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June 1977

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नैवायं चक्षुषाग्राह्य नापदैरिन्द्रियैय रपि। मनसैव प्रदीहोन महानात्मावसीयते॥

तित्नेषुवायथा तैलं दध्निवा सर्पिरर्पितम। यथायः स्रोतसि व्याप्तो यथारण्याँ हुताशतः॥

एवमेंव महात्मान मात्मन्यात्म विलक्षणम्। सत्येन तपसाँ चैव नित्ययुक्तोऽनुपश्यति-शिव पु0 वायु राँ0अ04

न तो वह भगवान आँखों से देखा जा सकता है न अन्य इन्द्रियों से ग्रहण किया जा सकता है, प्रकाशित मन से ही वह महानता प्राप्त की जा सकती है, जैसे तिलों में तेल व दही में घृत छुपा रहता है, जैसे पानी श्रोत में तथा जैसे अरणि में अग्नि छुपी रहती है, वैसे ही विलक्षण परमात्मा आत्मा में छिपा रहता है, उसको योगी सत्य और तप, से नित्य अपनी आत्मा में देखा करता है।


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