एक दिन बलराम बाबू के घर की कुछ महिलायें श्री रामकृष्ण परमहंस के दर्शनों के लिए गईं। परमहंस ने उनका यथायोग्य सत्कार किया। परस्पर बातचीत चल रही थी तभी रमणी नाम की एक वेश्या उधर से गुजरी। उसे देखते ही सहज स्नेह भाव से महर्षि ने कहा- ‘‘क्या बात है? तुमने तो इधर आना ही छोड़ दिया।” महिलायें महर्षि के मुख से ऐसी बातें सुन कर असमंजस में पड़ गईं।
थोड़ी देर बाद वे महिलायें स्वामीजी के साथ काली मन्दिर में दर्शनार्थ पहुँची। माँ की प्रतिमा के समक्ष पहुँचते ही भाव कातर होकर वे गुनगुनाने लगे- ‘‘माँ! तुमने कितने रूप धारण किये, कभी गृहणी बन जाती हो, कभी वेश्या? तुम कितनी पवित्र, कितनी महान् हो?”
महिलायें समझ गईं कि घृणा व्यक्ति से नहीं दुष्प्रवृत्तियों से करनी चाहिये।