उससे आधा भी यदि अपने आपका परिशोधन, परिमार्जन करने में कर सके तो प्रतीत होगा कि यह सबसे अधिक बुद्धिमत्ता का सबसे अधिक सम्पन्नता सफलता उपार्जन का−काम बन पड़ा। व्यक्तित्व एक प्रकार का चुम्बक है जो अपने स्तर का संपर्क समर्थन सहयोग प्रचुर परिभाषा में खींच बुलाता है। यह कठिन कार्य नहीं है। दूसरे कहना न मानें, पकड़ में न आय तो बात समझी भी जा सकती है पर यह समझ से बाहर की बात है कि अपना शरीर अपना मन, कहना न माने और अपने दृष्टिकोण, स्वभाव, रुझान, अभ्यास को बदलना सुधारना भी अपने आप से न बन पड़े।

पानी का नीचे ढलना ढेले का नीचे गिरना स्वाभाविक है पर ऊँचा उठाने के लिए आगे बढ़ने के कुछ अतिरिक्त साहस करने—कोई नया मार्ग अपनाने—की आवश्यकता पड़ती है। अवाँछनीय ढर्रे को तोड़ना और चिन्तन तथा व्यवहार को उत्कृष्टता के साथ जोड़ना ही जीवन साधना के निमित्त किया गया सच्चा पराक्रम एवं तप साधन है।

जीवन ही अपना घनिष्ठतम स्नेही सहयोगी है। अन्यान्यों की सेवा सहायता की बात सोचने से पहले देखना होगा कि इस अपने ऊपर सर्वथा आश्रित को सुखी समुन्नत बनाने का प्रयत्न हुआ या नहीं? उत्तरदायित्व निभाया नहीं। यहाँ यह भली प्रकार समझ लेना चाहिए साधन सम्पदा मात्र शरीर यात्रा के काम आती है। जीवन को सुसम्पन्न बनाने के लिए गुण, कर्म स्वभाव में उत्कृष्टता भर देने वाली विभूतियों का संचय करना पड़ता है।

समृद्धि सम्पादन के दो ही उपाय हैं कि घाटा देने वाले छिद्रों को रोकना—दूसरा वैभव बढ़ाने वाले उपाय उपचारों को अपनाना। शारीरिक मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक क्षेत्रों में लोग दिवालिया होते और समुन्नत बनते देखे जाते हैं उनमें निमित्त कारण उन्हीं दो अवलम्बनों को अपनाने न अपनाने की सूझ−बूझ काम करती है। यही बात जीवन्त साधना के माध्यम से व्यक्तित्व को पवित्र प्रखर बनाने और आत्मोत्कर्ष की आवश्यकता पूर्ण करने के सम्बन्ध में भी है। हर काम योजनाबद्ध ढंग से होता है। बिना सोचे बिना कार्य की रूपरेखा बनाये कुछ भी करते−धरते रहने वालों की परिणतियां भी ‘घुणाक्षर न्याय’ जैसी संयोग मात्र होते हैं। कार्य छोटा हो या बड़ा उसके सभी पक्षों पर विचार करने के उपरान्त कदम उठाना ही बुद्धिमानी का चिन्ह माना जाता है यही बात आत्मिक प्रगति के सम्बन्ध में भी लागू होती है।

जीवन साधना में मनन और चिन्तन की निदिध्यासन को आवश्यक माना गया है। हर दिन सूर्योदय से पूर्व या सूर्यास्त के बाद—जब चित्त शान्त एकान्त हो तब अपने अन्तरंग बहिरंग स्थिति का लेखा−जोखा लेना चाहिए, और भूलों को सुधारने, कमियों को पूरा करने तथा भावी प्रगति के लिए जो कदम उठाने आवश्यक हैं उनका दूरगामी एवं सामयिक निर्धारण करना चाहिए। निर्धारण ऐसा होना चाहिए जो वर्तमान स्थिति बिना समय गँवाये कार्यान्वित हो सके।

प्रतीक न बने, उसके लिए स्थान तो रहे पर ऐसा न हो कि टालटूल, अनख, आलस में समय गुजरता रहे। रावण ने काल पाटी से बाँधकर सफलताएँ अर्जित की थीं। वही मार्ग हर विवेकवान को अपनाना पड़ा है। उनने समय का एक क्षण भी बर्बाद नहीं होने दिया। योजनाबद्ध रूप से व्यस्त दिनवाली बनाकर उसका सदुपयोग किया है। प्रगतिशील प्रथा परिजनों को भी वही करना चाहिए।

समय का सदुपयोग पराक्रम के सहारे उन पढ़ता है। पराक्रम का अर्थ है—तत्परता और तन्मयता। तत्परता अर्थात् उत्साह भरा परिश्रम। तन्मयता अर्थात् रुचि पूर्वक मनोयोग। दोनों का संयोग वहाँ भी होगा चमत्कारी प्रतिफल हस्तगत होंगे। पसीने में लक्ष्मी निवास करती है। व्यस्तता से ही आरोग्य वीर मनोबल स्थिर रहता है। आलस्य और दारिद्रय और डडडड मित्र बनकर साथ−साथ रहते हैं। जैसे सूत्रों को स्मरण रखना चाहिए। हाथ में लिये कामों की प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर उसे श्रेष्ठतम स्तर का बनाने के लिए अपनी समूची प्रतिभा, कुशलता का नियोजन करना चाहिए। जो समय और श्रम की संगति बिठालेना उसे कुशल व्यवस्थापकों की तरह हर क्षेत्र सम्मान मिलेगा। जिसका समय आलस्य से और मस्तिष्क प्रमाण से घिरा रहेगा। वह पतन पराभव के गर्त में गिरेगा। पिछली और दुर्गति ग्रस्त परिस्थितियों में जकड़ा रहेगा। इसलिए पराक्रम में व्यस्तता का नियोजन रहना ही चाहिए।

तीसरा वैभव है चिन्तन। शरीर काम करता है किन्तु उसमें रस न लिया जाय। बेगार भूणतों जाय तो उसमें मनोयोग न लगेगा। मात्र शरीर काम करता रहेगा। ऐसी दशा में खाली दिमाग शैतान की दुकान बने बिना न रहेगा। विचार ही कर्म की पूर्व भूमिका बनाते हैं। उन्हीं का स्तर उत्थान पतन के लिए उत्तरदायी होता है। विचार दीखते नहीं किन्तु वस्तुतः वे ही सौभाग्य और दुर्भाग्य के दिशाधारा के नियोजन करते हैं। विचारों की दिशाधारा देने ही वह बहुचर्चित मनोनिग्रह है जिसे एकाग्रता कहा जाता है और जिसका दैवी वरदान जैसा माहात्म्य बताया जाता है।

विचारों को आवारा कुत्ते की तरह जहाँ−तहाँ झूठे पत्ते चाटते फिरने की—अनपढ़ विचारों को कीचड़ में लोटते रहने की छूट नहीं देनी चाहिए। उन्हें सृजनात्मक सज्जनोचित चिन्तन का अभ्यास कराना चाहिए। अवाँछनीय कल्पना करते रहने पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए। बुरे विचार मस्तिष्क में प्रवेश करते ही उनमें मल्ल युद्ध करने के लिए प्रतिपक्षी सद्विचारों को जुटा देना चाहिए। काँटे से काँटा निकाला जाता है और अवाँछनीय विचारों को उत्कृष्टता आदर्शवादिता की मान्यताओं को उभार कर निरस्त करना चाहिए। चिन्तन के लिए विषयों का पूर्व निर्धारण हो। वैज्ञानिकों, दार्शनिकों एवं महापुरुषों की तरह अपना चिन्तन निरन्तर अभीष्ट प्रयोजनों के लिए सीमित एवं सुनिश्चित रहना चाहिए।

चौथी सम्पदा है—धन। यह है तो पराक्रम की उपलब्धि, पर उसे भी ईश्वर प्रदत्त समय, पराक्रम और चिन्तन के ईश्वरीय सम्पदा के बदले खरीदी हुई विभूति मानना चाहिए। नीति पूर्वक कमाया जाय और सत्प्रयोजनों में खर्च किया जाय यही है सच्ची और समझदारी की अर्थ नीति। धन को अपनी परिवार की एवं समाज की सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने में खर्च करना चाहिए। दुर्व्यसनों में एक छटाँक भी खर्च न होने देने का नियन्त्रण बरता जा सके तो असंख्यों दुर्व्यसनों और अनाचारों से सहज ही छुटकारा मिल सकता है। बजट बनाकर खर्च किया जाय। अपव्यय को पास न फटकने दिया जाय तो थोड़े से धन से भी अपनी तथा परिवार की सर्वतोमुखी प्रगति के अनेक रास्ते खुल सकते हैं। समय, श्रम, चिन्तन की ही तरह अर्थ साधनों का भी संयम बरता जाना चाहिए। स्मरण रहे संयम तप है। व्यावहारिक जीवन में उपरोक्त चार सम्पदाओं का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने के लिए उन्हें अपव्यय दुरुपयोग से बचाने की सावधानी बरती जानी चाहिए।


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