आस्तिकता का सच्चा स्वरूप

August 1966

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‘ईश्वर है’—केवल इतना मान लेना मात्र ही आस्तिकता नहीं है। ईश्वर की सत्ता में विश्वास कर लेना भी आस्तिकता नहीं है। क्योंकि आस्तिकता विश्वास नहीं अपितु एक अनुभूति है।

‘ईश्वर है’ यह बौद्धिक विश्वास है। ईश्वर को अपने हृदय में अनुभव करना, उसकी सत्ता को संपूर्ण सचराचर जगत् में ओत-प्रोत देखना और उसकी अनुभूति से रोमाँचित हो उठना ही सच्ची आस्तिकता है। आस्तिकता की अनुभूति ईश्वर की समीपता का अनुभव कराती है। आस्तिक व्यक्ति जगत को ईश्वर में, और ईश्वर को जगत में, ओत-प्रोत देखता है। वह ईश्वर को अपने से और अपने को ईश्वर से भिन्न अनुभव नहीं करता। उसके लिये जड़-चेतनमय सारा संसार ईश्वर रूप ही होता है। वह ईश्वर के अतिरिक्त किसी भिन्न सत्ता अथवा पदार्थ का अस्तित्व ही नहीं मानता।

प्रायः जिन लोगों को धर्म करते देखा जाता है उन्हें आस्तिक मान लिया जाता है। यह बात सही है कि आस्तिकता से धर्म प्रवृत्ति का जागरण होता है। किन्तु यह आवश्यक नहीं कि जो धर्म-कर्म करता हो वह आस्तिक भी हो। अनेक लोग प्रदर्शन के लिये भी धर्म कार्य किया करते हैं। वे ईश्वर के प्रति अपना विश्वास, श्रद्धा तथा भक्ति को व्यक्त भी किया करते हैं। किन्तु उनकी वह अभिव्यक्ति मिथ्या एवं प्रदर्शन भर ही हुआ करती है—ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार लोग आवश्यकता, परिस्थिति, शिष्टाचार अथवा स्वार्थवश किसी के प्रति भाव न होने पर भी स्नेह, प्रेम, श्रद्धा अथवा भक्ति दिखाया करते हैं।

आस्तिकता से उत्पन्न धर्म में प्रदर्शन सम्भव नहीं। जो अणु-अणु में ईश्वर की उपस्थिति अनुभव करता है, उससे प्रेम रखता है वह मिथ्या प्रदर्शन का साहस कर ही नहीं सकता। जो उस प्रेमास्पद सर्व शक्तिमान को ही अन्दर बाहर सब जगह विद्यमान देखता है वह उसके लिये किसी अप्रिय व्यवहार को किस प्रकार कर सकता है? वह उसके अप्रसन्न हो जाने का भय मानेगा। सच्चे धार्मिक जिनकी धार्मिकता का जन्म आस्तिकता से होता है स्वतः धर्माचरण में प्रवृत्त रहते हैं, उन्हें प्रयत्न-पूर्वक वैसा करने की आवश्यकता नहीं होती। उनका प्रत्येक कार्य, प्रत्येक व्यवहार धर्मसम्मत एवं उसी से प्रेरित होता है। जीव मात्र को आत्मवत् तथा सम्पूर्ण जगत को परमात्मा का रूप मानने वाले धर्मात्मा से असंगत, अनुचित अथवा अकरणीय कार्य होना सम्भव नहीं।

प्रदर्शनकारी धर्म ध्वजियों में आस्तिकता का विश्वास करना एक बड़ा भ्रम है। लोग इसी भ्रम के वशीभूत होकर उनकी पूजा प्रतिष्ठा तथा आदर सत्कार करने लगते हैं । वे उसे भगवान का बड़ा भक्त समझते हैं। अपनी अंध-श्रद्धा के कारण लोग धर्मध्वजियों के उन कृत्यों को नहीं देखते जो किसी भी धार्मिक के लिये सर्वथा अनुचित होते हैं। प्रातः काल दो-दो घंटे घंटी बजाने वाले बड़ी-बड़ी प्रार्थनायें करने और आसन प्राणायाम करने वाले अपने व्यावहारिक जीवन में निकृष्ट स्वार्थों एवं संकीर्णताओं का आश्रय लिया करते हैं। तनिक-तनिक बात में झूठ बोलना, एक पैसे के लिये किसी का बड़े से बड़ा अहित कर देना, सह-सामाजिकों के साथ असहयोग करना, उनसे स्पर्धा मानना और उनके प्रति ईर्ष्या द्वेष मानना, हर समय लोभ, क्रोध, मोह से प्रेरित रहना उनका दैनिक जीवन का अंग बन जाता है। ऐसे आदमी भी यदि थोड़ी देर पूजा पाठ का प्रदर्शन कर देने पर धार्मिक अथवा आस्तिक माने जा सकते हैं तो फिर यह मान लेने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये कि पूरा संसार आस्तिक है, और अपनी-अपनी तरह से धर्मात्मा भी।

एक क्षण भी धर्म कर्म न करने वाला यदि मनुष्यों का ठीक-ठीक मूल्याँकन करता है, समाज के प्रति अपने दायित्व का पालन करता है, सब को ईश्वर का रूप मानकर ईर्ष्या द्वेष नहीं रखता, जिसका हृदय प्रेम सहानुभूति तथा संवेदना से भरा है वही सच्चा धार्मिक तथा आस्तिक है। किन्तु खेद है कि लोग धार्मिकता तथा आस्तिकता के मूल तत्व न देखकर प्रदर्शन के प्रवाह में बह जाते हैं।


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