हमारा छटनी-कार्यक्रम और उसका प्रयोजन

August 1966

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गत अंक में “हमारे और आपके सम्बन्ध क्या हों?” शीर्षक हमारा लेख पढ़कर पाठकों में से कितनों ने ही कई प्रकार की भावनाएं एवं जिज्ञासाएँ प्रकट की हैं। जिनने वियोगजन्य दुख प्रकट किया है, उनकी आत्मीयता एवं ममता की गहराई को हम समझते हैं। मिलने पर हर्ष और वियोग में दुख होना, प्रेम की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। हम लोग विगत 27 वर्षों से भावनात्मक दृष्टि से एक घनिष्ठ आत्मीयता के बंधनों में बंधे चले आ रहे हैं। विचारों की एकता—अन्य सब प्रकार की एकताओं में अधिक तथ्यपूर्ण एवं चिरस्थायी होती है। उच्च आदर्शों की ओर उत्कृष्टता के पथ पर हम लोग साथी सहचर की तरह एक लम्बी अवधि से साथ-साथ चलते चले आ रहे हैं। इस मंजिल में समय-समय पर एक दूसरे का यथासम्भव सहयोग एवं साहाय्य भी करते रहते हैं। सज्जनों की मित्रता स्वभावतः दिन-दिन अधिक घनिष्ठ ही होती जाती है। हम लोग इस अवधि में—अंश-वंश आधार पर बने हुए कुटुम्बों से भी अधिक सच्चे और समीपवर्त्ती हो गये हैं। ऐसी दशा में वह लम्बी अवधि से चला आ रहा पारस्परिक मिलन क्रम जब टूटने को हो तो व्यथा-वेदना का होना स्वाभाविक ही है। इस संदर्भ से हमारा मन भी परिजनों की तरह ही भारी है। ममता से हमारा अन्तस् आर्द्र हो उठता है।

हमारी जीवन प्रक्रिया पवित्र कर्तव्यों के बंधनों में बँधी चली आ रही है। जब से होश सँभाला तभी से मार्ग-दर्शक शक्ति हमें छोटे बच्चे की तरह उंगली पकड़ कर चलाती चली आ रही है। अब जब कि आयुष्य का अवस्थान काल आ पहुँचा, उंगली छुड़ाने की अपनी कोई इच्छा नहीं है। शेष थोड़ा-सा समय भी उसी तरह पूरा करना होगा जिस तरह कि अब तक का सारा समय पूरा कर लिया। इस लिये उस महान प्रकाश का अनुमान करना ही हमारे लिये एकमात्र रास्ता है। परिजनों की हमारी व्यथा-वेदना भावुकता पर आधारित हो सकती है पर उस महान् प्रकाश का निर्देश हम सबके परम कल्याण के लिए ही है, यह सोचकर खिन्न या प्रसन्न मन से निर्धारित विधि व्यवस्था को शिरोधार्य करना ही होगा।

संसार छोड़कर एकान्त में अपनी मुक्ति आदि के लिए भजन ध्यान करते रहने में हमारी तनिक भी आस्था नहीं है। न हमारे मार्ग-दर्शक ही आज जैसे जलते हुए संध्याकाल में ऐसी गतिविधि अपनाने पर विश्वास करते हैं। फिर भी हमें उस तरह की क्रिया पद्धति अपनानी होगी, शेष जीवन कठोर एकान्त तपश्चर्या में लगाना होगा। इस विसंगति से आश्चर्य लग सकता है पर तथ्य यह है कि वह एकान्त सेवन या तप साधन भी व्यक्तिगत स्वर्ग मुक्ति के लिए नहीं—अधिक लोककल्याण कर सकने के लिये अधिक सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए है। आत्मबल संसार का सबसे बड़ा, सबसे महत्वपूर्ण बल है। युग परिवर्तन जैसे महान कार्यों के लिए व्यक्तियों में, वातावरण में जिस प्रचण्ड शक्ति का संचार आवश्यक है, उसका उत्पादन किसी बड़ी योजनाबद्ध तपश्चर्या से ही सम्भव है।

स्वराज्य आन्दोलन की सफलता का श्रेय यों राजनैतिक नेताओं को मिला है, पर जो सूक्ष्म विज्ञान को जानते हैं उन्हें विदित है कि इसमें योगीराज अरविन्द, महर्षि रमण आदि की प्रचण्ड तपश्चर्या ही प्रधान आधार थी। अगले दिनों भारत को युग-परिवर्तन की महान भूमिका प्रस्तुत करनी है। इस देश का भावनात्मक कायाकल्प ही नहीं— समस्त संसार का मार्ग-दर्शन भी भारत भूमि को ही करना है। इस अमृत वर्षा के लिए जो घनघोर घटाएं उठाई जानी हैं, उनको उपयुक्त व्यक्तियों की ग्रीष्म ऋतु जैसी प्रचंड तपश्चर्या की अनिवार्य आवश्यकता है। हमें यदि इसके लिए उस शक्ति ने उपयुक्त माना है तो इसे अनुपम सौभाग्य के अतिरिक्त और क्या माना जा सकता है। इसके लिए तत्वतः हम सबको गर्व और आनन्द ही अनुभव करना चाहिए।

पाँच वर्ष बाद हम शरीर से ही परिजनों से दूर होंगे, आत्मा से नहीं। तपश्चर्या से आत्मा की शक्ति अनेक गुनी बढ़ जाती है। परिजनों को जो प्रेम एवं सहयोग शरीर से निकट होते हुए भी हम अभी तक नहीं दे सके वह पीछे कर सकेंगे और अपने इस परिवार का जो भावनात्मक ऋण है, उसे अधिक बहुमूल्य प्रत्युपकार करके चुका सकेंगे, इस तथ्य का स्मरण करके हम अपना चित्त हलका कर लेते हैं। जब जन्म-जन्मान्तरों तक सच्ची आत्मीयता स्थिर रह सकती है तो हमें तो अभी जीवित भी रहना है, तब उस ममता को तोड़ कैसे देंगे? जिनके मन में हमारे प्रति सच्ची भावना है, वे विश्वास रखें पाँच वर्ष बाद हमें आज की अपेक्षा भी अपने अधिक समीप अनुभव करते रहेंगे। हम न तो निर्मोही हैं और न कृतघ्न। प्यार का प्रतिदान प्यार में चुकाने की परम्परा को हम जन्म-जन्मान्तरों से अपनाये हुए हैं इसे परित्याग कर सकना तब तक हमारे लिए सम्भव नहीं, जब तक कि हमारे अस्तित्व का एक कण भी कहीं-किसी रूप से इस संसार में विद्यमान रहेगा।

हमारा इस जीवन का कार्यक्रम दो भागों में विभक्त हैं। पूर्वार्ध पूरा हो चला उत्तरार्ध आरम्भ होने वाला है। पिछले दिनों प्रचारात्मक कार्य बहुत हुआ है। भारतीय संस्कृति की जननी गायत्री माता और भारतीय धर्म के जनक यज्ञ पिता के ज्ञान-विज्ञान को भारत ही नहीं संसार के कौने-कौने में क्रमबद्ध रूप से प्रचारित किया है और उसमें आशातीत- आश्चर्यजनक —सफलता भी मिली है। 24 लाख व्यक्तियों को गायत्री उपासना में लगा देना, 24000 कुण्डों में गायत्री यज्ञ की 24 अरब आहुतियों का आयोजन, मथुरा में एक हजार कुण्डों का इस युग का अनुपम यज्ञ, गायत्री तपोभूमि की स्थापना, चारों वेदों का भाष्य तथा प्रसार, 108 उपनिषदों, छहों दर्शन 20 स्मृतियों और अब 18 पुराणों का भाष्य, युगनिर्माण योजना का बीजारोपण आदि अनेकों ऐसे कार्य हैं जिनके सम्बन्ध में सर्वसाधारण को बहुत कुछ जानकारी है। ऐसे भी बहुत कार्य हुए हैं जिनकी न तो किसी को जानकारी है और न उन्हें जानने की किसी को आवश्यकता ही है। इतने थोड़े दिनों में—अपने नगण्य व्यक्तित्व के द्वारा—इतने महान कार्य सम्पन्न हो सके इसके मूल में आरम्भिक जीवन के 24 वर्षों के गायत्री पुरश्चरणों की शक्ति ही एकमात्र निमित्त थी। यदि वह तपश्चर्या न हुई होती तो निश्चय ही हमारे जैसा अयोग्य व्यक्ति उपरोक्त अद्भुत कार्यों में से एक को भी ठीक तरह पूरा न कर सका होता। महता व्यक्ति की नहीं शक्ति की है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इस संसार में सब से बढ़कर यदि कोई शक्ति हो सकती है तो वह तपश्चर्या से उत्पन्न हो सकने वाली आत्म-शक्ति ही है।

अब हमारे जीवन का उत्तरार्ध-पाँच वर्ष बाद आरम्भ होता है। उसमें आँखों से दिखाई देने वाले—कानों से सुनाई पड़ने वाले स्थूल कार्य न होंगे वरन् सूक्ष्म जगत् में हमारी क्रिया पद्धति का आरम्भ होगा। विश्व में जो आज भावनात्मक दुर्भिक्ष फैला हुआ है उसे निवारण करने के लिए बड़ी सृजनात्मक योजना बन रही है। राजा सगर के नरकगामी 60 हजार पुत्रों का उद्धार करने के लिए भागीरथ को तप करके गंगावतरण का महान अनुष्ठान करना पड़ा है। विश्व-मानवों की श्रेय साधना के लिए भी शक्तिशाली आत्माएँ एक ऐसा ही एक महान् अनुष्ठान आरम्भ कर रही हैं। सूक्ष्म जगत के वर्तमान स्वरूप को बदल देने के लिये ऐसे ही आयोजन सृष्टि के इतिहास में समय-समय पर होते आये हैं। इस बार भी ऐसी ही व्यवस्था सामर्थ्यवान् प्रकाश-पुञ्जों द्वारा की गई है। उसमें भाग लेने का अवसर हम जैसे अकिंचन व्यक्ति को भी मिल रहा है। हमारी भावी तपश्चर्या इसी निमित्त से है। विश्व के नवनिर्माण में यह भूमिका अपना महत्वपूर्ण योगदान करेगी।

युग-परिवर्तन आन्दोलन का इन दिनों सूत्रपात हुआ है। इसे बीजारोपण ही कहना चाहिये। इस फसल को लहलहाने और पकने में अभी समय लगेगा। अभी जो बीज बोये जा रहे हैं वे सन् 2000 में—आज से 34 वर्ष बाद—पुष्पित एवं फलित होंगे। तब सब कुछ बदला हुआ होगा। अखण्ड ज्योति के किशोर पाठक नोट करके रख लें कि 34 वर्ष के बाद की दुनिया आज की तुलना में लगभग हर दृष्टि से बदली हुई होगी। उस समय युगपरिवर्तन के दृश्य खुली आँखों से देखे जा सकेंगे, अभी तो सूक्ष्म जगत में उनका बीजारोपण मात्र हो रहा है।

भारत में राजनैतिक स्वराज्य आन्दोलन अपने बीजारोपण के दिन से लेकर 50 वर्ष में फलित हुआ था। युगनिर्माण आन्दोलन का श्रीगणेश सहस्रकुण्डी गायत्री यज्ञ के साथ किया गया था, वह 40 वर्ष में सन् 2000 के लगभग फलित होगा। तब तक अनेक हजारों लाखों प्रबुद्ध व्यक्ति अपने-अपने ढंग से इस आन्दोलन को सींचते, रहेंगे और बढ़ाते रहेंगे, समय आने पर वह विशाल वृक्ष के रूप में परिणित हो जायगा। यह महाअभियान न तो अधूरा रह सकता है और न असफल हो सकता है। युगनिर्माण आन्दोलन की परिपूर्ण सफलता अपने समय पर पूर्ण सुनिश्चित है।

अगले 34 वर्ष काफी कष्ट के हैं। प्रसव पीड़ा की तरह सभी को बड़ी आपत्तियाँ उठानी पड़ेंगी। महंगाई, अनावृष्टि, बीमारियाँ, दुर्घटनाएं, आन्तरिक कलह आदि विविध विधि विग्रह उपद्रव सामने आते रहेंगे और उनसे जनसाधारण को नित नई मुसीबतें सहनी पड़ती रहेंगी। दुष्टता भरे दुष्कर्म बढ़ते रहेंगे, फलस्वरूप आतंक, अनाचार के दुखद दुष्परिणाम सामने आते रहेंगे। इसी बीच एक महायुद्ध भी होगा, जिसकी लपेट में सारा संसार आ जायेगा। वर्तमान जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग इन्हीं विपत्तियों में नष्ट हो जायगा। इन विपत्तियों की चोटें खाकर घायल जनता धर्म और ईश्वर का अवलम्बन पकड़ेगी। यह क्रम अगले थोड़े ही दिनों में पूरा हो जायगा और विपत्ति के गर्भ में से सम्पत्ति का उदय होगा। यह पुण्य प्रक्रिया ठीक तरह पूरी हो सके इसके लिए भागीरथ-तप की पुनरावृत्ति पुनः आवश्यक हो गई है। इस महत्वपूर्ण कार्य में यदि अपना उपयोग हो रहा है तो वियोग जन्य व्यथा को सहते हुए भी हमें उसके लिए सहर्ष उद्यत होना ही होगा।

भारत की समृद्धि वहाँ के अध्यात्म-विज्ञान पर निर्भर रही है। आज भौतिक विज्ञान की उपलब्धियों ने पाश्चात्य देशों को समर्थ और समृद्ध बनाया है, प्राचीन काल में भौतिक-विज्ञान की तुलना में सहस्रों गुने अधिक शक्तिशाली अध्यात्म-विज्ञान के पारंगत हमारे ऋषि-मुनि थे। इसी बल पर यह भारत भूमि स्वर्गादपि गरीयसी बनी हुई थी और यहाँ का हर नागरिक संसारवासियों की दृष्टि में एक देवता गिना जाता था। दुर्भाग्य से वह महान् विज्ञान आज लुप्त हो गया है और हम मणिहीन सर्प की तरह निस्तेज बने दुर्दशा ग्रसित जीवन व्यतीत कर रहे हैं। पुनरुत्थान की अगली मंगल बेला से हमें उस शक्तिशाली अध्यात्म-विज्ञान की भी आवश्यकता पड़ेगी, जिसके बल पर हमारे पूर्वज उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचे थे। यह शोध कार्य एकान्त तपश्चर्याओं द्वारा ही संभव होगा। उन खोए हुए दिव्य रहस्यों को पुनः उपलब्ध करने के लिए इसी कठिन मार्ग को अपनाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं।

पाँच वर्ष बाद का हमारा कार्यक्रम इन्हीं सूक्ष्म प्रयोजनों की पूर्ति के लिए निर्धारित है। पूर्वार्ध का लक्ष्य अब पूरा होने जा रहा है। प्रचारात्मक-स्थूल जगत का क्रिया−कलाप अब हम समेट लेंगे और मजबूत हाथों तथा कन्धों पर उस परम्परा को सौंप देंगे। अगले दिन हमें इसी उधेड़ बुन तथा व्यवस्था में लगाने हैं। कार्यों को बढ़ाना नहीं, समेटना है। जो कार्य आरम्भ किया गया है,उसे व्यवस्थित रूप से चलते रहने की व्यवस्था बनानी है भले ही वह थोड़ी या सीमित क्यों न हो। इसी संदर्भ में यह उचित प्रतीत हुआ कि काम के उपयुक्त व्यक्ति ही अगले दिनों हमारे साथी सहचर के रूप में रह जायें। अनावश्यक भीड़ छँट जाय। छटनी की दृष्टि से ही गत अंक में दो बन्दिशें छापी गई हैं। एक घण्टा समय जो दिया करें और डेढ़ छटाँक आटे की कीमत दस नया पैसा रोज नव निर्माण के लिए खर्च किया करें वही अपना सहचर माना जायगा। यह शर्त यद्यपि भावनाशील व्यक्तियों के लिए अतीव सरल है तो भी जिनका भावनात्मक स्तर दुर्बल होगा उन्हें यह भी असह्य भार लगेगा और वे इतनी छोटी कसौटी को देखकर भी भाग खड़े होंगे। इस प्रकार छटनी का हमारा उद्देश्य सहज ही पूरा हो जायगा। सीमित व्यक्तियों पर अधिक ध्यान दे सकना इसी प्रकार सम्भव होगा। आज तो भावनात्मक दृष्टि से खोटे और ओछे व्यक्ति भी अपने निजी लाभ को दृष्टि से हमें घेरे रहते हैं। अधिक भीड़ उन्हीं की रहती है। यह भीड़ छट जाने से जो शक्ति बचेगी उसे सीमित क्षेत्र में अधिक सावधानी से लगाया जा सकेगा और उसका लाभ भी बहुत होगा।

जहाँ सर्वत्र परिवार को बढ़ाने की धूम है वहाँ इस प्रकार की छटनी आश्चर्यजनक लग सकती है। पर थोड़ा विचार करने पर प्रतीत होगा कि उससे हानि कुछ नहीं लाभ ही है। इसी दृष्टि से हमने अपने सभी प्रबुद्ध परिजनों से अनुरोध किया है कि वे इस छटनी के कार्य को जल्दी पूरा करा देने में हमारी सहायता करें। जिन लोगों का अपने परिवार से अब सम्बन्ध है या कभी रहा है, उन सब को गत जुलाई और इस अगस्त के अंक में छापी जा रही इस प्रक्रिया का परिचय करा दिया जाना चाहिये। कई परिजन आलस्य या ढीलपोल में सम्भवतः इस ओर ध्यान न दे सके होंगे। कई की अखण्ड ज्योति बन्द हो गई होगी। कई इन लेखों का अभिप्राय ठीक तरह समझ न सके होंगे। इन सभी तक हमारी यह वर्तमान विचारणा ठीक तरह—ठीक समय पर—पहुँच जाय इसके लिए यह आवश्यक है कि हर जगह कुछ प्रबुद्ध व्यक्ति उठ खड़े हों और अखण्ड-ज्योति के भूतपूर्व एवं वर्तमान सदस्यों को इस विधि व्यवस्था का ठीक तरह परिचय करा दें। जिन लोगों ने अभी तक जुलाई मास में संलग्न फार्म न भरा हो, उनसे भविष्य में सदस्य रहने न रहने की सूचना उस फार्म द्वारा भिजवा दें। इस महीने का यह एक आवश्यक कार्य है। प्रबुद्ध परिजन—सक्रिय कार्यकर्ता-अकेले, या टोली बनाकर या मीटिंग बुलाकर स्थानीय तथा आसपास के सदस्यों का इस सम्बन्ध में निर्णय लेने और भिजवाने का प्रबन्ध कर दें तो हमारी दृष्टि से यह एक सामयिक एवं सराहनीय सहयोग होगा।

इस छटनी के पीछे एक रहस्यपूर्ण प्रयोजन और भी है जिसकी चर्चा हमने अज्ञातवास से लौटते ही कर दी थी। वह यह कि युग निर्माण का प्रयोजन साधारण मनोभूमि के घटिया, स्वार्थी, ओछे, कायर और कमजोर प्रकृति के लोग न कर सकेंगे। इसके लिए समर्थ, तेजस्वी आत्मायें अवतरित होंगी और वे ही इस कार्य को पूरा करेंगी। सीमेंट, लोहे का लेन्टर डालकर छत्ते पाटी जाती हैं तो उसका वजन उठाने के लिए बाँस-बल्ली का ढाँचा खड़ा कर लेते हैं, छत डालते समय वजन वही उठाता है, पीछे जब छत पक जाती है तब उस ढाँचे को निकाल कर अलग कर देते हैं। युग परिवर्तन का महान कार्य तेजस्वी, मनस्वी एवं तपस्वी आत्माओं द्वारा सम्भव होगा। हम लोग जो तनिक-सा त्याग, बलिदान का प्रसंग आ जाने पर बगलें झाँकने लग जाते हैं, उतने बड़े कार्य को कर सकने के योग्य नहीं। जिस मिट्टी से हम बने हैं रेतीली और कमजोर है कोई टिकाऊ चीज उससे कैसे बन सकती है। जो एक-दो माला जप करने मात्र से तीनों लोक की ऋद्धि-सिद्धियाँ लूटने की आशा लगाये बैठे रहते हैं और जीवन-शोधन तथा परमार्थ की बात सुनते ही काठ हो जाते हैं ऐसे ओछे आदमी अध्यात्म का क, ख, ग, घ, भी नहीं जानते। आत्मबल तो उनके पास होगा ही कहाँ से। जिसके पास आत्मबल नहीं वह युग-परिवर्तन की भूमिका में कोई कहने लायक योगदान दे भी कहाँ से सकेगा? इस तथ्य से हम भली प्रकार अवगत हैं। अपनों की नसनब्ज हमें भली प्रकार मालूम है। इसलिए उनसे इतनी ही आशा करते हैं कि छत का लेन्टर बनाने से बाँस-बल्ली की तरह थोड़ी देर अपना उपयोग कर लेने दें तो बाँस बहुत हैं। छत तो सीमेंट, कंक्रीट, लोहे की छड़ आदि के योग से बनेगी और उसे कुशल कारीगर बनावेंगे। बाँस-बल्ली का ढाँचा तो मामूली मजदूर भी बाँध देता है पर लेन्टर को बढ़िया कारीगर इंजीनियर ही ठीक तरह डाल सकते हैं। हम युग-निर्माण योजना के विशाल भवन का ढाँचा खड़ा करने वाले मामूली से मजदूर मात्र हैं। परिजन जिस मिट्टी से बने हैं उसे देखते हुए उन्हें भी हम बाँस-बल्ली मात्र ही मानते हैं। थोड़ा-सा वजन पड़ने पर जो लचक जाय, जरासी परख का अवसर आये तो दाँत निकाल दें, ऐसे लुँजपुँज व्यक्ति युग-परिवर्तन जैसी कठोर प्रक्रिया को कैसे पूरा करेंगे? जिसमें निज की कड़क नहीं वह वजन कैसे उठावेगा ?

भारतीय महान गौरव एवं वर्चस्व को पुनः अपने स्थान पर प्रतिष्ठापित करने के लिए अगले दिनों विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाली आत्माएं आवश्यक संख्या में इस देश में अवतरित होंगी। व्यास, वशिष्ठ, भारद्वाज, याज्ञवल्क्य, कपिल, कणाद, विश्वामित्र, दधीच जैसे ऋषि, भीम, अर्जुन, हनुमान, अंगद, जैसे योद्धा, नागार्जुन, रावण, जैसे वैज्ञानिक गाँधी, तिलक, मालवीय, लाजपतराय जैसे नेता, शिवाजी, प्रताप, गोविन्दसिंह, जैसे देशभक्त अरविन्द, विवेकानन्द, रामतीर्थ जैसे ज्ञानी, चरक, सुश्रुत, वागभट्ट जैसे चिकित्सक, सीता, सावित्री, अरुन्धती, अनुसूया, गाँधारी, द्रौपदी, लक्ष्मीबाई, अहिल्याबाई जैसी नारियाँ अगले दिनों अवतरित होंगी। जब कभी भी युग-परिवर्तन के समय आये हैं तब इस महान प्रयोजन को पूरा कर सकने में समर्थ आत्माओं का भी अवतरण हुआ है। अब भी वही होने जा रहा है।

ऐसी आत्माएं जब अवतरित होती हैं जब अपने योग्य वातावरण ढूँढ़ती हैं। मधुमक्खियाँ और भौंरे पुष्प कुञ्जों के आधार पर ही जीवित रहते हैं,मछली को जलाशय चाहिए, यह परिस्थितियाँ न मिलें तो वे जीवित न रहेंगे। महान आत्माएं केवल अच्छे पारिवारिक वातावरण में जन्मती हैं। यदि प्रारब्धवश किसी अनुपयुक्त परिवार में जन्म लेती हैं तो अल्पायु में ही चली जाती हैं। दशरथ और कौशल्या ने भगवान राम को अपनी गोद में खिलाने के लिये तीन जन्मों तक लगातार तप किया था, तब उन दोनों का गुण-कर्म स्वभाव ऐसा बना था कि उसमें उच्च आत्माओं का अवतरण सम्भव हो सके। धन ऐश्वर्य भले ही न हो, गरीबी कितनी ही क्यों न हो,पर भावनात्मक दृष्टि से जहाँ का वातावरण उपयुक्त हैं,वहीं दिव्य आत्माओं का जन्म ले सकना सम्भव होगा। गिद्ध और सियार मृत लाश की गंध पाकर दूर-दूर से इकट्ठे हो जाते हैं इसी प्रकार परिष्कृत पारिवारिक वातावरण की तलाश में दिव्य आत्माएं घूमती रहती हैं और जब उपयुक्त स्थान मिल जाता है तो वे प्रसन्नतापूर्वक वहाँ जन्मती हैं। कहना न होगा कि जिन घरों में ऐसी उच्च आत्माएं जन्में उसके यश, गौरव, महत्व एवं आनन्द का बार-पार नहीं रहता।

अगले दिनों जो दिव्य आत्माएं युगनिर्माण का महान-आयोजन पूरा करने लिए अवतरित होने वाली हैं उन्हें अपने उपयुक्त परिस्थितियों की आवश्यकता पड़ेगी। इस आवश्यकता की पूर्ति हमें करनी चाहिए जिसमें कोई ऊँची जीवात्मा आवे तो वह घुटन अनुभव न करे। जिससे उसे अपने अनुकूल भावात्मक वातावरण मिल सके। जहाँ ऐसा वातावरण बन जायगा, वहाँ फिर इस बात की भी व्यवस्था हो सकती है कि वहाँ कोई महान् विभूति जन्म ले।

यह समाज सेवा का भी एक ठोस तरीका है। घर के सदस्य सुसंस्कृत हों, भावात्मक दृष्टि से परिष्कृत हों तो उस घर के लोगों को ही नहीं,समस्त समाज को उल्लास मिलेगा। परिवारों से मिलकर ही समाज बनता है। यदि परिवार की इकाइयाँ ठीक होंगी तो उनका समूह-समाज भी प्रगति एवं समृद्धि से भरा-पूरा होगा। उस घर के सभी सदस्य प्रेम, सद्भाव, वैभव यश एवं आनन्द का स्वर्गीय सुख लाभ कर रहे होंगे। इसके अतिरिक्त ऐसे वातावरण में दिव्य आत्माओं के अवतरण की भी पूरी-पूरी सम्भावना रहेगी। परिवार निर्माण एक पवित्र कर्तव्य का पालन तो है ही।

षोडश संस्कारों को पुनर्जीवित करने के लिए जो युग-निर्माण योजना द्वारा बहुत अधिक जोर दिया जा रहा है उसके पीछे लोक-शिक्षण ही नहीं यह भी एक महत्वपूर्ण रहस्य है कि आगामी वर्षों में इस अध्यात्म विज्ञान-सम्मत प्रक्रिया द्वारा जनसाधारण के अन्तरंग में समाये हुए कुसंस्कारों का शमन-समाधान किया जा सके और उसके स्थान पर सुसंस्कारों की प्रतिष्ठापना हो सके। जन्मदिन और विवाह दिन मनाने का प्रचलन करने में जहाँ जीवन का महत्व समझने,जो समय शेष है उसका सदुपयोग करने दांपत्ति-जीवन में श्रद्धा सद्भावना प्रेम और सोमनस का बीजारोपण करना एक सामान्य अभिप्राय है, वहाँ रहस्यपूर्ण प्रयोजन यह भी है कि पति-पत्नी के शरीरों में इन संस्कारों द्वारा ऐसे सूक्ष्म तत्व विकसित हों जो भावी संतान को प्रबुद्ध बनाने में सहायक हो सकें।

सुसंतति प्राप्त करने के लिए प्राचीनकाल में अगणित व्यक्तियों के,दीर्घकालीन कठोर तप करने वाले पति-पत्नियों के अनेकों प्रमाण हमारे प्राचीन पुराण साहित्य में मिलते हैं। उतना न बन पड़े तो भी कम से कम इतना तो आज भी करना होगा जितना कि हमने अपने पाठकों को सुझाया है। घर के वातावरण में उत्कृष्ट विचारधारा का संचार हर दृष्टि से आवश्यक है, इसके लिए हर विचारशील व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह थोड़ा बहुत श्रम करे, कष्ट सहे और त्याग करे। प्रस्तुत सुझाव और कार्यक्रम इसी दृष्टि से हैं। हमें हर प्रबुद्ध व्यक्ति से आशा करनी चाहिए कि वह पैसा कमाने, शरीर चर्चा और शौक-मौज में ही सारी शक्ति खर्च न करदें वरन् परिवार निर्माण जैसे अत्यन्त आवश्यक कर्तव्यों के लिए भी कुछ न कुछ प्रयास आरम्भ करें। समाज सेवा, परोपकार, पुण्य-धर्म यदि बाहर के लोगों के साथ नहीं बन पड़ता तो कम से कम परिवार के क्षेत्र में तो इन प्रक्रियाओं का प्रयोग करना ही चाहिए। बाहर के लोगों की सेवा करने में अपना कुछ लाभ न दीखे यह हो सकता है। पर अपनी और अपने परिवार की सुख-शान्ति, प्रगति और समृद्धि के लिए इतना तो करना चाहिए कि उत्कृष्ट विचारों की पृष्ठभूमि तैयार की जाय और उसके लिए एक घंटा समय नियमित रूप से लगाया जाय। अभ्यास होने पर यह कार्य भी ताश खेलने की तरह मनोरंजक और हलका-फुलका लगने लगेगा। कठिनाई तभी तक दीखेगी जब तक उसे आरम्भ नहीं किया जाता।

इन सब बातों को ध्यान में रखकर युग-निर्माण योजना के शतसूत्री कार्यक्रमों में से परिवार निर्माण के कार्य को हमने अपने प्रिय परिजनों के लिए एक प्रकार से अनिवार्य कर दिया है। प्रस्तुत योजना के एक घंटा रोज नवनिर्माण के लिये देने का कहा गया है। यह परिवार निर्माण के लिये लगाया जाना चाहिए। पत्नी, पुत्र, पुत्रियाँ ,माता, पिता, भाई, बहिन, भाभी, नानी, भतीजे, भतीजी आदि से भरे-पूरे घरों में शाम को एक घंटा कथा-कहानी कहने में—नवनिर्माण का साहित्य सुनाने में लगाया जाना चाहिए। घर में जो भी पढ़ा-लिखा हो उसे जीवन जीने की कला का ज्ञान कराने वाली पुस्तकें पढ़ने के लिए देनी चाहिए। इनमें रुचि न हो तो आग्रह और अनुरोधपूर्वक रुचि उत्पन्न करनी चाहिए। जो पढ़े न हों उन्हें सुनाने के लिए एक घंटा समय देना उनका और अपना दोनों का बढ़िया मनोरंजन करना है। इस प्रक्रिया को यदि लगातार उपनाए रहा जाये तो कुछ ही दिन में आश्चर्यजनक परिणाम उपस्थित होगा। हमारे विचारों में व्यक्ति, प्रकाश, प्रेरणा और वास्तविकता की प्रचुर मात्रा भरी पड़ी है, उनके संपर्क में जो भी आया है, बदले बिना—मुड़े बिना नहीं रहा। जो व्यक्ति अपने परिवार को इन विचारों के संपर्क में रख रहे होंगे, वे परिवार-निर्माण का एक ऐसा महत्वपूर्ण सेवा कार्य कर रहे होंगे जो उनके निज के लिए परिवार-सदस्यों के लिए,समस्त समाज एवं विश्व के लिए महान उपयोगी सिद्ध होगा।

परिवार प्रशिक्षण प्रत्येक गृहपति का आवश्यक धर्म-कर्तव्य है। उसकी उपेक्षा करना अपने लोक और परलोक को बिगाड़ना है। हम चाहते हैं कि अखण्ड-ज्योति परिवार का प्रत्येक सदस्य इसे निबाहने में तत्परता प्रकट करें। उनके इस कार्य में हम भी पूरा-पूरा सहयोग देंगे। अगले 5 वर्ष तक हम अत्यन्त सस्ता किन्तु अत्यन्त महत्वपूर्ण साहित्य छोटे-छोटे ट्रैक्टों के रूप में लिखेंगे। 10 नया पैसा प्रतिदिन इसी साहित्य को खरीदने के लिए बचाने का अनुरोध किया गया है। यह पैसे किसी बाहर के व्यक्ति को दान नहीं करने हैं वरन् अपने ही घर में सत्साहित्य के रूप में घरेलू पुस्तकालय के लिए प्रयुक्त करने हैं। इस साहित्य का लाभ पड़ोसी, मित्र, रिश्तेदार, स्वजन, संबंधी परिचित अपरिचित उठाते रहेंगे तो कितनों का ही भला होगा। यह सद्ज्ञान सम्पत्ति अपने उत्तराधिकारियों के लिए हीरे,मोती से भरी तिजोरी से भी अधिक कीमती धरोहर के रूप में छोड़ी जा सकती है। अगले 100 वर्ष तक—चार-पाँच पीढ़ियों तक—हमारा शिक्षण कार्य उस परिवार में चलता रहे तो इससे बढ़कर और कोई स्मारक हमारा नहीं हो सकता।

एक घन्टा—दस पैसा—वाला कार्यक्रम अनेक दृष्टियों से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। पर जिन्हें क्षणिक स्वार्थों का तो ध्यान है, पर कर्तव्य का नहीं, उनके लिए इतनी छोटी बात भी—कष्ट-साध्य ही नहीं, असम्भव जैसी लगेगी। ऐसे लोगों को हमारा साथी या सहचर बनने का व्यर्थ दिखावा नहीं करना चाहिए। हम व्यक्ति नहीं विचार हैं। जो हमारे व्यक्तित्व तक ही अपना सम्बन्ध रखना चाहते हैं, विचारों का तिरस्कार करते हैं उन्हें हमारा साथ छोड़ देना चाहिए। इसके लिए आज का दिन ही सब से उपयुक्त है। ‘छटनी’ योजना अनावश्यक जंजाल सिर से हटा देने के लिए बनाई है ताकि हलके होकर अधिक वास्तविक रूप से अधिक अच्छी तरह अपना सामयिक कर्तव्य-पालन कर सकें।

अभिमन्यु को गर्भावस्था में युद्ध विद्या ‘चक्रव्यूह वेधन’ का ज्ञान मिला था। इसका अर्थ यह नहीं है कि एक दिन या एक घन्टे में अर्जुन ने सुभद्रा को सब कुछ बता दिया होगा और अभिमन्यु ने उतनी ही देर में सब कुछ सीख लिया होगा। मस्तिष्क और अन्तःकरण का प्रशिक्षण श्रम-साध्य और समय साध्य है। उसके लिए लगातार बहुत दिनों तक प्रयत्न करना होता है। सच तो यह है कि माता-पिता को वह सब कुछ अपने मस्तिष्क और अन्तःकरण में गहराई तक धारण करना होता है जो बच्चों में उतारना है। इसलिए यह शिक्षा-क्रम हर परिवार में निरन्तर जारी रहना चाहिए। प्राचीनकाल में ऐसी ही व्यवस्था थी। अब हमें नव-निर्माण के लिए उसी आवश्यकता की पूर्ति करनी है।

जिन व्यक्तियों के साथ हमने पिछले 27 वर्ष व्यतीत किये उन्हें, उनके परिवारों को जैसी की तैसी स्थिति में छोड़कर चले जाना हमारे लिए लज्जा और कलंक की बात होगी। किसी भी सामयिक कठिनाई में कुछ आत्मिक या भौतिक सहायता कर देने से तत्काल थोड़ी देर तक कष्ट मुक्त कर सकता है पर सुख शान्ति की स्थायी आधार शिला तो सद्विचारों और सत्कर्मों पर की जाती है। इस प्रक्रिया में यदि हम स्वजनों को न लगा सके तो उनका जीवनोद्देश्य और किसी प्रकार भी सफल नहीं हो सकता। कड़ुई दवा खाये बिना कष्टसाध्य रोग कैसे दूर हो? एक-दो माला घुमा देने से समस्त समस्याओं का हल ढूँढ़ने की आशा करने वाले मिथ्या कल्पना से भरे मूर्खों के स्वर्ग में उड़ते हैं। सुख-शान्ति का उपार्जन कठोर कर्तव्यों का पालन करने की रचनात्मक गतिविधियाँ अपनाने से ही सम्भव होता है। सच्ची साधना का यही मार्ग है। हम अपने प्रिय परिजनों को अब उपासना से आगे बढ़ाकर जीवन-साधना के क्षेत्र में संलग्न करना चाहते हैं ताकि वे आध्यात्मिकता के सच्चे और चिरस्थायी लाभों से लाभान्वित हो सके। अपने प्रियजनों को सुखी बनाने के लिए हर कुलपति प्रयत्न करता है, हम भी इसी दृष्टि से इन दिनों अपना प्रयत्न तीव्र कर रहे हैं। यदि कुछ ठोस लाभ दिये बिना हमें विदा होना पड़ा, तो अपने प्रिय परिवार के प्रति हमारा उत्तरदायित्व पूरा न हो सकेगा और उसकी लज्जा एवं वेदना हमें देर तक कष्ट देती रहेगी। इस व्यथा से छुटकारा पाने के लिए वर्तमान छटनी पर बहुत जोर दे रहे हैं। जो हमारी बात तो सुन सकते हैं पर बताये मार्ग पर चलने के लिए तनिक भी तैयार नहीं,उनके साथ उलझे रहने की अपेक्षा अब हमें ऐसे लोगों को साथ रखना है जो कुछ काम कर सकने लायक श्रद्धा और आत्मीयता हमारे प्रति उत्पन्न कर चुके हैं। अधिक न सही तो कम से कम इतनी सेवा हम अपने इन प्रिय परिजनों की करेंगे ही कि उनके वर्तमान परिवार सुसंस्कृत बनें और परिवार को तथा हमारे अन्तःकरण को प्रसन्नता प्रदान कर सकें।


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