ऊर्ध्वगमन का अभ्यास शक्तिचालनी मुद्रा द्वारा

June 1977

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

कुण्डलिनी जागरण में मूलाधार से प्रसुप्त कुण्डलिनी को जागृत करके ऊर्ध्वगामी बनाया जाता है। उस महाशक्ति की सामान्य प्रवृत्ति अधोगामी रहती है। रति क्रिया में उसका स्खलन होता रहता है। शरीर यात्रा की मल मूत्र विसर्जन प्रक्रिया भी स्वभावतः अधोगामी है। शुक्र का क्षरण भी इसी दिशा में होता है। इस प्रकार यह सारा संस्थान अधोगामी प्रवृत्तियों में संलग्न रहता है।

कुण्डलिनी शक्ति के जागरण और उत्थान के लिए इस क्षेत्र को ऊर्ध्वगामी बनने का अभ्यास कराया जाता है। ताकि अभीष्ट उद्देश्य की सफलता में सहायता मिल सके। गुदा मार्ग को ऊर्ध्वगामी अभ्यास कराने के लिए हठयोग में ‘वस्ति क्रिया’ है। उसमें गुदा द्वारा से जल को ऊपर खींचा जाता है फिर संचित मल को बाहर निकाला जाता है। इसी क्रिया को ‘वस्ति’ कहते हैं। इसी प्रकार मूत्र मार्ग से जल ऊपर खींचने और फिर विसर्जित करने की क्रिया वज्रोली कहलाती है। वस्ति और वज्रोली दोनों का ही उद्देश्य इन विसर्जन छिद्रों को अधोमुखी अभ्यासों के साथ ही ऊर्ध्वगामी बनने का प्रशिक्षण दिया जाता है। इन अभ्यासों से कुण्डलिनी को ऊर्ध्वगामी बनाने में सहायता मिलती है।

वस्ति और वज्रोली काफी कठिन है। हठयोग की साधनाएँ सर्वसुलभ नहीं है। उन्हें विशेष मार्ग दर्शन से विशेष व्यक्ति ही कर सकते हैं। उन अभ्यासों में समय भी बहुत लगता है और भूल होने पर संकट उत्पन्न होने का खतरा भी रहता है। अस्तु सर्वजनीन सरलीकरण का ध्यान रखते हुए ‘शक्तिचालनी मुद्रा’ को उपयुक्त समझा गया है।

शक्तिचालनी मुद्रा में गुदा और मूत्र संस्थान को संकल्प बल के सहारे संकोचन कराया जाता है। संकोचन का तात्पर्य है उनकी बहिर्मुखी एवं अधोगामी आदत को अंतर्मुखी एवं ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए प्रशिक्षित करना। इसके लिए दोनों ही इन्द्रियों का - उसके सुविस्तृत क्षेत्र को संकोचन कराया जाता है। कभी कभी मुँह से हवा खींची जाती है, पानी पिया जाता है। इसमें मुख को खींचने को क्रिया करनी पड़ती है। पिचकारी में पानी भरते समय भी ऐसा ही होता है। मल और मूत्र छिद्रों से ऐसा ही वायु खींचने का, छोड़ने का, खींचने छोड़ने का प्राणायाम जैसा अभ्यास करना संक्षेप में शक्तिचालनी मुद्रा का प्रयोग है।

इस प्रयोग का पूर्वार्ध मूलबन्ध कहलाता है। मूलबन्ध में मात्र संकोचन भर होता है। जितनी देर मल मूत्र छिद्रों को सिकोड़ा जाता रहेगा उतनी देर मूलबन्ध की स्थिति मानी जाएगी यह एक पक्ष है। आधा अभ्यास है। इसमें पूर्णता समग्रता तब आती है जब प्राणायाम की तरह खींचने छोड़ने के दोनों ही अंग पूरे होने लगें। जब संकोचन-विसर्जन संकोचन-विसर्जन का-खींचने ढीला करने, खींचने ढीला करने का-उभय पक्षीय अभ्यास चल पड़े तो समझना चाहिए शक्तिचालनी मुद्रा का अभ्यास हो रहा है।

कमर से नीचे के भाग में अपान वायु रहती है। उसे ऊपर खींचकर कमर से ऊपर रहने वाली प्राणवायु के साथ जोड़ा जाता है। यह पूर्वार्ध हुआ। उत्तरार्ध में ऊपर के प्राण को नीचे के अपान के साथ जोड़ा जाता है। यह प्राण अपान के संयोग की योग शास्त्रों में बहुत महिमा गाई है-यही मूलबन्ध है। यह साधना की महिमा बताते हुए कहा गया है-

आकुँचनेन तं प्राहुमूँलवंधोऽयमुच्यते। अपानश्चोर्ध्वगो भूत्वा वन्हिना सह गच्छति-योग कुण्डल्योपनिषद

मूलबन्ध के अभ्यास से अधोगामी अपान को बलात् ऊर्ध्वगामी बनाया जाय, इससे वह प्रदीप्त होकर अग्नि के साथ साथ ही ऊपर चढ़ता है।

अभ्यासाद् बन्धनस्यास्य मरुत्सिद्धिर्भवेद् ध्रुवम्। साधयेद् यत्नतो तर्हि मौनी तु विजितालसः॥ (धेरण्डसंहिता 3,17)

मूलबन्ध के अभ्यास से मरुत् सिद्धि होती है अर्थात् शरीरस्थं वायु पर नियन्त्रण होता है। अतः आलस्य विहीन होकर मौन रहते हुए इसका अभ्यास करना चाहिए।

प्राणापानौ नादबिन्दु मूलबन्धेन चैकताम्। गत्वा योगस्य संसिद्धि यच्छतो नात्र संशयः-हठयोग प्रदीपिका

प्राण और अपान का समागम नाद बिन्दु की साधना तथा मूलबन्ध का समन्वय, यह कर लेने पर निश्चित रूप से योग की सिद्धि होती है।

अपान प्राणयों रैक्यं क्षयोमूल पुरीष्योः। युवाभवति वृद्धोऽपि सतनं मूलबन्धनात्-हठयोग प्रदीपिका

निरन्तर मूलबन्ध का अभ्यास करने से प्राण और अपान के समन्वय से-अनावश्यक मल नष्ट होते हैं और बद्धता भी यौवन में बदलती है।

विलं प्रविष्टेव ततो ब्रहनाहयंतरं व्रजेन्। तस्मान्नित्यं मूलबंधः कर्तव्यों योगिभिः सदा-हठयोग प्र0

मूलबन्ध से कुण्डलिनी का प्रवेश ब्रह्म नाड़ी-सुषुम्ना-में होता है। इसलिये योगी जन नित्य ही मूलबन्ध का अभ्यास करें।

सिद्वये सर्व भूतानि विश्वाधिष्ठानमद्वयम्। यस्मिन सिर्द्धि गताः निद्धास्तासिद्धासनमुच्यते॥ यन्मूलं सर्वलोकानाँ यन्मूलं चित्तबन्धनम्। मूलबन्ध सदा सेव्यो योग्योउसौ ब्रह्मवादिनाम्-तेजबिन्दु

जो सर्वलोकों का मूल है। जो चित्त निरोध का मूल है, सो इस आत्मा का ही ब्रह्मवादियों को सदा सेवन करना चाहिए। यही मूलबन्ध है। अन्यजुदा संकोचन रूप मूलबन्ध जिज्ञासुओं के लिए सेव्य नहीं है।

विलं प्रविष्टे ततो बह्मनाडयन्तरं ब्रजेत्। तस्मा त्रितयं मूलबंधः कर्तव्यो योगिभिः सदा-हठयोग प्रदीपिका 3,69

फिर जिस प्रकार सर्पिणी बिल में प्रविष्ट होती है, उसी प्रकार यह उद्दीप्त कुण्डलिनी ब्रह्मनाड़ी में प्रविष्ट होती है। इसीलिए योगियों को सदा ही मूलबन्ध का अभ्यास करना चाहिए।

मूलबन्ध एवं शक्तिचालिनी मुद्रा को विशिष्ट प्राणायाम कहा जा सकता है। सामान्य प्राणायाम में नासिका से साँस खींचकर प्राण प्रवाह को नीचे मूलाधार तक ले जाने और फिर ऊपर की ओर उसे वापिस लाकर नासिका द्वारा से निकालते हैं। यही प्राण संचरण की क्रिया जब अधोभाग के माध्यम से की जाती है तो मूलबन्ध कहलाती है। नासिका का तो स्वभाव साँसें लेते और छोड़ते रहना है। अतः उसके साथ प्राण संचार का क्रम सुविधापूर्वक चल पड़ता है। गुदा अथवा उपस्था इन्द्रियों द्वारा वायु खींचने जैसी कोई क्रिया नहीं होती अतः उस क्षेत्र के स्नायु संस्थान पर खिचाव पैदा करके सीधे ही प्राण संचार का अभ्यास करना पड़ता है। प्रारम्भ में थोड़ा अस्वाभाविक लगता है किन्तु क्रमशः अभ्यास में आ जाता है।

मूलबन्ध में सुखासन, (सामान्य पालथी मार कर बैठना) पद्मासन (पैरों पर पैर चढ़ाकर बैठना) सिद्धासन (मल मूत्र छिद्रों के मध्य भाग पर एड़ी का दबाव डालना) इनमें से किसी का भी प्रयोग किया जा सकता है।

मल द्वार को धीरे धीरे सिकोड़ा जाय और ऐसा प्रयत्न किया जाय कि उस मार्ग से वायु खींचने के लिए संकोचन क्रिया की जा रही है। मल का वेग अत्यधिक हो और तत्काल शौच जाने का अवसर न होता उसे रोकने के लिए मल मार्ग को सिकुड़ने और ऊपर खींचने जैसी चेष्टा करनी पड़ती है। ऐसा ही मूलबन्ध में भी किया जाता है। मल द्वार को ही नहीं उस सारे क्षेत्र को सिकोड़ने का ऐसा प्रयत्न किया जाता है कि मानो वायु अथवा जल को उस छिद्र से खींच रहे है। वज्रोली क्रिया में मूत्र मार्ग से पिचकारी की तरह जल ऊपर खींचने और फिर निकाल देने का अभ्यास किया जाता है। मूलबन्ध में जल आदि खींचने की बात तो नहीं है, संकल्प बल से गुदा द्वार ही नहीं मूत्र छिद्र से भी वायु खींचने जैसा प्रयत्न किया जाता है और उस सारे ड़ड़ड़ड़ को ऊपर खींचने का प्रयास चलता है। गुदा मार्ग से वायु खींचकर नाभि से ऊपर तक घसीट ले जाने की चेष्टा आरम्भिक है। कुछ अधिक समय तक रुकना सम्भव होता है, तो अपान को नाभि से ऊपर हृदय तक पहुँचाने प्रयत्न किया जाता है। यह खींचने का ऊपर ले जाने पूर्वार्ध हुआ।

उत्तरार्ध में प्राणवायु को नाभि से नीचे की ओर या जाता है और अपान अपनी जगह आ जाता है। का व्यावहारिक स्वरूप यह है कि खींचने सिकोड़ने की प्रक्रिया को ढीला छोड़ने, नीचे उतारने, खाली करने का ही प्रयत्न किया जाता है। जैसा कि प्राणायाम के लिए साँस छोड़ी जाती है।

मौटे तौर से उसे गुदा मार्ग को, मूत्र मार्ग को ऊपर और सिकोड़ने की-पूरा संकोचन हो जाने पर कुछ रोके रहने की अन्ततः उसे ढीला छोड़ देने की गुदा से होने वाली प्राणायाम क्रिया कहा जा सकता है।

स्मरण रहे कि यह क्रिया वायु संचार की नहीं प्राण ड़ड़ड़ड़ की है । नासिका द्वारा तो वायु संचार क्रम चलता रहता है, अतः उसके साथ प्राण प्रक्रिया जोड़ने में कठिनाई नहीं होती। मूलाधार क्षेत्र में श्वास लेने जैसा अभ्यास किसी इन्द्रिय को नहीं है, किन्तु प्राण संचार की ड़ड़ड़ड़ उस क्षेत्र में ऊर्ध्व भाग से किसी भी प्रकार कम ड़ड़ड़ड़ मूलबन्ध द्वारा प्राण को ऊर्ध्वगामी बनाना प्रथम है। दूसरे चरण में शक्तिचालनी मुद्रा के अभ्यास ड़ड़ड़ड़ अपान आदि शरीरस्थं प्राणों को इच्छानुसार ड़ड़ड़ड अनुपात में एक दूसरे से जोड़ा, मिलाया जाना ड़ड़ड़ड़ होता है। ऐसा करने से शरीरस्थं पंच प्राण ड़ड़ड़ड सं सम्बद्ध हो जाते हैं।

ड़ड़ड़ड़ में योग साधक द्वारा प्राण को अपान में तथा अपान को प्राण में होमने का उल्लेख इसी दृष्टि से किया जाता है। यथा-

अपाने जुहृति प्राणः प्राणोऽपान तथा परे। प्राणवान गर्ति रुद्ववा प्राणायाम परायणाः॥

अर्थात् कोई साधक अपान में प्राण को आहुति देते हैं, कुछ प्राण में अपान को होमते हैं। प्राण और अपान की गति नियन्त्रित करके साधक प्राणायाम परायण होता है।

नासिका द्वारा प्राण संचार करके उसे मूलाधार तक ले जाना प्राण को अपान में होमना है, और मूलबन्ध एवं शक्तिचालिनी मुद्रा आदि द्वारा ‘अपान’ की उत्थान करके उसे प्राण से मिलना-अपान को प्राण में होमना कहा जाता है। प्राण और अपान दोनों की ही सामान्य गति को नियन्त्रित करके उसे उच्च लक्ष्यों की और प्रेरित करना ही प्राणायाम का उद्देश्य है।

शक्तिचालनी मुद्रा का महत्त्व एवं लाभ योग शास्त्रों में इस प्रकार बताया गया है-

शक्तिचालनमेवं हि प्रत्यहं यः समाचरेत्। आयुवृद्धिर्भवेत्तस्य रोगाणाँ च विनाशनम-शिवसंहिता

शक्तिचालनी मुद्रा का प्रतिदिन जो अभ्यास करता है, उसकी आयु में वृद्धि होती है और रोगों का नाश होता है।

कुण्डली कुटिलाकारा सर्पवत परिकीर्तिता। सा शक्तिश्चालिता येन स युक्तो नात्र सशसः-हठयोग प्रदीपिका

कुण्डलिनी सर्पिणी की तरह कुटिल है, उसे शक्तिचालनी मुद्रा द्वारा जो चलायमान कर लेता है वही योगी है।

शक्तिचालनी की महत्ता में जो कुछ कहा गया है वह अतिशयोक्ति नहीं। यह विज्ञान सम्मत है। शक्ति कहीं से आती नहीं, सुप्त से जागृत, जड़ से चलायमान हो जाना ही शक्ति का विकास कहा जाता है। बिजली के जनरेटर में बिजली कही से आती नहीं है। चुम्बकीय क्षेत्र में सुक्वायल घुमाने से उसके अन्दर के इलेक्ट्रान विशेष दिशा में चल पड़ते हैं। यह चलने की प्रवृत्ति विद्युत सब्राहक शक्ति (ई॰ एम॰ एफ॰) के रूप में देखी जाती है। शरीरस्थं विद्युत को भी इसी प्रकार दिशा विशेष में प्रवाहित किया जा सके तो शरीर संस्थान एक सशक्त जनरेटर की तरह सक्षम एवं समर्थ बन सकता है। योग साधनाएँ इसी उद्देश्य की पूर्ति करती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118