तीर्थयात्रा हर किसी के लिये हर स्थिति में सम्भव!

June 1977

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प्रायश्चित्त के लिए तीर्थयात्रा प्रक्रिया का निर्धारण अपनी साधना के अंतर्गत रखा गया है, इस एक ही प्रक्रिया की पाँच महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ है-पापों का प्रायश्चित (2) सद्ज्ञान प्रसार-ब्रह्मदान का पुण्य संपादन (3) धर्म धारणा से ओत-प्रोत जीवनयापन की तपश्चर्या (4) जनमानस परिष्कार के युग परिवर्तन आधार की पूर्ति (5) तीर्थयात्रा परम्परा के वास्तविक स्वरूप का पुनरुद्धार इन पुण्य प्रयोजनों का संयुक्त स्वरूप सम्मिलित करते हुए हमें धर्म प्रचार मंडलियों के रूप में चिर प्राचीन एवं चिर जीवन-साँस्कृतिक अभियान का सूत्र-पात्र करना चाहिए। ब्रह्म वर्चस साधना तपश्चर्या का यह एक अति महत्त्वपूर्ण अंग रहना चाहिए।

तप साधना के विभिन्न प्रयोग विभिन्न समय में होते रहे है। व्यक्तिगत त्याग तितीक्षा-धार्मिक जीवन से आत्म-शोधन का उद्देश्य पूरा होता है। साथ ही यह प्रक्रिया परमार्थ प्रयोजन के साथ जुड़ी रहे तो दूना लाभ है। परमार्थ में सद्ज्ञान संवर्द्धन-धर्म प्रचार सर्वोपरि है। इसके प्रभाव से सामान्य मनुष्य भी ऋषि कल्प बन सकते हैं। दोष, दुर्गुणों से मुक्ति पाकर गुण, कर्म, स्वभाव की श्रेष्ठता प्राप्त कर सकना मनुष्य जीवन की सार्थकता और सुख-शान्ति का प्रधान आधार है। तीर्थयात्रा यदि उद्देश्य पूर्ण रीति-नीति अपनाकर योजनाबद्ध रूप से सम्पन्न की जाये तो उससे इन तीर्थयात्रियों को-उनके संपर्क में आने वालों को-तथा देश धर्म, समाज, संस्कृति के प्रत्येक पक्ष को समर्थ बनने का आशातीत लाभ मिल सकता है।

तीर्थ अर्थात् श्रद्धा। यात्रा अर्थात् प्रगति। श्रद्धा, सद्भावना, आत्मीयता, शालीनता, चरित्र-निष्ठा समाजनिष्ठा जैसी सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए किये गये पदयात्रा प्रयासों को सच्चे अर्थों में तीर्थयात्रा कह सकते हैं। इस यात्रा से स्वास्थ्य सुधारक, सात्विक, मनोरंजन अनुभव अभिवर्धन, जन-संपर्क परिचय-विस्तार ड़ड़ड़ड़ दृष्टिकोण का विकास जैसे अनेक लाभ मिलते हैं। ड़ड़ड़ड़ ही उन सत्प्रवृत्तियों के विकास विस्तार का अवसर मिलता है जिनके ऊपर मानवी गरिमा की आधारशिला रखी हुई है। इस महान् परम्परा में घुस पड़ी विकृतियों का निराकरण और उसके वास्तविक रूप का प्रस्तुतीकरण करके वस्तुतः हम अपनी महान् संस्कृति की असाधारण सेवा करते हैं।

ब्रह्म वर्चस साधना के अंतर्गत गायत्री की उच्चस्तरीय साधना करने वालों को आत्म-शोधन और परमार्थ संचय के उभय पक्षीय उद्देश्य से कुछ समय के लिए तीर्थयात्रा पर निकलने का कार्य-क्रम बनाना चाहिए। प्रायश्चित की यह सर्वोत्तम प्रक्रिया है। इस साँस्कृतिक महान् परम्परा का वास्तविक स्वरूप प्रस्तुत करने और उसे अभिनव प्रचलन का रूप देने में यह यात्राएँ धर्म को एक अभिनव मार्ग दर्शन कर सकती है।

यह तीर्थयात्रा मण्डलियाँ अपने अपने परिचित कार्य क्षेत्रों में निकालना सरल है। यों उन्हें अपरिचित क्षेत्रों तक ले जाने और व्यापक बनाने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है, पर भाषा, प्रथा, परम्परा आदि से परिचित रहने के कारण सुविधा परिचित क्षेत्रों में ही रहेगी। प्राचीन ऐतिहासिक स्थानों को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाना चाहिए। संयोग वश कोई दर्शनीय स्थान रास्ते में आते हो तो वहाँ विराम रखने में कोई हर्ज नहीं। पर महत्त्व पिछड़े क्षेत्रों में उपयोगी सद्ज्ञान वर्षा को ही दिया जाना चाहिए। लक्ष्य को प्रधानता दी जाय-दर्शनीय या ऐतिहासिक स्थानों को नहीं

तीर्थयात्रा पर एकाकी निकलने से न तो सुविधा रहेगी और न उद्देश्य सधेगा। इसलिए मंडली बनाकर ही चलना चाहिए। ड़ड़ड़ड़ दो पर्याप्त हैं शेष सहायक रहें। सेवाभावी, परिश्रमी, सद्गुणी और अनुशासन प्रिय सभी को होना चाहिए। दुर्गुणी व्यक्ति धर्म प्रचारकों की भूमिका नहीं निभ सकेंगे जहाँ जायेंगे वहाँ स्वयं निन्दति होगे, टोली का उपहास करावेंगे, इसलिए चुने और परखे लोगों को लेकर ही चलना चाहिए न्यूनतम चार-पाँच और अधिकतम दस की मण्डली हो सकती है। सभी के पीत वस्त्र रहें। धर्म प्रचारक तीर्थ यात्रियों की एक निश्चित एवं निर्धारित ऐसी पोशाक होनी चाहिए जो धर्म प्रचारकों के लिए उपयुक्त हो यात्रा पैदल हो। आवश्यक सामान साथ ले चलने के लिए साइकिल या बैलगाड़ी का उपयोग हो सकता है। भारत की 70 प्रतिशत जनता छोटे देहातों में रहती है। उन तक पहुँचने के लिए ऐसे ही भारवाही साधन चाहिए जो कच्चे रास्तों पर चल सकें। टट्टू या गधे से भी काम चल सकता है। जहाँ जैसी सुविधा हो वहाँ वैसा प्रबन्ध कर लेना चाहिए। जितने दिन की यात्रा निकलनी हो, उसको ध्यान में रखते हुए विराम स्थल बनाने चाहिए। जहाँ से चला जाय वहीं वापिस लौट आने के लिए इस प्रकार कार्यक्रम बनाना चाहिए कि जाना एक रास्ते और लौटना दूसरे रास्ते हो। यह कार्यक्रम पहले से ही बन जाने पर उन स्थानों के निवासियों को इस आगमन की पूर्व सूचना दी जा सकती है। इससे ठहरने एवं वहाँ के निवासियों से संपर्क बनाने की पूर्व व्यवस्था रह सकेगी।

भोजन का भार किसी पर न डाला जाय। अपना प्रबन्ध साथ रखकर चला जाय। कहीं अति आग्रह हो तो उसे अस्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है। पर सामान्यतया कहीं यह अनुभव नहीं होना चाहिए कि यह लोग पेट भरने के लिए निकले है। इसलिए सामान में भोजन पकाने के उपकरण तथा राशन साथ रहना चाहिए। खाने वालों की रुचि और पकाने की सरलता का तालमेल बिठाते हुए यह व्यवस्था ऐसी रहनी चाहिए जिसमें समय और धन कम खर्च हो। पकाने की कला टोली वालों को आनी चाहिए और किस स्थिति में इस संदर्भ में किस प्रकार क्या कर लेना चाहिए? इसकी स्पष्ट रूप रेखा मस्तिष्क में रहनी चाहिए। पहनने, बिछाने-ओढ़ने के वस्त्र, पूजा उपकरण, प्रचार साधन, रस्सी बाल्टी खाने पकाने के बर्तन, साबुन मंजन जैसी दैनिक उपयोग की सामग्री पहले से ही सम्भाल लेनी चाहिए। मार्ग व्यय की व्यवस्था धर से ही करके चलना चाहिए ताकि कहीं याचना की आवश्यकता न पड़े माँग जाँच प्राचीन काल में तो उचित थी, पर आज की परिस्थिति में वैसा करने से मण्डली का आधा सम्मान अश्रद्धा में बदल जाएगा

टोली का दैनिक कार्यक्रम प्रातः नित्यकर्म से निवृत्त होकर चल पड़ना होना चाहिए। अगले पड़ाव तक जो गाँव रास्ते में पड़ने वाले हो, उनके गली, मुहल्लों में गीत गाते, शंख बजाते, धर्म फेरी लगाना आवश्यक है। इन गीतों में नवयुग का सन्देश, उद्बोधन भरा रहे। जो लोग रास्ते में मिलें उन्हें अन्तिम स्थान पर एकत्रित होने के लिए साथ साथ बुलाते भी चलें। जो इकट्ठे हो जाय उन्हें छोटे से प्रवचन में तीर्थयात्रा और उसके इस स्वरूप का-यात्रा उद्देश्य का-परिचय दिया जाय। इसी उद्देश्य के लिए छपी ‘पेमोपहार’ पुस्तिकाएँ वितरित की जाय या बेची जाय वितरण कर्ताओं का नाम छपा देने से यह पुस्तिकाएँ मुफ्त में भी दिये जाने के लिए पर्याप्त संख्या में मिल सकती हैं। धर्म फेरी-अन्त में प्रवचन के साथ साथ रास्ते के गाँवों में दीवारों पर आदर्श वाक्यों का लेखन क्रम भी चलना चाहिए, इसके लिए गेरू का रंग ब्रश आदि साथ रखा जाय। एक दिन में न्यूनतम पाँच मील और अधिकतम दस मील की यात्रा रखी जाय। रास्ते में कितने गाँव पड़ते हैं। और उनमें कितनी देर रुकना होता है, इसे ध्यान में रखते हुए ही यह निर्धारित किया जाना चाहिए कि हर दिन कितने मील चलना है। यह दूरी स्थिति के अनुरूप न्यूनाधिक भी हो सकती है। पर उसका निर्धारण पहले ही कर लेना चाहिए ताकि विराम स्थल पर ठीक समय पर पहुँचा जा सके।

विराम स्थल पर पहुँचने पर आने आगमन की सूचना उस गाँव में धर्म फेरी घुमाते और शंख बजाते हुए करनी चाहिए। साथ ही भोजन व्यवस्था बनाने पर जुट पड़ना चाहिए। कुछ लोग धर्म फेरी में चलें, कुछ भोजन प्रबन्ध करे ऐसा भी हो सकता है। भोजन दिन में एक बार ही बनाया जाय। दूसरे समय के लिए बनाकर रख लिया जाय। जाय ताकि आवश्यक समय व्यर्थ बर्बाद न हो। यह कार्य प्रातःकाल यात्रा आरम्भ करते समय भी पूरा किया जा सकता है। प्रातः या सायं जब भी सुविधा हो एक बार ही भोजन बनाने का क्रम चलाना चाहिए। वाहन यदि बैल घोड़ा आदि है तो उसके लिए चारा माँगा भी जा सकता है। जहाँ ड़ड़ड़ड़ या उपेक्षा दिखे वहाँ वह भी खरीद लेना चाहिए।

तीर्थयात्रा मण्डली कितने दिन चलनी है। इसी आधार पर विराम स्थानों की, राशन की, खर्चे की उन गाँवों में पूर्व सूचना पहुँचाने की व्यवस्था करनी चाहिए। उन गाँवों में पर्चे, पोस्टर पहुँचाने-कपड़े के बड़े बड़े पोस्टर गली, चौराहों पर लटकाने का भी प्रबन्ध हो सके तो स्थानीय जनता टोली की उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा भी करेगी और प्रस्तुत कथा प्रवचन में भाग भी देगी।

रात्रि को विराम स्थान पर प्रायः ढाई घण्टे का प्रचार कार्यक्रम रखा जाय। इसके लिए उपयुक्त स्थान एवं रोशनी, लाउडस्पीकर, बिछावन, मंच आदि का प्रबन्ध पहले से ही कर लिया जाय। लाउडस्पीकर साथ लेकर चला जाय। सहगान कीर्तन एवं कथा यह दो कार्यक्रम रहने चाहिए। संगीत ज्ञाता हो तो बाजे, ढोलक आदि का प्रबन्ध कर लिया जाय। अन्यथा बिना उसके भी कीर्तन हो सकता है। कथा की दृष्टि से उत्तर भारत में रामायण की भी कथा कही जा सकती है। रामचरित्र एवं कृष्णचरित्र में वे सभी आधार मौजूद है जिन्हें नवयुग के अवतरण को ध्यान में रखते हुए उभारा जा सकता है। कीर्तन कथा शैली, वाक्य लेखन, धर्म फेरी एवं तीर्थ यात्रा के समय यात्रियों के नियम कर्त्तव्य आदि से भली प्रकार अवगत होने की दृष्टि से यात्रा मण्डली निकलने से पूर्व ही उसका प्रशिक्षण एवं रिहर्सल कर लिया जाय। इसकी व्यवस्था ब्रह्म वर्चस आरण्यक में भी रखी गई है।

जहाँ लम्बे समय की यात्राएँ सम्भव न हों। वहाँ एक सप्ताह या जितना सम्भव हो उतना समय सुविधानुसार निकाला जा सकता है। गर्मी के दिनों में प्रायः सभी का अवकाश रहता है। किसान, छात्र, अध्यापक तो प्रायः उन दिनों छुट्टी ही मनाते हैं। ऐसे लोग उन दिनों का उपयोग तीर्थयात्रा में कर सकते हैं। यह धर्म प्रचार के साथ-साथ खासा पिकनिक भी है। साप्ताहिक अवकाश में दुकानें, दफ्तर कारखाने सभी बन्द रहते हैं। उस एक दिन का उपयोग भी इस कार्य के लिए किया जाता रहे तो साल में 52 दिन तीर्थयात्रा के लिए मिल सकते हैं। बड़े नगरों को एक पूरा प्रचार क्षेत्र ही माना जा सकता है। उसके गली मुहल्लों को ही गाँव मानकर बहुत दिन तक उसी क्षेत्र में परिभ्रमण करते रहा जा सकता है। इस प्रकार दूसरी, तीसरी फेरी होती रह सकती है। इस प्रकार बड़े शहरों में तीर्थयात्री उतने क्षेत्र में लगी हुई देहातों को सम्मिलित करके ऐसा कार्यक्रम बना सकते हैं जिसमें धर छोड़ने, भोजन व्यवस्था करने एवं छुट्टी लेने की भी आवश्यकता न पड़ेगी काम पर जाने से पूर्व के प्रातः कालीन तीन घण्टे और काम से लौटने के बाद के तीन घण्टे इस प्रकार छः घण्टे हर दिन लगाने पर यह तीर्थयात्रा वहाँ निरन्तर जारी रखी जा सकती है। दोनों समय के लिए सम्भव न हो तो सायंकाल का समय तो बहु ही सरलतापूर्वक मिल सकता है। कुछ काम तो सवेरे भी हो सकते हैं।

एकाकी स्थानीय तीर्थयात्रा तो हर किसी के लिए ही स्थिति में सम्भव हो सकती है। झोला पुस्तकालय हाथ में लेकर अपने परिचितों के यहाँ जाय जाय और उन्हें मिशन की पुरानी पत्रिकाएँ एवं पुस्तक देने, वापिस देने का क्रम चलाया जाय। चल पुस्तकालय की धकेल गाड़ी लेकर गली, मुहल्लों और बाजारों में जाया जाय। साहित्य पढ़ाने, वापिस लेने एवं बेचने का क्रम रखा जाय। दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन करते रहा जाय यह कार्य ऐसे है जो एकाकी-समीपवर्ती क्षेत्र में अत्यन्त सरलता पूर्वक किये जा सकते हैं। इन्हें भी हलकी तीर्थयात्रा का ही एक स्वरूप माना जा सकता है। महत्त्व समझा जाय और आवश्यक साहस संकल्प हो तो तीर्थयात्रा का पुण्य फल सम्पादित करना ही स्थिति के हर व्यक्ति के लिए सम्भव हो सकता है। जिन्हें अवकाश न हो वे पैसा देकर अपने स्थान पर अन्य यात्रियों को इस प्रयोजन के लिए भेजने की व्यवस्था बना सकते हैं।


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