हंस योग की शास्त्रचर्चा

June 1977

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कुण्डलिनी जागरण के लिए प्रयुक्त होने वाली सोऽहम् साधना-अजपा गायत्री के विज्ञान एवं विधान के समन्वय को हंसयोग कहते हैं। हंसयोग साधना का महत्त्व और प्रतिफल बताते हुए योगविद्या के आचार्यों ने कहा है-

सर्वेषु देवेषु व्याप्त वर्तते यथा ह्यग्निः कष्ठेषु तिलेषु तैलमिव। त दिवित्वा न मृत्युमेति-हंसोपनिषद्

जिस प्रकार काष्ठ में अग्नि और तिलों में तेल रहता है। उसी प्रकार समस्त देहों में ‘हंस’ ब्रह्म रहता है। जो उसे जान लेता है सो मृत्यु से छूट जाता है।

सोऽहम् ध्वनि को निरन्तर करते रहने से उसका एक शब्द चक्र बन जाता है जो उलट कर हंस सदृश प्रतिध्वनित होता है। इसी आधार पर उस साधना का एक नाम हंसयोग भी रखा गया हैं।

हंसो हंसोहमित्येवं पुनरावर्तन क्रमात्। सोहं सोहं भवेन्नूनमिति योग विदो विदुः-योग रसायनम्

हंसो, हंसोहं-इस पुनरावर्तित क्रम से जप करते रहने पर शीघ्र ही सोह-सोह ऐसा जप होने लगता है। योग वेत्ता इसे जानते हैं।

अभ्यासानंतरं कुर्याद्गच्छंस्तिष्ठन्स्वपन्नति। चितनं हंसमंत्रस्य योगसिद्धिकरं परम्-योग रसायनम् 303

अभ्यास के अनन्तर चलते, बैठते और सोते समय भी हंस मन्त्र का चिन्तन, (साँस लेते समय ‘सो’ छोड़ते समय ‘ह’ का चिन्तन) परम सिद्धिदायक है। इसे ही ‘हंस’, ‘हंसो’ या ‘सोह’ मंत्र कहते हैं।

हंससयाकृतिविस्तारं भुक्तिमुक्तिफलप्रदमः। सर्वेषु देहेषु व्याप्त वर्तते यथा ह्यग्निः काष्ठेषु तिलेषु तैलमिव। तं दिवित्वा न मृत्युमेति।

अग्नीषीमौ पक्षावोंकारः शिर उकारों बिन्दुस्त्रिनेत्रं मुखं रुद्रो रुद्राणि चरणौ द्विविधं कण्ठतः कुर्यादित्युन्माः अजपोपसंहार इत्याभिधीयते।

तस्मान्मनों विलीने मनसि गते संकल्पविकल्पे दग्धे पुण्यपापे सदाशिवः शक्त्यात्मा सर्वत्रावस्थितः स्वयं ज्योति शुद्धो बुद्धों नित्यों निरंजनः शान्ततमः प्रकाशयतीत वेदानुवचनं भवतीत्युपनिषत्-हंसोपनिषद्

‘हंस’ तत्त्व का आकार विस्तार भुक्ति और मुक्ति दोनों ही देने वाला हैं यह तत्त्व सम्पूर्ण देहधारियों में उसी तर व्याप्त हैं जैसे काष्ठ में अग्नि एवं तिलों में तेल समाया रहता है।

अग्नि और सोम इस हंस के पंख है। ओंकार मस्तक, बिन्दु नेत्र, रुद्र मुख, रुद्राणी चरण, काल भुजाएँ, अग्नि बगलें, तथा सगुण-निर्गुण ब्रह्म उसके दोनों पार्श्व है।

जब मन उस हंस तत्त्व में लीन हो जाता है तो मन के संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं और शक्ति रूप, ज्योति रूप, शुद्ध-बुद्ध नित्य निरंजन ब्रह्म का प्रकाश, प्रकाशवान होता है।

प्राणिनाँ देहमध्ये तु स्थितो हंसः सदाऽच्युतः। हंस एव परं सत्यं हंस एवंत सत्यकम्॥

हंस एव परं वाक्यं हंस एवंत वैदिकम्। हस एवं परो रुद्रो हंस एवं परात्परम्॥

सर्वदेवस्य मध्यस्थो हंस एवं महेश्वरः। हंसज्योतिरनूपम्यं देवमध्ये व्यवस्थितम्-ब्रह्मा विद्योपनिषद्

प्राणियों की देह में भगवान ‘हंस’ रूप अवस्थित हैं हंस ही परम सत्य हैं हंस ही परम बल है।

समस्त देवताओं के बीच ‘हंस’ ही परमेश्वर हैं हंस ही परम वाक्य है, हंस ही वेदों का सार है, हंस परम रुद्र है, हंस ही परात्पर है।

समस्त देवों के बीच हंस अनुपम ज्योति बनकर विद्यमान् है।

सदा तन्मयतापूर्वक हंस मन्त्र का जप निर्मल प्रकाश का ध्यान करते हुए करना चाहिए।

नभस्स्थ निष्कलं ध्यात्वा मुच्यते भवबन्धनात्। अनाहतध्वनियुत हंसं यो वेद हृद्गतम॥

स्व प्रकाशचिदानन्द स हसं इति गीयते। नाभिकन्दे समं कृत्वा प्राणापानौ समाहितः मस्तकस्थामृतास्वादं पीत्वा ध्यानेन सादरम्॥

हंसविद्यामृते लोके नास्ति नित्यत्वसाधनम्। यो ददाति माहविद्या हंसाख्याँ पावनीं पराम्॥

हंसहंसेति यो ब्रू याद्धं सो ब्रह्मा हरिः शिव। गुरु वक्रात्तु लभ्येत प्रत्यक्षं सर्वतोमुखम्-ब्रह्म विद्योपनिषद्-

जो हृदय में अवस्थित अनाहत ध्वनि सहित प्रकाशवान चिदानन्द ‘हंस’ तत्त्व को जानता है सो ‘हंस’ ही कहा जाता है।

जो अमृत से आय सिंचन करते हुए ‘हंस’ तत्त्व का जप करता है उसे सिद्धियों और विभूतियों की प्राप्ति होती है।

इस संसार में ‘हंस’ विद्या के समान और कोई साधन नहीं। इस महाव़ा को देने वाला ज्ञानी सब प्रकार सेवा करने योग्य है।

जो ‘हंस’ तत्त्व की साधना करता है वह त्रिदेव रूप है। वह सर्वव्यापी भगवान को जान ही लेता है।

मनसो हंसः सोऽहं हंस इति तन्मयं यज्ञो नादानुसंधानम्-पाश्पत ब्रह्मोपनिषद्-

मानस ब्रह्म का रूप-हंस है। यही सोऽहम् है। यह हंस बाहर भ्रमण करता है भीतर भी। यह परमात्म स्वरूप है। इसका तन्मयता यज्ञ-नादानुसन्धान है।

हंसात्ममालिका वर्णब्रह्माकालप्रचोदिता। परमात्मा पुमानिति ब्रह्मसंपत्तिकारिणी-पाशुपत ब्रह्मोपनिषद्

हंस यह वर्ण ब्रह्म है। इसी से ब्रह्म की प्राप्ति होती है। पुरुष और परमात्मा यही है।

हंसविद्यामविज्ञाय मुक्तो यत्र करोति यः । स नभोभक्षणेनैव क्षुन्नितृर्ति करिष्यति-सूत संहिता

हंसयोग को जान कर जो प्रयत्न करता है वह सब प्रकार की क्षुधाओं से निवृत्त हो जाता है।

पाशान् छित्वा यथा हंसो निविशकं खमुत्पतेत्। छिन्नपाश्स्तथा जीवः संसार तरते सदा-क्षूरिकोपनिषद्

जिस प्रकार हंस स्वच्छन्द होकर आकाश में उड़ता है उसी प्रकार इस हंसयोग का साधक सर्व बन्धनों से विमुक्त होता है।

‘ह’ और ‘स’ अक्षरों की पृथक्-पृथक् विवेचना भी शास्त्रकारों ने अनेक प्रकार से की है। इन अक्षरों से कई प्रकार के अर्थ निकलते हैं और दोनों के योग से ‘साधक’ को एक उपयुक्त दिशा धारा मिलती है।

हकारो निर्गमे प्रोक्तः सकारेण प्रवेशनम्। हकारः शिवरुपेण सकारः शक्तिरुच्यते-शिव स्वरोदयं

श्वास के निकलने में ‘हकार’ और प्रविष्ट होने में सकार होता है। हकार शिव रूप और सकार शक्ति रूप कहलाता है।

हकारेण तु सूर्यः स्यात् सकारेणेन्दुरुच्यते। सूर्य चन्द्रमसोरै क्यं हठ इव्भिधीयते॥

हठेन ग्रस्यते जाडद्य सर्वदोष समुद्भवम्। क्षेत्रज्ञः परमात्मा च तपोरैक्य तदाभवेत्-योग शिखोपनिषद्

हकार से सूर्य या दक्षिण स्वर होता है और प्रकार से चन्द्र या बाम स्वर होता है। इस सूर्य चन्द्र दोनों स्वरों में समता स्थापित हो जाने का नाम हठयोग है। हम द्वारा सब दोषों की कारणभूत जड़ता का नाश हो जाता है और तब साधक क्षेत्रज्ञ (परमात्मा) से एकता प्राप्त कर लेता है।

जीवात्मा सहज स्वभाव सोऽहम् का जप श्वास-प्रश्वास क्रिया के साथ साथ अनायास ही करता रहता है। यह संख्या औसतन चौबीस घण्टे में इक्कीस हजार छः सौ के लगभग हो जाती है।

हकारेण बहिर्यात सकारेण विशेत्पुनः। हंस हंसेत्यसु मन्त्र जीवो जपति सर्वदा॥

शट् शतानि त्वहोरात्रे सहस्राष्येकविंशतिः। एतत्संख्यान्वित मन्त्र जीवो जपति सर्वदा-गोरक्षसंहिता 1,41,42

यह जीव (प्राणवायु) हकार की ध्वनि से बाहर आता और सकार की ध्वनि से भीतर जाता है। इस प्रकार व सदा हंस हंस मन्त्र का जप करता रहता है।

इस भाँति वह एक दिन रात में जीव इक्कीस हजार छः सौ मन्त्र सदा जपता रहता है। संस्कृत व्याकरण के आधार पर सोऽहम् का संक्षिप्त रूप ‘ऊँ’ हो जाता है।

सकारं चहकारं च लोपयित्व प्रयोजनत। संधि च पूर्व रुपाख्याँ ततोऽसौ प्रणवो भवेत्॥

सोऽहम् पद में से सकार और हकार का लोप करके सन्धि की योजना करने से वह प्रणव (ऊँ कार) रूप होता है।


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