विचारों का महत्व और प्रभुत्व

June 1968

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मनुष्य के हर विचार का एक निश्चित मूल्य तथा प्रभाव होता है। यह बात रसायन-शास्त्र के नियमों की तरह प्रामाणिक है। व्यापारिक सफलता, असफलता, संपर्क में आने वाले दूसरे लोगों से मिलने वाले सुख-दुःख का आधार विचार ही माने गये हैं। विचारों को जिस दिशा में उन्मुख किया जाता है, उस दिशा के तदनुकूल तत्व आकर्षित होकर मानव मस्तिष्क में एकत्र हो जाते हैं।

सारी सृष्टि में एक सर्वव्यापी जीवन-तरंग आंदोलित हो रही है। प्रत्येक मनुष्य के विचार उस तरंग में सब ओर प्रवाहित होते रहते है, जो उस तरंग के समान ही सदाजीवी होते हैं। वह एक तरंग ही समस्त प्राणियों के बीच से होती हुई बहती है। जिस मनुष्य की विचार-धारा जिस प्रकार की होती, जीवन-तरंग में मिले वैसे विचार उसके साथ मिल कर उसके मानस में निवास बना लेते हैं। मनुष्य का एक दूषित अथवा निर्दोष विचार अपने मूलरूप में एक ही रहेगा ऐसा नहीं। वह सर्वव्यापी जीवन तरंग से अनुरूप अन्य विचारों को आकर्षित कर उन्हें अपने साथ बसा लेगा और इस प्रकार अपनी जाति की वृद्धि कर लेगा।

मनुष्य का समस्त जीवन उसके विचारों के साँचे में ही ढलता है। सारा जीवन आन्तरिक विचारों के अनुसार ही प्रकट होता है। कारण के अनुरूप कार्य के समान ही प्रकृति का यह निश्चित नियम है कि मनुष्य जैसा भीतर होता है, वैसा ही बाहर। मनुष्य के भीतर की उच्च अथवा निम्न स्थिति का बहुत कुछ परिचय उसके बाह्य स्वरूप को देख कर पाया जा सकता है। जिसके शरीर पर अस्त-व्यस्त, फटे-चीथड़े और गन्दगी दिखलाई दे, समझ लीजिये कि यह मलीन विचारों वाला व्यक्ति है, इसके मन में पहले से ही अस्त-व्यस्तता जड़ जमाये बैठी है।

विचार-सूत्र से ही आन्तरिक और बाह्य-जीवन का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। विचार जितने परिष्कृत, उज्ज्वल और दिव्य होंगे, अन्तर भी उतना ही उज्ज्वल तथा दैवी सम्पदाओं से आलोकित होगा, जिसका प्रकाश बाह्य द्वारा सम्पादित स्थूल कार्यों में प्रकट होगा। जिस कलाकार अथवा साहित्यकार की भावनायें जितनी ही प्रखर और उच्चकोटि की होंगी उनकी रचना भी उतनी ही उच्च और उत्तम कोटि की होगी।

भावनाओं और विचारों का प्रभाव स्थूल शरीर पर पड़े बिना नहीं रहता। बहुत समय तक प्रकृति के इस स्वाभाविक नियम पर न तो विश्वास किया गया और न उपयोग। लोगों को इस विषय में जरा भी चिन्ता नहीं थी कि मानसिक स्थितियों का प्रभाव बाह्य स्थिति पर पड़ सकता है और आन्तरिक जीवन का कोई सम्बन्ध मनुष्य के बाह्य जीवन से हो सकता है। दोनों को एक दूसरे से पृथक मान कर गतिविधि चलती रही। आज जो शरीर-शास्त्री अथवा चिकित्सक यह मानने लगे हैं कि विचारों का शारीरिक स्थिति से बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है, वे पहले बहुत समय तक औषधियों जैसी जड़-वस्तुओं का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है- इसके प्रयोग पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किये रहे।

इससे वे चिकित्सा के क्षेत्र में आन्तरिक स्थिति का लाभ उठाने के विषय में काफी पिछड़ गये। चिकित्सक अब धीरे-धीरे इस बात का महत्व समझने और चिकित्सा में मनोदशाओं का समावेश करने लगे हैं। मानस चिकित्सा का शास्त्र ही अलग बनता और विकास करता चला जा रहा। अनुभवी लोगों का विश्वास है कि यदि वह मानस-चिकित्सा-शास्त्र पूरी तरह विकसित और पूर्ण हो गया तो कितने ही रोगों में औषधियों के प्रयोग की आवश्यकता कम हो जायेगी। लोग अब यह बात मानने के लिए तैयार हो गये हैं कि मनुष्य के अधिकाँश रोगों का कारण उसके विचारों तथा मनोदशाओं में निहित रहता है। यदि उनको बदल दिया जाये तो वे रोग बिना औषधियों के ही ठीक हो सकते हैं। वैज्ञानिक इसकी खोज, प्रयोग तथा परीक्षण में लगे हुये हैं।

शरीर-रचना के सम्बन्ध में जाँच करने वाले एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने अपनी प्रयोगशाला में तरह-तरह के परीक्षण करके यह निष्कर्ष निकाला है कि मनुष्य का समस्त शरीर अर्थात् हड्डियां, माँस, स्नायु आदि मनुष्य की मनोदशा के अनुसार एक वर्ष में बिल्कुल परिवर्तित हो जाते हैं और कोई-कोई भाग तो एक-दो सप्ताह में ही बदल जाते हैं।

इसमें सन्देह नहीं कि चिकित्सा के क्षेत्र में मानसोपचार का बहुत महत्व है। सच बात तो यह है कि आरोग्य प्राप्ति का प्रभावशाली उपाय आन्तरिक स्थिति का अनुकूल प्रयोग ही है। औषधियों तथा तरह-तरह की जड़ी बूटियाँ का उपयोग कोई स्थायी लाभ नहीं करता, उनसे तो रोग के बाह्य लक्षण दब भर जाते हैं। रोग का मूल कारण नष्ट नहीं होता। जीवनी-शक्ति जो आरोग्य का यथार्थ आधार है, मनोदशाओं के अनुसार बढ़ती-बढ़ती रहती है। यदि रोगी के लिये ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी जाये कि वह अधिक-से-अधिक प्रसन्न तथा उल्लसित रहने लगे, तो उसकी जीवन-शक्ति बढ़ जायेगी, जो अपने प्रभाव से रोग को निर्मूल कर सकती है।

बहुत बार देखने में आता है कि डाक्टर रोगी के घर जाता है, और उसे खूब अच्छी तरह देख-भाल कर चला जाता है। कोई दवा नहीं देता। तब भी रोगी अपने को दिन भर भला-चंगा अनुभव करता रहता है। इसका मनोवैज्ञानिक कारण यही होता है कि वह बुद्धिमान डाक्टर अपने साथ रोगी के लिये अनुकूल वातावरण लाता है और अपनी गतिविधि से ऐसा विश्वास छोड़ जाता है कि रोगी की दशा ठीक है, दवा देने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है। इससे रोगी तथा रोगी के अभिभावकों का यह विचार दृढ़ हो जाता है कि रोग ठीक हो रहा है। विचारों का अनुकूल प्रभाव जीवन-तत्व को प्रोत्साहित करता और बीमार की तकलीफ कम हो जाती है।

कुछ समय पूर्व कुछ वैज्ञानिकों ने इस सत्य का पता लगाने के लिये कि क्या मनुष्य के शरीर पर आन्तरिक भावनाओं का कोई प्रभाव पड़ता है, एक परीक्षण किया। उन्होंने विभिन्न प्रवृत्तियों के आदमियों को एक कोठरी में बन्द कर दिया। उनमें से कोई क्रोधी, कोई विषयी और कोई नशों का व्यसनी था। थोड़ी देर बाद गर्मी के कारण उन सबको पसीना आ गया। उनके पसीने की बूंदें लेकर अलग-अलग विश्लेषण किया गया। और वैज्ञानिकों ने उनके पसीने में मिले रासायनिक तत्वों के आधार उनके स्वभाव घोषित कर दिये जो बिल्कुल ठीक थे।

मानसिक दशाओं अथवा विचार-धाराओं का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका एक उदाहरण बड़ा ही शिक्षा-प्रद है- एक माता को एक दिन किसी बात पर बहुत क्रोध हो गया। पाँच मिनट बाद उसने उसी आवेश की अवस्था में अपने बच्चे को स्तनपान कराया और एक घण्टे के भीतर बच्चे की हालत खराब हो गई और उसकी मृत्यु हो गई। शव परीक्षा के परिणाम से विदित हुआ कि मानसिक क्षोभ के कारण माता का रक्त तीक्ष्ण परमाणुओं से विषैला हो गया और उसके प्रभाव से उसका दूध भी विषाक्त हो गया था, जिसे पी लेने से बच्चे की मृत्यु हो गई।

यही कारण है कि शिशु-पालन के नियमों में माता में परामर्श किया गया है कि बच्चे को एकान्त में तथा निश्चिंत एवं पूर्ण प्रसन्न मनोदशा में स्तनपान करायें। क्षोभ अथवा आवेग की दशा में दूध पिलाना बच्चे के स्वास्थ्य तथा संस्कारों के लिए हानिकारक होता है। जिन माताओं के दूध पीते बच्चे, रोगी, रोने, चिड़-चिड़े अथवा क्षीणकाय होते हैं, उसका मुख्य कारण यही रहता है कि वे मातायें स्तनपान के वाँछित नियमों का पालन नहीं करतीं अन्यथा वह आयु तो बच्चों के ताजे तन्दुरुस्त होने की होती है। मनुष्य के विचारों का शरीर की अवस्था से बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। यह एक प्राकृतिक नियम है।

इस नियम की वास्तविकता का प्रमाण कोई भी अपने अनुभव के आधार पर पा सकता है। वह दिन याद करें कि जिस दिन कोई दुर्घटना देख हो। चाहे उस दुर्घटना का सम्बन्ध अपने से न रहा हो तब भी उसे देख कर मानसिक स्थिति पर जो प्रभाव पड़ा उसके कारण शरीर सन्न रह गया, चलने की शक्ति कम हो गई, खड़ा रहना मुश्किल पड़ गया, शरीर में सिहरन अथवा कंपन पैदा हो गयी, आंसू आ गये अथवा मुख सूख गया। उसके बाद भी जब-जब उस भयंकर घटना का विचार मस्तिष्क में आता रहा शरीर पर बहुत बार उसका प्रभाव होता रहा।

विचारों के अनुसार ही मनुष्य का जीवन बनता-बिगड़ता रहता है। बहुत बार देखा जाता है कि अनेक लोग बहुत समय तक लोकप्रिय रहने के बाद बहिष्कृत हो जाया करते हैं, बहुत से दुकानदार पहले तो उन्नति करते रहते हैं, फिर बाद में उनका पतन हो जाता है। इसका मुख्य कारण यही होता है कि जिस समय जिस व्यक्ति की विचार-धारा शुद्ध, स्वच्छ तथा जनोपयोगी बनी रहती है और उसके कार्यों की प्रेरणा स्त्रोत बनी रहती है, वह लोकप्रिय बना रहता है। किन्तु जब उसकी विचार-धारा स्वार्थ, कपट अथवा छल के भावों से दूषित हो जाती है तो उसका पतन हो जाता है। अच्छा माल देकर और उचित मूल्य लेकर जो व्यवसायी अपनी नीति ईमानदारी और सहयोग की रखते हैं, वे शीघ्र ही जनता का विश्वास जीत लेते हैं, और उन्नति करते जाते हैं। पर ज्योंही उसकी विचार-धारा में गैर-ईमानदारी, शोषण और अनुचित लाभ के दोषों का समावेश हुआ नहीं कि उनका व्यापार ठप्प होने लगता है। इसी अच्छी-बुरी विचार-धारा के आधार पर न जाने कितनी फर्मे और कम्पनियाँ नित्य ही उठती गिरती रहती हैं।

विचार-धारा में जीवन बदल देने की कितनी शक्ति होती है, इसका प्रमाण हम महर्षि बाल्मीकि के जीवन में पा सकते हैं। महर्षि बाल्मीकि अपने प्रारम्भिक जीवन में रत्नाकर डाकू के नाम से प्रसिद्ध थे। उनका काम राहगीरों को मारना, लूटना और उससे प्राप्त धन से परिवार का पोषण करना था। एक बार देवर्षि नारद को उन्होंने पकड़ लिया। नारद ने रत्नाकर से कहा कि तुम यह पाप क्यों करते हो? चूँकि वे उच्च एवं निर्विकार विचारधारा वाले थे, इसलिये रत्नाकर डाकू पर उनका प्रभाव पड़ा, अन्यथा भय के कारण किसी भी वंचित व्यक्ति ने उसके सामने कभी मुख तक नहीं खोला था। उसका काम तो पकड़ना, मार डालना और पैसे छीन लेना था, किसी के प्रश्नोत्तर से उसका कोई सम्बन्ध नहीं था। किन्तु उसने नारद का प्रश्न सुना और उत्तर दिया- ‘‘अपने परिवार का पोषण करने के लिये।”

नारद ने पुनः पूछा कि “जिनके लिये वह इतना पाप कमा रहता है, क्या वे लोग पाप में भागीदार बनेंगे।” रत्नाकर की विचार-धारा आँदोलित हो उठी, और वह नारद को वृक्ष से बाँध कर घर गया और परिजनों से नारद का जिक्र किया और दूसरे प्रश्न का उत्तर पूछा। सबने एक स्वर से निषेध करते हुए कह दिया कि हम सब तो तुम्हारे आश्रित हैं। हमारा पालन करना तुम्हारा कर्तव्य है, अब उसके लिये यदि तुम पाप करते हो तो इससे हम लोगों का क्या मतलब? अपने पाप के भागों तुम खुद होंगे।

परिजनों का उत्तर सुन कर रत्नाकर की आंखें खुल गईं। उसकी विचारा-धारा बदल गई और नारद के पास आकर दीक्षा ली और तप करने लगे। आगे चल कर वही रत्नाकर डाकू महर्षि बाल्मीकि बने और रामायण महाकाव्य के प्रथम रचयिता। विचारों की शक्ति इतनी प्रबल होती है कि देवता हो राक्षस और राक्षस को देवता बना सकती है।

जिस प्रकार उपयोगी, स्वस्थ और सात्विक विचार जीवन की सुखी व संतुष्ट बना देते हैं। उसी प्रकार क्रोध, काम और ईर्ष्या-द्वेष के विषय से भरे विचार जीवन को जीता जागता नरक बना देते हैं। स्वर्ग-नरक का निवास अन्यत्र कहीं नहीं मनुष्य की विचार-धारा में रहता है। देवताओं जैसे शुभ उपकारी विचार वाला मन की स्वर्गीय स्थिति और आसुरी विचारों वाला व्यक्ति नरक जैसी स्थिति में निवास करता है। दुःख अथवा सुख की अधिकाँश परिस्थितियाँ तथा पतन-उत्थान की अधिकाँश अवस्थायें मनुष्य की अपनी विचार-धारा पर बहुत कुछ निर्भर रहती हैं। इसलिये मनुष्य को अपनी विचार-धारा के प्रति सदा सावधान रह कर उन्हें शुभ तथा माँगलिक दिशाओं में ही प्रेरित करते रहना चाहिये।


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