मानसिक स्थिति का स्वास्थ्य पर प्रभाव

May 1962

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मनोविकारों का प्रभाव शारीरिक स्वास्थ्य पर अत्यधिक पड़ता है। सीधा, सरल और स्वाभाविक जीवन सब प्रकार शान्तिदायक और श्रेयस्कर है। सज्जनों से मित्रता, दुखियों पर करुणा, उन्नतिशीलों को देखकर प्रसन्नता और दुष्टों के प्रति उपेक्षा भाव रखकर मनुष्य अपनी मनोभूमि को शान्त रख सकता है। कई बार दुष्टों के दुर्व्यवहार से उत्पन्न होने वाली अव्यवस्था को रोकने के लिए उनसे निपटना पड़ता है, पर कठोर से कठोर संघर्ष करते हुए भी सद्भावना बनाये रखी जा सकती है। गान्धी जी ने इस प्रकार के सफल संघर्ष का एक आध्यात्मिक प्रयोग करके जनसाधारण के लिए उपयोगी मार्ग दर्शन किया है। ऐसे अवसर तो कम ही आते हैं कि सारा दोष सामने वाले का ही हो और हम सर्वथा निर्दोष हों। यदि मनुष्य अपने दोषों को देखता और सुधारता रहे तथा व्यक्ति समय एवं परिस्थितियों के अनुरूप नीति निर्धारित करता रहे तो व्यक्तिगत जीवन में अधिकाँश द्वेष और संघर्षों से बचा जा सकता है।

हमारे आन्तरिक शत्रु

काम,क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, निराशा, विक्षोभ, चिन्ता , भय, शोक, संशय आदि के मनोविकार आमतौर से अपने भीतर से ही उत्पन्न होते हैं। इनकी जड़ मानसिक दुर्बलता एवं विचारों की भ्रान्ति में ही सन्निहित रहती है। बाहर का कोई छोटा बड़ा निमित्त जो उन विकारों को भड़काने के लिए मिल ही जाता है वास्तविक कारण न भी हो तो भी संशयग्रस्त मनः स्थिति वाले व्यक्ति कोई कारण कल्पना के आधार पर गढ़ लेते हैं या भविष्य की आशंकाओं के भयानक चित्र बना−बनाकर उससे और दुख पाते रहते हैं। हालाँकि उसका वास्तविक प्रयोजन कुछ भी नहीं है। दूसरों की बढ़ोत्तरी देखकर या प्रशंसा सुनकर जिन्हें सन्ताप होता है वे अपनी हीनता और असफलता की तुलना करके अपनी प्रगति की बात तो सोच नहीं पाते उस विक्षोभ को ईर्ष्या में परिणत कर लेते हैं और किसी प्रकार नीचा दिखाने की तरकीबें सोचने में अपना मस्तिष्क और समय बर्बाद करते रहते हैं। ईर्ष्या से उत्पन्न द्वेष, निन्दा, चुगली, कटाक्ष, विरोध आदि से बढ़ते−बढ़ते संघर्ष एवं शत्रुता में परिणत हो जाता है तब अकारण ही सैकड़ों ऐसी समस्याऐं सामने आ खड़ी होती हैं जिन्हें सुलझाना एक असाधारण सिरदर्द बन जाता है।

ईर्ष्या की भाँति ही निराशा, आवेश, भय, चिंता, संयम आदि की प्रतिक्रियाऐं होती हैं। यह मानसिक रोग मस्तिष्क के उन तत्वों को बुरी तरह नष्ट करते रहते हैं जो स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी एवं आवश्यक हैं। जिस प्रकार पाचन क्रिया का ठीक रहना स्वास्थ्य की रक्षा के लिए आवश्यक है उसी प्रकार मन और मस्तिष्क का शान्त एवं सौम्य रहना भी अनिवार्य है। यह सर्वविदित तथ्य है कि मन का नियंत्रण शरीर पर रहता है, जड़ तत्वों पर चेतना शासन करती है। यदि अन्तःचेतना में गड़बड़ी उत्पन्न हो जाय तो शरीर का अस्वस्थ रहना सुनिश्चित है। देह में कोई रोग न भी हो पर यदि व्यक्ति मनोविकारों से ग्रसित है तो उसे बीमारी से भी अधिक कष्ट बना रहेगा और जीवन तत्व एवं आयुष्य का निरंतर क्षरण होता रहेगा।

शरीर पर मानसिक नियंत्रण

शरीर के समस्त अंगों में जिस प्रकार हृदय की धड़कन द्वारा रक्त संचार की व्यवस्था बनी रहती है, उसी प्रकार मस्तिष्क द्वारा, ज्ञान तन्तुओं द्वारा सारे शरीर की चेतना पर नियंत्रण होता है, देह में कहीं पर एक मक्खी भी बैठे तो उसकी सूचना ज्ञान तन्तुओं द्वारा मस्तिष्क तक पहुँचती है और वहाँ से हाथ को मस्तिष्क ही उस मक्खी को उड़ाने की आज्ञा देता है। इस प्रकार हमारी प्रत्येक क्रिया पर मस्तिष्क का नियंत्रण होता है। यों मन की चेतना हमारे सारे शरीर में व्याप्त रहती है पर उसका प्रधान केन्द्र मस्तिष्क है। यह सुप्त और जागृत दो भागों में विभक्त है। आदतें सुप्त मस्तिष्क में और विचारधारायें जागृत मन में अपनी जड़े जमाये रहती हैं। इन दोनों के द्वारा हमारी बौद्धिक गतिविधियाँ ही नहीं स्वास्थ्य संबंधी प्रक्रिया का भी संचालन होता है। पाचन क्रिया के बाद सबसे महत्वपूर्ण अंग मस्तिष्क ही माना जाता है। इसलिए उसका निर्विकार रहना आवश्यक है। पेट में यदि कोई विषैली चीज पहुँच जाय तो उसके कारण उलटी, दस्त ,जी मिचलाना, घबराहट आदि अनेक विकृतियाँ पैदा हो जाती है। मस्तिष्क में भी यदि कुविचारों और दुर्भावनाओं का विष प्रवेश कर जाय तो उसके द्वारा पेट में गये हुए विष नाड़ी संस्थान एवं ज्ञान तन्तुओं द्वारा सारे शरीर में फैल जाता है, फलस्वरूप नाना प्रकार के रोग उपज पड़ते हैं।

भय का घातक प्रभाव

सिंह आदि हिंसकों की गंध पाकर कमजोर तबियत के बकरी आदि पशु किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं और बोलने तक भूल जाते हैं। भय के विचार मन में आते ही उनका प्राण सूख जाता है, सिंह को देखकर वे भागना तो दूर हिलते−डुलते तक नहीं और आसानी से उसके शिकार बन जाते हैं। फाँसी की कोठरी से निकालकर जब मृत्यु दंड पाये हुए कैदी वध स्थल पर ले जाये जाते हैं तो उनमें से कई ऐसे होते हैं जिनका डर के मारे बहुत बुरा हाल हो जाता है, धोती में मल−मूत्र निकल जाता है और अर्धमृत मूर्छित जैसी अवस्था में उन्हें फाँसी का फंदा पहनाया जाता है। यद्यपि मृत्यु से पूर्व कष्ट की कोई बात नहीं थी पर भय का विचार ही शरीर को संज्ञा शून्य कर देने के लिए पर्याप्त होता है।

सुस्वादु भोजनों पर बैठा हुआ भूखा मनुष्य बड़े प्रेम से खाना आरंभ करता है। इतने में तो यदि किसी प्रिय स्वजन की मृत्यु का समाचार मिलता है तो क्षणभर में भूख न जाने कहाँ चली जाती है और एक ग्रास भी मुँह के भीतर नहीं चलता। श्रवण कुमार और रामचन्द्र जी के पिता तो पुत्र विछोह के शोक में अपने प्राण ही दे बैठे थे । अभी भी ऐसे समाचार आते रहते हैं कि पति−पत्नी में से एक की मृत्यु होने पर दूसरे की मृत्यु शोक संतप्त अवस्था में ही हो गई। शोक एक मनोभाव मात्र है। शरीर में कोई रोग या आघात न होने पर भी मानसिक कष्ट के कारण शरीर इतना अधिक प्रभावित होता है कि उसे प्राण तक छोड़ने के लिए विवश होना पड़ता है। क्रोध के विचार आते ही सारा शरीर काँपने लगता है, आँखें लाल हो जाती हैं, स्वर बदल जाता है, चेहरा तमक जाता है। इसी प्रकार प्रसन्नता के विचारों की मस्ती देखते ही बनती है।

अन्तर्जगत के कुटिल द्वन्द्व

मनोभावों को दबाने के कारण अन्तर्जगत में प्राणघातक ग्रन्थियाँ बन जाने की बात मनोवैज्ञानिक स्वीकार करते हैं। प्रयोगों से पता चला है कि कोई व्यक्ति यदि अपने मनोविकारों को प्रकट न करे छिपाये रहे तो उसकी घुटन संकटपूर्ण परिस्थिति पैदा कर देती है। सास बहू में सदा झगड़ा बना रहे और दोनों मन ही मन कुढ़ती रहें तो सास अन्धी हो सकती और बहू को क्षय, अंत्रदाह जैसे रोगों में ग्रसित हो जाना संभव है। अतृप्त काम वासना को दमन करने के कारण हिस्टीरिया, पागलपन, मूर्छा जैसे रोग होते देखे गये हैं। ईर्ष्यालु, कपटी, मायावी, पाखंडी ठग, जालसाज प्रकृति के लोग दुहरा व्यक्तित्व बनाये रहते हैं। भीतर कुछ और बाहर कुछ और का पाखंड जिन्हें बनाये रखना पड़ता है उनके हृदय, यकृत,गुर्दे, की क्रिया शक्ति तेजी से नष्ट होती है और चिरस्थायी रोगों के चंगुल में वे फंस जाते हैं। अपमान का घूँट जिन्हें पीना पड़ा है, बेबसी के कारण किसी के बन्धनों में पड़े हुए जो तड़फ तड़फड़ाते रहते हैं, जिनकी कामनाऐं अधूरी रहती हैं उन्हें स्नायु दौर्बल्य, अनिद्रा, दुःस्वप्न, मूत्र रोगों से ग्रसित होते देखा गया है। जिन स्त्रियों के दाम्पत्ति जीवन असन्तोष भरे रहते हैं पर सामाजिक भय से विवश होकर ससुराल में रहना पड़ता है उन्हें कई प्रकार के रोगों में घुल−घुलकर मरते देख गया है। ऐसे रोगियों की मनोव्यथा दूर हुए बिना कोई दवा दारु कारगर नहीं होती।

भूकम्प या तूफान आने पर जिस प्रकार किसी नगर की स्थिति उलट−पलट जैसी हो जाती है वैसी ही स्थिति मनोविकारों के उफान आते रहने पर शरीर की हो जाती है। चिन्ता को चिता की उपमा दी गई है, चिता मरे को जलाती है पर चिन्ता तो जीवित को ही जला डालती है। जो लोग मनसूबे बड़े−बड़े बाँधते रहते हैं पर अपनी अयोग्यताओं एवं दुर्गुणों के कारण कर कुछ नहीं पाते, ऐसे अतृप्त कामना वाले मनुष्य गठिया, रक्तचाप, मन दृष्टि, मलावरोध जैसे रोगों से ग्रसित होते देखे गये हैं। असन्तोषी, ईर्ष्यालु और कुढ़न में ग्रस्त रहने वालों का शरीर कभी भी पनप नहीं सकता भले है उन्हें खाने−पीने की कितनी ही उत्तम सुविधा क्यों न प्राप्त हो। हर आदमी को विरोधी झूँठा, बेईमान और अविश्वस्त समझने वाले वहमी मनुष्य घृणा और आशंका से अपनी मनोभूमि को गंदी किये रहते हैं और उस गंदगी से उनका रक्त भी दूषित तत्वों से भर जाता है। ऐसे लोगों को रक्ताल्पता से लेकर पक्षाघात तक भयंकर रोग होने की सम्भावना बनी रहती है। केन्सर रोग आमतौर से उन्हें होता है जो चिन्ता और बेचैनी के शिकार रहते हैं, जिनके मन में काम वासना के अश्लील विचार निरन्तर घूमते रहते हैं उन्हें स्वप्न दोष, प्रमेह, बहुमूत्र आदि की शिकायत कुछ ही दिनों में पैदा हो जाती है। जिन्हें निराशा घेरे रहती है, अन्धकारमय भविष्य की ही कल्पना जिन पर सवार रहती है उन्हें फोड़े, फुँसी और दाद, छाजन जैसे चर्म रोग उठ खड़े होते हैं।

मनोभूमि का संतुलन

निरोगिता की आकाँक्षा करने वालों को पेट की सफाई रखना आवश्यक है इसी प्रकार यह भी अनिवार्य है कि अपनी मनोभूमि को संतुलित एवं स्वच्छ रखें। पेट और मस्तिष्क स्वास्थ्य की गाड़ी को ठीक प्रकार चलाने वाले दो पहिये हैं इनमें एक बिगड़ गया तो दूसरा भी बेकार ही बना रहेगा। मनोभूमि को संतुलित रखने के लिए यह आवश्यक है कि हमारा स्वभाव हंसोड़, सन्तोषी और निर्भय रहने का हो । हर काम को पूरी जिम्मेदारी से करना चाहिए और अति महत्व किसी भी बात को नहीं देना चाहिए। खिलाड़ी जिस प्रकार फील्ड में पूरी तत्परता से खेलते हैं पर हार जीत का कोई प्रभाव अपने मन पर नहीं पड़ने देते, रंगमंच पर नाटक करने वाले अभिनेता अपना अभिनय पूरे मनोयोग से करते हैं और नाटक में घटित हुई घटनाओं का अपने मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने देते। जीवन की हर समस्या को हमें खिलाड़ी की दृष्टि से ही देखना चाहिए और हमारा कर्तव्य करते हुए भी किसी को इतना महत्व न देना चाहिए कि उसके दबाव से मानसिक संस्थान अस्त−व्यस्त होने लगे। वेदान्त की ‘संसार स्वप्न’ मान्यता की उपयोगिता इसी दृष्टि से है। कर्तव्य के लिए जो परिस्थितियाँ सामने आ पड़ें उनके लिए हलकी दृष्टि रखना और किसी भी बात को बहुत अधिक महत्व न देना स्वास्थ्य की दृष्टि से एक बहुत ही उपयोगी गुण है।

हँसी खुशी का जीवन

हँसते और हँसाते रहने वाले अपनी आयुष्य बढ़ाते हैं और दूसरों को सजीवता का उपहार देते हैं। जो महत्व बगीचे में खिलते हुए फूलों का है वही उपयोगिता मानव समाज में प्रसन्न मुख, रहने वालों की है। रोगियों की परिचर्या करने वाली प्रसन्न मुख, मुस्कुराते रहने वाली, विनम्र स्वभाव की नर्सें कितनी ही बार कीमती दवादारू से अधिक जीवन दायिनी सिद्ध होती हैं। वे अपने उत्तम स्वभाव के कारण असाध्य और निराश रोगियों में भी आशा भर जीवनी शक्ति का संचार करके रोग−मुक्ति में हमारी सहायता करती देखी गईं हैं। जिस घर में एक दो व्यक्ति भी इस प्रकार अलमस्त तबियत के होते हैं वे सारे परिवार की चिन्ता और परेशानी को उसी प्रकार पी जाते हैं जिस प्रकार समुद्र मंथन का विष शंकर जी पी गये थे। मुँह फुलाये, मनहूस की तरह खिन्न बैठे रहने का स्वभाव एक अभिशाप है, ऐसे लोग स्वयं ही संत्रस्त नहीं रहते वरन् अपने सम्बन्धित लोगों का भी प्राण चूसते रहते हैं। हंसोड़ लोग आमतौर से मोटे होते हैं। लोग समझते हैं कि वे सुखी एवं स्वस्थ हैं इसलिए हँसा करते हैं पर सच बात यह है कि वे अपने प्रसन्न स्वभाव के कारण ही स्वस्थ और सुखी दीखने जैसी स्थिति में रहते हैं। दुनियाँ में हर आदमी के सामने समस्याऐं हैं सब की अपनी−अपनी उलझनें हैं, पूर्ण सन्तुष्ट और सुखी व्यक्ति की रचना परमात्मा ने नहीं की है। जितना कुछ प्राप्त है उस पर आनन्द मनाने, सन्तुष्ट रहने की और अधिक प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करते रहने की नीति जिनने अपना ली है उनके लिए हँसते रहने के अगणित कारण अपने चारों ओर बिखरे दिखाई पड़ते हैं।

आस्तिक को किसका डर

ईश्वर पर विश्वास करने वाले के लिए निराश होने और डरने का कोई कारण नहीं हो सकता। जब इस समस्त सृष्टि की बागडोर हमारे पिता−परमेश्वर के हाथ में है तो भविष्य के निराशाजनक होने का कारण क्या हो सकता है? जिस ईश्वर ने जन्म से पूर्व गरम और मीठे दूध की दो थैलियाँ हमारे लिए तैयार रखी थी वह क्या कभी हमें असहाय छोड़ सकता है। अपने भीतर बाहर जब सर्वत्र परमात्मा संरक्षक के रूप में मौजूद है तो डरा किससे जाय? डरने की चीज एक ही है−पाप वृत्तियों से यदि हम डरने लगें तो सर्वत्र निर्भयता ही निर्भयता का साम्राज्य दिखाई देगा। डराती तो हमें हमारी दुर्बलताएं ही हैं। अपने गुण, कार्य, स्वभाव में से बीन−बीन कर हमें दुर्बलताओं को निकालना चाहिए। आत्म निरीक्षण, आत्म−शोधन आत्म−विकास की तात्विक दृष्टि को अपनाकर हम अपनी मनोभूमि को दिन−दिन शुद्ध बनाते चलें तो चित्त सदा प्रसन्न रहेगा, भविष्य आशाजनक दिखाई देगा और वर्तमान कठिनाइयों को सुलझाने के लिए एक सही दृष्टिकोण मिलेगा जिसके आधार पर कठिन समस्याओं को भी सरलतापूर्वक सुलझाया जाना संभव होगा।

मानसिक संतुलन आवश्यक है

स्वास्थ्य सुधार के लिए मानसिक संतुलन अनिवार्यतः आवश्यक है। ओछे और बिगड़े स्वभाव के लोग कभी निरोग रह सकेंगे इसमें संदेह है। चिकित्सा का उपचार सामयिक है उससे तात्कालिक कष्ट दूर हो सकता है पर रोग की जड़ बनी रहेगी तो बीमारी फिर उखड़ेगी या कोई और नया रूप धारण कर सामने आवेगी। प्राकृतिक मर्यादाओं के अनुरूप आहार−विहार अपनाकर स्वास्थ्य को सुरक्षित रखना, एवं विषैली तीव्र औषधियों से बचते हुए सौम्य चिकित्सा पद्धति से बिगड़े हुए स्वास्थ्य को पुनः प्राप्त कर सकना संभव हो सकता है पर स्थायित्व तभी आवेगा जब मनोभूमि का भी आवश्यक सुधार हो, शारीरिक रोगों से छुटकारा प्राप्त करना जितना आवश्यक है उतनी ही आवश्यकता इस बात की भी है कि मस्तिष्क को मनोविकारों से रहित बनाया जाय। स्वच्छ पेट और स्वच्छ मन ही दीर्घजीवन एवं आरोग्य रक्षा का सर्वोत्तम एवं सुनिश्चित माध्यम हो सकता है। यदि वस्तुतः हम चिरस्थायी आरोग्य चाहते हों तो इन दोनों की उपेक्षा किसी भी प्रकार नहीं की जा सकती।


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