आनन्द का मूल-स्त्रोत प्रेम ही तो है।

June 1968

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यदि गहराई के साथ तथ्य तक पहुँचने का प्रयत्न किया जाये तो पता चलेगा कि आनन्द का मूल-स्त्रोत प्रेम ही है। जहाँ प्रेम नहीं, वहाँ आनन्द का होना सम्भव नहीं, और जहाँ आनन्द होगा उसके मूल में प्रेम का होना अनिवार्य है।

संसार की कोई भी वस्तु या कोई भी व्यक्ति ले लिया जाये, यदि उसमें किसी के सुख की अनुभूति होती है तो निश्चय ही उस वस्तु या व्यक्ति में उस मनुष्य का प्रेम होगा। माता-पिता अपने बच्चे को देख कर आनन्द पाते हैं। यह आनन्द न तो बच्चे में निवास करता है और न माता-पिता की आँखों में। इसका निवास उनके उस प्रेम में होता है, जो बच्चे को देख कर उद्दीप्त हो उठता है।

धन देख कर लोभी व्यक्ति को बड़ा आनन्द मिलता है। इससे यह समझ लेना भूल होगी कि आनन्द का निवास धन में है। यदि ऐसा होता तो धन सबके लिये ही आनन्द का कारण होना चाहिये था। जब कि ऐसा होता कभी नहीं। एक निस्पृह व्यक्ति को न तो धन का भाव आनन्द देता है और न अभाव दुःख। धन को देख कर लोभी को आनन्द होने का कारण यही होता है कि उससे उसे प्रेम होता है। यह धन के प्रति प्रेम का ही तो कारण है कि धन पाकर लोभी को उतना ही आनन्द होता है, जितना दुःख उसके चले जाने पर होता है। इसी प्रकार कोई भी व्यक्ति अथवा वस्तु क्यों न हो, यदि उसके भावाभाव में सुख-दुख होता है तो यही मानना पड़ेगा कि मनुष्य को उसके प्रति प्रेम है।

दो मित्रो को ले लीजिये। उन्हें एक दूसरे को देख कर, मिल कर और परस्पर संपर्क में आकर बड़ा आनन्द आता है। इसका एक मात्र कारण वह प्रेम ही होता है, जो एक दूसरे के लिये उनके हृदयों में रहा करता है। इसी प्रकार जब किन्हीं स्वार्थों अथवा भ्रमों के कारण एक-दूसरे के प्रति वह प्रेम-भाव नष्ट हो जाता है, तब यद्यपि व्यक्ति वही दोनों बने रहते हैं किन्तु आनन्द की वह अनुभूति नहीं रहती, जो एक दूसरे को देख कर होती थी। आनन्द का निवास वस्तु या व्यक्ति में नहीं होता है। उसका निवास उस प्रेम में ही होता है, जो व्यक्ति या वस्तु के प्रति रहा करता है।

उदाहरण के लिए एक कवि, कलाकार अथवा भावुक व्यक्ति को ले लिया जाये और साथ ही एक सामान्य व्यक्ति को। दोनों तरह के व्यक्तियों के प्रथम वर्ग का कोई व्यक्ति जब प्रकृति के संपर्क में आता है तो आनन्द विभोर हो उठता है। उसे फूलों का सौंदर्य, पक्षियों का कलरव, नदियों का कल-कल, बादलों का उमड़ना, तारों का चमकना और चाँद का निकलना आदि आत्म-विस्मृत कर देते हैं, जब कि दूसरे सामान्य व्यक्ति को उनसे कोई भी आनन्द और सुख नहीं मिलता। इसका एक ही कारण है और वह यह कि कवि, कलाकार और भावुक व्यक्ति को प्रकृति से प्रेम होता है और दूसरे सामान्य व्यक्ति को नहीं।

इसी प्रकार एक व्यक्ति ईश्वर का गुण-गान सुन कर भाव-विभोर हो जाता है, तन, मन की सुख भूल जाता है, उसका हृदय गद्-गद् हो उठता है, शरीर पुलक उठता है और आँखों से आनन्द के आँसू बहने लगते हैं। पर दूसरा व्यक्ति कितनी ही कथायें सुने, कितना ही भजन कीर्तन में भाग ले, कितना ही ईश्वर का गुण गाये अथवा सुने किन्तु उसकी स्थिति यथावत बनी रहती है। उसे कोई विशेष आनन्द की उपलब्धि नहीं होती। इसका कारण यही होता है कि एक को ईश्वर से प्रेम होता है और दूसरे को नहीं। आनन्द का निवास न तो कथा-कहानी में है और न भजन कीर्तन में। उसका निवास तो उस प्रेम में होता है जो किसी को ईश्वर के प्रति होता है।

जिस प्रकार अन्धकार का अपना अस्तित्व कुछ नहीं होता, उसी प्रकार दुःख का भी अपना अस्तित्व कुछ नहीं होता। प्रकाश का अभाव ही अन्धकार होता है और प्रेम का अभाव ही दुःख है। दुःखों का जन्म मनोविकारों और वासनाओं से होता है। लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि के निकृष्ट मनोभाव अथवा मनोविकार ही दुःख का हेतु बनते हैं। और वासनाओं आत्मा का सौंदर्य शोषण कर उसे दुःखों से भर देती है। मानव हृदय में इन मनोविकारों का अस्तित्व तभी तक रहता है, जब तक उसमें सच्चे प्रेम का प्रकाश नहीं फैलता।

हृदय में प्रेम का प्रकाश फैलते ही मनोविकार वैसे ही दूर हो जाते हैं जैसे दीपक के जल उठने से कक्ष का तिमिर नष्ट हो जाता है। प्रेम का स्वाद, रस और अनुभव मिलते ही मनुष्य का हृदय अलौकिक सौंदर्य से भर उठता है, उसकी आत्मा तृप्त हो जाती है, तब उसे न कोई वासनाएँ रहती हैं और न कामनाएँ। ऐसे निर्मुक्त हृदय में विकारों के रहने की सम्भावना नहीं रहती। मनुष्य निर्विकार एवं निष्कंठ होकर आनन्द से भर उठता है।

प्रेम में मनुष्य का जीवन बदल देने की शक्ति होती है। प्रेम के प्रसाद से मनुष्य की निर्बलता और दरिद्रता, शक्तिमत्ता और सम्पन्नता में बदल जाती है। अशांति और असंतोष तो प्रेमी-हृदय के पास फटकने तक नहीं पाते। प्रेम मनुष्य जीवन का सर्वश्रेष्ठ वरदान माना गया है। जिसने प्रेम पा लिया अर्थात् जिसके हृदय में प्रेम का जागरण हो गया, उसे समझो संसार की सारी सम्पदाएँ प्राप्त हो गईं। प्रेम पा जाने के बाद कुछ पाना शेष नहीं रह जाता। प्रेम की प्राप्ति ईश्वर की प्राप्ति मानी गई है, क्योंकि मनीषियों और महात्माओं ने प्रेम को परमेश्वर और परमेश्वर को प्रेम रूप ही माना है। हृदय में प्रेम-भावना की स्थापना होते ही उसका प्रभाव शरीर, आत्मा पर भी पड़ता है। प्रेम की अनुभूति अमृत रूप जो होती है। इसका संचार होते ही मन प्रसन्न, शरीर स्वस्थ और आत्मा उज्ज्वल हो उठती है।

मानवीय शक्तियों में प्रेम को सबसे बड़ी शक्ति माना गया है। हिंस्र जन्तुओं और अपराधी व्यक्तियों से भरे वनों में ऋषि-मुनियों के पास रक्षा के साधनों में न तो अस्त्र-शस्त्र होते थे और न सेना की शक्ति। उनके पास तो एक प्रेम की ही वह शक्ति रहती थी, जो सारी शक्तियों की सिरमौर मानी गई है। इसी शक्ति और बल के आधार पर वे शेर, चीते, भालू, भेड़िये और सर्प जैसे घातक जीवों को नम्र बना लेते थे और चोर, लुटेरों को श्रद्धा के लिये विवेक कर देते थे।

प्रेम में महानतम वशीकरण बल होता है। इससे शत्रु मित्र, घातक पालक बन जाते हैं। प्रेम द्वारा मनुष्य सारा संसार वश में कर सकता है। भक्त के वश में भगवान के रहने की जो बात कही जाती है, उसका आधार प्रेम ही तो है। प्रेम के बल पर ही उपासक पत्थर में भगवान के दर्शन कर लेता है। पीड़ित जनता प्रेम-पुकार द्वारा ही तो उसे धरती पर उतार लाती है। प्रेम की शक्ति अपार है, उसकी महिमा अकथनीय है।

प्रेम-भाव की प्राप्ति न पुस्तकों से होती है और न उपदेशों से। उसकी प्राप्ति धन तथा सम्पत्ति से भी नहीं होती और न मान और पद प्रतिष्ठा ही उसको सम्भव बना सकती है। शक्ति और सत्ता द्वारा भी प्रेम-भाव की सिद्धि नहीं हो सकती। जबकि लोग प्रायः इन्हीं साधनों द्वारा ही प्रेम-भाव को पाने का प्रयत्न किया करते हैं। पुस्तकें पढ़ कर लेखक के प्रति, उपदेश सुन कर वक्ता के प्रति, कुछ पाने की आशा में धनी के प्रति, शक्ति और वैभव देख कर सत्ताधारी के प्रति जो आकर्षण अनुभव होता है, उसका कारण प्रेम नहीं होता है। उसका कारण होता है, प्रभाव, लोभ और भय। वास्तविक प्रेम-भाव वहीं सम्भव है, जहाँ न कोई प्रभाव होगा, न स्वार्थ अथवा आशंका।

ऐसा वास्तविक और निर्विकार प्रेम-भाव केवल सेवा द्वारा ही पाया जा सकता है। सेवा और प्रेम वस्तुतः दो भिन्न-भिन्न वस्तुएं नहीं हैं। यह एक भाव के ही दो पक्ष हैं। जहाँ प्रेम होगा वहाँ सेवा-भाव होगा और जहाँ सेवा भाव होगा वहाँ प्रेम-भाव का होना अनिवार्य है। जिसके प्रति मनुष्य के हृदय में प्रेम-भाव नहीं होगा, उसके प्रति सेवा भाव का भी जागरण नहीं हो सकता। और जो सेवा-भाव सेव्य के प्रति प्रेम-भाव नहीं जगाता वह सेवा नहीं, स्वार्थपरक चाकरी का ही एक रूप होगा। जिसकी सेवा करने, मैं सुख शांति और गौरव का अनुभव हो समझ लेना चाहिये कि उस सेव्य के प्रति हृदय में प्रेम-भाव अवश्य नहीं है।

सच्चा सेवा-भाव की सेवा और में ही प्रतिबिम्बित होता है। जितनी अधिक और निस्वार्थ सेवा एक माता बच्चे की करती है, उतनी सेवा एक प्रेमी अपने प्रीति-भाजन और एक भक्त अपने भगवान की कर सकता है। जिस सेवा में भक्त और माता जैसा निःस्वार्थ-भाव नहीं होता वह आध्यात्मिक सेवा नहीं होती, जिसके द्वारा आनंद के मूल-स्त्रोत सच्चे प्रेम की प्राप्ति की आशा की जाती है। ऐसी निःस्वार्थ एवं अहेतुक सेवा सिवाय दीनों, गरीबों और दुखियों के सिवा किसी की भी नहीं की जा सकती। ऐसे पात्रों से कुछ पाने की आशा तो की ही नहीं जा सकती, अस्तु इनकी सेवा निःस्वार्थ सेवा ही हो सकती है। निःस्वार्थ सेवा ही सच्ची सेवा है, बाकी सारी सेवाएँ धन, सत्ता और स्वार्थ की दासता मात्र ही होती है। ऐसी सेवा में न तो प्रेम होता है, न सन्तोष, न आनन्द और न गौरव। सेवा द्वारा यदि आनंददायक प्रेम की अपेक्षा है तो मातृभाव से संसार के दीन-दुःखी और गरीब आदमियों की सेवा करना उचित है। वैसे जिसने अपनी मनोभूमि को इतना उन्नत बना लिया है कि उसमें किसी प्रकार का स्वार्थ घर न करने पावे तब तो संसार में किसी की भी सेवा से मनोवांछित प्रेम की प्राप्ति की जा सकती है।

आनन्द का मूल-स्त्रोत प्रेम है और सच्चा-प्रेम निःस्वार्थ भाव से ऐसों की सेवा करने से ही प्राप्त हो सकता है, जिनसे किसी प्रतिकार और प्रतिदान की आशा न की जा सके। यदि जीवन में सुख-सन्तोष और शाँति की आवश्यकता हो तो जन-सेवा के मार्ग से प्रेम प्राप्त कर उसकी पूर्ति सफलतापूर्वक की जा सकती है।


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