तीस वर्ष में नया युग आकर रहेगा

June 1968

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(श्री ‘भारतीय योगी’)

“इस समय परिस्थिति निस्सन्देह बुरी है, वह निरन्तर अधिक बुरी होती जाती है और संभव है कि किसी भी समय वह अधिक-से-अधिक बुरी बन जाय। इस दशा में सबसे उत्तम बात यही है कि हम यह विश्वास रखें कि अगर संसार में एक नया और श्रेष्ठ युग आना है तो उसके लिये हमारी वर्तमान बुराइयों को अन्तः क्षेत्र में से प्रकट होकर मिट ही जाना चाहिए। -महायोगी अरविन्द,

परिवर्तन संसार का अटल नियम है। आज हम दुनिया का जो नक्शा देख रहे हैं, वह न मालूम कितने उलट-फेर के बाद इस रूप में आया है। यद्यपि परिवर्तन का यह चक्र निरन्तर घूमता रहता है, पर कभी-कभी उसकी गति इतनी अधिक तीव्र हो जाती है कि उससे सर्वत्र हलचल मच जाती है और छोटे-बड़े सभी मनुष्यों को अनुभव होने लगता है कि अब निश्चय ही एक नये युग का आविर्भाव होने वाला है।

अगर हम पिछले दस-पाँच हजार वर्ष के इतिहास पर- जिसका कुछ हाल हम शोध और खोज द्वारा जान सके हैं- निगाह डालें तो विदित होता है कि संसार में ऐसे ‘महान परिवर्तन’ समय-समय पर होते ही आये हैं और उनके फलस्वरूप प्राचीन समाजों की कायापलट होकर नये समाजों का उदय होता रहा है। किसी समय समाज पर धर्मगुरुओं, ऋषि-मुनियों का असीम प्रभाव था। किसान से राजा तक उनके चरणों में शीश नवाते थे और उनकी आज्ञा बिना समाज और व्यक्ति का कोई काम नहीं हो सकता था।

फिर बड़े-बड़े राज्यों के स्थापित हो जाने और उनकी व्यवस्था के लिए शक्तिशाली सेनाओं का संगठन किये जाने पर सम्राटों और राजाओं का बोलबाला हो गया। जनता का प्रत्येक व्यक्ति उनको झुक कर नमस्कार करने को बाध्य था। हमारे शास्त्रकारों ने स्पष्टतः राजा को ईश्वर का अंश घोषित कर दिया। पर हमारे देखते-देखते पिछले सौ दो सौ वर्षों में समय ने पलटा खाया और जो सिंहासन हजारों वर्ष से जमे हुए थे और जिन पर बैठने वालों ने अपने राजवंशों को ‘अजर-अमर’ मान लिया था वे धूल में मिलते दिखाई दिये।

इसी प्रकार हमने इन सौ वर्षों में व्यवसायी वर्ग (पूँजीपतियों) को उठते देखा। जो लोग ‘बनिया’ के तुच्छ नाम से पुकारे जाते थे, जिनको एक छोटा-सा राजा या सरकारी अधिकारी बेगार देने को बाध्य कर सकता था, वे ही कुछ समय में समस्त साधन-सामग्री के कर्ता-धर्ता बन बैठे। वे क्रमशः व्यवसायी, उद्योगपति, पूँजीपति कहलाकर समाज के अगुआ बन गये। आज कहने के लिये प्रजातन्त्र, समाजतन्त्र आदि कैसा भी शासन क्यों न हो उसकी वास्तविक बागडोर पूँजीपति वर्ग के हाथ में ही रहती है।

पर अब पूँजीवाद का समय भी पूरा हो चला है और पिछले तीस-चालीस वर्ष से हम एक के बाद दूसरे देश में साम्यवादी शासन की स्थापना होते देख रहे हैं, जिनका उद्देश्य पूँजीपतियों को हटा कर समस्त सत्ता श्रमजीवियों- मजदूरों के हाथ में रखनी है। इस समय संसार में जो संघर्ष छिड़ा है और युद्ध की काली घटायें छा रही हैं, उसका असली कारण ‘पूँजीवादी’ और ‘श्रमजीवीवाद’ में हो रही टक्कर ही है।

इस प्रकार के विश्वव्यापी परिवर्तनों का प्रभाव केवल राजनैतिक और आर्थिक क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रहता वरन् उसके फल से सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रों की भी कायापलट हो जाती है। यही कारण है कि सभी विचारों और श्रेणियों के व्यक्ति इस समय भविष्य की चिन्ता करते और अपने-अपने ज्ञान तथा सिद्धान्तों के आधार पर उसके स्वरूप और परिणाम की विवेचना करके अपनी सम्मति प्रकट करते रहते हैं।

हमारा नैतिक-पतन और उसका दण्ड-

इसमें तो कुछ भी संदेह नहीं कि आज संसार में घोर हलचल फैली हुई है और प्रतिदिन किसी ‘महान अनिष्ट’ की आशंका लगी रहती है। इसका वास्तविक कारण मनुष्यों में निकृष्ट स्वार्थपरता का प्रविष्ट हो जाना ही है। अन्यथा आजकल वैज्ञानिक उन्नति के प्रभाव से संसार में सम्पत्ति और सुख-साधनों की इतनी वृद्धि हो चुकी है कि उसका उचित उपयोग करने से संसार के सभी मनुष्य सुखपूर्वक निर्वाह कर सकते हैं। पर अपनी अनुचित स्वार्थपरता और अनैतिकतापूर्ण मनोवृत्ति के कारण वह प्रायः साधारण सुख-शांति से भी वंचित रहते हैं। क्या यह कम आश्चर्य की बात है कि एक तरफ तो मनुष्य चन्द्रमा और शुक्र-ग्रह तक पहुँच रहा है और दूसरी ओर अपने भाइयों में ही जीवन निर्वाह की सामग्री का उचित बँटवारा न कर सकने के कारण मरने कटने को तैयार हो जाता है?

इस संसारव्यापी बुराई का कारण विद्वानों की दृष्टि में अध्यात्मवाद का ह्रास होकर भौतिकवाद की तरफ लोगों का आकर्षित हो जाना है। जबकि आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति मानव-मात्र को एक ही दैवी-सत्ता का अंश समझ कर दूसरों के हित-अनहित का ध्यान रखते हुये आचरण करता है, तब भौतिकवाद से प्रभावित व्यक्ति एक मात्र अपने स्वार्थ पर ही दृष्टि रखते हैं। जब बहुसंख्यक मनुष्य इसी नीति का अवलम्बन करने लगते हैं तो संसार में संघर्ष और कलह की प्रवृत्तियाँ जोर पकड़ लेती हैं और चारों तरफ हलचल, अशांति और संहार की स्थिति दिखाई पड़ने लगती है।

ऐसे ही दूषित वातावरण में आजकल हमको निवास करना पड़ रहा है और परिणामस्वरूप क्या गरीब और क्या अमीर, क्या छोटे और क्या बड़े सभी को कठिनाइयों और भयंकर दुष्परिणामों का अनुभव हो रहा है और वे यह सोचने को बाध्य होते हैं कि क्या इस दशा का सुधार किसी प्रकार किया जा सकता है? इस समय प्रत्येक समझदार व्यक्ति को यह आशंका हो रही है कि यदि शक्ति-संचय और स्वार्थपरता की वर्तमान मनोवृत्ति बिना किसी अंकुश के लगातार बढ़ती गई तो इसका नतीजा मानव-सभ्यता के बहुत बड़े नाश के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता।

काल और युगों का परिवर्तन-

प्राचीनकाल के विचारकों ने भी इसी संबंध में काफी विचार किया था और वे इस परिणाम पर पहुँचे थे कि संसार में इस प्रकार के घात-प्रतिघात और परिवर्तन का होना अनिवार्य है। इसका कारण कुछ अंशों में भौतिक और कुछ में दैविक है। मनुष्य स्वार्थ-बुद्धि के कारण जो दूसरों का स्वत्व अपहरण करके, उनको दबा और धमका कर स्वयं अधिक लाभ उठाना चाहता है, उससे समाज में इस प्रकार की प्रवृत्तियों की वृद्धि होती है। जब मनुष्य देखते हैं कि दस-पाँच मनुष्य भूमि, खान, जंगल आदि प्राकृतिक साधनों पर अधिकार जमा कर या जनता के जीवन-निर्वाह के पदार्थों को अनुचित तरीकों से हथिया कर उनको मनमाने दामों पर बेच कर श्रीमान् बन रहे हैं और दूसरों की अपेक्षा अधिक शान-शौकत से रहते हैं तो उनके हृदय में भी वैसी ही दूषित भावना उत्पन्न होती है और समाज आपाधापी के नाशकारी मार्ग पर चलने लग जाता है।

हमारी पृथ्वी सौर-मंडल का एक अंश है और सौर-मंडल विशाल ब्रह्मांड का एक भाग है। इसीलिये प्रत्येक ग्रह, उपग्रह और सूर्य का प्रभाव एक दूसरे पर पड़ना स्वाभाविक है। यद्यपि हम अखबारों में अनेक बार अन्य लोकों से आने वाले संकेतों और उड़न-तश्तरियों की बातें पढ़ा करते हैं, पर हम नहीं जानते कि उनमें कहाँ तक सच्चाई है। पर वैज्ञानिकरण बहुत समय से जिन ब्रह्मांड-किरणों (कास्मिक रंज) की चर्चा करते रहते हैं, उनका प्रभाव किसी रूप में पृथ्वी के निवासियों पर भी पड़ता है, इसकी संभावना अब प्रायः सभी स्वीकार करने लगे हैं। वर्तमान समय में जो बहुसंख्यक कृत्रिम उपग्रह और अंतरिक्ष-यान छोड़े जा रहे हैं, उनका एक उद्देश्य ब्रह्मांड किरणों का रहस्य मालूम करना भी है। वैज्ञानिकों को आशा है कि इन किरणों में अवश्य ही कोई ऐसी सूक्ष्म शक्ति होगी, जिससे अनेक आश्चर्यजनक कार्य संभव हो सकें।

प्राचीनकाल के मनीषियों ने यद्यपि वर्तमान समय की तरह वैज्ञानिक यंत्रों और रासायनिक विस्फोटकों का बहुत अधिक विकास नहीं किया था, पर वे अपने आन्तरिक ज्ञान और संकल्प-शक्ति के द्वारा ब्रह्मांड में व्याप्त अनेकों सूक्ष्म-शक्तियों से काम लेने में समर्थ थे। इस युग के वैज्ञानिक अब इस विषय का कुछ अनुमान कर सके हैं कि विश्व में होने वाली घटनाओं की सूक्ष्म तरंगें बहुत समय तक स्थिर रहती हैं और वे अन्य लोगों के निवासियों को सैकड़ों हजारों वर्ष पश्चात् इस प्रकार जान पड़ती है, मानो आज ही हुई हों। प्राचीन समय के आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न व्यक्ति ‘योग’ की विधियों से अपनी मानसिक शक्तियों को इतना अधिक बढ़ा लेते थे कि उन्हीं के द्वारा अन्तरिक्ष में व्याप्त इन सूक्ष्म तरंगों का अध्ययन करके ‘भूत’ व ‘भविष्य’ की बहुत कुछ जानकारी प्राप्त कर सकते थे और आवश्यकता पड़ने पर एक सीमा तक होनहार घटनाओं का रहस्योद्घाटन भी कर सकते थे।

भारतीय ऋषियों का युग-विभाग-

भारतीय पुराण-ग्रन्थों में इस प्रकार की गूढ़ शक्तियों का वर्णन बहुत जगह पाया जाता है। चाहे उनमें वर्णित उपाख्यानों को पूरी तरह वास्तविक न माना जाय, पर उनसे इतना अवश्य विदित होता है कि उस युग के गूढ़ विद्या विशारद अपनी मानसिक-शक्ति और प्राण-शक्ति के द्वारा आकाशस्थ चिन्हों को देख और समझ सकते थे। इसी के आधार पर उन्होंने ‘चार युगों’ का सिद्धान्त प्रतिपादित करके सर्वसाधारण को बतलाया था कि सृष्टि के विकास-क्रम के नियमानुसार मानव-समाज में सदैव परिवर्तन होते रहना अनिवार्य है, जो कभी लोगों को अनुकूल और कभी प्रतिकूल ज्ञात होते हैं। इसका विवेचन करते हुए एक स्थान पर कहा गया है-

परस्पर हृतश्वाश्च निराकद्य सदुःखिता। एवं कष्ट मनु प्राप्तः कलि संध्यांशके तदा॥ प्रजाक्षयं प्रयस्येति साध्यं कलियुगे न ह। क्षीणो कलियुगे तस्मिन्ततः कृतयुगे पुनः॥

अर्थात्- ‘‘कलियुग के समाप्त होने पर उसके संध्यांश (दो युगों के बीच का परिवर्तन-काल) में पारस्परिक संघर्ष, भयंकर व्याधियाँ, असन्तोष और लड़ाई-झगड़े बहुत अधिक बढ़ जाते हैं। उससे एक बार पाप तथा अशांति की पराकाष्ठा हो जाती है और उसके पश्चात सतयुग आरम्भ होता है।”

इसके साथ ही शास्त्रकारों ने यह भी बतला दिया है कि यह परिवर्तन किसी चमत्कार की तरह अकस्मात नहीं हो जाता वरन् प्राकृतिक तथा लौकिक परिस्थितियों के अनुसार क्रमशः होता है। महाभारत में कहा है कि कलियुग समाप्त होने पर जो परिवर्तन होता है वह धीरे-धीरे ही होता है-

द्विजातिपूर्वको लोकः क्रमेण प्रभविष्यति। दैव कालोन्तेरऽस्मिन्पुनर्लोक विवृद्धये॥

अर्थात्- ‘‘युग परिवर्तन के समय ‘क्रम’ से द्विजों (संस्कार सम्पन्न व्यक्तियों) का अभ्युत्थान होगा और समाज की फिर से वृद्धि होने लगेगी।”

भारतीय ऋषि त्रिकालदर्शी थे। उनकी दृष्टि में दस-पाँच हजार वर्ष का कोई महत्व न था। वे जानते थे कि यह परमात्मा तथा प्रकृति की लीला तो इसी प्रकार पट-परिवर्तन किया करती है। जो सामाजिक, राजनैतिक घटनायें आज हो रही हैं, ठीक वैसी ही घटनायें आगे चलकर भी होंगी और पहले भी हो चुकी हैं, चाहे उनमें लोगों और स्थानों के नामों का अन्तर रहा हो। इसलिये उन्होंने युग-परिवर्तन के मुख्य सिद्धान्त को ही प्रतिपादित किया है, किसी विशेष देश, जाति या समाज भी घटनाओं का अधिक विस्तार के साथ वर्णन नहीं किया है।

डैनियल का भविष्य कथन-

इसके विपरीत अन्य देशों के विद्वानों तथा अध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न पुरुषों ने जो सृष्टि रचना और संहार के “मन्वन्तर और कल्पव्यापी” परिवर्तनों से अनजान थे केवल अपने सामने गुजरने वाले जमाने पर ही ध्यान दिया। और उस समय के चिन्हों के आधार पर अपने देश तथा समाज के भविष्य का वर्णन भी किया। इस श्रेणी के विद्वानों में यहूदी जाति के भविष्यवक्ता ‘डैनियल’ तथा ‘एजकील’ आदि का नाम विशेष प्रसिद्ध, जिनकी 2500 वर्ष पुरानी भविष्यवाणियों के आधार पर आजकल के विद्वान आगामी महायुद्ध और उसके पश्चात की घटनाओं का अनुमान लगा रहे हैं। इस संबंध में गतवर्ष एक अंग्रेजी विद्वान् ने लिखा था- डडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडड आत्म-विकास का मोटा-सा अर्थ है- ‘‘अपनत्व की भावना को बढ़ाना उसका विस्तार करना, जिससे उसकी संकीर्णता दूर हो, उसमें से स्वार्थपरता का भाव निकल जाये और वह अपने व्यापक स्वरूप को पा सके। परिवार इसमें सहायक होता है। मनुष्य जब तक विवाह नहीं करता तब तक उसकी इच्छायें अपने तक सीमित रहती हैं। वह जो कुछ चाहता है अपने लिये, जो कुछ करता है अपने लिये। पर ज्यों ही उसका विवाह हो जाता है, उसके इस अपनत्व की भावना का विस्तार हो जाता है। फिर वह एक अपरिचित नारी, जो उसके जीवन में पहले नहीं थी और न उससे कोई संबंध ही था, उसको लेकर सोचने लगता है। उसकी इच्छाओं और प्राप्तियों में वह भी साझीदार हो जाती है। वह हर वस्तु अपने तक सीमित न रख कर पत्नी तक बढ़ाता है। जो कुछ कमाया है उसको उसकी अधिकारिणी बनाता है। जो कुछ लाता है, उसके हाथ पर रखता है। तब वह किसी वस्तु का अकेले भोग नहीं करता, अपनी पत्नी को साथ लेकर करता है। इस प्रकार उसकी आत्मा का विस्तार अपने से बढ़ कर पत्नी तक जा पहुँचता है।

एक नारी उसकी आत्मीयता की परिधि में आ जाती है। अनन्तर जब पैदा होते हैं, तब उसकी आत्मा का परिसार और अधिक हो जाता है। उसका आत्म-भाव एक से दो और दो से तीन-चार तक बढ़ जाता है। इस प्रकार परिवार आत्म-विकास में साधन रूप से सहायक होता है। यदि यही त्याग और आत्मीयता का भाव निःस्वार्थ एवं निरभिमान कर दिया जाये तो यह आत्म-प्रसार समाज और संसार तक बढ़ सकता है। ऐसा होने से निश्चय ही मनुष्य की आत्मा अपना व्यापक, विराट् स्वरूप पाले और उसका जीवन लक्ष्य पूरा हो जाये। हर अच्छी बात का अभ्यास छोटे पैमाने और अपने घर से ही होता है।

प्रेम, सहानुभूति, संवेदना, अपनत्व, त्याग, उदारता आदि के भाव सतोगुण के द्योतक होते हैं। परिवार में पत्नी और बच्चों के माध्यम से ये सहज ही विकसित हो जाते हैं। मनुष्य में यदि प्रेम का भाव विकसित न हो तो वह एक अपरिचित नारी का भार क्यों उठाये? क्यों उसे प्यार करे और उसके लिये, उसकी प्रसन्नता के लिये किसी प्रकार का त्याग अथवा बलिदान करे। यदि प्रेम-भाव विकसित न हो तो बच्चों का उत्तरदायित्व एक भयानक भार बन जाये, जो उससे उठाये न उठे। बच्चों का पालन और विकास करने में मनुष्य का सारा जीवन, सारी शक्ति और सारे साधन लग जाते हैं, उनके प्रति प्रेम का विकास न हो तो इतना त्याग कर सकना किसी के वश की बात न हो सके। यही बात सहानुभूति, संवेदना और त्याग, बलिदान आदि गुणों के संबंध में है। परिवार के माध्यम से मनुष्य में सात्विक गुणों का विकास हो ही जाता है।

यदि ऐसा न हो और रजोगुण अथवा आसुरी प्रवृत्तियों की प्रधानता बनी रहे तो परिवार संस्था एक दिन भी न चले। सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट होकर बिखर जाये। सतोगुण के आधार पर ही इस संस्था का संचालन होता है। यदि इन्हीं विकसित हुए सात्विक गुणों को ‘यह मेरा परिवार है, यह मेरी पत्नी है, यह मेरे बच्चे है’ -इस संकीर्ण अहंभाव से मुक्त कर यदि यह समझा जाये कि यह सब उस परमात्मा के अंश हैं, इस विराट् के अंग हैं, इनकी सेवा करना, इनके लिए त्याग करना हमारा कर्तव्य है, मैं जो कुछ त्याग अथवा उत्सर्ग कर रहा हूँ, वह सब इनके माध्यम से इस एक विश्वात्मा के लिये ही कर रहा हूं। इन्हीं के समान अन्य सब दूसरे भी मेरे हैं, उन्हें भी मेरी सेवाओं का अधिकार है तो आत्मा का विश्व-विराट् तक परिसार होते देर न लगे।

जो परिवार बसाता है, उसका पालन ठीक प्रकार से करता है, उसका जीवन सुखी होना स्वाभाविक ही है। एक दूसरे के प्रति त्याग और एक दूसरे के प्रति आत्म-भाव सुख का बड़ा कारण है, वह सच्चे और उपर्युक्त पारिवारिक जीवन में मिलता ही है। बिना परिश्रम और पुरुषार्थ के पारिवारिक जीवन चल ही नहीं सकता। अकेला आदमी तो चाहे जो खा कर और चाहे जहाँ पड़ कर जीवन काट सकता है किन्तु किसी गृहस्थ के लिये यह संभव नहीं। गृहस्थ अपने लिए न सही पत्नी और बच्चों के लिए परिश्रम पुरुषार्थ करेगा, कमायेगा और घर लाकर पत्नी को देगा ही। पत्नी उसे बुद्धिमत्तापूर्वक खर्च कर, आगे के लिये, डडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडड ‘‘जैसा ‘बाइबिल’ में लिखा है तदनुसार भगवान का दैवी-राज्य आरम्भ होने में अब बहुत थोड़ा समय शेष रह गया है। जैसा ‘डैनियल’ (4-17-32) में लिखा है ‘पार्थिव-साम्राज्यों’ का समय पूरी नहीं हुआ है। इन साम्राज्यों का आरम्भ ईसामसीह से 607 वर्ष पूर्व हुआ था, जब बैवीलोनिया के निवासियों ने असीरिया के देश को नष्ट-भ्रष्ट करके अपना साम्राज्य स्थापित किया था। उस समय डैनियल ने कहा था कि यह ‘पार्थिव-साम्राज्यों’ का युग ‘सेविन टाइम्स’ (सात समय) अथवा 2520 तक कायम रहेगा। यह अवधि सन् 1914 में समाप्त हो चुकी है, पर यह आशा करना कि उसी दिन दैवी-राज्य आरम्भ हो जायेगा ठीक नहीं। अगर दस्तावेज की अवधि पूरी हो जाने पर भी कोई किरायेदार मकान खाली न करे तो उसके खिलाफ अदालती कार्यवाही करनी पड़ती है और उसके पश्चात भी प्रायः पुलिस की सहायता से उसे निकालना पड़ता है।”

राम-राज्य का आगमन-

यही दशा इस समय हो रही है। यद्यपि ‘पुराने जमाने’ की अवधि समाप्त हो चुकी है, लोग उस दुष्टात्मा के कुकर्मों और अवगुणों से अच्छी तरह परिचित हो चुके हैं, पर वह अभी संसार पर से अपना अधिकार नहीं छोड़ना चाहता और छल-बल से काम लेकर ऐसी चालें चल रहा है, जिससे उसकी सत्ता अब भी बनी रहे। इस प्रकार वह कुछ समय और गुजार सकता है, पर वह ईश्वरीय नियम का सर्वथा उल्लंघन नहीं कर सकता है। उपर्युक्त लेखक ने इस संबंध में ‘बाइबिल’ की भविष्यवाणी का मुकाबला ‘पिरामिड’ के भविष्य-दर्शन से करके यह नतीजा निकाला है कि ये ‘शैतानी-साम्राज्य’ कितना भी हाथ-पैर पीटें, सन् 1978 तक इनका पूर्णतया अन्त होना सुनिश्चित है। उसके पश्चात् दैवी-राज्य आरम्भ होगा, जो सन्तजनों द्वारा संचालित होगा। तब कलियुग की पाप और पाखण्डपूर्ण परिस्थितियाँ मिट कर संसार में ऐसा जमाना आयेगा जिसे ‘धर्म-राज्य’ या ‘राम-राज्य’ भी कह सकते हैं।

इस समय संसार में पारस्परिक संघर्ष और आपाधापी की प्रवृत्ति जिस प्रकार चारों तरफ फैली हुई है और विशेष कर हमारे देश में हम भ्रष्टाचार का जैसा बोलबाला देख रहे हैं, उससे दैवी चिन्हों को न समझने वाले व्यक्तियों को सहज में यह विश्वास नहीं होता कि दस वर्ष के भीतर इसका अन्त हो सकेगा। इसके विपरीत इस समय तो व्यक्तियों तथा राष्ट्रों की दूषित वृत्तियाँ और भी तीव्रतर होती जा रही हैं और सज्जन पुरुषों का जीवन-निर्वाह हो सकना दिन-पर-दिन कठिन होता जाता है। ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं है। जब किसी महादुष्ट और अत्याचारी का अन्त होने लगता है तो वह क्रोध से पागल होकर जितना बन पड़ता है उतना ही संहार, मार-काट, उपद्रव और दमन करने पर उतारू हो जाता है। रावण, कंस, दुर्योधन आदि का इतिहास हमको यह बतलाता है कि जब वे नष्ट होने लगे तो उन्होंने अपनी पूरी शक्ति लगा कर छल-बल, माया, क्रूरता का आश्रय लेकर दैवी शक्तियों को नष्ट करने की हर तरह से चेष्टा की। उसी समय उनका अन्त हो गया और उसके बाद एक न्याय और नीति-युक्त नया-जमाना शुरू हुआ।

जैसा हम जुलाई 1967 के अंक में लिख चुके हैं ऐसे विश्वव्यापी परिवर्तन एक दिन में नहीं हो जाते और न बाजार में बैठ कर व्यक्तियों की जन्म-कुण्डली के आधार पर भविष्यफल बतलाने वाले ज्योतिषियों की तरह राजनैतिक और सामाजिक परिवर्तनों की ठीक-ठीक तारीख निश्चित की जा सकती है। ऐसे प्रश्नों को पूछने वाले और उनको डडडड देने वाले प्रायः अल्पज्ञानी और कौतूहल की प्रवृत्ति डडडड व्यक्ति होते है। हमारे शास्त्रों में युग परिवर्तन का डडडड करते हुए प्रत्येक दो युगों के बीच में जो ‘संध्या’ डडडड ‘संध्यांश’ के रूप में प्रति एक हजार वर्ष पर सौ वर्ष डडडड समय निर्धारित कर दिया है, उसका आशय यही है डडडड एक जमाने को बदल कर दूसरा जमाना शुरू होते डडडड अवश्य ही कुछ समय तक विशेष अशांति और हलचल डडडड परिस्थिति रहेगी, जिसमें लोगों को पहले की अपेक्षा डडडड अधिक कष्ट सहन करने पड़ेंगे। बिना इस डडडड में गुजरे हुए किसी बड़े परिवर्तन की आशा है।

भविष्यवाणियों का सारांश-

जुलाई 1967 के अंक में हमने जो प्राचीन डडडड वाणियाँ दी हैं, वे सब आध्यात्मिक दृष्टि वाले ज्ञानी साधकों की हैं, जिन्होंने अपने समय में अन्याय अत्याचारों से त्रस्त मानवता को आश्वासन देने के लिये बताया था कि ऐसा समय सदा नहीं रहेगा। दुष्टता की शक्तियों का अवश्य ही अन्त होगा और सत्य तथा न्याय का जमाना आकर सर्व-साधारण की हालत में एक बिल्कुल नया परिवर्तन हो जायेगा, जिसे वर्तमान स्थिति के मुकाबले में ‘स्वर्गीय’ कहा जा सकता है। पर इन सबने किसी खास सन् या सम्वत् की बात न कह कर शताब्दी का ही उल्लेख किया है, क्योंकि ऐसा परिवर्तन अनेक वर्षों तक संघर्ष और प्रयत्न करने के पश्चात ही हो सकता है।

हमने बहुत वर्षों पहले पंजाब प्रान्त में प्रचलित एक भविष्य संबंधी कहावत सुनी थी कि “जब आवे सम्वत् बीसा-मुस्लिम रहे न ईसा।” इसका जिक्र जब हमने सन् 1940 में अपने ‘सतयुग’ पत्र में किया तो अनेक लोग उस समय के शक्तिशाली अंग्रेजी राज्य को देखते हुए, हँसते और अविश्वास करते थे। पर सात-आठ वर्ष के भीतर ही चक्र घूमा और अंग्रेजी राज्य समाप्त होकर ‘स्वराज्य’ आ गया और वह कहावत आज और भी पूरी तरह सत्य होती जान पड़ती है। इस समय पश्चिमी एशिया में अरब देशों और इसराइल में जो संघर्ष आरम्भ हुआ है, उससे आक्रमणकारी ईसाई और मुस्लिम शक्तियों की क्या दशा हो जायेगी, इसका अनुमान कर सकना अब किसी समझदार व्यक्ति के लिये कठिन नहीं है। सम्वत् 2000 के पच्चीस वर्षों में ही जो परिवर्तन हो गये हैं, वे सामान्य जनता की कल्पना से बाहर थे। अब अगले दस वर्षों में संसार में से अन्याय मूलक दुष्ट-शक्तियों का अन्त हो जाना विचारशील व्यक्तियों को सर्वथा सम्भव दिखाई दे रहा है। जब इस सम्भावना को हम प्राचीन अध्यात्म वेत्ताओं और वर्तमान समय के राजनीति के ज्ञाताओं के कथनों से भी सम्भव होता देखते हैं, तो युग-परिवर्तन के संबंध में हमारा मत और भी दृढ़ हो जाता है।

‘पैरेकैलस’ की भविष्यवाणी-

सन् 1530 में योरोप के पैरेकैलस नामक ज्ञानी व्यक्ति ने भविष्य में होने वाले परिवर्तनों और घटनाओं के संबंध में एक ग्रन्थ प्रकाशित कराया था। उसके 28 वें डडडड में कहा गया है कि “इस समय कोई भी पाँच व्यक्ति (पंच) मिल एक सम्मति से कोई निर्णय न कर सकेंगे। इसलिये स्वयं ही भविष्य के चिन्ता करनी चाहिये। वह ‘बयालीस’ के थोड़ा इधर या उधर आयेगा और जैसी उसकी मर्जी होगी, वैसा ही करेगा।” 29 वीं संख्या में कहा गया हैं- ‘‘तब ऐसा समय आयेगा कि हरेक को अपने चरागाह (क्षेत्र) के भीतर हाँक दिया जायेगा, क्योंकि दूसरे के खेत में घुसने से ही संसार में झगड़ा-फसाद और कष्टों की उत्पत्ति होती है। जैसे ही सब लोग अपने-अपने ‘बाड़े’ में रहने लगेंगे एकता पैदा हो जायेगी।” संख्या 31 में खेलते हुए बच्चों का उल्लेख है, जिसका आशय एक सार्वभौम धर्म में सबका मिल-जुल कर प्रेम से रहने से है। संख्या 32 के अनुसार “पूर्व दिशा का पुरातन सोने वाला (होरी स्लीपर आफ दी ईस्ट) फिर से जागृत हो जायेगा और 24 वर्ष तक कार्य करके फिर विश्राम करने लग जायेगा।”

इस भविष्य कथन में जो 42 वर्ष कहे गये हैं, गूढ़ विद्या (ऑकल्ट साइंस) के अनुसार उनका आशय 420 वर्ष से होता है। इनको 1530 में जोड़ने से 1950 सन् प्राप्त होता है, जिससे ‘कुछ पीछे और कुछ आगे’ नये युग के आगमन की घोषणा की गई थी। इस दृष्टि से प्रथम भविष्यवाणी में बतलाया 1978 का सन् सही सिद्ध होता है।

‘पिरामिड’ की गणित-ज्योतिष-

यह तो सभी जानते हैं कि मिश्र के बड़े पिरामिड (गिजा का पिरामिड) की गणना संसार के सुप्रसिद्ध सात आश्चर्यों (सेविन वन्डर्स) में की जाती है। यद्यपि मिश्र के रेगिस्तानी क्षेत्र में बने इस महाविशाल ‘स्मारक’ के बारे में हम भारतवासी बहुत कम जानते हैं, पर यह तो प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है कि संसार में अभी तक इससे अधिक बड़ा और सुदृढ़ ‘स्तूप’ या ‘स्मारक’ मनुष्यों ने दूसरा कोई नहीं बनाया। यह एक गोल और नोकीले चबूतरे के रूप में बड़ी ऊंचाई तक चला गया है और इसमें इतना पत्थर लगा हैं, जिससे एक बड़ा शहर बनाया जा सकता है। इस पर भी विशेषता यह है कि जहाँ पर यह बनाया गया है, वह बालुकामय क्षेत्र है, जहाँ सैकड़ों मील तक पत्थर का नाम-निशान भी नहीं है। अतः यह पत्थर बड़ी दूर समुद्र पार से लाया गया है। दूसरी विशेषता यह है कि यह संसार की सबसे प्राचीन इमारत है, जिसे बने लगभग 6-7 हजार वर्ष हो गये।

खोज करने वालों का कहना है कि ‘पिरामिड’ की रचना खगोल-विज्ञान और गणित-शास्त्र के ऐसे सर्वोच्च सिद्धान्तों के अनुसार की गई है कि उससे आकाशस्थ ग्रहों की चाल तथा उसके आधार पर मानव-सभ्यता के इतिहास की मुख्य-मुख्य घटनाओं का ठीक पता लग जाता है। इसका वर्णन करते हुए सुप्रसिद्ध यूरोपियन ज्योतिषी ‘कीरो’ ने लिखा था-

“जो व्यक्ति इस ‘पिरामिड’ को सामान्य रूप से भी देखता है, उसे यह विदित हो जाता है कि इस अद्भुत रचना के पीछे अवश्य कोई दैवी-योजना या उद्देश्य है। वास्तव में यह योजना यहूदी जाति से संबंधित है और इसमें उस जाति के आगामी इतिहास की मुख्य-मुख्य घटनाओं का संकेत, उसके मध्य में बने गुप्त तहखानों और कमरों की नाप-जोख के रूप में कर दिया गया है।

पिरामिड की गणित-ज्योतिष संबंधी विशेषताओं के संबंध में योरोप के बड़े-बड़े विद्वान प्रोफेसरों ने पचासों बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे हैं, जिनका सारांश यह है कि इसके रचयिता ने आकाशस्थ मुख्य ग्रहों की गति के हिसाब से आगामी कई हजार वर्ष तक होने वाले युग परिवर्तन संबंधी घटनाओं का रहस्य इसमें भर दिया है। उससे कई विद्वानों ने यह नतीजा निकाला कि ‘पार्थिक व साम्राज्यों’ का समय उन्नीसवीं सदी में समाप्त हो जायेगा और बीसवीं सदी विशेषतः सन् 1910 से 1980 तक सत्तर वर्ष के समय का समय दो युगों के बीच का मध्यकाल होगा, जिसमें हलचल और संघर्ष अपनी चरम सीमा पर पहुँच जायेगा और उसके पश्चात शांति स्थापित होकर नये युग की स्थापना का कार्यारम्भ हो जायेगा, जो सन् 2980 तक (एक हजार वर्ष) कायम रहेगा। अगर पाठकों ने इच्छा प्रकट की तो हम ‘पिरामिड’ से प्रकट होने वाले भविष्य संबंधी ज्ञान के संबंध में एक ट्रैक्ट आगे चलकर प्रकाशित करेंगे।

‘सहस्र वर्ष’ व्यापी परिवर्तन-

सन् 1900 और 2000 के बीच के सौ वर्षों में संसार में भयंकर उथल पुथल होगी, यह बात भावी-परिवर्तनों पर विचार करने वाले अनेक विद्वानों तथा अध्यात्मिक साधना करने वाले महात्माओं ने बहुत पहले से कह दी है। हमारे यहाँ महात्मा सूरदास के नाम से जो भविष्यवाणी जनता में प्रसिद्ध है, वह चाहे किसी और की भी कही हुई क्यों न हो, पर सौ दो सौ वर्ष से प्रचलित ही है। उसमें 1900 के पश्चात महान संघर्ष होकर नये युग की सूचना है कि “सहस्र वर्ष लों सतयुग बीते धर्म की बेल बढ़ें।” इसी प्रकार महाराज छत्रसाल के गुरु स्वामी प्राणनाथ जी ने जो औरंगजेब के समय में हुए थे स्पष्ट कहा है- ‘‘बीसा सौ बरसें होसी वैराट सचराचर।” अर्थात् सम्वत् 2000 में भगवान की विराट लीला प्रकट हो जायेगी और ‘तलवार उठसी सब जहान्’ अर्थात्- समस्त संसार में घोर रक्तपात होकर ‘धर्मयुग’ की स्थापना होने लग जायेगी।

हमारा आशय यह नहीं कि सभी भविष्यवाणियाँ जो जनता में प्रचलित हो जाती हैं, ठीक ही मानना चाहिये। पर जिनके पूरा होने की संभावना हमको वर्तमान समय में प्रकट लक्षणों से दिखाई दे रही है, उन पर ध्यान देकर अगर सावधान हुआ जाय तो इसे अनुचित नहीं कहा जा सकता। तो हम आपको बतलाना चाहते हैं कि जो अनुमान हमने प्राचीन भविष्यवाणियों से निकाले हैं, वही बात यूरोप के विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले विद्वान जिन्होंने कभी प्राचीन भविष्यवाणियों का एक अक्षर भी नहीं पढ़ा या सुना होगा, वर्तमान स्थिति की जाँच और अध्ययन करके कह रहे हैं कि अब संसार में ऐसे भयंकर अकाल और महामारियाँ फैलने वाली हैं, जिनसे प्रति वर्ष करोड़ों लोगों का खात्मा हो जायेगा। यह भविष्य कथन दिल्ली से प्रकाशित 10 मई 1968 के ‘नवभारत टाइम्स’ पृष्ठ पर छपा है-

‘लन्दन, 9 मई। दुनिया में खाद्यान्न की स्थिति का अध्ययन करने वाले अनुसन्धानकर्ता दो विद्वान- डब्ल्यू. पैडक और पी. पैडक” ने “1975 का दुर्भिक्ष” नामक अपनी नई पुस्तक में लोगों को यह चेतावनी दी कि 1 वर्ष के भीतर दुनिया में अन्न का जो अभाव होगा उसका सबसे अधिक प्रभाव पड़ेगा समस्त एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमरीका पर।

“इन दोनों विद्वानों का मत है कि खेती-बाड़ी की आधुनिक विधियां तथा जनसंख्या बढ़ना रोकने के वैज्ञानिक उपाय भी अकाल का पड़ना नहीं रोक सकते। फिर दुर्भिक्ष के दो सौतेले भाई- रोग और सामाजिक अव्यवस्था अगले दो दशकों के अन्दर समग्र भूमण्डल को उदरस्थ कर लेंगे।”

“इन विद्वानों ने यह भविष्यवाणी दो बातों को ध्यान में रख की हैं। पहली बात यह कि इस सदी के आखिर तक दुनिया की आबादी दुगुनी हो जायेगी और प्रति व्यक्ति अन्नोत्पादन का परिमाण लगातार घटता चला जायेगा। इन दोनों बातों में जो जनसंख्या बढ़ने की दलील दी गई है, उसका खण्डन करना असंभव दीखता है। दुनिया में कोई भीषण महामारी फैल कर वर्ष में करोड़ों लोग काल कवलित होते रहें तभी जनसंख्या का बढ़ना रुक सकता है।”

यद्यपि इस समय मानव-जाति ने ज्ञान-विज्ञान में बहुत कुछ उन्नति कर ली है, पर उसका प्रयोग सामाजिक नियंत्रण के लिये बहुत कम किया जा सकता है। अब भी समाज की अवस्था एक जंगल की-सी है, जहाँ जो अधिक बलवान या चालाक होता है वही अपने से कमजोर को भक्ष्य बना लेता है। दूसरी बात यह है कि समाज के संचालकों ने इस बात पर कभी ध्यान नहीं दिया कि समाज में मनुष्यों की वृद्धि तथा पदार्थों के उत्पादन का अनुपात सुव्यवस्थित रखा जाय। जब तक सामान्य जनता में शिक्षा और संसार की जानकारी का प्रचार नहीं हुआ था, लोग इस परिस्थिति को स्वाभाविक मान कर सहन करते रहते थे, पर अब वे इसे अन्याय मान कर समाज विरोधी कार्य करने लगते हैं। इससे देश के भीतर तथा आगे चल कर अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी अशांति फैलती है और युद्धों तथा मारकाट के दृश्य उपस्थित होते हैं।

इस परिस्थिति का ज्ञान अध्यात्म-शक्ति सम्पन्न व्यक्तियों ने आकाशस्थ चिन्हों तथा अपने अन्तर्ज्ञान से बहुत पहले प्राप्त कर लिया था और उन्हीं के बतलाये चिन्हों तथा घटनाओं को आज हम सत्य होता देख रहे हैं। इस समय जान तो ऐसा पड़ता है कि इस महाभयंकर संग्राम (1970 से 1980) में मानव-सभ्यता चूर-चूर ही हो जायेगी, पर परम


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