स्वास्थ्य समस्या और हमारा कर्तव्य

May 1962

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इस अंक में रोगों से बचे रहने और गिरे हुए स्वास्थ्य को सुधारने वाले नियमों पर प्रकाश डाला गया है। जिन्हें आरोग्य की आकाँक्षा रही है उन्हें इन्हीं नियमों पर चलना पड़ा है और आगे भी जो निरोग जीवन व्यतीत करना चाहेंगे उन्हें आत्म संयम और नियमितता के इन्हीं नियमों का पालन करना पड़ेगा। बीमारी न आवे इसकी सुरक्षा के लिए इनका पालन आवश्यक है और चिकित्सा द्वारा रोग मुक्त होने के पश्चात् जो यह चाहते हैं कि पुनः उन्हें बीमारी का शिकार न होना पड़े उन्हें इन सभी बातों का ध्यान रखना पड़ेगा जिनकी चर्चा इस अंक में की गई है। प्रकृति बड़ी दयालु है उसने हमें आरोग्य रक्षा के अनेक साधनों से सम्पन्न शरीर दिया है और उसे सुविकसित करने योग्य अगणित साधन उत्पन्न किये हैं पर साथ ही उसकी कठोरता भी निश्चित है। अनुशासन भंग करने पर फौजी सिपाही को जिस प्रकार ‘कोर्ट मार्शल’ का कड़ा दण्ड भुगतना पड़ता है उसी प्रकार प्रकृति का कठोर शासन भी उच्छृंखल आचरण करने वालो को ‘सबक सिखाने’ के लिए काफी कड़ाई बरतता है। उच्छृंखल आचरण को जब तक छोड़ा न जायेगा तब तक बीमारी और कमजोरी की सजा भी बराबर मिलती रहेगी। मकान को तोड़−फोड़ करने वाला किराएदार जिस प्रकार जबरदस्ती निकाल बाहर किया जाता है वैसी ही स्वास्थ्य को बर्बाद करने में लगे हुए असंयमी मनुष्य अकाल में ही काल कवलित होते हैं, उन्हें दीर्घ जीवन के अपने स्वाभाविक अधिकार से वंचित होने के लिए विवश होना पड़ता है।

आरोग्य की उलझन भरी गुत्थी

आरोग्य की समस्या हल करने के लिए साधारणतः ध्यान दो बातों की ओर आकर्षित किया जाता है। एक यह कि—हर व्यक्ति प्रकृति के नियमों का ध्यान रखते हुए स्वास्थ्य को स्थिर रखने वाले नियमों का कड़ाई से पालन करे और आज सभ्यता के नाम पर अस्वाभाविक जीवन की जो उच्छृंखलता फैली हुई है उसे रोका जाय। दूसरी यह कि रोग ग्रस्त होने पर बीमारी को दबाकर जल्दी अच्छे होने की उतावली करने की चिकित्सा की अपेक्षा रोग को जड़ से उखाड़ने वाली चिकित्सा प्रणाली अपनाई जाय। भले ही कुछ देर लगे, भले ही कुछ झंझट भरे उपचार अपनाने पड़ें, पर एक बार पूरी तरह सफाई करके स्थायी रूप से रोगमुक्ति का प्रबन्ध किया जाय। इन दोनों बातों की ओर यदि जनसाधारण का समुचित ध्यान आकर्षित होने लगे तो स्वास्थ्य की उलझी हुई समस्या सहज ही हल हो सकती है और राष्ट्र अर्धमूर्छित स्थिति से उबरकर सशक्त एवं सक्षम बन सकता है। भौतिक या आध्यात्म की स्थायी प्रगति की आशा भी इन्हीं परिस्थितियों में की जा सकती है।

हमारा स्वास्थ्य आन्दोलन

युगनिर्माण योजना के अपने महान संकल्प के अनुसार ‘अखंड−ज्योति’ ने स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज की तैयारी का जो व्यापक आन्दोलन आरम्भ किया है उसमें पहला स्थान आरोग्य का है। इस अंक में उन शाश्वत नियमों की चर्चा की गई है जिन्हें अपनाये बिना कोई त्राण नहीं। यह असुविधाजनक लग सकते हैं पर कीमती हर वस्तु असुविधाजनक प्रयत्नों से ही प्राप्त होती है। धन, विद्या, कला, प्रतिभा आदि कोई भी विभूति ऐसी नहीं जो कष्ट साध्य प्रयत्नों से प्राप्त न होती हो, फिर आरोग्य ही क्या ऐसी गई बीती चीज है जो यों ही घूरे पर पड़ी मिल जायगी। उसे प्राप्त करने के लिए हर बलिष्ठ व्यक्ति को अपने आप पर कड़ाई बरतनी पड़ी है। हमें भी अपनी आदतों के टूटे और बिखरे तारों को जोड़कर समस्वर बनाना पड़ेगा तभी उस शरीर वीणा में से आरोग्य आनन्द की मधुर लहर झंकृत हो सकेगी।

इस अंक में मोटे रूप से आरोग्य रक्षा के प्रमुख नियमों की संक्षिप्त सी चर्चा की गई है। इन नियमों की बारीकियों के सम्बन्ध से अभी बहुत कुछ जानना और कहना बाकी है। उसे क्रमशः ‘अखण्ड−ज्योति’ के पृष्ठों पर पाठक पढ़ते रहेंगे। चिकित्सा का दूसरा अंग पाठकों के सामने प्रस्तुत नहीं किया जा सका। जून का स्वच्छ मन अंक जुलाई का सभ्य समाज अंक निकालने के पश्चात काई एक अंक ऐसा भी निकालेंगे जिसमें रोगों की जड़ काट देने वाली और स्थायी आरोग्य की जड़ जमा देने वाली चिकित्सा पद्धति का विस्तारपूर्वक उल्लेख होगा। यहाँ तो इतना कह देना ही पर्याप्त होगा कि प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति ही एकमात्र वह उपचार प्रणाली हो सकती है जिसके आधार पर सही उपचार होने के पश्चात मनुष्य स्थायी रूप से रोगमुक्त हो सकता है।

पंच तत्वों की सात चिकित्सा

यह शरीर पंचतत्वों से बना हुआ है। देह में जो कुछ दिखाई पड़ता है वह सब मिट्टी, पानी, हवा, गर्मी और आकाश का ही रूपान्तर है। मकान में टूट−फूट हो जाने पर मरम्मत के लिए भी ईंट, चूना, सीमेन्ट, मिट्टी, पत्थर आदि की ही जरूरत पड़ती है, क्योंकि वह इन्हीं का बना होता है। कपड़ा फट जाय तो उसकी मरम्मत कपड़े का दूसरा टुकड़ा लगाकर ही की जाती है। फूटे हुए बर्तन में पंचतत्वों का संतुलन ही अस्त−व्यस्त होता है। तूफान में छप्पर उड़ जाय तो उसकी टूट−फूट फूँस से ही की जाती है और फिर उसे यथास्थान रख देने से यथावत् काम चलने लगता है। शरीर के लिए भी यही प्रणाली अपनानी पड़ती है। जो तत्व देह से विकृत हो गया है उसे पंचतत्वों से की जाने वाली चिकित्सा प्रणाली से ही स्थायी रूप से अच्छा किया जा सकता है।

महात्मा गान्धी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे थे। वे जीवन के अन्तिम दिनों में प्राकृतिक जीवन यापन एवं चिकित्सा पद्धति को विस्तृत करने के लिए बहुत कुछ करने की योजना बना चुके थे। उरूली काँचन में उन्होंने इसके लिए केन्द्र भी बनाया था और धन का प्रबन्ध भी किया था। वे वहाँ स्वयं कुछ नियमित समय भी देते रहने वाले थे, पर काल की कराल गति ने उन हाथों वह कार्य सुविकसित होने का अवसर आने न दिया। यद्यपि आज भी उनका लिखा हुआ आरोग्य संबंधी साहित्य इस प्रकार की चिकित्सा के लिए एक महत्वपूर्ण मार्गदर्शन कराने के लिए प्रस्तुत है। संसार के अगणित विचारशील आरोग्य शास्त्री पहले से ही इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके हैं कि रोगों का निराकरण, भीतर भरे हुए विषों को तीव्र दवाओं से दबा देने से नहीं जीवनी शक्ति को उत्साहित करके उसकी रोग निरोध शक्ति को सजग कर देने से ही संभव हो सकता है। जल चिकित्सा, कटिस्नान, मेहन स्नान, मेरुदण्ड स्नान, गीले कपड़े के बन्धन, वाष्प स्नान, मिट्टी की पट्टी, सूर्यअभिताप, सेंक, मालिश जैसे प्राकृतिक उपचार देह की रोग निरोधक शक्ति को ऐसा सक्षम बना देते हैं कि रोगों को एकबार पूरी तरह बाहर निकाल फेंकना और शरीर को शुद्ध बना सकना संभव होता है। सबसे बड़ी बात इस प्रणाली में यह है कि अन्य चिकित्सा पद्धतियों की तरह वर्षों तक थका देने वाला शिक्षण इसके लिए प्राप्त नहीं करना पड़ता। थोड़ी सी जानकारी और समझदारी के आधार पर कोई भी व्यक्ति अपनी और दूसरों की प्राकृतिक चिकित्सा कर सकता है। समयानुसार किसी अंक में इस सारी पद्धति को प्रस्तुत करेंगे तो पाठकों को आश्चर्य होगा कि इतनी महान चिकित्सा प्रणाली इतनी सरल कैसे हो सकती है। पर बात यही है कि जो कुछ वास्तविक है उसे परमात्मा ने सरल ही रखा है ताकि उसका हर पुत्र आसानी से उसे अपना सके। पशु पक्षियों तक को जब यह ज्ञान प्रकृति ने समझा कर रखा है तो फिर मनुष्य के लिए ही वह क्यों दुस्साध्य रखा जाता।

पेट की सफाई सर्वोत्तम

पेट की सफाई आरोग्य रक्षा की आधारशिला है। यदि पाचन यंत्र ठीक काम करने लगे तो फिर भरपूर मात्रा में स्वस्थ रक्त उत्पन्न होते रहने के मार्ग में क्या कठिनाई शेष रह जायगी? और यदि यह कठिनाई हल हो गई तो बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य क्यों न सँभल जायेगा? इसलिए पेट में जमे पुराने कब्ज को बस्तिक्रिया (ऐनेमा) द्वारा साफ कर दिया जाय और उपवास द्वारा कुछ समय पेट को पूर्ण विश्राम मिलने की व्यवस्था कर दी जाय तो थका हुआ पेट फिर तरोताजा होकर अपना कर्तव्यपालन करते रहने के लिए कटिबद्ध हो जायेगा। साथ−साथ शीतल जलीय प्रतिक्रिया द्वारा सुप्त शक्तियों का जागरण मृतिका द्वारा विष बहिर्गमन, ऊष्मा द्वारा प्रवाह संचारण आदि प्रक्रियाऐं भी साथ−साथ चलती रहें तो एक प्रकार से देह के भीतर कलपुर्जों का पुनर्गठन ओवर हालिंग ही हो सकता है। प्रयोग और परीक्षण इस चिकित्सा पद्धति की उपयोगिता से स्वतः ही प्रभावित कर देते हैं।

गायत्री तपोभूमि में कल्प-चिकित्सा का कार्यक्रम एक छोटे रूप में गत 1 अप्रैल से चल रहा है आगे इसका और भी बड़ा रूप बन सकता है और रोग निवृत्ति एवं आरोग्य रक्षा के लिए अगणित व्यक्ति उससे लाभान्वित हो सकते हैं। अभी साधन के अभाव में वह छोटा ही है और केवल कब्ज के मरीज ही लिये जा रहे हैं पर आगे इतने से ही काम न चलेगा। केन्द्रीय कार्यालय इस पद्धति की शिक्षा के लिए ही उपयुक्त हो सकता है। चिकित्सा प्रणाली की व्यवस्था और शिक्षा के लिए तो गाँव गाँव और घर−घर में प्रबन्ध करना पड़ेगा। सारा देश रोगी है, घर-घर में अव्यवस्था घुसी हुई है, इसे हटाने के लिए यदि एक जगह दस बीस रोगी रखकर इलाज करने का प्रबन्ध हो भी गया तो उससे कुछ बनने वाला नहीं है। समस्या तो तभी सुलझेगी जब आरोग्य रक्षा एवं मुक्ति की प्रक्रिया को हर कोई जाने और माने। इसके लिए एक व्यक्ति और एक स्थान से कुछ काम न बनेगा। हम में से हर एक को इधर ध्यान करना पड़ेगा और अपने अपने क्षेत्र में कुछ काम करना पड़ेगा। कम से कम अपने और अपने परिजनों के शरीरों को स्वस्थ रखने की दिशा में तो कुछ करना ही पड़ेगा। क्या करना चाहिए इस संबंध में यह अंक आधा मार्ग दर्शन कर सकता है। आधे की पूर्ति भी अगले किसी महीने में प्राकृतिक चिकित्सा अंक निकलने पर हो जायेगी। उस ज्ञान को कार्यान्वित करने के लिए अपनी अपनी परिस्थितियों के अनुसार कुछ न कुछ करने के लिए हममें से हर एक छोटा बड़ा कदम उठ सकता है और उसके अनुसार लाभ भी प्राप्त कर सकता है।

जून का स्वास्थ्य शिविर

जानकारी प्राप्त करना तो पुस्तकों एवं लेखों के आधार पर भी हो सकता है पर उसे जीवन व्यवहार में उतारने के लिए कुछ दिन नये वातावरण में रहना आवश्यक होता है। तीर्थ यात्रा का उद्देश्य भी यही है। प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं उपयुक्त वातावरण के सम्पर्क में आकर ही मनुष्य अपने स्वभाव को बदल पाता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए इस बार 1 से 30 जून तक एक महीने का गायत्री तपोभूमि में ‘स्वास्थ्य शिविर’ लगाने का निश्चय किया गया है। जिन्हें इस विषय में अभिरुचि हो वे इसमें सम्मिलित होने का प्रयत्न करें। इस अंक में जिन स्वास्थ्यवर्धक प्रक्रियाओं का उल्लेख है उनका व्यावहारिक शिक्षण तथा प्राकृतिक चिकित्सा के सभी अंगों का क्रियात्मक स्वरूप आगन्तुकों की शिक्षा के लिए प्रस्तुत किया जायेगा जिससे वे अपने ही नहीं दूसरों के स्वास्थ्य को सुधारने में सफल एवं समर्थ हो सकें।

शिविर में 18 से 60 वर्ष तक की आयु के ऐसे लोग ही लिए जावेंगे जिन्हें कोई छूत का या खाँसी आदि साथ रहने वाले दूसरे साथियों को असुविधा उत्पन्न करने वाला रोग न हों। आगन्तुकों का निर्व्यसनी, कर्तव्यनिष्ठ, मधुरभाषी, अनुशासन−प्रिय सेवाभावी एवं शिक्षित होना आवश्यक है।

इस शिविर में कई प्राकृतिक चिकित्सालयों के संचालक एवं स्वास्थ्य विशेषज्ञ शिक्षण के लिए आने वाले हैं। खेलकूद, भ्रमण, तीर्थ यात्रा आदि का मनोरंजक कार्यक्रम भी रहा करेगा। गर्मी की छुट्टियाँ आनन्दपूर्ण वातावरण में बिताने, स्वास्थ्य संबंधी महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करने एवं जीवन को सुविकसित बनाने की प्रेरणा के लिए यह एक महीने का शिक्षण बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगा। जिन्हें अवकाश हो वे इसमें सम्मिलित होने का अवश्य प्रयत्न करें। जिन्हें थोड़ी अस्वस्थता रहती है वे अपने प्राकृतिक उपचार का लाभ भी इस अवसर पर प्राप्त कर सकेंगे एवं प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति का सांगोपांग शिक्षण प्राप्तकर अपने तथा अपने परिजनों की आरोग्य रक्षा कर सकने में भी समर्थ हो सकते हैं।

अपना भोजन खर्च प्रत्येक शिक्षार्थी को स्वयं करना होगा जो संभवतः 20 रु. से 25 रु. तक एक महीने में पड़ेगा। शिक्षार्थियों की चुनी हुई समिति के हाथ में भोजन प्रबंध रहेगा और प्रत्येक के हिस्से में जो खर्च आवेगा वह उसे देना होगा। अपने दोनों तरफ का मार्ग व्यय, भोजन खर्च तथा अन्य आवश्यक खर्च साथ लेकर ही घर से चलना चाहिए, ताकि पीछे परेशानी न उठानी पड़े, अपने बिस्तर, कपड़े तथा थाली, लोटा, कटोरी आदि पात्र भी साथ लाने चाहिए।

शिक्षा के साथ−साथ जो अपनी चिकित्सा कराना चाहेंगे उनके लिए उसकी व्यवस्था भी करा दी जावेगी। जिन्हें इस प्रकार की दुहरी आवश्यकता हो उन्हें इसके लिए पहले से ही पत्र व्यवहार कर लेना चाहिए, ताकि उनके लिए चिकित्सा की सीट सुरक्षित रखी जाय। स्मरण रहे छूत के रोगों के रोगी, अशक्त, महिलाऐं एवं जिनके कारण दूसरों को असुविधा होती है ऐसे रोगों के रोगियों के लिए अभी यहाँ व्यवस्था नहीं है।

इस एक मास के स्वास्थ्य शिविर में शिक्षा देने के लिए कई स्वास्थ्य विशेषज्ञ आ रहे हैं। शरीर विज्ञान की शिक्षा देने के लिए ग्वालियर के डा. अमल कुमार, प्राकृतिक चिकित्सा की शिक्षा के लिए जयपुर प्राकृतिक चिकित्सालय के संचालनकर्ता सुखरामदास एवं जोधपुर प्राकृतिक चिकित्सालय के संचालक डा. सरदारमल दुग्गड़ पधार रहे हैं। व्यायाम आसन एवं सूर्य नमस्कार का शिक्षण झाँसी के व्यायाम विशेषज्ञ श्री. अन्नासाहब करेंगे। प्रिंसिपल जगदीशशरण अग्रवाल आदि अनेक अन्य विद्वानों का भी शिक्षण रहेगा।

जिन्हें आना हो वे अपना (1) पूरा नाम (2) पूरा पता (3) आयु (4) जाति (5) शिक्षा (6) व्यवसाय (7) शारीरिक एवं मानसिक स्थिति का पूरा विवरण लिखकर 20 मई तक स्वीकृति प्राप्त कर लें। बिना स्वीकृति पाये कोई सज्जन न आवें। −

*समाप्त*


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