तप साधना द्वारा दिव्य शक्तियों का उद्भव

June 1977

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तपश्चर्या की महत्ता के वर्णन-दिग्दर्शन की दृष्टि से शास्त्रकारों ने कहा है कि ईश्वर भी तप के ही प्रभाव से सृष्टि-रचना में समर्थ हुआ है-

यः पूर्व तपसो जातमद्म्यः पूर्वमजायत्। गुहा प्रविश्य तिष्ठनतं यो भूतेभिर्व्यपष्यत्-एतद्वैतत क॰ 2,1,6

अर्थात् उस परमेश्वर ने सर्वप्रथम तप किया। उस तप के श्रमस्वेद से जल उत्पन्न हुआ।

सोऽकामयत्। बहुस्याँ प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत्। स तपस्त्वप्त्वा इद सर्वमसृजत यदिकिच। सत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशित्-तैत्तरीय ब्रह्मवल्ली 6

अर्थात् उस परमात्मा ने प्रकट होने की इच्छा की। उस हेतु तप किया। तप की शक्ति से जगत रचा और उसी में प्रविष्ट हो गया।

तस्मै स होवाच प्रजाकामो वे प्रजापतिः से तपोऽतप्यत् स तपस्तप्त्वा स मिथुनवमुत्पादयते। ययिं च प्राणं चेत्येतौ में बहुधा प्रजाः करिष्यत इति ।4।

आदित्यो ह वै प्राणो रयिवेव चन्देमा रयिर्वा एतत् सर्व यन्भूर्त चामूर्त च तस्मान्मूर्तिरेव रयि-प्रश्नोपनिषद् 1।4।5

अर्थात् प्रजा उत्पन्न करने की कामना वाले प्रजापति ने तप किया। तप द्वारा प्राण और रयि ये दो तत्त्व उत्पन्न किये। संसार में जो मूर्तिमान् है, वह प्राण है और जो अमूर्तिमान् है वह रयि है।

तपश्चचार प्रथममराणं पितामहः। आविर्भूतास्ततो वेदाः साँगोपाँगपदक्रमाः-मत्स्य पुराण

अर्थात् सर्व प्रथम तो देवों के पितामह ने तप किया। तब सब वेदों का आविर्भाव हुआ, जो अपने अंग शास्त्र उपांग तथा पद एवं क्रम से संयुक्त थे।

अथैष ज्ञानमयेन तपसा चीपमानोऽकामयत बहुस्याँ प्राजायेयेति। अथैतस्मात् तप्यमानात् सत्यकामात् भीण्यक्षराण्य जायन्त। तिस्त्रो व्याहृतयस्त्रिपदा गायत्रीं वेदास्त्रयो देवास्त्रयों वर्णास्त्रयोऽनयश्च जायन्ते-शांडिल्योपनिषद् 3।1

ब्रह्म ने ज्ञानमय तप से वृद्धि प्राप्त की ।तब एक से अनेक होने की इच्छा की और इस हेतु पुनः तप किया। तब तीन अक्षर, तीन आवृत्ति, त्रिपदा गायत्री, तीन वेद, तीन देव, तीन वर्ण, तीन अग्नि प्रकट हुए।

स्पष्ट है कि तप साधना ही शक्ति और सिद्धि का माध्यम एवं स्रोत है। ईश्वर द्वारा तप के ये वितरण स्पष्ट करते हैं कि मनुष्य के लिए अभीष्ट उपलब्धियों का यही एकमात्र मार्ग है।

दूध तपाया जाता है, तो मलाई और घी निकलता है। धातुएँ तप कर बहुमूल्य रसायन एवं भस्म बनती है। सामान्य अन्न तपाये जाने पर स्वादिष्ट आहार बनता है। कच्ची मिट्टी तपाने पर दृढ़ पाषाण बन जाती है। कच्चा लोहा पक कर इस्पात बनता है। स्वर्ण अग्नि संस्कार द्वारा आभामय हो जाता है।

तपता हुआ सूर्य अपनी आत्मा और ऊष्मा से समस्त विश्व में प्राण वर्षा करता हुआ ग्रह-परिवार को अपने साध बाँधे रहता है। हिमालय की बरफ तप कर गंगा यमुना का प्रवाह बनती है। खारा और भारी सागर जल तप कर हलके मीठे जल वाले बादल बन जाता और दूर-दूर की यात्राएँ करता है।

व्यायामशाला में तपने वाला पहलवान, खेतों में तपस्या करने वाला किसान और पाठशाला का तपस्वी ही विद्वान् बनता है। मूर्तिकार का तप अनगढ़ पत्थर को प्रतिमा की और चित्रकार का तप फलक और रंग के अस्त व्यस्त संयोग को चित्र की गरिमा देता है।

लौकिक जीवन हो या आध्यात्मिक, पुरुषार्थ, श्रम, साहस, मनोयोग की ड़ड़ड़ड़ बनाते हैं। तप ही सम्पूर्ण प्रगति का आधार है देवताओं के वरदान तपस्वियों को ही सुलभ होते हैं। भिखारियों को नहीं भारतीय धर्मशास्त्र व पुराण तप की महत्ता के वर्णनों से भरे पड़े है। ऐतिहासिक महामानवों, ऋषियों, तत्त्वदर्शियों, देवदूतों की प्रसिद्धि और सिद्धि का आधार तप का प्रकाश ही रहा है। मनुष्य की अन्तर्निहित दिव्य शक्तियाँ तपस्या द्वारा ही प्रकाशित होती है। कठोर पुरुषार्थ द्वारा समुद्र मंथन किया गया, तभी 14 रत्न प्राप्त हुए। देवताओं को तप द्वारा ही गौरवशाली पद प्राप्त हुए। भौतिक उन्नति के लिए प्रचण्ड पुरुषार्थ, अखण्ड मनोयोग, अनवरत श्रम और असीम साहस की आवश्यकता है। आध्यात्मिक प्रगति के लिए तो और अधिक मूल्य चुकाना ही पड़ता है। तप द्वारा ही आध्यात्मिक शक्तियाँ और सिद्धियाँ आज तक उपलब्ध होती आई है और भविष्य में भी वही एकमेव मार्ग रहने वाला है।

भृगु ने कहा-ब्रह्म का ज्ञान कराइए तब वरुण बोले-तप के द्वारा ब्रह्म को जानों तप ही ब्रह्म है। यह सुनकर भृगु तप करने चले गये।

अवीहि भगवो ब्रह्मोति। तं होवाच ब्रह्म विजि सासस्व । तपो ब्रह्मेति।स तपोऽतप्तवा-तैत्तिरीय भृगुवल्ली

बीज तप कर वृक्ष बनता है, नर तप कर नारायण बनता है। पुरुष से पुरुषोत्तम और आत्मा से परमात्मा बनने का यही मार्ग है।

तपोमूलमिदं सर्व यन्माँ पृच्छसि क्षत्रिय। तपसा वेदविद्वाँसः परंत्वमृतमाप्नुयुः-महा भारत

अर्थात् हे राजन ! तुम जिस तपस्या के विषय में मुझसे पूछ रहे हो वही सारे जगत का मूल है। वेदवेत्ता विद्वान् तप द्वारा ही परम अमृत को, मोक्ष को प्राप्त करते हैं।

तपसा र्स्वगगमन भोगो दानेन जायते। ज्ञानेन मोक्षो विज्ञयस्तीर्थस्नानादधक्षयः॥

अर्थात् तप से स्वर्गलोक में जाने का सौभाग्य प्राप्त होता है। दान से भोगों की प्राप्ति होती है। ज्ञान से मोक्ष मिलता है तथा तीर्थस्थान से पापों का क्षय होता है।

मनु ने भी कहा है-

अद्धिर्गात्राणि शुद्धयन्ति, मनःसत्येन शुद्धयति। विद्या तपोभ्याँ भूतात्मा, बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्धयति॥

अर्थात् शरीर जल से और मन सत्य से शुद्ध होता है। आत्मा विद्या एवं तप शुद्ध होती है तथा बुद्धि ज्ञान से।

न विद्यया केवलया तपसा चाऽपि पात्रता। यत्र वृत्तमिमे चोभे तद्धि पात्रम्प्रचक्षते-स्कन्द

अर्थात् न केवल विद्या से और न ही केवल तपश्चर्या से पात्रता हुआ करती है। जहाँ सच्चरित्रता है और ये दोनों (तप और विद्या) भी विद्यमान् है, वहीं वस्तुतः पात्र है।

तपसा स्वर्गमवाप्नोति-अत्रि

तप से ही स्वर्ग मिल सकता है।

तपस्विनः पूजनीयाः-याज्ञवल्क

तपस्वी पूजनीय होते हैं।

चेत्युच्चतं एतदप्यक्त नातपस्कस्यात्मज्ञानेऽधिगमः कर्मशुद्धिर्वेत्येव हयाह। तपसा प्राप्यते सत्वं सत्वात् संप्राप्यते मनः मनसा प्राप्यते त्वत्मा, हयात्मापत्या निवर्तते-मैत्रायण्युपनिषद् 4,3

अर्थात् तपश्चर्या बिना आत्मा में ध्यान नहीं लगता। न कर्म शुद्धि ही होती है। तप से सत्व प्राप्त होता है। सत्व (ज्ञान) से मन का निग्रह होता है। मन स्थिर होने पर आत्मा की प्राप्ति होती है और बन्धन छुट जाते हैं।

इसीलिए अथर्ववेद में कहा गया है-

अग्ने ! तपस्तप्यामह अपतप्यामहे तपः। श्रुतानि श्रृण्वन्तो वयम् आयुष्मन्तः सुमेधरुः-अथर्व 7,62,2

हे अग्निदेव ! हम तप रहें। प्रचण्ड तप से हम तपते रहें तथा सद्बुद्धि सम्पन्न और दीर्घजीवी बनें।

यदग्ने तपसा तप, उपतप्यामहे तप। प्रियाः श्रुतस्य भूयास्मा, डऽयुष्मन्त सुमेधरुः-अथर्व 7,61,1

हे देव ! हम आपकी कृपा से तप करेंगे। तीव्र तप करेंगे विद्वान् और तपस्वी होकर हम जिएँ।

ऋषीन्तपस्वतो यमतपोजाँ अभिगच्छतात्-अथर्व 18,2,15

तप से उत्पन्न, तपश्चर्या करते हुए ऋषियों को शरण में जाओ

भद्रमिच्छत् ऋषयः स्वर्विदस्तपों दीक्षः मुपनिषेदुरग्रे। ततो राष्ट्र बलमोजश्च जात तदस्यै देवा उपसंनमन्नु-अथर्व ॰ 19,41,1

उन शिव संकल्पी ऋषियों ने व्रतों में दीक्षित होकर तप का अनुष्ठान किया। इससे राष्ट्र का जन्म हुआ। तप द्वारा ही उन्होंने इस राष्ट्र में बल और ओज का विकास किया। आइये, तप के द्वारा हम सब भी इस सामर्थ्य का सम्वर्धन करें।

तपश्चर्या के बहिरंग कलेवर का प्रयोजन समझा जाना आवश्यक है। मात्र तप के लिए तप नहीं किया जाता। वैसा होने पर तो यह शारीरिक उत्पीड़न की मूर्खता मात्र ही मानी जाएगी आत्मपीड़न एक अपराध ही है। यदि लक्ष्य का ध्यान रहे तो तप आत्मपीड़न ही कहे जायेंगे

वस्तुतः तप साधना के बहिरंग उपचारों, व्यायामों का लक्ष्य है आदर्शवादी जीवन प्रक्रिया को सहज रीति से अपना सकने का अभ्यस्त बन जाना। नीति, न्याय से उपार्जित धन की मात्रा सीमित ही रहती है। आजीविका के निर्वाह के साथ ही उसी में से सत्प्रयोजनों हेतु भी एक अंश निकालना होता है। सीमित आजीविका और ऊपर से परमार्थ प्रयोजनों का अतिरिक्त भार ये दो कारण आदर्शवादी को प्रायः औरों की तुलना में आर्थिक दृष्टि से तंगी में ही रखते हैं। विलासिता का व्यसन तो अत्यधिक धन साध्य है। अनीतिपूर्वक उपार्जित कर निष्ठुर संकीर्णता के साथ उसे अपनी ही इन्द्रिय लिप्साओं को तुष्ट करने हेतु लगाने के लिए सुरक्षित रखने की प्रवृत्ति ही विलासी रहन सहन के उपयुक्त होती है। अन्यथा उस हेतु पर्याप्त पूँजी जुट ही नहीं जुटती। इसीलिए आदर्श वादी व्यक्ति को आरम्भ से ही मितव्ययिता एवं सादगी का अभ्यस्त होना पड़ता है। “सादा जीवन उच्च विचार” इसीलिए अध्यात्म का प्रथम सिद्धान्त माना गया है। पूर्वाभ्यास द्वारा मनोभूमि एक शारीरिक स्थिति अनुकूल बन जाने पर आदर्शवादी को धारा के प्रतिकूल चलने पर उत्पन्न कठिनाइयाँ क्लेशमय नहीं प्रतीत होती। तपश्चर्या के अभ्यासों के प्रमुख प्रयोजनों में से यह भी एक है।

साथ ही लोकार्पित जीवन-दृष्टि सदा ही औरों के प्रति भी संवेदनशील होती है तथा समाज की पीड़ा और पतन के प्रति उदासीन नहीं रहती। परमार्थ और श्रम लगाने के साथ साथ जरूरी होता है। तपश्चर्या का उद्देश्य अपनी सीमित नीति उपार्जित आजीविका का एक अंश सहज भाव से परमार्थ प्रयोजनों हेतु लगा सकने की मनोभूमि तैयार करना भी है।

व्रत, उपवास आदि का अभ्यास स्वल्प, सस्ते, सादे भोजन में ही सन्तुष्ट हो जाने की वृत्ति तो दृढ़ करता ही है, नमक, शक्कर, मसाले आदि की स्वादिष्टता के प्रति इन अभ्यासों के कारण आकर्षण न रह जाने पर इन्द्रिय लिप्सा को नियन्त्रित करने की भूमिका भी शुरू हो जाती है। अस्वाद व्रत ब्रह्मचर्य व्रत में सहायक है। ब्रह्मचर्य का तप-साधनाओं में विशिष्ट स्थान है। राई-रत्ती वासना का क्रमशः इतना विस्तार होता जाता है कि मनुष्य की सम्पूर्ण शक्ति उसी में व्यय होती जाती है, फिर भी तनिक भी सन्तोष प्राप्त नहीं हो पाता। कामुकता की प्रेरणा, पत्नी ढूँढ़ने की प्रेरणा बन जाती है। पत्नी, बच्चे और परिवार का आधार बनती है। बच्चों के उत्तरदायित्व गर्दन तोड़ कर रख देते हैं। अपनी शत प्रतिशत शक्ति इसी जंजाल में झोंकते रहने पर भी सन्तोषजनक स्थिति को परिवार व्यवस्था जुट नहीं पाती और अन्त में मनुष्य रोता कलपता इस संसार से एक गहरी विफलता की टीस मन में लिए विदा होता है। यदि कामुकता पर नियन्त्रण रखा जा सके, तो जीवन की उस अनन्त सम्पदा का स्वामी बना जा सकता है जिसकी आजीवन परिवार के कोल्हू में पीसते हुए एक एक बूँद तेल निकालते हुए गृहस्थी का दीपक जलाये रहना होता है। यह सम्पदा आत्म कल्याण एवं विश्व-कल्याण के लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक हो सकती थी। ब्रह्मचर्य जैसे तप-अभ्यास यही महान् प्रयोजन पूरा करते हैं।

वाणी समय का तप, समाज में सद्भाव वृद्धि और उसके द्वारा सत्प्रयोजन की पूर्ति में सहायक बनता है। मौन आदि का अभ्यास यही सुफल लाता है। आत्मिक ऊर्जा का संचय भी मौन का सत्परिणाम होता है।

निरुद्देश्य तप व्यर्थ होते हैं। शरीर को बलिष्ठ बनाने का लक्ष्य लेकर निर्धारित रीति व क्रम से व्यायाम करने पर अभीष्ट परिणाम होता है, किन्तु अत्युत्साह के आवेश में किन्हीं निश्चित व्यायाम, अभ्यासों को ही चमत्कारी मान बैठा जाए और सब कुछ भूलकर उन्हीं में जुट जाया जाए, तो शरीर का बलिष्ठ होना तो दूर, अनेक शारीरिक कष्ट अवश्य पैदा हो सकते हैं। व्यायाम मात्र शारीरिक बल की अर्जन विधि नहीं है। आहार विहार, रहन सहन का भी तद्नुरूप होना जरूरी है। ठीक यही भूल तप-साधनाओं के अभ्यास में भी हो जाती है। किसी साधना प्रक्रिया मात्र को चमत्कारी मान बैठने से लाभ तो सम्भव नहीं, समय शक्ति और बुद्धि विवेक का अपव्यय तथा क्षरण अवश्य होता है।

ब्रह्मचर्य, व्रत, उपवास, शीत-जल स्नान, धूप-आतप सहना, धूनी तापना, नंगे पाँवों चलना, देर तक खड़े रहना, कठोर आसन लगाकर बैठना, कम सोना, सवारी का उपयोग न करके पैदल चलना, स्वल्प वस्त्र धारण करना, केश न कटाना, मौन रहना, भूमिशयन, नमक, शक्कर आदि के स्वादों का त्याग जैसे क्रिया-कलाप जो तप कहे जाते हैं, इन्हीं प्रयोजनों की पूर्ति के लिए है इन उपचारों को करने वाले तपस्वी कहे जाते हैं। तपस्वी के प्रति सहज ही लोक श्रद्धा उमड़ती है। सुख-सुविधाओं के सरंजाम जुटाने में संलग्न लोगों की भीड़ में इनसे विरक्त रहकर स्वतन्त्र निर्णय शक्ति और प्रवाह के प्रतिकूल चलने की सामर्थ्य का परिचय देना स्वाभाविक ही आकर्षण और श्रद्धा का कारण बन जाता है।

लेकिन यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि निजी जीवन में इन तप-साधनाओं का बहिरंग अभ्यास मात्र विशेष उपयोगी नहीं। अपनी सम्पदाओं और विभूतियों का विस्तार करके उन्हें लोक मंगल के लिए समर्पित करते हुए सृष्टि उद्यान को अधिक सुरम्य समुन्नत बनाना ही मानवीय जीवन की सार्थकता है। कठोरताओं को सहन करने का अभ्यास मात्र पर्याप्त नहीं। इस अभ्यास के आधार पर लोक जीवन में मनुष्य की सुख लिप्सा तथा उन लोगों का तो तप-साधना से कोई वास्ता नहीं माना जाना चाहिए, जो अपने पहाड़ जैसे परिग्रह में से राई रत्ती दान करते रहने का प्रदर्शन करते रहते हैं अथवा अपनी निरंकुश विलासिता की निष्ठुर पशु-चेष्टाओं को अनदेखा बनाने के लिए छोटे छोटे अनुष्ठानों में शारीरिक कष्ट सहने का प्रदर्शन करते रहते हैं। वस्तुतः वे आत्म-प्रवंचक और ठग है। तपस्वी होने का तो प्रश्न ही नहीं।

तप साधना से निखरा व्यक्ति अनिवार्य निर्वाह के अतिरिक्त अपनी समस्त सम्पत्तियाँ और विभूतियाँ लोककल्याण के लिए समर्पित कर देता है। यही प्रभु समर्पित जीवन है। ऐसा जीवन जीने वाला ही तपस्वी तथा देवोपम सिद्ध पुरुष कहलाने का अधिकारी है।


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