अन्न-संकट दूर करने के लिए हम यह करें

August 1966

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

देश में अन्न संकट छाया हुआ है। क्या भौतिकवादी और क्या अध्यात्मवादी सभी इस संकट से व्यग्र एवं त्रस्त हैं। ऐसी स्थिति में न तो भौतिक उन्नति की जा सकती है और न आध्यात्मिक। शाँति एवं सुविधापूर्ण स्थिति—जिसमें कि मनुष्य के मन मस्तिष्क संतुलित रहें —में ही किसी प्रकार की उन्नति की सम्भावना हो सकती है। अन्न की समस्या एक मूल समस्या है जिससे संसार की अधिकाँश समस्याओं का जन्म होता है। एक अकेले अन्न संकट ने ही इस समय देश में राजनीतिक, आर्थिक, नैतिक तथा चारित्रिक न जाने कितनी समस्याओं को फैला रक्खा है। हम सबका मन मस्तिष्क इन समस्याओं में इस बुरी तरह उलझा हुआ है कि हम आन्तरिक अथवा बाह्य किसी प्रकार की भी उन्नति कर सकने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। यदि किसी प्रकार एक अन्न की कमी की समस्या ही सुलझ जाये तो अनेक प्रकार की समस्याओं का तो समाधान स्वयं हो जाये। मनुष्यों का मन मस्तिष्क मुक्त हो, महंगाई का कुचक्र टूटे,शान्तिमय जीवनयापन-कर सकने की स्थिति उत्पन्न हो और भौतिक तथा आन्तरिक प्रगति की दिशा में कुछ ठोस काम कर सकने का अवसर मिले और वे अपने आत्मोद्धार कर सकने योग्य हो सकें।

केवल संकट-संकट चिल्लाने अथवा विदेशों पर अन्न पूर्ति के लिये निर्भर रहने से समस्या का समाधान न हो सकेगा। हमें ऐसे उपाय खोज निकालने होंगे जो अन्नाभाव कम करने में सहायक हो सकें।

इस समय देश में अन्न आपूर्ति के आँकड़े दस से बारह प्रतिशत तक अनुमान किये जा रहे हैं। यह नगण्य प्रतिशत इतना साधारण है कि यदि थोड़ा-सा भी प्रयास किया जाये तो देश की अन्न सम्बंधी वैदेशिक निर्भरता देखते ही देखते अस्तित्वहीन हो जाये। इस धर्मप्राण तथा तप-त्याग के महत्व वाले भारत देश को आत्म संयम एवं परमार्थ,पुरुषार्थ के आध्यात्मिक गुणों का अवलम्ब लेकर अन्नीय परावलम्बन से अपने राष्ट्रीय गौरव के साथ मन, मस्तिष्क तथा आत्मा को मुक्त कर ही लेना चाहिये। यह पारमार्थिक पुण्य उन्हें लौकिक तथा पारलौकिक दोनों दृष्टियों से मंगलदायक होगा। लौकिक लाभ तो यह कि देश अन्नदाताओं के प्रभाव से मुक्त होकर अपनी कठिनाइयों को पार करते हुए सम्मान, उन्नति की ओर स्थिर प्रगति कर सकेगा। और पारलौकिक लाभ यह कि दान धान्य के कुसंस्कारों एवं अभाव की चिन्ता से मुक्त होकर हम सब शाँतिपूर्वक अपना अभीष्ट निर्माण कर सकेंगे।

देश की जन-संख्या के अनुपात से निःसन्देह उत्पादन कम है। उत्पादन कम होने के जहाँ अन्य अनेक कारण हो सकते हैं वहाँ वर्षा की कमी, अनियमितता तथा सिंचाई के साधनों की कमी,भी एक बड़ा कारण है। वर्षा की प्रचुरता और उसकी अनियमितता दूर करने के लिये सबसे सरल,सुरम्य एवं धार्मिक उपाय यह है कि घर-घर में नियमित रूप से ‘यज्ञ’ किया जाय और प्रत्येक पर्व के अवसर पर सामूहिक यज्ञों का आयोजन किया जाये। जब तक देश में बड़े बड़े अग्निहोत्र होते रहे समयानुसार नियमित रूप से आवश्यक वर्षा होती रही है। सतयुग, त्रेता, द्वापर युगों में जब यज्ञों का महत्व था, सर्व साधारण से लेकर राज स्तर तक यज्ञ अनुष्ठान होते रहते थे और लोग तदनुसार यज्ञीय जीवन जीते थे, अनावृष्टि, अतिवृष्टि अथवा अकाल वृद्धि की घटनाएं नहीं होती थीं। भारत की इस वैदिक मान्यता में अणु मात्र भी असत्य नहीं है कि यज्ञ से देवता प्रसन्न होते हैं, जिसके फलस्वरूप धन-धान्य देने वाली वर्षा होती है। वेदों में यज्ञों को मनोवाँछित फलदाता कहा गया है। प्रचुर एवं नियमित वर्षा भावना से यदि जन-जनीय अथवा सार्वजनिक यज्ञ किये जाते रहें तो कोई कारण नहीं कि वर्षा सम्बन्धी दोष दूर न हो जाये। सार्वजनिक लाभ अथवा मंगल कामना से किया हुआ यज्ञ सकाम यज्ञ की कोटि में नहीं उतारा जा सकता। लोक मंगल की कामना से किया यज्ञ अग्निहोत्री को निष्काम यज्ञ का ही फल प्रदान करेगा।

नित्य प्रति यज्ञ करते रहने से सब में यज्ञीय संस्कारों की वृद्धि होगी। हृदयों में परमार्थ की भावना बढ़ेगी जिससे सार्वजनिक एवं सार्वदेशिक कल्याण की परिस्थितियाँ आपसे आप प्रकट होने लगेंगी। जिस देश की जनता पुण्यवती तथा परमार्थ निरत हो वहाँ बड़े-बड़े दुर्विपाकों को ठहरने का साहस नहीं हो सकता,यह दस प्रतिशत अन्नाभाव तो किस गिनती में है।

वनों ,उपवनों एवं वनस्पतियों की हरीतिमा तथा इनसे निकले हुये उच्छावास और स्पर्श कर चलते हुये वातास वैज्ञानिक रूप से मेघों को बनने और समय पर बरसने के लिये सहायक होते हैं। लोग घर-घर पादप,बेलें तथा फुलवारियाँ लगायें, एकाकी अथवा सामूहिक रूप से वृक्षारोपण के कार्यक्रम चलायें,सूखते हुये वृक्षों पर पानी दें और हरे वृक्ष काटने का निषेध रखें तो अवश्य ही वन देव एवं देवियाँ प्रसन्न होंगी जिसके फलस्वरूप मनुष्यों को पुण्य मिलेगा और पृथ्वी को जल। वृक्षारोपण एक पारमार्थिक पुण्य है। वृक्ष लगाने वाला धूप से व्याकुल और भूख से विक्षुब्ध प्राणियों को छाया तथा फल देता है। मनुष्यों के लिए बनाए गए धर्मशालाओं की तरह ही पक्षियों के लिये नीड़ों एवं बसेरों के लिये आयोजन करता है। इस प्रकार जीवों को सुख देना एक बड़ा परोपकार है जिसका फल मनुष्य की आत्मा में उदात्तता के साथ-साथ प्रकाश का भी समावेश करता है।

जिस प्रकार लोग पुण्य परमार्थ एवं परोपकार के लिये कूप तड़ाग-वापी आदि बनवाने पर धन खर्च करते हैं उसी प्रकार सिंचाई के योग्य स्थानों पर कुयें तालाब बनवा सकते हैं, नहरों तथा नालियों की व्यवस्था करा कर पुण्य कमा सकते हैं। किसी गरीब खेतिहर के खेत में कुआँ बनवा देना, रहट अथवा पाइप लगवा देना भी सार्वजनिक उपकार ही है और उसका भी फल किसी तीर्थ अथवा यात्रा स्थल पर पानी का प्रबंध कर देने से किसी प्रकार कम नहीं होगा। इसके अतिरिक्त परमार्थ-प्रिय लोग देहातों में जाकर श्रमदान द्वारा छोटी-मोटी नहर, नाली अथवा बाँध का निर्माण करने में सहायता देकर पुण्य के भागी बन सकते हैं। सार्वजनिक हित में किया हुआ कोई कार्य परोपकार ही है।

अन्न की खपत कम करने के लिये पर्वों, उत्सवों तथा अनुष्ठानों के समय निश्चित उपवासों के अतिरिक्त अनेक अन्य सामयिक उपवासों का व्रत लिया जा सकता है। यथासम्भव भोजन में शाकों तथा फलों की मात्रा बढ़ाकर अन्न की खपत कम की जा सकती है। उपवास,व्रत निश्चित रूप से एक धार्मिक अनुष्ठान ही है जिसका पालन करने से मनुष्य को अनेक आत्मिक लाभ होते हैं। जिन कर्तव्यों को ऋषियों ने धर्म में स्थान दिया है वे किसी भी रूप में क्यों न किये जायें पारमार्थिक पुण्यदाता ही होते हैं। भारतीय धर्म में किसी भी नियम का निर्माण निश्चित रूप से आध्यात्मिक लाभ को दृष्टि में ही रखकर किया गया है। उपवास एक धार्मिक नियम है इसका पालन करने से अन्न की बचत तो होगी ही साथ ही आध्यात्मिक लाभ से भी वंचित नहीं रह सकते। फलाहार तथा शाकाहार ऋषि भोजन हैं। इसी के आधार पर अपनी सात्विक वृत्तियों को तेजवती बनाकर भारत के ऋषि मुनियों ने ईश्वरीय ज्ञान की उपलब्धि की है। तो भी सप्ताह में एक-दो फल एवं शाकाहार का क्रम अपना लिया जाये तो हम ऋषियों के स्तर पर नहीं पहुंच सकते तो कम से कम उनके आध्यात्मिक अनुयायी कहलाने की पात्रता तो प्राप्त कर सकते हैं।

जनसंख्या की वृद्धि न करना भी अन्न की खपत कम करने की दिशा में एक पुण्य प्रयास है। आत्मसंयम एवं ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने से तो यह पुण्य सहज ही में कमाया जा सकता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में आत्मसंयम तथा ब्रह्मचर्य की कितनी महिमा है यह किसी से छिपा नहीं हैं। यज्ञ, उपवास एवं फलाहार का व्रत ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने में बहुत सहायक होगा। जिनको परमात्मा ने एक-दो बच्चे दे दिये हैं, वे तो आत्मसंयम द्वारा राष्ट्रीय खाद्य संकट को हल करने में सहायक होने के पुण्य अधिकारी बन सकते हैं। किसी भी विचारशील को अधिक बच्चों की कामना द्वारा अन्न संकट बढ़ाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये। संतानवान् लोगों को अवश्य ही ब्रह्मचर्य द्वारा “बिन्दु ही ब्रह्म” है की वैदिक सूक्ति को अपने व्यक्तिगत जीवन में चरितार्थ होते देखने का अवसर छोड़ना नहीं चाहिये। जिन महानुभावों को संतान न भी हो, उन्हें इसके लिये खेद नहीं करना चाहिये, वे दूसरों के बच्चों को अपना बच्चा समझें और इस बात का हर्ष मनाएँ कि हमारी निःसन्तानता इस संकट काल में देश की जन वृद्धि में बाधक है और इस मिष से हम दूसरों बच्चों को अधिक भोजन का अवसर देकर पुण्य लाभ ही कर रहे हैं। इस समय सार्वजनिक कल्याण की दृष्टि से अपनी निःसन्तानता पर खेद न करना निश्चय ही साहसपूर्ण कार्य है।

अन्न को नष्ट होने से बचाना किसी भी पुण्य कार्य से कम नहीं है। अन्न मनुष्यों का प्राण है। उसका नष्ट किया जाना परोक्ष रूप से मनुष्य प्राणों पर आघात करना है। इतना ही क्यों अन्न को शास्त्र में देवता माना गया है। निश्चय ही अन्न देवता है। ओज, तेज, बल, वीर्य तथा प्राण देने वाला अन्न देवता ही है। गायत्री के “भर्गो देवस्य” मंत्र खंड की व्यवस्था में महर्षि मुद्गल ने बताया है कि अन्न ही देवता का भर्ग अर्थात् तेज है। ऐसे देव रूप अन्न का नष्ट किया जाना देव प्रतिमा को नष्ट करने के समान पाप और रक्षा करना देव मूर्ति की रक्षा करने के समान पुण्य है। हम सबको इस पाप से बचकर पुण्य ही कमाना चाहिये।

अन्न का एक-एक दाना सँभाल कर रखना, जूठन, माड, अथवा बासी के रूप में उसे नष्ट होने से बचाना, चूहों, जानवरों तथा कीड़ों से उसकी रक्षा करना हम सबका पुण्य कर्तव्य है। महर्षि कणाद फसल उठ जाने के बाद खेतों में पड़े रह गये अन्न के एक-एक दाने को बीन लाते थे और संजोकर रखते थे और सावधानीपूर्वक उसी पर अपना निर्वाह करते थे। इसी पुण्य कार्य के आधार पर ही उनका नाम कणाद प्रसिद्ध हुआ। उनकी इस कणाद वृत्ति का कारण उनकी निर्धनता नहीं थी बल्कि अन्न देव के प्रति यह उनका आदर भाव था, जिसने कौन कह सकता है कि उन्हें ऋषित्व प्राप्त करने में सहायता न की होगी। ऋषियों के अनुयायी हम सब भारतवासियों को भी कणाद वृत्ति का अनुसरण करना चाहिये। किसी प्रकार किसी रूप में भी अन्न का एक कण तक बेकार नहीं जाने देना चाहिये।

इस प्रकार यदि इन धार्मिक उपायों को काम में लाया जाय तो कोई कारण नहीं कि इतनी विशाल जनसंख्या की नगण्य अन्न आपूर्ति दूर न हो जाये और आध्यात्मिकता के धनी भारतवासियों की आत्मा अन्न के लिये विदेश में भिक्षा वृत्ति की आत्मा ग्लानि से मुक्त न हो जाये।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118