मित्रता अच्छी हैः—पर करें समझ-बूझकर

August 1966

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अन्य आवश्यकताओं की तरह मनुष्य को मित्रों की भी आवश्यकता होती है। जीवन में सर्वथा अकेला रह सकना कठिन है। भावनाओं, तथा विचारों को प्रकट करने के लिये मित्र की आवश्यकता है। मनुष्य के हृदय में अनेक भावनायें तथा विचार रहते हैं जिनको प्रकट किये बिना चैन नहीं आता। उनको सुनने और समझने वाले, ऐसे संवेदनशील व्यक्तियों की आवश्यकता अनुभव होती है जो विश्वासनीय हों और भावनाओं को ठीक से समझ सकें। ऐसा उपयुक्त व्यक्ति ही वह मित्र हो सकता है जिसके सम्मुख विश्वासपूर्वक हृदय खोला जा सके।

मित्रों का महत्व बहुत माना गया है। मित्र ही संसार में सबसे अधिक हितैषी, संवेदनशील, सच्चा सहायक तथा दुःख का समान संवाहक होते हैं। समान भावनाओं, विचारों तथा वयस्क होने से मित्र से मिलकर हार्दिक प्रसन्नता होती है। मित्रों के साथ मिलकर हंसने बोलने में अनिवर्चनीय हर्ष होता है। मित्र के संपर्क में आकर मनुष्य अपने बड़े से बड़े दुःख भूल जाता है। मित्र साहस तथा उत्साह का प्रेरक, शुभचिन्तक तथा विपथ से बचाने वाला अभिभावक होता है। सच्चे मित्र पाकर मनुष्य संसार में एकाकी अनुभव नहीं करता। मित्र मित्र की उन्नति एवं विकास में सच्चा सहायक तथा विपत्ति में हाथ बटाने वाला कहा गया है।

समान विचारों तथा भावनाओं वाले लोग मिलकर क्लब समितियाँ तथा गोष्ठियाँ बनाते हैं और एक दूसरे की सहायता, सहयोग से सामाजिक, उन्नति तथा समाज सेवा के पुण्य कार्य किया करते हैं। संसार में मित्रता के अनेक लाभ हैं और उसकी मनुष्य के लिये आवश्यकता भी है। किन्तु यह सब सम्भव तभी है जब सच्चे, शुभेच्छु, निःस्वार्थी तथा निष्कपट मित्र मिल जायें। संसार के चार-छह ऊँचे लाभों में एक मित्र लाभ भी है। विद्वानों ने शारीरिक स्वास्थ्य, पतिव्रता पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र तथा, ‘सच्चा मित्र’ मिलना जन्म-जन्म के पुण्यों का फल बतलाया है। निःसन्देह जिसको, सच्चे एवं निष्कपट मित्र मिल जायें वह बड़ा ही सौभाग्यशाली माना जायेगा।

किन्तु आज हम जिस दुर्भाग्यपूर्ण युग में निवास कर रहे हैं उसमें अधिकाँश बातें उल्टी हो गई हैं। आज अधिकतर लोग अच्छाई के नाम पर बुराई का ही पोषण करने लगे हैं। परमार्थ के नाम पर स्वार्थ सिद्धि का बोलबाला हो रहा है। जिधर देखो, पुण्य के नाम पर पाप पाला जा रहा है। करुणा, दया, सहानुभूति, संवेदना उदारता, ईमानदारी आदि गुणों की आड़ में विपरीत प्रवृत्तियों एवं अवगुणों को आगे बढ़ाया जा रहा है। लोग धर्मादा के नाम पर धन इकट्ठा करते और अपनी जेबें भरते हैं। गौओं के नाम पर भीख माँग लाते और अपने पेट में रख लेते हैं, विधवाओं, अनाथों तथा अपंगों के नाम पर सच्चों की सहानुभूति को भुनाकर धनवान बनते हैं। देश, धर्म और समाज की सेवा के नाम पर ठगते और अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। आज के स्वार्थपूर्ण समय में आदमी किस अच्छाई को किंचित लाभ के लिये नीलाम नहीं करने लगा है? आज युग के इस विपरीत प्रवाह में अच्छाइयों तथा गुणों का मूल्याँकन एवं आदर बड़ा ही भयप्रद बन गया है। इसलिये आज हर समझदार आदमी को इस बात से सावधान रहना चाहिये कि कहीं वह अच्छाई के नाम पर बुराई की वेदी पर बलिदान न हो जाये।

जिस प्रकार अन्य शुभ एवं परोपकार पूर्ण प्रवृत्तियों के नाम पर खल लोग भोले एवं भले लोगों को ठगते तथा शोषण करते हैं उसी प्रकार मित्रता के नाम पर भी अनेक लोग भावना तथा भाव-प्रवण व्यक्तियों को ठगने तथा शोषण करने को व्यावहारिक कला मानने लगे हैं। आज के प्रतिकूल युग में मनुष्य को तथाकथित मित्रों से सदा सावधान रहना चाहिये। मात्र मित्रता के नाम अथवा उसके पूर्व आदर्श की भावुकता में बहकर अपने चारों ओर मित्रवेषी वंचकों को इकट्ठा न होने देना चाहिये। इन्हीं मित्रवेषी वंचकों से घबराकर किसी अनुभवी ने ठीक ही कहा है। ‘हे परमात्मा! मुझे मित्रों से बचा, शत्रुओं से मैं अपनी रक्षा आप कर लूँगा।”

आज का मित्र मित्रता के रूप में शत्रुता का व्यवहार करता है। शत्रु से अपनी रक्षा कर लेना सरल है, किन्तु मित्र वेश में प्रच्छन्न शत्रु से रक्षा करना कठिन हो गया है। स्पष्ट होने से मनुष्य शत्रु से सावधान रह सकता है। किन्तु मित्र वेश में छिपे शत्रु से सावधान रहने की ज्यादा गुंजाइश नहीं होती। इसलिये उसे ठीक से समझने, जानने और पहचानने में धोखा नहीं होता। शत्रु की वाणी व्यवहार तथा विचार अधिकार विरुद्धता को खुले रूप में ही व्यक्त करते हैं जिससे कोई भी उन्हें जानकर उनका प्रतिकार करने का उपाय सोच सकता है। किन्तु प्रच्छन्न शत्रु-मित्र के विषय में ऐसी सम्भावना नहीं रहती। उसकी चाटुकारिता से भरी चिकनी चुपड़ी बातें सद्भावना, भ्रामक नाटकीय व्यवहार तथा अन्तरंगता से रंगे विचार, अपना यथार्थ स्वरूप समझने ही नहीं देते और कोई भी बेचारा भावुक एवं भला व्यक्ति उनके इन्द्रजाल में फँसकर मारा जाता है।

शत्रुता अच्छी चीज नहीं है फिर भी उसका निर्वाह करने के लिये साहस की अपेक्षा है। शत्रु खुल कर मैदान में आता और अपनी हर क्रिया, प्रतिक्रिया से पुकार-पुकार कर कहता है कि मैं विरोधी एवं अशुभ चिन्तक हूँ मुझ से सावधान रहने में प्रमाद न करना, अन्यथा किसी भी समय कोई हानि उठानी पड़ सकती है। किन्तु आज का स्वार्थी मित्र जिसे कमजोर एवं कायर शत्रु ही कहना चाहिये इस प्रकार का साहस नहीं दिखा पाता। वह भाई, हितैषी तथा शुभचिन्तक होने की डुग्गी पीटता और मित्रता के नाम पर हानियों में घसीटता रहता है। जब कोई कायर एवं कमजोर शत्रु अपने मलीन मन्तव्यों को पूरा नहीं कर पाता तब वह मित्रता का लबादा ओढ़कर बरबाद करने का प्रयत्न करता है। ऐसे वेशधारी मित्रों से सावधान रहने में भूल करने वाले, जीवन में अक्सर बड़ी-बड़ी हानियाँ उठाया करते हैं।

अनेक चालाक लोग अपना मतलब बनाने के लिए सम्पन्न, सुशील, सज्जन, भावुक तथा उदारमना व्यक्तियों के मित्र बन जाया करते हैं। वे उनकी कोई कमजोरी पकड़ लेते और उसी के आधार पर तरह-तरह से शोषण किया करते हैं। अपना वक्त काटने तथा मनोरंजन करने के लिये उनके पास जा पहुँचते हैं। तरह-तरह की गप मारते, चाय शर्बत, भंग आदि की अपनी हाजत पूरी करते हैं। अपनी विवशता तथा कठिनाई को अतिरंजन के साथ सामने रखकर भोले भावुक में सहानुभूति पूर्ण उदारता जगाते और अपना आर्थिक उल्लू सीधा करते हैं। अनेक चालाक लोग मित्र बनकर निर्व्यसनी व्यक्तियों को व्यसनी बना डालते हैं। कुछ दिन कुछ अपने पास से खर्च करके फिर जीवन भर उसका लाभ ब्याज के साथ उठाया और मौज उड़ाया करते हैं और इस प्रकार भोले, भावुक तथा विश्वासी व्यक्तियों को न जाने कितनी चारित्रिक तथा आर्थिक हानि पहुँचाया करते हैं। इस प्रकार की प्रवंचना वृत्ति आज अपवाद नहीं रह गई है। आज की दुष्ट दुनिया में यह चालाकी आम हो गई है। आये दिन खल व्यक्ति इसका प्रयोग करते और सज्जन व्यक्ति शिकार बनते रहते हैं जब तक कोई भावुक व्यक्ति वंचक मित्रों की स्वार्थपूर्ण चतुराई को सार्थक बनाने में समर्थ रहता है उसकी महफिल दोस्तों से आबाद रहती हैं। पर ज्यों ही उसका प्याला खाली हो जाता है तो ये तथा-कथित मित्र ऐसे छोड़ देते हैं जैसे रक्त रहित प्राणी को जोंक छोड़ देती है और वह अपनी महफिल में एकाकी बैठा हुआ अपनी उदार यारवासी पर पछताया करता है। किन्तु तब “चिड़िया चुग गई खेत” के बाद उसका पश्चाताप एक पीड़ा बनने के अतिरिक्त किसी काम नहीं आता। इसलिए मनुष्य को समय रहते ही वंचक मित्रों से अपनी रक्षा कर प्रबंध कर लेना चाहिये।

अधिकतर निकम्मे एवं निठल्ले व्यक्ति ही लोगों को मित्र बनाते फिरते हैं। उनके पास समय का सदुपयोग करने के लिये कोई योग्य काम तो होता नहीं, इसलिये निरुपयोगी एवं फालतू समय काटने के लिये स्थान तथा ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता रहती है जहाँ निःसंकोच जाकर बैठा जा सके और जिनसे अधिकारपूर्वक गप लड़ाई जा सके। संसार में सब तरह के व्यक्ति मौजूद हैं। अस्तु निठल्ले लोग भोले, भावुक तथा सहनशील लोगों को खोजकर किसी न किसी बहाने उनके मित्र बन जाते हैं और अपना फालतू समय यापन करने का प्रबंध कर लेते हैं।

निकम्मे आदमियों के पास समय ही समय होता है। घर बैठकर काटने में जी ऊबता है। किसी रेस्टोरेन्ट में जाने पर कुछ खाना पीना होगा। सिनेमा के लिये टिकट खरीदना होगा। सैर सपाटे के लिये भी साथी तथा पैसा चाहिये। पढ़ने लिखने से उनका सम्बंध नहीं होता, पुस्तकालय तथा वाचनालय उन्हें काटते, विद्वान तथा साधु जनों के सत्संग में न तो उन्हें रस आता है और न उन मनीषियों के संपर्क में आने का साहस होता है समाज सेवा, देश सेवा, अथवा जन सेवा उनके लिए बेकार की चीज होती हैं— तो आखिर फालतू समय कैसे और किसके पास काटा जायें? इसके लिए सबसे उपयुक्त तथा सरल वे ही सहनशील व्यक्ति हो सकते हैं जो नैतिक उदारता में इतने बढ़ गये होते हैं कि उनका वह गुण दोष बन जाता है और जिन्हें निरन्तर पुनरावृत्ति के साथ समय तथा पैसे की हानि कि लिये सहनशीलता का अभ्यस्त बना लिया गया होता है। निदान निठल्ले लोग ऐसे अनिषेधशील व्यक्तियों को खोज लेते, उनके मित्र बन जाते, और बिना इस विचार के कि इन बेचारों के पास कोई काम भी होगा अपना फालतू समय यापन-करने के लिए दूसरों के समय की बरबादी किया करते हैं। किसी भी सावधान आदमी को ऐसे निठल्ले व्यक्तियों की मित्रता से अपनी, अपने पैसे तथा अपने समय की -रक्षा करनी ही चाहिये।

इस प्रकार के तथा-कथित निठल्ले मित्र मनुष्य की नैतिक, चारित्रिक, आर्थिक हानि किया करते हैं सो तो किया ही करते हैं, सबसे बड़ी शत्रुता यह करते हैं कि किसी से नाम मात्र के मनोमालिन्य को बढ़ाकर शत्रुता की सीमा तक बढ़ा देते हैं। वे जानते हैं कि विरोधी की बुराई करने से कोई भी व्यक्ति ‘शत्रु का शत्रु मित्र’- के सिद्धान्तानुसार मित्र ही नहीं बन जाता बल्कि घनिष्ठ एवं विश्वासी मित्र बन जाता है। और ऐसी स्थिति में आसानी से उसका शोषण किया जा सकता है। वंचक मित्र पिशुनता के माध्यम से किसी भी व्यक्ति को निन्दारसिक बना देता है। इसके साथ मित्र एक बड़ी हानि और भी करते हैं— वह है छलपूर्वक मिथ्या प्रशंसा करके किसी को अहंकारी बना देना। वे विविध प्रकार से चाटुकारी करके किसी भी व्यक्ति को उसके सत्य स्वरूप से भटका देते हैं और उसको एक ऐसी वातुलता पर पहुँचा देते हैं जहाँ से वह यथार्थ की भूमि पर उतर ही नहीं पाता और झूठे स्वप्नों के संसार में भटकता हुआ अपने को वह सब कुछ समझने लगता है, जो वह यथार्थ में होता नहीं। वंचक मित्रों की इस प्रकार की चाटुकारी जहाँ किसी में दम्भ एवं अहंकार की निर्बलता पैदा कर देती है वह चाटुकार को अन्तरंग प्रिय जन बना देती है, जिससे उसे अनेक प्रकार के लाभ उठा सकने का अवसर रहता है। इस प्रकार निन्दा प्रशंसा के आधार पर घनिष्ठता पाने के लिये प्रयत्नशील मित्रों से हर समझदार व्यक्ति को सावधान रहना चाहिये।

आज की दुनिया में जहाँ हर चीज नकली होती जा रही है मित्र भी नकली होने लगे हैं। इसलिए मित्रता स्थापित करने में मनुष्य को आवेगपूर्ण भावुकता से काम नहीं लेना चाहिए। जहाँ तक हो कम से कम मित्र बनाए और जिन्हें बनाए उन्हें अच्छी प्रकार से समझ परख ले। मित्र बनाने में अनियंत्रित उदारता बरतना अपने चारों ओर प्रच्छन्न शोषकों तथा शत्रुओं को इक करना है।

किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि आज सच्चे मित्रों का सर्वथा अभाव हो गया है अथवा हर किसी का हर मित्र प्रवंचक ही होता है। संसार में सच्चे और अच्छे मित्र भी होते हैं किन्तु उनकी संख्या विरल हो चली है। फिर भी लोगों को वास्तविक मित्र मिलते हैं जिसके लिये वे बधाई के पात्र हैं। फिर भी राह चलते हर व्यक्ति अथवा आकस्मिक संपर्क में आ गये किसी भी व्यक्ति से भावुकता वश मित्रता स्थापित कर लेने के अभ्यस्त ‘यार-बाश’ लोग घाटे में रहते और जीवन में बहुत बार धोखा खाकर अपना सुधार कर पाते हैं।


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