हरि कथा का मूल्य

August 1966

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पद्मनाभ बहुत गरीब ब्राह्मण थे। किन्तु ब्राह्मण होने के नाते हर समय यह बात उनके मस्तिष्क रहा करती थी कि उनका कर्तव्य जन-जन को ज्ञान प्रदान करना है। बिना स्वयं ज्ञान प्राप्त किए किसी अन्य को ज्ञान किस प्रकार दिया जा सकता है। यही सोचकर भूखे नंगे रहकर भी किसी प्रकार संस्कृत का ज्ञान प्राप्त कर लिया।

पद्मनाभ जब अपना अध्ययन पूरा कर चुके तो जनता को ज्ञान देने का माध्यम कथा बाँचना बनाया। वे जन-स्थानों पर जाते और स्वयं कथा बाँचना प्रारम्भ कर दिया करते थे। वे निरन्तर निष्काम भाव से भगवान की भक्ति जन मानस में जाग्रत करने के लिये सुन्दर से सुन्दर अर्थ और विवेचना किया करते थे। लोग उनकी ओर आकर्षित होकर कथा सुनने लगे। कथा में जो कुछ थोड़ा बहुत चढ़ावा आता उसी से वे अपना और अपने परिवार का पोषण करते हुये ज्ञान का प्रसार करते रहे। एक बार उन्होंने यह सिद्धान्त वाक्य कि “ज्ञानदान का प्रतिफल धन के रूप में नहीं ग्रहण करना चाहिये” एक पुस्तक में देख लिया। वे बड़े दुखी होने लगे। उन्होंने सोचा कि अब तक जो कथा कहकर उसमें प्राप्त धन को ग्रहण करता रहता हूँ वह एक तरह से ज्ञान का प्रतिदान ही लेता रहा हूँ। अतएव मेरा अब तक का सारा श्रम व्यर्थ गया। आगे पद्मनाभ ने कथा में मिला पैसा अपने खर्च में न लगाकर गुरुकुल आदि जन संस्थाओं को देना शुरू कर दिया और अपना व अपने परिवार के जीवन -निर्वाह के लिए जंगल से लकड़ी काटकर बेचना शुरू कर दिया। इस प्रकार नितान्त निःस्वार्थ होकर पद्मनाभ आजीवन ज्ञान प्रसार का अपना कर्तव्य पूरा करते रहे।


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