असंतुष्ट रह कर चित्त को दुःखी न करें

June 1968

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असन्तोष एक घातक दुर्गुण है। यह जिसको अपना आखेट बना लेता है, उसकी जीवन-वाटिका के सारे फूल जला डालता है। जीवन की ताजगी और हरियाली का अपहरण कर लेता है। आशा एवं उत्साह सफलता तथा प्रसन्नता से इसकी गहरी शत्रुता है। असंतुष्ट रह कर यदि कोई सुख-शांति की इच्छा करता है तो वह उस सुनी वस्तु का पाना चाहता है, जिसका या तो अस्तित्व ही नहीं अथवा उसके प्रयत्नों की विपरीत दिशा में विद्यमान है। असंतोष अथवा अभाव की भावना स्वभाव के लिए विजातीय तत्व है, जिसकी वर्तमानता से मनुष्य मानसिक ही नहीं शारीरिक रोगी तक हो जाता है।

असंतोष का जन्म अधिकतर ईर्ष्या अथवा हिंसा की भावना से होता है। जब कोई अपने ऊपर दृष्टि डाल कर किसी अपने से अधिक धनवान, बलवान अथवा मानवान को देखता है और यह सोचने लगता है कि यह हमसे अधिक सुखी तथा सम्पन्न है। प्रगति एवं उन्नति में हमसे बहुत आगे बढ़ा हुआ है, समाज में इसका बहुत मान-सम्मान है जबकि मेरा कम या बिल्कुल नहीं है, तब उस अपने उस लक्षित व्यक्ति के प्रति ईर्ष्या होने लगती है, जो अपने गर्भ में सारी सुख-शांति के घातक शत्रु असन्तोष को लेकर आती और ईर्ष्यालु के हृदय में उसका प्रजनन कर देती है। उसके बाद तो एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे अवगुण के जन्म की एक परम्परा लग जाती है, जोकि बहुमूल्य मानव-जीवन की धूल उड़ा कर रख देती है।

इस प्रकार देखा जा सकता है कि दृष्टिकोण की एक छोटी-सी गलती, विचार पद्धति की साधारण-सी भूल से कितनी बड़ी क्षति होती है। यह बात सच है कि संसार में आंख मूंद कर नहीं चला जा सकता। आंखें खोल कर ही चलना होगा, तब इस स्थिति में अपने से बढ़े-चढ़े लोगों पर दृष्टि जायेगी ही, उनका वैभव और ऐश्वर्य दिखाई पड़ेगा ही और इससे दृष्टा के मन में कोई अतिरिक्त भाव उत्पन्न ही होगा। सही है कि सामान्य लोग ऋषि, मुनि, योगी अथवा परमहंस की स्थिति वाले नहीं होते, समभाव जिनका स्वभाव होता है, जिनके लिये ऐश्वर्य एवं दरिद्रता में, लोष्ठ एवं कंचन में कोई भेद नहीं होता। उनके लिये सारे पदार्थ, सारे मनुष्य और सारी परिस्थितियाँ एक जैसी ही होती हैं, वे राग-द्वेष से मुक्त कामना एवं वासनाओं से रहित तटस्थ स्थिति वाले ही होते हैं। उन पर, उनके समाधानपूर्ण मन पर हर्ष अथवा विषाद की कोई प्रतिक्रिया नहीं होती।

यह एक ऊँची स्थिति है एक सिद्ध पद है। यद्यपि इसको पाने वाले भी प्रारम्भ में हम आप जैसे सामान्य स्थिति के ही लोग होते हैं, किन्तु अपने अविरत पुरुषार्थ एवं अध्यावसाय से इस अवस्था को प्राप्त होते हैं। तथापि सामान्य दशा में, साधारण जीवन-यापन की स्थिति में हम साधारण लोगों से इस अतीत अवस्था की अपेक्षा नहीं कर सकते, संसार में स्मरण एवं व्यवहार निरत व्यक्तियों में अतिरिक्त भाव अथवा विषम प्रतिक्रियायें होना कोई अस्वाभाविक नहीं हैं। सम्पन्नता देख कर हर्ष और विपन्नता देख कर विषाद आ जाना अधिक अमान्य नहीं है। अमान्य है केवल उन भावों, विचारों, प्रतिक्रियाओं अथवा अनुभूतियों की अवाँछित दिशा में प्रवाहित होना, जोकि हमारे अन्दर दूसरे की स्थिति से तुलना करने पर प्रकट होती है।

दूसरे की तुलना में अपने को कम देख कर अथवा अपनी तुलना में अन्य को बढ़ा-चढ़ा देख कर मन में अतिरिक्त भाव आ सकता है। किन्तु यह कदापि आवश्यक नहीं कि वह भाव अथवा विचार ईष्यात्मक ही हो। यह आगन्तुक भाव श्रद्धा, प्रशंसा अथवा आदर का भी हो सकता है। यह भाव स्वयं भी उन्नति-कर, उस स्थिति में पहुँचने का संदेश एवं प्रेरणा वाला भी हो सकता है, और साधु, सज्जन और कर्मठ लोगों में आते ही हैं इसी प्रकार के विधेयक भाव। किसी की उन्नति देख कर उनमें ध्वंसक, कष्टकर निषेधात्मक विचार नहीं उठते।

हम किसी की उपलब्धियों को देखते और उसके वैभव का विचार करते हैं और हममें उसके प्रति ईर्ष्या अथवा द्वेष का भाव जागृत होता है, कोई हिंस्र अथवा हवस की कटुता सुगबुगाती है तो तत्काल समझ लेना चाहिये कि हमारे विचार खतरे से खाली नहीं है, अवश्य ही हममें मानसिक दौर्बल्य घर कर रहा है, शीघ्र ही असन्तोष और निरुत्साह का आक्रमण हम पर हो सकता है और हम किसी समय भी पतन गर्त के यात्री बन सकते हैं। हमारी अब तक की सारी उपलब्धियाँ हमारे लिये ही मूल्यहीन हो जायेंगी, हमारे मन में उनके प्रति न कोई रुचि रहेगी और न आस्था, शीघ्र ही हम अपने को दीन-हीन, दुःखी और वंचित समझने लगते हैं, अपने को बदनसीब समझने का रोग हमें लग सकता है और यह अपावन स्थिति किसी भी प्रकार आत्मघात से कम पाप वाली न होगी। अस्तु अपनी स्थिति को देखते ही तुरन्त सावधान हो जाना चाहिये, ईर्ष्या के भाव को खतरे की घण्टी समझ कर सतर्कतापूर्वक प्रतिरक्षा की तैयारी में लग जाना चाहिये। शीघ्रता से प्रेम सौहार्द एवं अपनत्व आदि के दैवीगुण को जगा-जगा कर मोर्चे पर जमा देना चाहिये, जिससे कि विध्वंसक आसुरी-भाव हमारे जीवन को कटु और संतप्त बनाने के लिये आक्रांत न कर सकें।

यदि दूसरे की उन्नति और सफलता को देख कर हमें हर्ष होता है, तद्वत् स्थिति पाने के लिये परिश्रम एवं पुरुषार्थ की प्रेरणा मिलती है, उसके उन गुणों की खोज और ग्रहण की तत्परता होती है, जोकि उसकी उपलब्धि के आधारभूत सिद्धान्त हैं, तो हमें समझ लेना चाहिये कि हमारी विचार-धारा का प्रवाह ठीक दिशा की ओर ही उन्मुख है, हम ठीक रास्ते पर जा रहे हैं, हमारा मार्ग निरापद एवं प्रशस्त है। हमें उसे सुन्दर मार्ग पर अविरत गति से चलते ही रहना चाहिये, जिसका परिणाम हमारे लिये अक्षय उपलब्धियों का भण्डार लेकर आयेगा, जिससे कि हम सदा सर्वदा के लिये सम्पन्न एवं संतुष्ट हो जायेंगे। तथापि अपने मार्ग की निरापदता और अपनी गति एवं दिशा की समीचीनता पर हमें इतना संतोष नहीं कर लेना चाहिये कि हममें से सतर्कता, सम्बद्धता अथवा तत्परता के भाव कम हो जायें और हम प्रमाद के वशीभूत होकर असावधान हो जायें। प्रमाद का भाव भी कुछ कम भयप्रद नहीं है।

कभी-कभी यह सन्तोष, विश्वास और निर्भयता की आड़ लेकर दूर प्रभावक रोगों के छोटे-छोटे कीटाणु स्वास्थ्य के प्रति अतिविश्वास के कारण उत्पन्न असंयम की आड़ लेकर शरीर में वास कर लेते हैं और कालान्तर में अवसर पाकर अपना करिश्मा दिखाने लगते हैं। इसलिये मनुष्य को सौख्यावस्था में भी प्रमाद जैसे आसुरी दूतों से सावधान ही रहना चाहिये। इससे बचाव का एक छोटा-सा उपाय यह है कि अपनी उन्नति और सफलता में अपनी शक्तियों और क्षमताओं में पूर्ण विश्वास रखते हुए भी अपने पर अधिक विश्वास न करें। अपने मार्ग और लक्ष्य की उपयुक्तता पर विश्वास रखते हुए अपने पर कड़ी दृष्टि रखने की जरूरत है। क्योंकि हम कभी-कभी स्वयं ही किसी अदृश्य आसुरी प्रेरणा से अपने को धोखा दे बैठते हैं। हम हैं तो आखिर मनुष्य ही, दैवी और आसुरी शक्तियां हमसे अधिक प्रबल होती हैं, जिससे कि हम शीघ्र ही उनके प्रभाव में आ जाते हैं।

हममें ईर्ष्या-द्वेष का जन्म प्रायः तब ही होता है, जब हम किसी की तुलना में अपने की दीन-हीन एवं अभावग्रस्त एवं पिछड़ा हुआ मानते लगते हैं। यदि हममें यह भाव बना रहे कि हम किसी से भी नीचे और पिछड़े हुए नहीं दिन-दिन उन्नति एवं प्रगति करते जा रहे हैं और वह दिन दूर नहीं जब हम भी इस स्थिति में पहुँच जायेंगे, जिसमें अमुक व्यक्ति इस समय वर्तमान है तो हमारे हृदय में ईर्ष्या, द्वेष का भाव न आकर उत्साह और अधिकाधिक पुरुषार्थ की ही प्रेरणा पैदा होने लगे। यह प्रेरणा हर प्रकार से वाँछनीय एवं हितकर है।

यदि हम ईमानदारी से दूसरों की तुलना से डडडड होकर अपनी प्रगति का लेखा देखना शुरू कर दें, अपनी वर्तमान स्थिति का ठीक-ठीक मूल्याँकन करने लगें, तो देखेंगे कि हमारे सामने असंतोष का कोई भी तो कारण नहीं है, हम केवल अपना गलत मूल्याँकन करने के कारण ही इस हीन-भाव में फंसे हुए हैं। सबसे प्रथम और सर्वोपरि संतोष का कारण तो हमारे पास यही है कि हम मनुष्य हैं। मनुष्य जीवन पाना एक महानतम सफलता एवं प्रगति का चिन्ह है। क्या हमको यह उपलब्धि अनायास ही बिना किसी पुरुषार्थ अथवा प्रगति के ही मिल गई है? नहीं ऐसा कदापि नहीं है। इसको पाने के लिए हमको चौरासी लाख गण्य योनियों की डडडड यात्रा पूरी करती पड़ी है।

हम कोटि-कोटि वर्षों तक श्वास-श्वास चल-चल कर ही इस जीवन तक आ सके हैं। उस लम्बी यात्रा में हमको कितने त्याग करने और कितने कष्ट उठाने पड़े होंगे, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। उस समय की यात्रा में हम किन-किन भयानक परिस्थितियों से गुजरे होंगे, इसको आज जान सकना तो सम्भव नहीं है किन्तु इतना तो कहा ही जा सकता है कि मानव-जीव जैसी महानतम उपलब्धि के लिए कष्टों और बलिदान की बड़ी तपस्या ही तपनी पड़ी होगी। कोई ऊँची वस्तु बिना तप-त्याग के मिल ही नहीं सकती है।

क्या चौरासी लाख योनियों के कोटि-कोटि वर्षों तक अबाध संग्राम को लड़ने के बाद मनुष्य जीवन के रूप में जो विजय प्राप्त की है, वह कुछ कम मूल्यवान उपलब्धि है अथवा किसी प्रकार भी कम संतोष की बात है। तब कोई कारण नहीं दीखता कि मनुष्य जीवन का उत्तम उपहार पाकर भी हम असंतुष्ट एवं क्षुब्ध ही बने रहें। कल्पवृक्ष पाने के बाद दीन-हीन और अभाव की भावना कैसी। इतने पर भी हम असंतुष्ट रहते हैं तो यह हमारी भूल और कमी है। हमारे संस्कारों की दुरभिसंधि है, जिसे शिव संकल्पों द्वारा नष्ट-भ्रष्ट करके अपने को मुक्त ही कर लेना चाहिये।

जब कभी हम यह सोचने लगते हैं कि संसार में अनेक व्यक्ति हमसे अच्छी स्थिति में हैं तो वहीं पर हम यह क्यों नहीं सोचते कि न जाने कितने व्यक्ति हमसे भी अधिक गई गुजरी परिस्थिति में जीवन बिता रहे हैं। यदि हम हजारों से कम धनवान हैं तो लाखों से हमारी आर्थिक स्थिति अच्छी है। यदि हममें गुणों का बाहुल्य नहीं है तो बहुत से ऐसे व्यक्ति इस संसार में मौजूद हैं, जिनको अपने अवगुणों से ही समय नहीं मिलता। यदि किसी की अपेक्षा हमारा मान, सम्मान में कम है तो यह कम संतोष की बात नहीं है कि हम उन दुवृर्त्तियों से बचे हुए हैं, जिनके कारण मनुष्य अपराधी बन कर समाज में तिरस्कार और अपमान का भाजन करता है, जिनको जन-जन की घृणा और अवहेलना का लक्ष्य बनना पड़ता है।

मानवेत्तर योनि वाले जीवों को देखिये और उनकी स्थिति से अपनी स्थिति की तुलना कीजिये तो कोई कारण नहीं है कि उनकी अपेक्षा अपनी स्थिति को हजारों गुना श्रेष्ठ पाकर आत्म-संतोष की अनुभूति न हो। तुलना करते समय अपनी तुलना अपने से ऊँचे और अपने से निम्न स्थिति होने वालों से कीजिये, आपको असंतुष्ट होने का कोई कारण नहीं रह जायेगा।

दूसरों की प्रगति देख कर भी यदि हम यह सोच सकें कि यह आज जिस स्थिति में है उसी स्थिति में हमेशा से नहीं रहा है। एक दिन यह भी निम्न स्थिति में रहा है किन्तु आज अपने पुरुषार्थ एवं अध्यवसाय से उच्च स्थिति में जा पहुंचा है। तो कोई कारण नहीं कि इसकी तरह ही हम भी अपने पुरुषार्थ एवं अध्यवसाय के बल पर इस जैसी स्थिति में न पहुँच सकें। यह कितनी विचित्र बात है कि धनवान अपनी चिन्ताओं और व्यग्रताओं से पस्त होकर अधनवान को अधिक सुखी एवं संतुष्ट समझ कर दुखी होता है और निर्धन धनवान को देख कर ईर्ष्या करने लगता है। इन दोनों में वस्तुतः कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही अपनी-अपनी तरह से संतुष्ट एवं असंतुष्ट हैं। धनता अथवा निर्धनता, संपन्नता और विपन्नता सुख-दुख का हेतु नहीं है। सुख-दुःख का एक मात्र हेतु है अपना-अपना दृष्टिकोण।

मनुष्य होकर भी अन्दर असंतोष का विष बनाये रखना स्वयं अपनी कमी है, उसे दूर कर दीजिये आप असंतोष से छुटकारा पा जायेंगे। अपने जीवन को उन्नति के मार्ग पर लगाइये, अपनी प्रगति का मूल्याँकन करने के लिये नीचे की ओर देखिए और उन्नति का उत्साह पाने के लिये ऊपर की ओर नजर दौड़ाइये। अपने पिछड़ेपन को क्रन्दन का नहीं प्रेरणा का कारण मानिये और भूल कर भी न तो अपना कम मूल्याँकन कीजिये और न अपने को दीनहीन तथा अभागा मानिए, ईर्ष्या-द्वेष से बच कर चलिये, किसी से हिर्स न करके अपनी ओर तथा अपनी परिस्थितियों पर दृष्टि रखिये तब देखिये कि असंतोष का कोई भी कारण आपके पास नहीं रह जाता है।


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