कुण्डलिनी जागरण और चक्र वेधन

June 1977

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कुण्डलिनी योग के अंतर्गत शक्तिपात विधान का वर्णन अनेक ग्रन्थों में मिलता है। योग वशिष्ठ, तेज बिंदूपनिषद्, योग चूड़ामणि, नसंकलिनी तन्त्र, शिव पुराण, देवी भागवत्, शाण्डिल्योपनिषद्, मुक्तिकोपनिषद्, हठयोग संहिता, कुलार्णव तन्त्र, योगिनी तन्त्र, घेरंड संहिता, कठ श्रुति ध्यान बिंदूपनिषद्, रुद्र यामत तन्त्र, योग कुण्डलिनी उपनिषद्, शारद तिलक आदि ग्रन्थों में इस विद्या के विभिन्न पहलुओं पर प्रकार डाला गया है। फिर भी वह सर्वांगीण नहीं है। उसे इस ढंग से नहीं लिखा गया है कि उस उल्लेख के सहारे कोई अजनबी व्यक्ति साधना करके सफलता प्राप्त कर सके। पात्रता युक्त अधिकारी साधक और अनुभवी सुयोग्य मार्गदर्शक की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ही ग्रन्थों में इस गूढ़ विद्या पर प्रायः संकेत ही किये गये हैं।

योरोपीय तांत्रिकों में जोकब बोहम की ख्याति कुण्डलिनी साधकों के रूप में रही है। उनके जर्मन शिष्य जानजार्ज गिचेल की लिखी पुस्तक थियोसाफिक प्रोक्टिका में चक्र संस्थानों का विशद वर्णन है जिसे उन्होंने अनुसंधानों और अभ्यासों के आधार पर लिखा है। जैफरी हडस्वन ने इस संदर्भ में गहरी खोजें की है और आत्म विज्ञान एवं भौतिक विज्ञान के समन्वयात्मक आधार लेकर चक्रों में सन्निहित शक्ति और उसके उभार उपयोग के सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक प्रकाश डाला है।

तैत्तिरीय आरण्यक में चक्रों को देवलोक एवं देव संस्थान कहा गया है। शंकराचार्य कृत आनन्द लहरी के 17 वें श्लोक में भी ऐसा ही प्रतिपादन है।

योग दर्शन समाधिपाद का 36 वाँ सूत्र है-

“विशोकाया ज्योतिष्मती”

इसमें शोक संतापों का हरण करने वाली ज्योति शक्ति के रूप में कुण्डलिनी शक्ति की ओर संकेत है।

इस समस्त शरीर को-सम्पूर्ण जीव कोशों को-महाशक्ति की प्राण संभाले हुए हैं उस प्रक्रिया के दो ध्रुव-दो खण्ड हैं। एक को चय प्रक्रिया (एनाबालिक एक्शन) तथा दूसरे को अपय प्रक्रिया (कैटाबाँलिक एक्शन) कहते हैं। इसी को दार्शनिक भाषा में शिव एवं शक्ति भी कहा जाता है शिव क्षेत्र सहस्रार तथा शक्ति क्षेत्र मूलाधार कहा गया है। इन्हें परस्पर जोड़ने वाली, परिभ्रमण शील शक्ति का नाम कुण्डलिनी है।

सहस्रार और मूलाधार का क्षेत्र विभाजन करते हुए मनीषियों ने मूलाधार से लेकर कण्ठ पर्यन्त का क्षेत्र एवं चक्र संस्थान ‘शक्ति’ भाग बताया है और कंठ से ऊपर का स्थान ‘शिव’ देश कहा है।

मलाद्धाराद्धि षट्चक्रं शक्तिस्थान मुदीरितम्। कण्ठादुपरि मूर्द्धान्तं शाम्भवं स्थानमुच्यते-बराहश्रुति

मूलाधार से कण्ठ पर्यन्त शक्ति का स्थान हैं कण्ठ के ऊपर से मस्तक तक शाम्भवी स्थान है। यह बात पहले कही जा चुकी है।

मूलाधार से सहस्रार तक की काम बीज से ब्रह्म बीज तक की यात्रा को ही महायात्रा कहते हैं। योगी इसी मार्ग को पूरा करते हुए परम लक्ष्य तक पहुँचते हैं। जीव सत्ता-प्राण शक्ति का निवास जननेन्द्रिय मूल में है। प्राण उसी भूमि में रहने वाले रज वीर्य से उत्पन्न होते हैं। ब्रह्म सत्ता का निवास ब्रह्मलोक में-ब्रह्मरन्ध्र में माना गया है यह द्युलोक-देवलोक स्वर्ग लोक है आत्मज्ञान का ब्रह्मज्ञान का सूर्य इसी लोक में निवास करता है। कमल पुष्प पर विराजमान् ब्रह्मा जी-कैलाशवासी शिव और शेषशायी विष्णु निवास जिस मस्तिष्क मध्य केन्द्र में है-उसी नाभिक न्यूक्लियस को सहस्रार कहते हैं। आत्म साक्षात्कार की ब्रह्म साक्षात्कार की प्रक्रिया यहीं सम्पन्न होती हैं पतन के-स्खलन के गर्त में पड़ी क्षत-विक्षत आत्म सत्ता जब ऊर्ध्वगामी होती है तो उसका लक्ष्य इसी ब्रह्मलोक तक-सूर्यलोक तक पहुँचना होता है। योगाभ्यास का परम पुरुषार्थ इसी निमित्त किया जाता है। कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य यही है।

आत्मोत्कर्ष की महायात्रा जिस राज मार्ग से होती हैं से मेरुदण्ड या सुषुम्ना कहते हैं उसका एक सिरा मस्तिष्क का -दूसरा काम केन्द्र का स्पर्श करता है। कुण्डलिनी साधना की समस्त गतिविधियाँ प्रायः इसी ड़ड़ड़ड़ को परिष्कृत एवं सरल बनाने के लिए है। इड़ा ड़ड़ड़ड़ के प्राण प्रवाह इसी क्षेत्र को दुहराने के लिए आयोजित किये जाते हैं। साबुन पानी में कपड़े धोये जाते हैं। झाडू झाड़न से कमरे की सफाई होती है। इड़ा पिंगला के माध्यम से किये जाने वाले नाड़ी शोधन प्राणायाम मेरुदण्ड का संशोधन करने के लिए हैं इन दोनों ऋणात्मक और धनात्मक शक्तियों का उपयोग सृजनात्मक उद्देश्य से भी होता है।

इमारतें बनाने वाले कारीगर कुछ समय नींव खोद गड्ढा करते हैं, इसके बाद वे ही दीवार चुनने के काम लग जाते हैं। इसी प्रकार इड़ा पिंगला संशोधन और ड़ड़ड़ड़ का दुहरा कमा करते हैं। जो आवश्यक है ड़ड़ड़ड़ विकसित करने में वे कुशल माली की भूमिका निभाते हैं। यों आरम्भ में जमीन जोतने जैसा ध्वंसात्मक कार्य भी उन्हीं को करना पड़ता है। पर यह उत्खनन निश्चित रूप से उन्नयन के लिए होता है माली भूमि खोदने, पतवार उखाड़ने, पौधे की काट-छाँट करने का काम करते समय ध्वंस संलग्न प्रतीत होता है, पर खाद पानी देने ड़ड़ड़ड़ करने में उसकी उदार सृजनशीलता का भी योग होता है इड़ा, पिंगला के माध्यम से सुषुम्ना क्षेत्र में काम करने वाली प्राण विद्युत का विशिष्ट संचार क्रम ड़ड़ड़ड़ करके कुण्डलिनी जागरण की साधना सम्पन्न की जाती हैं।

मेरुदण्ड को राजमार्ग महामार्ग कहते हैं। इसे धरती स्वर्ग पहुँचने का देवयान मार्ग कहा गया हैं इस यात्रा के मध्य में सात लोक है। इस्लाम धर्म के सातवें आसमान में खुदा का निवास माना गया है। ईसाई धर्म में भी ऐसे ही मिलती जुलती मान्यता है हिंदू धर्म के भूः ड़ड़ड़ड़ सत्यम् यह सात लोक प्रसिद्ध आत्मा और परमात्मा के मध्य इन्हें विराम स्थल माना गया हैं। लम्बी मंजिलें पूरा करने के लिए लगातार नहीं चला जाता। बीच-बीच में विराम भी लेने होते हैं रेलगाड़ी गन्तव्य स्थान तक बीच के स्टेशनों पर रुकती-कोयला पानी लेती चलती हैं इन विराम स्थलों को ‘चक्र’ कहा गया है। चक्रों की व्याख्या दो रूपों में होती है, अवरोध के रूप में दूसरे अनुदान के रूप में। महाभारत में चक्रव्यूह की कथा है। अभिमन्यु उसमें फँस गया था। वेधन कला की समुचित जानकारी न होने से वह मारा गया था। चक्रव्यूह में सात परकोटे होते हैं। इस आलंकारिक प्रसंग को आत्मा के सात चक्रों में फँसा होना कह सकते हैं। भौतिक आकर्षणों की, भ्रांतियों की, विकृतियों की चहार दीवारी के रूप में भी चक्रों की गणना होती है। इसलिए उसके वेधन का विधान बताया गया है। रामचन्द्रजी ने बाली को मार सकने की अपनी क्षमता का प्रमाण सुग्रीव को दिया था। उनने सात ताड़ वृक्षों को एक बाण में बेध कर दिखाया था। इसे चक्रबेधन की उपमा दी जा सकती है। भागवत् माहात्म्य में धुन्धकाली प्रेत का वास की सात गांठें फोड़ते हुए सातवें दिन कथा प्रभाव से देव देहधारी होने की कथा है। इसे चक्रबेधन का संकेत समझा जा सकता है।

चक्रों को अनुदान केन्द्र इसलिए कहा जाता है कि उनके अंतराल में दिव्य सम्पदाएँ भरी पड़ी है। उन्हें ईश्वर ने चक्रों की तिजोरियों में इसलिए बन्द करके छोड़ा है कि प्रौढ़ता पात्रता की स्थिति आने पर ही उन्हें खोलने उपयोग करने का अवसर मिले। कुपात्रता अयोग्यता को स्थिति में बहुमूल्य साधन मिलने पर तो अनर्थ ही होता है। कुसंस्कारी सन्तानें उत्तराधिकार में मिली बहुमूल्य सम्पदा से दुर्व्यसन अपनाती और विनाश पथ पर तेजी से बढ़ती है। छोटे बच्चों को बहुमूल्य जेवर पहना देने से उनकी जान जोखिम का खतरा उत्पन्न हो जाता है। धातुओं की खदानें जमीन की ऊपरी परत पर बिखरी नहीं होती उन्हें प्राप्त करने के लिए गहरी खुदाई करनी पड़ती है। मोती प्राप्त करने के लिए समुद्र में गहरे गोते लगाने पड़ते हैं। यह अवरोध इसलिए है कि साहसी एवं सुयोग्य सत्पात्रों को ही विभूतियों का वैभव मिल सके। मेरुदण्ड में अवस्थित चक्रों को ऐसी सिद्धियों का केन्द्र माना गया है जिनकी भौतिक और आत्मिक प्रगति के लिए नितान्त आवश्यकता रहती है।

चक्रबेधन, चक्रशोधन, चक्र परिष्कार, चक्र जागरण आदि नामों से बताये गये विवेचनों एवं विधानों में कहा गया है कि इस प्रयास से अदक्षताओं एवं विकृतियों का निराकरण होता है। जो उपयुक्त है उसकी अभिवृद्धि का पथ प्रशस्त होता है। सत्प्रवृत्तियों के दमन में यह चक्रबेधन विधान कितना उपयोगी एवं सहायक हैं इसकी चर्चा करते हुए शारदा तिलक ग्रंथ के टीकाकार ने ‘आत्म विवेक' नाम से किसी साधना ग्रंथ का उद्धरण प्रस्तुत किया है। कहा गया है कि-

गुदलिंगान्तरे चक्रमाधारं तु चतुर्दंलम्। परमः सहजस्तद्वदानन्दों वीरपूर्वकः॥

योगाननदश्च तस्य स्यादीशानादिदले फलम्। स्वाधिष्ठानं लिंगमूले षट्पत्रंच क्रमस्य तु॥

पूर्वादिषु दलेष्वाहुः फलान्येतान्यनुक्रमात्। प्रश्रयः क्रूरता गर्वों नाशो मूर्च्छा ततः परम्॥

अवा स्यादविश्वासो जीवस्य चरतो ध्रुवम्। नाभौ दशदल चक्रं मणिपूरसंज्ञकम्॥

सुषुप्तिरत्र तृष्णा स्यादीर्ष्या पिशुतता तथा। लज्जा भयं घृणा मोहः कषायोऽथ विषादिता॥

हृदयेऽनाहतं चक्रं दलैर्द्वादशभिर्युतम्। लौल्यं प्रनाशः कपअं वितर्कोऽप्यनुतापिता॥

आशा प्रकाशश्चिनता च समीहा ममता ततः। क्रमेण दम्भे वैकल्यं विवेकोऽहंक्वतिस्तथा॥

फलान्येतानि पूर्वादविलस्थस्यात्मनों जगुः। कण्ठेऽस्ति भारतीसथानं विशुद्धिः षोड़शच्छदम्॥

तत्र प्रणव उद्गीथो हुँ फट् वषट् स्वधा तथा। स्वाहा नमोऽमृतं सप्त स्वराः षड्जादयों विषम॥ इति पूर्वादिपत्रस्थे फलानयात्मनि षोड़ष॥

(1) गुदा और लिंग के बीच चार पंखुड़ियों वाला आधार चक्र है। वहाँ वीरता और आनन्द भाव का निवास है। (2) इसके बाद स्वाधिष्ठान चक्र लिंग मूल ड़ड़ड़ड़ उसकी छः पंखुड़ियाँ है इसके जागृत होने पर ड़ड़ड़ड़ गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवा, अविश्वास आदि गुणों का नाश होता है। (3) नाभि में दश दल वाला मणिपुर चक्र हैं यह प्रसुप्त पड़ा रहे तो तृष्णा, ईर्ष्या, ड़ड़ड़ड़ लज्जा, भय, घृणा, मोह आदि कषाय-कल्मष मन ड़ड़ड़ड़ जड़ जमाये पड़े रहते हैं। (4) हृदय स्थान में अनाहत चक्र है। यह बारह पंखुड़ियों वाला है। यह सोता रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़-फोड़ कुतर्क, चिन्ता, मोह, दंभ, अविवेक अहंकार से भरा रहेगा। जागरण होने पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे (5) कण्ठ में विशुद्धाख्य चक्र यह सरस्वती का स्थान हैं यह सोलह पंखुड़ियों वाला है। यहाँ सोलह कलाएँ-सोलह विभूतियाँ विद्यमान् हैं। (6) भ्रूमध्य में आज्ञा चक्र है, यहाँ ‘ऊँ’ उद्गी, हुँ फट, विषद, स्वधा, स्वाहा, अमृत, सप्त स्वर, आदि का निवास है। इस आज्ञा चक्र का जागरण होने से यह सभी शक्तियाँ जाग पड़ती है।

श्री हडसन ने अपनी पुस्तक ‘साइन्स आव सीयरशिप’ में अपना मत व्यक्त किया है। प्रत्यक्ष शरीर में चक्रों की उपस्थिति का परिचय तन्तु गुच्छकों के रूप में देखा जा सकता है। अन्तःदर्शियों का अनुभव इन्हें सूक्ष्म शरीर में उपस्थित दिव्य शक्तियों का केन्द्र संस्थान बताता है कुण्डलिनी के बारे में उनके पर्यवेक्षण का निष्कर्ष है कि-वह एक व्यापक चेतना शक्ति है। मनुष्य के मूलाधार चक्र में उसका सम्पर्क तन्तु है जो व्यक्ति सत्ता को विश्व सत्ता के साथ जोड़ता है। कुण्डलिनी जागरण से चक्र संस्थानों में जागृति उत्पन्न होती है। उसे फलस्वरूप-पराभौतिक (सुपर फिजीकल) और भौतिक (फिजीकल) के बीच आदान-प्रदान का द्वार खुलता है। यही है वह स्थिति जिसके सहारे मानवी सत्ता में अन्तर्हित दिव्य शक्तियों का जागरण सम्भव हो सकता है।

चक्रों की जागृति मनुष्य के गुण कर्म स्वभाव को प्रभावित करती है। स्वाधिष्ठान की जागृति से मनुष्य अपने में नव शक्ति का संचार हुआ अनुभव करता है उसे बलिष्ठता बढ़ती प्रतीत होती हैं श्रम में उत्साह और गति में स्फूर्ति की अभिवृद्धि का आभास मिलता है। मणिपुर चक्र से साहस और उत्साह की मात्रा बढ़ जाती है। संकल्प दृढ़ होते हैं और पराक्रम करने के हौसले उठते हैं मनोविकार स्वयमेव घटते हैं और परमार्थ प्रयोजनों में अपेक्षाकृत अधिक रस मिलने लगता है। अनाहत चक्र की महिमा हिन्दुओं से भी अधिक ईसाई धर्म के योगी बताते हैं। हृदय स्थान पर गुलाब के फल की भावना करते हैं और उसे महाप्रभु ईसा का प्रतीक ‘आईचिन’ कनक कमल मानते हैं। भारतीय योगियों की दृष्टि से यह भाव संस्थान है। कलात्मक उमंगें-रसानुभूति एवं कोमल सम्वेदनाओं का उत्पादक स्रोत यही है। बुद्धि की वह परत जिसे विवेकशीलता कहते हैं। बुद्धि की वह परत जिसे विवेकशीलता कहते हैं। आत्मीयता का विस्तार सहानुभूति एवं उदार सेवा सहकारिता के तत्त्व इस अनाहत चक्र से ही उद्धत होते हैं। कंठ में विशुद्ध चक्र हैं इसमें बहिरंग स्वच्छता और अन्तरंग पवित्रता के तत्त्व रहते हैं। दोष दुर्गुणों के निराकरण की प्रेरणा और तद्नुरूप संघर्ष क्षमता यहीं से उत्पन्न होती है। शरीर शास्त्र में थाइराइड ग्रन्थि और उससे स्रवित होने वाले हारमोन्स के संतुलन असन्तुलन से उत्पन्न लाभ हानि की चर्चा की जाती है। अध्यात्म शास्त्र द्वारा प्रतिपादित विशुद्ध चक्र का स्थान तो यही है।, पर वह होता सूक्ष्म शरीर में है। उसमें अतीन्द्रिय क्षमताओं के आधार विद्यमान् है लघु मस्तिष्क शिर के पिछले भाग में है। अचेतन की विशिष्ट क्षमताएँ उसी स्थान पर मानी जाती है। मेरुदण्ड में कंठ की सीध पर अवस्थित विशुद्धिचक्र इस चित्त संस्थान को प्रभावित करता है। तदनुसार चेतना की अति महत्त्वपूर्ण परतों पर नियंत्रण करने और विकसित एवं परिष्कृत कर सकने के सूत्र हाथ में आ जाते हैं नादयोग के माध्यम से दिव्य श्रवण जैसी कितनी ही परोक्षानुभूतियाँ विकसित होने लगती है।

सहस्रार मस्तिष्क के मध्य भाग में है। शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थियों से सम्बद्ध रेटिकुलर ऐक्टिवेटिंग सिस्टम का अस्तित्व हैं । वहाँ से जैवीय विद्युत का स्वयं भू प्रवाह उभरता है। वे धारायें मस्तिष्क के अगणित केन्द्रों की ओर दौड़ती है। इसमें से छोटी-छोटी चिनगारियाँ तरंगों के रूप में उड़ती रहती हैं। उनकी संख्या की सही गणना तो नहीं हो सकती, पर वे है हजारों। इसलिए हजार या हजारों का उद्बोधक ‘सहस्र’ शब्द प्रयोग में लाया जाता है। सहस्रार चक्र का नामकरण इसी आधार पर हुआ है। सहस्र फन वाले शेष नाग की परिकल्पना का यही आधार है। यह संस्थान ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ संपर्क साधने में अग्रणी है इसलिए उसे ब्रह्मरंध्र या ब्रह्मलोक भी कहते हैं। रेडियो एरियल की तरह हिन्दू धर्मानुयायी इस स्थान पर शिखा रखते और उसे शिर रूपी दुर्ग पर आत्म सिद्धान्तों को स्वीकृति किये जाने की विजय पताका बताते हैं। आज्ञा चक्र को सहस्रार का उत्पादन केन्द्र कह सकते हैं।

सभी चक्र सुषुम्ना नाड़ी के अन्दर स्थित है तो भी वे समूचे नाड़ी मण्डल को प्रभावित करते हैं। स्वचालित और ऐच्छिक दोनों ही संचार प्रणालियों पर इनका प्रभाव पड़ता है। अस्तु शरीर संस्थान के अवयवों को चक्रों द्वारा निर्देश पहुँचाये जा सकते हैं। साधारणतया यह कार्य अचेतन मन करता है और उस पर सचेतन मस्तिष्क का कोई बस नहीं चलता है। रोकने की इच्छा करने पर भी रक्त संचार रुकता नहीं और तेज करने की इच्छा होने पर भी उसमें सफलता नहीं मिलती। अचेतन बड़ा दुराग्रही है। सचेतन की बात सुनने की उसे फुर्सत नहीं उसकी मन मर्जी ही चलती है। ऐसी दशा में मनुष्य हाथ-पैर चलाने जैसे छोटे-मोटे काम ही इच्छानुसार कर पाता है। शरीर की अनैच्छिक क्रिया पद्धति के सम्बन्ध में वह लाचार बना रहता है। इसी प्रकार अपनी आदत, प्रकृति, रुचि, दिशा बदलने के मनसूबे भी एक कोने पर रखे रह जाते हैं। ढर्रा अपने क्रम से चलता रहता है। ऐसी दशा में व्यक्तित्व को परिष्कृत करने वाली और शरीर तथा मनःसंस्थान में अभीष्ट परिवर्तन करने वाली आकांक्षा प्रायः अपूर्ण एवं निष्फल ही बनी रहती है। चक्र संस्थान को यदि जागृत तथा नियन्त्रित किया जा सके तो आत्म जगत पर अपना अधिकार हो जाता है। यह आत्म विजय अपने ढंग की अद्भुत सफलता है। इसका महत्त्व तत्त्वदर्शियों ने विश्व विजय से भी अधिक महत्त्वपूर्ण बताया हैं। विश्व विजय कर लेने पर दूरवर्ती क्षेत्रों से समुचित लाभ उठाना सम्भव नहीं हो सकता, उसकी सम्पदा का उपभोग, उपयोग कर सकने की अपने में सामर्थ्य भी कहाँ है? किन्तु आत्म विजय के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है। उसका पूरा-पूरा लाभ स्वयं ही उठाया जा सकता है। उस आधार पर बहिरंग और अन्तरंग क्षेत्रों की सम्पदा का प्रचुर लाभ अपने आप को मिल सकता है।

मेरुदण्ड को शरीर शास्त्री-स्पाइनल कालम कहते हैं। स्पाइन-एक्सिस स्टफ-वरटेब्रेल् कालम-शब्द भी उसी के लिए प्रयुक्त होते हैं। मोटे तौर पर यह 33 अस्थि घटकों से मिलकर बनी हुई एक पोली दण्डी भर है। इन हड्डियों को पृष्ठ वंश-कशेरुका या ‘वार्टिव्री’ कहते हैं। स्थिति के अनुरूप इनका पाँच भागों में विभाजित किया जा सकता है।

(1) ग्रीवा प्रदेश-सर्विकाल रीजन-7 अस्थि खण्ड, (2) वक्ष प्रदेश-डोर्सल रीजन-12 अस्थि खण्ड, (4) त्रिकया वस्तिगव्हगर-लूम्बर रीज-5 अस्ति खण्ड, (5) चेचु प्रदेश कोसिजयल रीजन-4 अस्थि खण्ड।

मेरुदण्ड पोला है। उससे अस्थि खण्डों के बीच में होता हुआ यह छिद्र नीचे से ऊपर तक चला गया है। इसी के भीतर सुषुम्ना नाड़ी विद्यमान् है। मेरुदण्ड के उपर्युक्त पाँच प्रदेश सुषुम्ना में अवस्थित पाँच चक्रों से सम्बन्धित है। (1) मूलाधार चक्र-चेचु प्रदेश (2) स्वाधिष्ठानत्रिक प्रदेश (3) मणिपुर-कटि प्रदेश(4) अनाहत-वक्ष प्रदेश (5) विशुद्ध-ग्रीवा प्रदेश। छठवें आज्ञाचक्र का स्थान मेरुदण्ड में नहीं आता। सहस्रार का सम्बन्ध भी रीढ़ की हड्डी से सीधा नहीं है। इतने पर भी सूक्ष्म शरीर का सुषुम्ना मेरु दण्ड पाँच रीढ़ वाले और दो बिना रीढ़ सभी सातों चक्रों को एक ही शृंखला में बाँधे हुए हैं सूक्ष्म शरीर की सुषुम्ना में यह सातों चक्र जंजीर की कड़ियों की तरह परस्पर पूरी तरह सम्बद्ध है।

यहाँ यह तथ्य-भाँति स्मरण रखा जाना चाहिए कि शरीर विज्ञान के अंतर्गत वर्णित प्लेक्सस नाड़ी गुच्छक और चक्र एक नहीं है। यद्यपि उनके साथ पारस्परिक तारतम्य जोड़ा जा सकता है यों इन गुच्छकों की भी शरीर में विशेष स्थिति है और उनकी कायिक और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाली प्रतिक्रिया होती रहती है।

शरीर शास्त्र के अनुसार प्रमुख नाड़ी गुच्छकों (प्लेक्ससेज) में 13 प्रधान हैं उनके नाम है। (1) हेपाँटिक (2) सर्वाइकल (3) ब्राँचियल (4) कासिजियल (5) लम्बर (6) सेक्रेल (7) कार्डियक (8) इपेगेस्ट्रिक (9) इसोफैजियल (10) फारिन गीयल (11) पलमोनरी (12) लिंगुयल (13)प्रोस्टेटिक।

इन गुच्छकों में शरीर यात्रा में उपयोगी भूमिका सम्पन्न करते रहने के अतिरिक्त कुछ विलक्षण विशेषताएँ भी पाई जाती है उनसे यह प्रतीत होता है कि उनके साथ कुछ रहस्यमय तथ्य भी जुड़े हुए हैं। यह सूक्ष्म शरीर के चक्रों के सान्निध्य से उत्पन्न होने वाला प्रभाव ही कहा जा सकता है।

‘चक्र’ शक्ति संचरण के एक व्यवस्थित, सुनिश्चित क्रम को कहते हैं। वैज्ञानिक क्षेत्र में विद्युत, ध्वनि, प्रकाश सभी रूपों में शक्ति के संचार क्रम की व्याख्या चक्रों (साइकिल्स) के माध्यम से ही की जाती है। इन सभी रूपों में शक्ति का संचार, तरंगों के माध्यम से होता है। एक पूरी तरंग बनने के क्रम को एक चक्र (साइकिल) कहते हैं। एक के बाद एक तरंग, एक के बाद एक चक्र (साइकिल) बनने का क्रम चलता रहता है और शक्ति का संचरण होता रहता है। शक्ति की प्रकृति (नेचर) का निर्धारण इन्हीं चक्रों के क्रम के आधार पर किया जाता है। औद्योगिक क्षेत्र में प्रयुक्त विद्युत के लिए अन्तर्राष्ट्रीय नियम है कि वह 50 साइकिलें प्रति सेकेण्ड के चक्र क्रम की होनी चाहिए। विद्युत की मोटरों एवं अन्य यन्त्रों को उसी प्रकृति की बिजली के अनुरूप बनाया जाता है इसीलिए उन पर हार्सपावर, वोल्टेज आदि के साथ 50 साइकिल्स भी लिखा रहता है अस्तु शक्ति संचरण के साथ चक्र प्रक्रिया जुड़ी ही रहती हैं वह चाहे स्थूल विद्युत शक्ति हो अथवा सूक्ष्म जैवीय विद्युत शक्ति।

नदी प्रवाह में कभी-कभी कहीं भंवर पड़ जाते हैं। उनकी शक्ति अद्भुत होती हैं उनमें फँसकर नौकाएं अपना सन्तुलन खो बैठती है और एक ही झटके में उल्टी डूबती दृष्टिगोचर होती हैं सामान्य नदी प्रवाह की तुलना में इन भँवरों की प्रचंडता सैकड़ों गुनी अधिक होती हैं शरीरगत विद्युत प्रवाह को एक बहती हुई नदी के सदृश माना जा सकता है और उसमें जहाँ तहाँ पाये जाने वाले चक्रों की भँवरों से तुलना की जा सकती हैं।

गर्मी की ऋतु में जब वायुमण्डल गरम हो जाता है तो जहाँ-तहाँ छोटे बड़े चक्रवात-साइकलोन उठने लगते हैं। वे नदी के भँवरों की तरह ही गरम हवा के कारण आकाश में उड़ते हैं। उनकी शक्ति देखते ही बनती है। पेड़ों को, छत्तों को, छप्परों को उखाड़ते उछालते वे बवण्डर की तरह जिधर-किधर भूत-बेताल की तरह नाचते-फिरते हैं। साधारण पवन प्रवाह की तुलना में इन चक्रवातों की शक्ति भी सैकड़ों गुनी अधिक होती है।

शरीरगत विद्युत शक्ति का सामान्य प्रवाह यों सन्तुलित ही रहता है पर कहीं-कही उसमें उग्रता एवं वक्रता भी देखी जाती है हवा कभी-कभी बाँस आदि के झुरमुटों से टकरा कर कई तरह की विचित्र आवाजें उत्पन्न करती है। रेलगाड़ी, मोटर और द्रुतगामी वाहनों के पीछे दौड़ने वाली हवा को भी अन्धड़ की चाल चलते देखा जा सकता है नदी का जल कई जगह ऊपर से नीचे गिरता है-चट्टानों से टकराता है तो वहाँ प्रवाह में व्यक्तिक्रम, उछाल, गर्जन-तर्जन की भय करता दृष्टिगोचर होती है। शरीरगत सूक्ष्म चक्रों की विशेष स्थिति भी इसी प्रकार की है। यों नाड़ी गुच्छकों-प्लेक्सस में भी विद्युत संचार और रक्त प्रवाह की गति क्रम में कुछ विशेषता पाई जाती है। किंतु सूक्ष्म शरीर में तो वह व्यक्तिक्रम कही अधिक उग्र दिखाई पड़ता है पवन प्रवाह पर नियन्त्रण करने के लिए नावों पर पतवार बाँधें जाते हैं उनके सहारे नाव की दिशा और गति में अभीष्ट फेर कर लिया जाता है। पन चक्की के पंखों को गति देकर आटा पीसने , जलकल चलाने आदि काम लिये जाते हैं। जल प्रपात जहाँ ऊपर से नीचे गिरता है वहाँ उस प्रपात तीव्रता के वेग को बिजली बनाने जैसे कार्यों के लिए प्रयुक्त किया जाता है। समुद्री ज्वार भाटों से भी बिजली बनाने का काम लिया जा रहा है। ठीक इसी प्रकार शरीर के विद्युत प्रवाह में जहाँ चक्र बनते हैं वहाँ उत्पन्न उग्रता को कितने ही आध्यात्म प्रयोजन में काम लाया जाता है।


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