परिवार का आदर्श और उद्देश्य

June 1968

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पारिवारिक जीवन की परिभाषा करते हुए एक विद्वान ने कहा है- ‘‘परिवार परमात्मा की ओर से स्थापित एक ऐसा साधन है, जिसके द्वारा हम अपना आत्म-विकास सहज ही में कर सकते हैं, और आत्मा में सतोगुण को परिपुष्ट कर सुखी, समृद्ध जीवन प्राप्त कर सकते हैं। मानव-जीवन की सर्वांगीण सुव्यवस्था के लिये पारिवारिक जीवन प्रथम सोपान है। मनुष्य केवल सेवा, कर्म और साधना में ही पूर्ण शाँति प्राप्त कर सकता है।” पारिवारिक जीवन की यह परिभाषा, निस्सन्देह बड़ी ही उचित एवं समीचीन है। गहराई से विचार करने से इसकी यथार्थता प्रकट हो जाती है।

समाज रचना का कार्य स्वयं परमात्मा ने मनुष्य के विचारों और भावनाओं में स्वयं उत्तर कर किया है। उसी ने समय-समय पर उसके विकास और विस्तार को मानवीय विवेक द्वारा आगे बढ़ाया है। वही उसमें आ जाने वाले विकार और विकृतियों को दूरदर्शी व्यक्तियों द्वारा प्रकट करता है और उन्हें सुधारने की प्रेरणा देता है। इसलिये परिवार संस्था को परमात्मा की ही रचना इच्छा अथवा निर्देश मानना चाहिये और उसी के अनुरूप उसका सेवन एवं संचालन करना चाहिये। जो लोग परिवार को अपने मनमाने ढंग से चलाते और सेवन करते हैं, वे एक अहंभाव से प्रेरित होते हैं और परमात्मा की इच्छा का विरोध करते हैं।

परिवार की उपर्युक्त परिभाषा में दूसरी बात यह बतलाई गई है कि वह एक साधन के रूप में स्थापित किया गया है। साधन काहे का? अपना आत्म-विकास करने का। कहना न होगा, जिस प्रकार मानव शरीर कर्म करने का साधन है और जिसके समुचित प्रयोग अथवा उपयोग से जीवन में उल्लेखनीय उपलब्धियाँ पाई जा सकती हैं, उसी प्रकार परिवार साधन का उचित और समीचीन उपयोग आत्म-विकास का लक्ष्य पूरा कर सकता है। जब डडडड उपयोग ठीक रहता है, साधन सुरक्षित रहता है और अच्छी तरह काम आता रहता है। दुरुपयोग होते ही वह क्षीण नष्ट होने लगता है और आदमी साधनहीन होकर निरुपाय हो जाता है।

संयम, नियम और औचित्य का पालन करते रहने से शरीर स्वस्थ बना रहता है, उसकी शक्ति अक्षुण्ण बनी रहती है, स्फूर्ति, उत्साह और कार्य दक्षता सुरक्षित रहती है, पुरुषार्थ होता रहता है और सफलताएँ आती रहती हैं। पर ज्यों ही शरीर का अनुचित उपयोग किया गया नहीं कि वह शिथिल व शक्तिहीन हो जाता है। उसकी दक्षताएँ और विशेषताएं समाप्त हो जाती हैं। वह चलता फिरता मिट्टी का एक पिंड मात्र रह जाता है। तब न तो परिश्रम हो पाता है, न पुरुषार्थ, उन्नति, विकास, प्रगति अथवा किसी प्रकार की सफलता की सम्भावना समाप्त हो जाती है, जीवन असफल और अनुपयोगी बन जाता है। इंजन, मशीन, यन्त्र अथवा हल, बैल, भूमि आदि साधन नष्ट कर दिये जायें, तो न तो अन्न ही उत्पन्न किया जा सके और न उत्पादन। धन समाप्त कर दिया जाये तो न तो व्यापार हो सकता है और न जीवन का कोई काम चल सकता है।

साधनाओं के नष्ट अथवा निःसार हो जाने से सारे उद्देश्य अपूर्ण ही रह जाते हैं। इसी प्रकार यदि परिवार रूपी साधन को निर्बल, निकम्मा अथवा अयोग्य बना लिया जाये तो उसके द्वारा प्राप्त होने वाला आत्म-विकास का लक्ष्य जहाँ का तहाँ पड़ा रह जाये और यह संस्था अथवा इसका उपयोग कुछ भी न रह जाये। जिस उद्देश्य के साधना जितने अधिक प्रखर, सशक्त और उपयुक्त होंगे, वह उद्देश्य उसी अनुपात से अपनी पूर्णता के साथ प्राप्त होगा। मलीन साधनों से मलीन और उज्ज्वल साधनों से उज्ज्वल लक्ष्य की प्राप्ति होती है।

परिवार साधन है। उसका उद्देश्य है आत्म-विकास आत्मा में सतोगुण की परिपुष्टि, सुखी और समृद्ध जीवन। और उसका प्रयोग है सेवा, कर्म और साधना। डडडड बच्चों की शिक्षा-दीक्षा और ब्याह-शादी के लिए बचायेगी। पुरुष परिवार को उन्नत और बच्चों को योग्य बनाने के लिए अधिक-से-अधिक कमायेगा और पत्नी उसमें से अधिक-से-अधिक बचाने का प्रयत्न करेगी।

इस प्रकार घर की समृद्धि में वृद्धि होगी ही। कोई भी एकाकी आदमी उतना समृद्धिशाली नहीं देखा जाता, जितना कि पारिवारिक गृहस्थ। वह रहने के लिए घर और बच्चों के लिये कारोबार की व्यवस्था करता ही है, फिर चाहे थोड़ी कर सके अथवा बहुत। अनन्तर बच्चे बड़े होकर कमाने लगते हैं, एक से दो और तीन की कमाई आने लगती हैं और परिश्रमी और बुद्धिमान गृहस्थों की सुख समृद्धि उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। यह अवसर पारिवारिक व्यक्ति को ही रहता है, एकाकी को नहीं क्योंकि उसके लिए न तो उसे इच्छा होती है और न आवश्यकता। उसका तो अपना शरीर होता है। मतलब भर का बचाया और खा-पीकर पड़ रहे। इस प्रकार देखा जा सकता है कि पारिवारिक अथवा गृहस्थ-जीवन में आत्म-विकास, सतोगुण और सुख-समृद्धि की पूरी-पूरी संभावना रहती है। निःसंदेह परिवार सर्वांगीण उन्नति का एक महत्वपूर्ण सोपान है, जिस पर योग्यतापूर्वक चढ़ कर मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य पा सकता है।

किन्तु यह सब संभव होगा तभी जब इस साधन को साधन मान कर सावधानीपूर्वक उपयोग में लाया जाये। इस साधन को अधिक दक्ष, प्रखर और सशक्त बनाने के लिए सतत् प्रयत्न किया जाता रहे, जो सदस्यों को सुयोग्य, बच्चों को सुशील, सुशिक्षित और अनुशासित बनाने के रूप में होगा। परिवार का गुण, कर्म स्वभाव के रूप डडडड निर्माण करना ही इस साधन को उद्देश्य के योग्य सक्षम बनाना है। इसका उपाय शिक्षा, प्रेम, त्याग, बलिदान, सेवा और सदाचरण की शिक्षा और व्यक्तिगत उदाहरण ही माना गया है।

जहाँ इस साधन को साध्य मान कर, भोग-विलास डडडड अवसर बनाया गया कि वह नष्ट हो जायेगा। तब उस दशा में न तो प्रेम रह जायेगा, न त्याग और न कोई आत्मीयता। बच्चे अनिच्छित, रोगी, निकम्मे और अनुशासनहीन होंगे। स्वास्थ्य और सौहार्द समाप्त होकर डडडड एवं स्पृहा बढ़ जायेगी, परिवार नरक का जीता-जागता द्वार बन जायेगा। परिवार का पालन और समुचित निर्माण ही इस साधन को प्रखर, उज्ज्वल और सक्षम बना सकता है। और तभी आत्म-विकास अथवा आत्म-वृद्धि का उद्देश्य पूरा हो सकता है, अन्यथा नहीं। इसीलिये शास्त्रों में कह गया है-

“गृहस्थ एव यजये गृहस्थस्तष्यते तपः। चतुर्णामाश्रमाणान्तु गृहस्थस्तु विशिष्यते॥”

“गृहस्थ ही वास्तव में यज्ञ करते हैं। गृहस्थ ही वास्तविक तपस्वी हैं। इसीलिये चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम ही सबका सिरमौर है।”

गृहस्थ-जीवन एक तप है, एक साधन है। इसका समुचित प्रयोग करके ही वास्तविक लक्ष्य प्राप्त किया सकता है। गृहस्थ को तपस्वी का जीवन बिताते हुए जीवन को सुविधापूर्वक उन्नति एवं विकास की ओर धीरे-धीरे बढ़ा चले जाना चाहिये।


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