इस्लाम-साहित्य में एक प्रसंग है-एक थी बुढ़िया। हज की इच्छा प्रबल थी, पर आर्थिक दशा अत्यन्त दुर्बल थी। उसने एक समय का भोजन छोड़ दिया और पैसे बचाकर जमा करने लगी। उपयुक्त राशि संचित हो जाने पर हज यात्रा को तैयारी की। उसी समय पड़ोस से दुर्गन्ध आती प्रतीत हुई। पूछने पर पता चला चूल्हे पर कुछ पक रहा है, वही से दुर्गन्ध दे रहा है।
उत्सुकतावश वह पड़ोसी के घर जा पहुँची। तब जाना, पड़ोस में पन्द्रह दिन से भोजन के लिए कुछ भी नहीं था। आज जंगल से यह पत्ती तोड़ लाई गई है। खाद्य है या अखाद्य, ज्ञात नहीं। खाने के बाद जीवित रहेंगे या नहीं, यह भी विदित नहीं
बुढ़िया की करुणा सदा ही जागृत थी। तीर्थयात्रा के पुण्य प्रयोजन की उसने भक्तिभाव से ही कामना व तैयारी की थी। पड़ोस की यह दशा उसकी करुणा को छू गई। संचित धनराशि से तत्काल अनाज खरीदा व पड़ोस में पहुँचा दिया। स्वयं अल्लाह का स्मरण करती निश्चिन्त सो गई। हज न जाने का कोई पश्चात्ताप मन में उठ ही नहीं रहा था।
वर्ष की समाप्ति पर फरिश्ते एकत्र हुए। चर्चा होने लगी कि इस वर्ष किस-किस का हज कबूल हुआ। सम्बद्ध देवदूतों ने बताया-मात्र उसी एक बुढ़िया का। किसी की शंका थी-बुढ़िया तो हज-यात्रा कर ही नहीं सकी थी।” उत्तर मिला असली हज तो बुढ़िया ने ही की थी। शेष ने तो मक्का शरीफ का पर्यटन भर किया था।”