परमात्मा का आशीर्वाद और प्यार -केवल सत्पात्रों को

June 1968

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भगवान का भण्डार सभी सम्पदाओं, सिद्धियों तथा विभूतियों से भरा-पूरा है। ऐसा कोई भी अभाव वहाँ पर नहीं है, जिसकी त्रिकाल अथवा त्रिलोक में कल्पना की जा सकती है। ऐसे किसी भी ऐश्वर्य की कोई भी कल्पना नहीं कर सकता, जो उसके भण्डार में न हो और किसी भी विभव का वह परिमाण भी कल्पित नहीं किया जा सकता, जिसकी उस भण्डार से पूर्णतः पूर्ति न हो सके।

भगवान के इस भरपूर भण्डार के सारे सुख, सारे वैभव और ऐश्वर्य मनुष्य मात्र के लिये ही है। उस स्वयंभू एवं पूर्णकाम परमात्मा को किसी वैभव की आवश्यकता नहीं है। वे तो उसने अपनी सन्तान मनुष्य को बाँटने के लिये रख छोड़े हैं।

अब प्रश्न यह उठता है कि वह फिर उन सब सम्पदाओं को सब में बाँट क्यों नहीं देता, जिससे सबके दुःख दूर हो जायें और संसार में सर्वत्र सुख, सन्तोष तथा शाँति को को त्रिविधि समीर बहने लगे। इस प्रश्न का उत्तर यह हैं कि सभी जिज्ञासुओं को विश्व-विद्यालय स्नातक का प्रमाण-पत्र क्यों नहीं दे देता? क्यों हर सुवर्ण धातु को कुन्दन का महत्व नहीं मिल जाता, और क्यों नहीं हर सर्वसाधारण को महात्मा अथवा महापुरुष मान कर पूजा जाता है?

उत्तर अथवा कारण स्पष्ट है। जिसने क्रम-क्रम से अध्ययन द्वारा बी. ए. तक की परीक्षायें उत्तीर्ण नहीं की हैं, उसको स्नातक की उपाधि नहीं दी जा सकती। जिसने आग में तप कर अपनी सच्चाई तथा शुद्धता का प्रमाण नहीं दिया है वह सुवर्ण धातु कुन्दन के मूल्य की अधिकारिणी नहीं हो सकती और जिसने तप, त्यागमय जीवन अपना कर जन-सेवा एवं आत्मा के साक्षात्कार का प्रयास नहीं किया है, वह महात्मा अथवा महापुरुष किस आधार पर माना और पूजा जा सकता है? यही बात भगवान के भण्डार में रक्खे पुरस्कारों के विषय में भी है। जिसने उनके लिये अपनी पात्रता सिद्ध की वह उनका अधिकारी बना और इसी आधार पर आगे भी बनता रहेगा। और जो पात्रता सिद्ध नहीं कर पाया अथवा नहीं कर पा रहा है, वह वंचित ही रहा और आगे भी रहेगा। इस निष्पक्ष न्याय में किसी को शिकायत करने का मौका ही नहीं है।

अपनी पात्रता प्रमाणित करने के लिये हर व्यक्ति को कठिनाइयों तथा असुविधाओं की अग्नि परीक्षा देनी होती है, तप-त्यागमय पथ पर चल कर अपनी पारमार्थिक दृढ़ता का परिचय देना होता है। जो विवेकी पुरुष अभावों एवं आवश्यकताओं के दबाव में भी नीति का मार्ग नहीं छोड़ता, प्रलोभनों के बीच भी स्खलित नहीं होता, किसी भय, शंका अथवा अन्य कारणों से सन्मार्ग का त्याग नहीं करता, वस्तुतः वह ही नर-रत्न होता है, जो ईश्वरीय भण्डार की विभूतियों से विभूषित किया जाता है। जो लोभी, स्वार्थी, असंयमी अथवा इन्द्रिय लोलुप है, वह ईश्वरीय प्रसादों का उसी प्रकार अनाधिकारी है, जिस प्रकार कौआ यज्ञ भाग का।

ईश्वरीय पुरस्कारों की पात्रता श्रेष्ठता में निहित रहती हैं पुण्य परमार्थ, धार्मिकता एवं आस्तिकता के श्रेय-पथ पर चल कर यह श्रेष्ठता सहज ही प्राप्त की जा सकती है। जिस दिन मनुष्य का व्यक्तिगत स्वार्थ समष्टिगत स्वार्थ में मिल जायेगा, उसकी निजी सीमायें बढ़ कर समाज तथा संसार तक पहुँच जायेगी, उस दिन से वह श्रेष्ठता की परिधि में प्रवेश करने लगेगा। मनुष्य की भावना उस दिन इस प्रकार की बन जायेगी कि संसार में जो कुछ सुख, सुविधायें दिखलाई देती हैं, उनका निर्माण सबके सहयोग से ही सम्भव हो सका है।

हमारे पास जो कुछ इस समय वर्तमान है, जिन सुखसुविधाओं का हम उपभोग कर रहे हैं, वह अकेले हमारे एक के ही पुरुषार्थ का फल नहीं है। इसमें इसी समाज यहाँ तक सम्पूर्ण संसार का किसी-न-किसी रूप में सहयोग सम्मिलित है। अतः इसमें सभी का कुछ-न-कुछ भाग शामिल है। और हमें उनके उचित भाग का अपनी स्वार्थ सीमा से त्याग कर ही देना चाहिये। यहाँ तक कि हमारा यह शरीर, यह जीवन भी केवल एक हमारा ही नहीं है। इसके निर्माण तथा पालन पोषण उन्नत एवं विकसित होने में भी दूसरों का सहयोग सम्मिलित है। इसलिये सेवा द्वारा दूसरों का उपकार शोधन करते रहना हमारा महान् मानवीय कर्तव्य है, जिसे हमें निभाते ही चलना चाहिये, उसी दिन मनुष्य का विकास श्रेष्ठता में प्रारम्भ होने लगेगा।

जो संकीर्ण व्यक्ति स्वार्थवश दिन-रात अपनी व्यक्तिगत कामना वासनाओं की पूर्ति में लगे रहते हैं और उस प्रमोद में दूसरों के हितों, स्वार्थों, अधिकारों तथा सीमाओं की उपेक्षा करते रहते हैं, उनका श्रेष्ठ बनता तो दूर उल्टे वे उस स्थान से भी नीचे गिर जाते हैं, जहाँ पर वे खड़े होते हैं। व्यक्तिगत कामनाओं की लिप्सा मनुष्य के जीवन क्रम तथा चेष्टाओं में असंतुलन पैदा कर देती है। मनुष्य इतना अभिमानी बन जाता है कि वह किन्हीं भी उपायों से अपनी कामना पूर्ति को अधिकार समझने लगता है। और जब कोई व्यवधान, फिर चाहे वह स्वाभाविक अथवा उचित ही क्यों न हो, आता है तो वह अपने मस्तिष्क का संतुलन खो क्रोध से उन्मत्त होकर करने न करने योग्य काम करने पर उतर आता है। क्रोध से बुद्धि भ्रमित हो जाती है, विवेक नष्ट हो जाता है, तब ऐसी दशा में उससे यह आशा नहीं की जा सकती कि वह ऐसे काम न करेगा, जो समाज के लिये अहित कर सिद्ध हों। ऐसा स्वार्थी, अविवेकी अथवा उन्मत्त बुद्धि व्यक्ति जन्म जन्मान्तर न श्रेष्ठ बन सकता है और न भगवान के भण्डार में भरी विभूतियों का अधिकारी ही। उसे तो यों ही संसार में अभाव, असन्तोष तथा अशांति की दैन्यपूर्ण स्थिति में जलते-मरते जीवन के दिन पूरे करने होंगे।

स्वार्थपूर्ण कामनाओं के दास अपने मानवीय उत्तरदायित्वों पर जरा भी ध्यान नहीं देते और इन्द्रियों की वासना वृद्धि को ही जीवन का ध्येय बना लेते हैं। वे समाज, व्यक्तिगत स्वास्थ्य तथा प्रकृति की मर्यादाओं का विचार नहीं रखते। अन्त में उनकी मदान्धता विविध रूपों में आकर उन्हें घेरने, सताने लगती है। आन्तरिक अशांति, क्लेश, कुण्ठा तथा अनेकों बीमारियों, विकार एवं निर्बलतायें, जो उसके दुःख शोकों का कारण बनती हैं, सब वासना-मूलक मदान्धता का ही तो परिपाक हुआ करती है। इतने दैन्य एवं दीनता से घिरा मनुष्य उन ईश्वरीय उपहारों का अधिकारी किस प्रकार बन सकता है, जिसके अधिकारी तपो-व्रतधारी शुद्ध-बुद्ध तथा आत्म-निष्ठ श्रेष्ठ पुरुष ही हो सकते हैं?

अपने महान् भण्डार के रत्न गढ़ने में परमेश्वर पक्षपाती अथवा अन्यायी नहीं है, तथापि वह इतना अज्ञानी अथवा अबोध भी नहीं है, जो ऐसे मनुष्यों के बहकावे में आ जायें जो कभी कभी पूजा-पाठ, जप-तप तो करते हैं किन्तु तो अपनी आत्मा में श्रेष्ठता का विकास करते हैं और न ऐसे परोपकारपूर्ण कार्य ही करते हैं, जिनके पुण्य प्रकाश से उनका दूषित अन्तःकरण शुद्ध हो सके। संसार में ऐसे धूर्तों की भी कमी नहीं है, जो ऊँची सिद्धियों, ईश्वरीय भण्डार में सुरक्षित चिरन्तन सुख-शांति के उपहारों को प्राप्त करने के लिये घन्टों पूजा पाठ करते रहते हैं। किन्तु जब वर्षों तक यह कार्यक्रम चलाते रहने पर भी उनकी अशांत स्थिति में कोई अन्तर नहीं आता तब वे उस सबको जंजाल व्यर्थ का टंट-घंट बता कर छोड़ देते हैं और या तो ईश्वर की कृपा में अविश्वास करने लगते हैं अथवा नास्तिक होने तक पर उतारू हो जाते हैं। किन्तु यदि उनसे यह पूछा जाये कि आपने इस सबके साथ कोई पारमार्थिक कार्यक्रम भी चलाया है, जनसेवा की कभी व्रत लेकर उसे पूरा करने की चेष्टा की है, क्या कभी ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ आदि के विकारों से आत्मा को मुक्त करने का पुरुषार्थ किया है, तो इसका उत्तर मौन में देंगे। तब ऐसी स्थिति में यह आशा रखना कि वह महान् न्यायी ईश्वर उनके निःसार टंट-घंट से प्रसन्न होकर भण्डार का द्वार उनके लिये खोल देगा, दुराशा के अतिरिक्त और क्या हो सकती है। झूठे धार्मिक आधारों पर ईश्वर को छल सकने का दम्भ एक विडम्बना है, आत्म-प्रवंचना है।

श्रेष्ठता की परीक्षा इसी कसौटी पर होती है कि मनुष्य ने कितना स्वार्थ त्यागा है, और कितना परमार्थ अपनाया है। भजन-पूजन आदि यदि सच्चा हो तो निश्चय ही उसका प्रतिफल आंतरिक सुख-शांति के रूप में मिलना ही चाहिये। तृष्णा एवं वासनाओं से प्रेरित उपासना कोई वाँछित फलदायिनी नहीं होती। जैसे-जैसे मनुष्य स्वार्थ छोड़ता और परमार्थ अपनाता चलता है, वैसे-वैसे उसका मानसिक स्तर ऊँचा होता जाता है और उसमें सेवा तथा संयम के सक्रिय संकल्प बलवत्तर होने लगते हैं। उसकी वृत्ति संचय से विमुख होकर त्याग की ओर उन्मुख हो उठती है और यह सोचने के स्थान पर कि हमारी वासनायें कैसे पूरी हों यह सोचने लगता है कि वह कौन-सा कार्यक्रम तथा विचार-धारा अपनाई जाये, जिससे व्यक्तिगत इच्छायें, सार्वजनिक आवश्यकताओं में तिरोहित हो जावें। ऐसी स्थिति में आकर मनुष्य की आत्मा प्रकाशित हो उठती है और वह मनुष्यता से देवत्व की ओर उठकर, ईश्वरीय भण्डार में से मनोवाँछित उपहारों का अधिकारी बन जाता है।

दूसरों के हित में अपना हित, दूसरों के लाभ में अपना लाभ और दूसरों के कल्याण में अपना कल्याण समझने वाले, सबसे प्रेम और अनुराग रखने वाले, सर्वात्मा में रमण करने वाले, दूसरों का दुःख सुख अपना समझने वाले और जनता जनार्दन के लिये सब कुछ उत्सर्ग कर देने का उत्साह रखने वाले मनुष्य ही महापुरुष, महात्मा एवं महानुभावों की श्रेणी में आकर उस श्रेष्ठता को सिद्ध कर लेते हैं, जिससे अनन्त आन्तरिक शाँति, संतोष तथा सुख के रूप में ईश्वरीय अनुग्रह के अधिकारी बनते हैं।

श्रेष्ठता का क्रम अपनी आत्मा से प्रारम्भ होकर पत्नी, बच्चों, परिवार, सम्बन्धी, पड़ौसी, देश, जाति की सेवा में होता हुआ अन्त में विराट् विश्व अथवा विश्वात्मा की अनन्तता में तल्लीन हो जाता है। जिसमें ऐसा विराट्, ऐसा उन्नत, ऐसा श्रेष्ठ बनने का साहस हो, निकृष्ट स्वार्थ को जीत कर परमार्थ में सर्वस्व अर्पण कर देने की क्षमता हो वह तो उस महान परम तथा निर्द्वन्द्व भण्डारी, भगवान् के कोष में सुरक्षित अक्षय शाँति, अनन्त सन्तोष और अप्रतिहत आनन्द के रत्न पाने की कामना करे अन्यथा अपने अनौचित्यों तथा स्वार्थपूर्ण वासनाओं का दंड भोगता हुआ असन्तोष, अशांति एवं दुःख दर्दों के नरक में चुपचाप पड़ा रहे।


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