धर्म और सम्प्रदाय

June 1968

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

“इतने हमारे, बाकी हमारे नहीं” जब वह अलगावन वाली बात आ जाती है तब धर्म-अधर्म बन जाता है।

बिनोवा ने एक दफा बड़े मजे की बात कही थी। किसी ने उनसे पूछा- ‘‘आप महाराष्ट्रीय ब्राह्मण हैं? कोकणस्थ हैं या देशस्थ?” उन्होंने कहा- ‘‘मैं देश में रहता हूँ इसलिए देशस्थ हूँ। काया में रहा हूँ इसीलिये कायस्थ हूं और सबसे आखिर में मैं ‘स्वस्थ’ हूँ, तो सब कुछ हूँ। ऐसा ही आप मुझसे क्यों पूछते? मैं हिन्दू हूँ? इसलिए मुसलमान ऐसा नहीं है। मैं हिन्दुस्तान में रहता हूँ इसलिए तुर्किस्तान मैं नहीं हूँ, ऐसा नहीं है। हरिजन आश्रम में हूँ, इसलिए अहमदाबाद व गुजरात में नहीं हूँ, ऐसा नहीं है।”

धर्म में व्यापक वृत्ति होती है, धर्म आप सम्प्रदाय संकीर्ण होता है। हम कह चुके हैं विचार जब मिट जाता है, तो उसका सम्प्रदाय बन जाता है। धर्म में संकीर्णता सम्प्रदायों में संघर्ष होता है, धर्म संघर्ष के लिए नहीं है। मनुष्य से मनुष्य को मिलाने के लिए है

पूछा जायेगा कि अधर्म क्यों, धर्म के रूप में आता है? बात साफ है, आयेगा तो भगवान के नाम से ही आयेगा। शैतान का अपना स्वरूप इतना भद्दा है कि वह भगवान का ही नाम-रूप लेगा। इसलिए दुनिया धर्म है। जिनके कारण विरोध होता है, सत्य नहीं होता है, वे सब अधर्म है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118