स्वास्थ्य सुधार के लिए धैर्य की आवश्यकता

May 1962

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किसी वस्तु को नष्ट करना आसान है पर बनाना कठिन है। किसी बड़े कारखाने को आग लगाकर कुछ घण्टों में बर्बाद किया जा सकता है पर नये सिरे से उसे खड़ा करना मुश्किल है। किसी बड़ी इमारत को तोड़ना हो तो कुछ मामूली श्रेणी के अनजान मजदूर भी कुछ दिन में उसे तोड़ सकते हैं पर यदि नये सिरे से मकान बनाना हो तो कुशल कारीगरों की, बहुत सामान की जरूरत पड़ेगी और बहुत दिन उस निर्माण में लगेंगे। इसी प्रकार स्वास्थ्य को नष्ट कर डालना सुगम है पर उसे बनाने के लिए, सुरक्षित रखने के लिए तथा बढ़ाने के लिए बहुत प्रयत्न करने का आवश्यकता पड़ती है।

उपेक्षा से बर्बादी

उपेक्षा और लापरवाही स्वास्थ्य की बर्बादी का प्रधान कारण है, उस कारण को ठीक किये बिना कोई व्यक्ति न तो अपने बिगड़े हुए स्वास्थ्य को सुधार सकता है और न स्वस्थ शरीर को देर तक सुरक्षित रख सकता है। उपेक्षा के गर्त में पड़ी हुई हर वस्तु नष्ट होती है, जिस चीज की भी साज सँभाल न की जायगी वही कुछ दिन में बिगड़ने लगेगी और संभाल कर रखने पर वह जितने दिन जीवित रहती उसकी अपेक्षा लापरवाही का तिरस्कार सहकर कहीं जल्दी टूट फूट जायगी। लोग अपने धन दौलत की चौकसी रखते हैं, खेती बाड़ी की, कोठी गोदाम की रखवाली का समुचित ध्यान रखते हैं पर आरोग्य जैसी अमूल्य सम्पत्ति की ओर सर्वथा उपेक्षा धारण किये रहते हैं। ऐसी दशा से शरीर यदि दिन-दिन क्षीण होता चले तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।

सूक्ष्म एवं महत्वपूर्ण यंत्र

शरीर एक मोटर के समान है। जिसमें अनेकों सूक्ष्म यंत्र लगे हुए हैं। ड्राइवर यदि उन यंत्रों के संबंध में सावधानी बरते और उन्हें ठीक तरह काम में ले तो वही मोटर देर तक चलती है। अनाड़ी ड्राइवर, जिसे तेज दौड़ाने का तो शौक है पर इस बात का ध्यान नहीं हो कि क्या-क्या सावधानी बरतना आवश्यक है, वह मोटर को थोड़े ही दिनों में बर्बाद कर देगा। इंजन के कीमती पुर्जे अपने चलाने वाले से इस बात की अपेक्षा करते हैं कि उनकी क्षमता से अधिक भार न पड़ने दिया जाय। अत्याचार से हर चीज नष्ट होती है फिर वे बेचारे पुर्जे भी अपवाद क्यों होंगे? अनाड़ी ड्राइवर जिस प्रकार असावधानी के कारण कीमती मोटर को भी कुछ दिन में कूड़ा बना देता है उसी प्रकार शरीर के साथ लापरवाही बरतने वाले, अत्याचार करने वाले लोग भी कमजोरी और बीमारी के शिकार होकर अकाल मृत्यु के मुख में चले जाते हैं। चतुर ड्राइवर जिस प्रकार पुरानी मोटर से भी बहुत दिन काम ले लेते हैं उसी प्रकार शरीर के प्रति सावधानी बरतने वाले दुर्बल मनुष्य भी अपनी सामान्य शारीरिक स्थिति से भी बहुत दिन तक काम चलाते रहते हैं।

सुरक्षा और सावधानी

महात्मा गाँधी का वजन 96 पौंड था। शरीर की दृष्टि से दुर्बल और स्वल्प सामर्थ्य वाले थे, यदि कोई दूसरा असंयमी व्यक्ति उनकी जैसी शारीरिक स्थिति में होता तो वह अधेड़ होने तक रोगों में ग्रस्त होकर मरखप गया होता। पर गाँधी जी ने जीवन का महत्व समझा। शरीर को भगवान की सौंपी हुई एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अमानत मानकर उसके द्वारा समुचित सत्कर्म करने का निश्चय किया तो उन्हें यही उचित प्रतीत हुआ कि सबसे प्रथम शरीर की सुरक्षा पर ध्यान दिया जाय। उन्होंने 36 वर्ष की आयु में ब्रह्मचर्य का व्रत लिया, भोजन पर से स्वाद की दृष्टि बदली और औषधिरूप से उपयोगी से उपयोगी आहार ही लेना आरम्भ कर दिया, दैनिक क्रियाकलापों में प्राकृतिक नियमों का पालन और मन का संतुलन रखने का दृढ़ निश्चय कर लिया, फलस्वरूप वे दुबले-पतले शरीर को लेकर ही दीर्घ जीवन एवं निरोग शरीर का लक्ष प्राप्त करने के लिए तेजी से बढ़ने लगे। यदि दुर्घटना घटित न हुई होती—गोली काण्ड का शिकार उन्हें न बनना पड़ा होता तो वे शारीरिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण आदर्श लोगों के सामने रखने जा रहे थे। अस्सी वर्ष की आयु में उनका शारीरिक संस्थान एवं जीवन क्रम ऐसा संतुलित चल रहा था कि बीमार पड़ने का कोई प्रश्न ही न था। वे एक सौ बीस वर्ष अवश्य जी सकते थे। पर दैव-दुर्विपाक को क्या कहा जाय?

प्रकृति की मर्यादाओं का पालन

सृष्टि के समस्त जन्तुओं पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट हो जाता है कि ये प्राणी भले ही अल्प बुद्धि हों पर प्रकृति की मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करते। फल स्वरूप वे जन्म के दिन से लेकर मृत्यु के दिन पर्यन्त निरोग जीवन ही जीते हैं। जंगली जानवरों से वन प्रदेश भरा रहता है क्या शाकाहारी, क्या माँसाहारी सभी पशु आनन्द की किलकारियाँ भरते हुए निरोग जीवन व्यतीत करते हैं। पक्षियों को लीजिए तितली, मक्खी से लेकर बड़े-बड़े पक्षियों तक कोई भी बीमार पड़ते नहीं देखे जाते। बुढ़ापे से संत्रस्त, दुर्बलता से ग्रसित, बीमारियों के पाश में जकड़ा हुआ कभी कोई जीव-जन्तु नहीं देखा जाता। समय आने पर मरते तो सभी हैं, पर मनुष्य की तरह सड़ते और कराहते रहने का कष्ट किसी को नहीं भुगतना पड़ता। मनुष्य ने प्राकृतिक मर्यादाओं का उल्लंघन करते रहने की जो ठान ठानी है उसी के फलस्वरूप उसे नाना प्रकार के रोगों में ग्रसित होना पड़ता है। अपनी बुरी आदतें उसने अपने बन्धन में बंधे हुए जिन पशु पक्षियों को भी सिखा दी हैं, उनको प्रकृति के विपरीत अनुपयुक्त आहार-विहार करने को विवश किया है वे भी बीमार पड़ने लगे हैं। सभ्यताभिमानी मनुष्य ने अपना ही स्वास्थ्य नहीं गँवाया है वरन् अपने आश्रय में आये हुए अन्य जीवों की भी ऐसी ही दुर्दशा की है।

सभ्यता की घुड़दौड़

प्रकृति के अनुकूल जब तक मनुष्य चलता रहा तब तक वह स्वस्थ और निरोग जीवन व्यतीत करता रहा। हमारे पूर्वज कई-कई सौ वर्षों तक जीवित रहते और इतने बलवान होते थे कि उनके शारीरिक पराक्रमों की गाथाऐं सुनकर आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है। यह स्थिति दिन-दिन दुर्बल होती चली गई। इसका एक मात्र कारण यही रहा है कि सभ्यता की घुड़दौड़ में पड़कर कृत्रिमता को अपनाया गया और वह कृत्रिमता आहार-विहार में भी गहराई तक प्रवेश करती गई। शरीर के यन्त्र इसी ढंग से बने हुए हैं कि वे प्राकृतिक आहार-विहार के आधार पर ही ठीक प्रकार काम करते रह सकते हैं। उन पर बलात्कार किया जायेगा तो फिर उन अंगों का असमर्थ और रुग्ण हो जाना स्वाभाविक है। सभी जीव जन्तु स्वाभाविक स्थिति में उपलब्ध होने वाला आहार उसके मूल रूप में ग्रहण करते हैं। घास खाने वाले जानवर घास को और माँस खाने वाले जानवर माँस को पकाते, उबालते, तलते, भूनते नहीं हैं। चिड़िया दाने बीनती है या कीड़े-मकोड़े खाती है। मनुष्य का आहार अन्न, कंदमूल, फल, शाक, दूध, शहद आदि हैं। पर उसका लाभ तभी है जब उसे प्राकृतिक रूप से लिया जाय। भूनने, पकाने, तलने, जलाने की क्रियाओं में खाद्य के जीवन तत्व अग्नि द्वारा नष्ट हो जाते हैं और फिर कोयला जैसी निस्सार स्थिति में पहुँचा हुआ आहार खाना पड़ता है। पूड़ी, पकौड़ी, मिठाई, अचार, चटनी और नाना प्रकार के व्यंजन जो आज हमारी थाली की शोभा बढ़ाते हैं और बहुत जायका ले ले करके खाये जाते हैं उनके जीवन तत्व नष्ट हो जाते हैं। बहुत पैसा खर्च करके जीवन तत्व से रहित निर्जीव जैसा आहार खाकर भले कैसे आशा की जाय कि उसमें से हमें स्वास्थ्यप्रद तत्वों की उपलब्धि होगी।

सन्तानोत्पादन का उत्तरदायित्व

ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में समस्त विश्व के जीव−जन्तुओं की एक सुदृढ़ परम्परा है कि क्रीड़ा या विनोद के लिये कोई भी प्राणी कभी काम सेवन नहीं करता। मादा को जब सन्तानोत्पत्ति की प्रकृति प्रदत्त प्रेरणा होती है तभी वह नर के सामने अपनी वासना प्रकट करती है, तभी नर उसे सन्तुष्ट करने के लिए उत्तेजित होता है। नर की ओर से अनिच्छुक मादा के सामने कभी काम प्रस्ताव नहीं होता। इसी प्रकृति मर्यादा के बन्धनों में बँधे हुए प्राणी अपने ओजस् और पराक्रम की रक्षा कर पाते हैं। मनुष्य ने इस दिशा में जितनी अति बरती हैं, मर्यादाओं का जितना उल्लंघन किया है उसे देखते हुए अस्वस्थता का जितना दंड मिल रहा है उसे कम ही कहा जा सकता है। रात को देर तक जागना, दिन को देर तक सोना, बिजली की तेज रोशनी से आँखों पर दबाव, कपड़ों से शरीर को लादे रहकर स्वच्छ हवा से रोम कूपों से वंचित रखना, शारीरिक परिश्रम की अधिकता या कमी औषधियों की भरमार आदि कितने ही ऐसे कारण हैं जो स्पष्टतः प्रकृति विरोधी आचरण कहे जा सकते हैं और जिनका स्वास्थ्य के ऊपर निश्चित रूप से अहितकर प्रभाव पड़ता है।

इन बुराइयों को यदि मनुष्य आँखें मूँदकर अपनाये रहे और प्रकृति की मर्यादाओं का पालन करने में सावधानी न बरते तो फिर उसकी शारीरिक स्थिति का ईश्वर ही रक्षक है। जिन्हें अपने जीवन से प्यार रहा है उनने सबसे पहला कार्य एक ही किया है कि अपनी प्रकृति विरोधी बुरी आदतों को छोड़ने और अपने आहार विहार को सुधारने में दृढ़ता एवं कठोरता से साथ आत्म नियंत्रण के लिए कदम उठाया है। जो आदतों के गुलाम हैं, इन्द्रिय लोलुपता पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते, जीभ के चटोरेपन को रोकने की जिनकी इच्छा नहीं होती, ब्रह्मचर्य का महत्व जो नहीं समझते वे कभी निरोग न रह सकेंगे? निरन्तर अपराध करने वाला अपराधी सजग शासन में देर तक स्वेच्छाचार नहीं कर सकता। उसे दण्ड का भागी बनना ही पड़ता है। इसी प्रकार प्रकृति के शासन में स्वेच्छाचारी बनने वाले निरंकुश लोग दण्ड के भागी बनें और रोगों की नारकीय योजनायें सहें तो इसमें आश्चर्य की क्या बात होगी?

स्वेच्छाचार का दण्ड

जिनने अपने स्वेच्छाचार के फलस्वरूप रोगों का दण्ड पाया है उनके लिए यही उचित है कि सच्चे हृदय से प्रायश्चित करते हुए अपनी आदतों और गति विधियों को सुधारते हुए प्राकृतिक जीवनयापन की सौम्य पद्धति को अपनावें। पर देखा जाता है कि लोग इसके लिए तैयार नहीं। वे चाहते हैं कि हमारा स्वेच्छाचार ज्यों का त्यों कायम रहे। रोग के निवारण के लिए कोई जादू जैसी दवा मिल जाय तो पेट में जाते-जाते सारे रोगों को छू मन्तर कर दे। इसी आशा से वे एक के बाद दूसरे डाक्टर के पास दवाऐं और सुइयाँ लेने के लिए मंडराते रहते हैं। प्रयोजन कुछ सिद्ध नहीं होता। दवाऐं कुछ देर के लिये रोग को छिपा देती हैं, उनका असर जैसे ही दूर हुआ कि रोग उसी रूप में या अन्य रूप में उभर आता है। एक मर्ज अच्छा हो नहीं पाया कि दूसरे नये रोग की शुरुआत हो गई। इसी कुचक्र में झूलते हुए लोगों की सारी जिन्दगी बीत जाती है।

तात्कालिक नहीं स्थायी उपचार

किसी कष्ट विशेष को दूर करने के लिए तात्कालिक उपचार के रूप में दवा कारगर हो सकती हैं पर उनके आधार पर खोये हुए स्वास्थ्य को पुनः प्राप्त कर सकता सर्वथा असंभव है। इसके लिए धैर्य और साहस से काम लेना पड़ेगा। जिस मकान को गिराने में आठ दिन लगे उसे यदि फिर से बनाना या ठीक करना हो उसमें निश्चय ही उससे दूने, चौगुने दिन लगेंगे। स्वास्थ्य को खराब करने में हमने इतने वर्षों तक शरीर पर निरन्तर अत्याचार किया है तो उसके सुधार में भी कुछ तो देर लगेगी ही। फिर भी जिस प्रकार टूटी मोटर की मरम्मत हो जाने के बाद भी उसकी अधिक साज संभाल रखनी पड़ती है उसी प्रकार खोये स्वास्थ्य को प्राप्त कर लेने के बाद भी अपेक्षाकृत अधिक सावधानी बरतने की आवश्यकता होगी।

उतावली न की जाय

जो रोगी या दुर्बल शरीर वाले व्यक्ति स्वास्थ्य सुधारने के लिए अत्यधिक उतावले होते हैं,चन्द दिनों या कुछ घण्टों में जादू मन्त्र की तरह पूर्ण निरोगिता चाहते हैं वे उतावले बच्चों की तरह हैं जो हथेली पर सरसों जमाना चाहते हैं और अन्त में निराशा एवं खिन्नता अनुभव करते हैं। हममें से हर एक को यह जान लेना चाहिए कि स्वास्थ्य सुधार एक साधना है। बिगड़े हुए शरीर को रोग रहित और सतेज बनाने के लिए तप करने की आवश्यकता होती है। आत्म नियंत्रण करके अपनी बुरी आदतों पर विजय प्राप्त करने एवं प्रकृति का अनुसरण करते हुए अपने आपको मानवोचित विधि व्यवस्था में ढालने के लिए जो लोग दृढ़तापूर्वक कदम उठाने का साहस कर सकें उन्हें ही स्वस्थ शरीर का दिव्य वरदान प्राप्त करने की आशा करनी चाहिए। जिन्हें इतना धैर्य न हो, उन्हें मृगतृष्णा में भटकते हुए हिरन की तरह अपनी शक्तियों को बर्बाद करते रहने और पग-पग पर पछताते हुए जादू भरे इलाज की खोज में लगा रहना चाहिए। उनकी बालबुद्धि को इसी में सन्तोष मिल सकता है चाहे वह क्षण स्थायी ही क्यों न हो।


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