जीवनोपयोगी सामान्य ज्ञान प्रकृति ने सभी के लिए सुलभ रखा है। उसी के बलबूते पर सृष्टि के सभी जीव जन्तु अपने आरोग्य की रक्षा करते हैं। आरोग्य विद्या का जानना सभी के लिए नितान्त आवश्यक समझकर प्रकृति ने यह कृपा की है कि न्यून या अधिक बुद्धि वाले किसी भी प्राणी को उस ज्ञान से वंचित नहीं रखा है। कदाचित यह ज्ञान डाक्टरों और विद्वानों तक ही सीमित होता, शिक्षालयों में ही उसकी जानकारी संभव रही होती तो केवल सुशिक्षित लोग ही निरोग रह पाते और उस जानकारी के अभाव में बेचारे अल्प बुद्धि वाले प्राणी रोग ग्रसित दृष्टि−गोचर होते। धन्यवाद है कि परमात्मा से ऐसी भूल हुई नहीं है, उसने हर इन्द्रिय को इतना स्वाभाविक ज्ञान प्रदान कर रखा है कि यदि प्राणी अत्याचार न करे और इन्द्रियों को अपनी प्रेरणा के अनुसार काम करने दे तो उसके आरोग्य एवं दीर्घ जीवन के सम्बन्ध में कोई गतिरोध उत्पन्न ही न हो।
पेट की पाचन क्रिया
पेट में कोई वस्तु मुख में होकर ही जाती है, मुख के दरवाजे पर दाँत, जीभ और कण्ठ यह तीन डाक्टर इस योग्यता से सम्पन्न नियुक्त किये गये हैं कि वे कोई अनुपयुक्त ऐसी वस्तु भीतर न जाने दें जो हानिकर अहितकर हो। दाँत इसलिए हैं कि वे हर चीज को इतना पीसें कि कण्ठ के बहुत छोटे से छेद में बारीक पिसा हुआ एवं तरल बना हुआ आहार आसानी से नीचे उतर जाय। गले में बहुत छोटा छेद इसीलिए रखा गया है कि वह कोई कम पिसी, मोटी, सूखी चीज भीतर न जाने दे। जीभ इसलिए है कि क्या आहार अपने उपयुक्त है क्या अनुपयुक्त इसकी परीक्षा बारीकी से किया करे और जो वस्तुऐं अपने शरीर के लिए हितकर हों उन्हीं को ग्रहण करने की स्वीकृति दे। कण्ठ,दाँत और जीभ इन तीनों की ही चाबी आमाशय के पास है। पहले खाया हुआ भोजन जब तक भली प्रकार हजम न हो जाय और नये भोजन की जब तक आवश्यकता ने पड़े तब तक वह खाने की रुचि और चेतना ही उत्पन्न नहीं करता। उस स्थिति में खाई हुई कोई चीज स्वास्थ्यकर होते हुए भी केवल हानि ही कर सकती है।
पाचन क्रिया की खराबी को रोगों की जड़ बताया गया है। यह खराबी तभी उत्पन्न होती है जब मुख में नियुक्त तीन डाक्टरों की और पेट में नियुक्त व्यवस्थापक की आज्ञाओं का उल्लंघन करके हम हर प्रकार धींग−धींगी करने को उतारू हो जाते हैं। वे बेचारे पाचन यंत्र बहुत दुर्बल हैं। घड़ी के पुर्जे जितने नाजुक होते हैं उससे भी अधिक संवेदनशील हैं। घड़ी के साथ कोई धींग मस्ती करे तो उसे खराब होना ही पड़ेगा। पाचन यंत्र की दुर्गति भी इसी कारण होती है।
बुझाई अग्नि पर चढ़ी कढ़ाई
सृष्टि का कोई भी प्राणी खाने की प्रक्रिया तभी आरम्भ करता है जब पेट में क्षुधा जागृत होती है। बिना भूख के खाना बुझी हुई अग्नि के ऊपर कढ़ाई पकाने के प्रयत्न के समान है। सिंह तभी शिकार पर आक्रमण करता है जब उसे भूख लगी हो। पेट भरा होने पर वह भोजन की चिन्ता छोड़कर आनन्द मनाता रहता है। कदाचित कोई शिकार पकड़ में भी आ जाय तो उसे मारकर कहीं छिपा देता है और खाता तभी है जब कड़ाके की भूख लगती है। कुत्ते का पेट भरा हो और उसे कहीं से रोटी मिले तो मुँह में दबा कर ले जाता है और जरूरत के वक्त खाने के लिए पंजों से जमीन खोदकर गाड़ आता है। अन्य सभी जीव जन्तु भूख न होने पर आहार के लिए मुँह नहीं खोलते। प्रकृति ने उन्हें जो सामान्य ज्ञान दे रखा है उसके आधार पर वे जानते हैं कि बिना भूख खाना अपने लिए एक घातक विपत्ति को आमंत्रण देना है। केवल बुद्धिमान कहलाने वाला एक मनुष्य ही ऐसा है जो अपने बौद्धिक अहंकार के कारण स्वादिष्ट भोजनों के लोभ में अथवा बुरी आदतों का आदी होकर बिना भूख खाता रहता है और बेचारे पेट की शक्तियों को निरन्तर कुचल−कुचल कर नष्ट करता रहता है।
अन्धाधुन्ध चलने वाली रेल
रेलगाड़ी किसी स्टेशन से अगले स्टेशन को तब छूटती है जब अगले स्टेशन वाला यह स्वीकृति दे दे कि लाइन साफ है और गाड़ी छोड़ी जा सकती है। इसके लिए सरकार ने ऐसा प्रबन्ध किया हुआ है कि एक लोहे का गोला प्रमाण पत्र के रूप में इंजन ड्राइवर को मिलता है। तब उस ‘टोकन’ या टेबिलेट कहे जाने वाले गोले को लेकर गाड़ी अगले स्टेशन के लिए रवाना होती है। यह गोला एक सुरक्षित ऐसी अलमारी में रखा रहता है। जिसे खोलना अगले स्टेशन के स्टेशन मास्टर के हाथ में होता है। यह टोकन लिए बिना गाड़ी चल दे तो दुर्घटना होकर रहेगी। मनमानी करने वाला ड्राइवर चाहे जब ट्रेन दौड़ा दे, टोकन आदि की परवाह न करे तो वह विपत्ति ही उत्पन्न करेगा। ऐसी उद्दंडता करने वाले ड्राइवरों को कड़ी सजा भुगतनी पड़ सकती है। हमारे शरीर में आहार की रेल को चलाने का भी यही कायदा है। आहार एक है। उसे मुँह के स्टेशन से पेट के अगले स्टेशन के लिए तभी छूटना चाहिये जब पेट का स्टेशन मास्टर लाइन क्लीयर होने का आदेश दे दे। पिछला अन्न ठीक तरह पच नहीं पाया, खुलकर भूख लगी नहीं ऐसी दशा में नया बोझा लाकर आमाशय पर पटक देना उसके साथ सरासर अन्याय है। स्टेशन की लाइनें गाड़ियों से भरी हैं, वे गाड़ी हटें तभी तो नई गाड़ी वहाँ बुलाई जा सकती है। पहली खड़ी गाड़ियाँ पटरी से हटाये बिना उसी पर और गाड़ी बुला ली जाय तो गाड़ियाँ आपस में टकरा जावेंगी और भयंकर हानि होगी। बिना भूख खाना बिलकुल इसी तरह का है जैसे लाइन साफ हुए बिना एक रेल पर दूसरी रेल चढ़ा देना। पेट से तीव्र भूख रूपी टोकन पाये बिना यदि मुँह के स्टेशन से अन्धाधुन्ध आहार की गाड़ी छोड़ी जायगी तो दुर्घटना के अतिरिक्त और किसी प्रकार की क्या आशा की जा सकती है?
बुरी आदतों का कुचक्र
मनुष्य ने अनेक प्रकार की भली बुरी उन्नतियाँ की हैं उनमें से एक बहुत बुरी उन्नति अपनी आहार संबंधी बुरी आदत के बारे में की है। भूख न लगने पर भी खाना एक ऐसी गलती है जिसका दंड पाचन क्रिया नष्ट होने के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। इस गलती का कारण यह मालूम होता है कि जिह्वा इन्द्रियों को नकली जायकों में बहका−बहका कर उसे एक रिश्वतखोर राज कर्मचारी अथवा अभ्यस्त नशेबाज की स्थिति में पहुँचा दिया गया है। किसी भी प्राणी का स्वाभाविक आहार उसके मूल रूप में उपलब्ध स्थिति में ही हो सकता है। चिड़िया दाने चुगती है, पशु घास खाते हैं, हिंसक जीव, माँस और कीड़े मकोड़े अपनी−अपनी उपयोगी चीजें खाते हैं पर वे खाते उसी रूप में हैं जिसमें कि प्राकृतिक रूप से वह आहार उपलब्ध होता है। कोई भी उसे न पकाता, न पीसता है और न स्वाद के लिए कोई अतिरिक्त मिर्च−मसाला उसमें मिलाता है। इस मर्यादा का पालन करने पर ही भूख के अनुसार आहार का नियम वे ठीक प्रकार चला पाते हैं। मनुष्य ने अपने आहार में पोषण की उपयोगिता की उपेक्षा करके स्वाद को प्रधानता दी है। वह चाहता तो शाक, फल, दूध पर अपना गुजारा कर सकता था। अन्न के बिना काम नहीं चलता था तो उसे हरे रूप में अथवा सूखे अन्न को भिगोकर पुनः अंकुरित करके सजीव रूप में उसे ले सकता था। पाचन क्रिया को बहुत दुर्बल बना लिया तो उबालने की क्रिया भी अपना सकता था। पर हर पदार्थ को जला डालने, भून डालने से उसके पोषक तत्व नष्ट करने की प्रक्रिया अपनाने से तो उसमें बचता ही क्या है। पोषण की दृष्टि से हमारे स्वादिष्ट कहलाने वाले पदार्थ केवल कोयला या छूँछ की श्रेणी में गिने जा सकते हैं।
पाचन यंत्र का विनाश
इस स्वत्व विहीन निर्जीव आहार को भी यदि मनुष्य भूख की मर्यादा का ध्यान रखते हुए खाता तो भी गनीमत था,पर मिर्च−मसालों के आधार पर उन्हें भी अधिक मात्रा में और बिना आवश्यकता के समय-कुसमय खाने की ठान ठानली। ऐसी दशा में पाचन यंत्र कब तक अपना सही काम कर सकता था, उसे बिगड़ना ही था, बिगड़ा भी हुआ है। मिर्च मसाले जो आज हमारे भोजन के प्रधान अंग बने हुए हैं, न केवल व्यर्थ हैं वरन् हानि−कारक भी हैं। छोटे बच्चे को लाल मिर्च खिलाई जाय तो वह उसकी जलन से बेचैन हो जायेगा और बुरी तरह तड़प−तड़प कर रोने लगेगा। जिसने अपनी जीभ की आदत नहीं बिगाड़ी है उस प्रत्येक व्यक्ति का यही हाल होगा, चाहे वह छोटी आयु का हो, चाहे बड़ी आयु का। जीभ का डाक्टर न मिर्च को शरीर के उपयोगी स्वीकार करता है न मसाले को। पर हमारी बुद्धि ही है जो हर किसी की आदत बिगाड़ देती है। रिश्वतखोरी का चस्का, जुए का चस्का, सिनेमा का चस्का, व्यभिचार का चस्का, नशेबाजी का चस्का जैसे आदत में शामिल होने पर मुश्किल से छूटता है उसी प्रकार प्रत्यक्ष हानिकर दीखते हुए भी मिर्च मसाले और खटाई मिठाई के सम्मिश्रण से बनी हुई जायकेदार कहलाने वाली चीजें भी हमें प्रिय लगने लगती हैं और उन्हीं के स्वाद के लालच में मनुष्य समय, कुसमय आवश्यक, अनावश्यक भोजन करता है। भूख न लगने पर भी जब थाली सामने आती है या जायके की हुड़क लगती है तो लोग कुछ न कुछ मुँह में ठूँसना आरंभ कर देते हैं। कितने लोग हैं जो भूख की तृप्ति के लिए उपयोगी आहार को औषधि रूप में ग्रहण करते हैं? कितने लोग हैं जो आहार का चुनाव करते समय उसकी पोषण शक्ति का ध्यान रखते हैं? आमतौर से एक आनन्द, स्वाद, विनोद, फैशन के रूप में ही तरह−तरह के चित्र−विचित्र भोजन खाये जाते हैं। इसी बुरी आदत ने हमारे जीवन वृक्ष की जड़ पर कुल्हाड़ा चलाया है, जब तक यह बनी रहेगी तब तक पेट के सुधारने और शरीर के निरोग रहने की आशा को दुराशा मात्र ही मानी जानी चाहिए।
भूख लगने पर ही खाया जाय
जब कड़ाके की भूख लगती है तभी मुख और आमाशय में से पाचक रसों का स्राव आरम्भ होता है। भोजन केवल आमाशय के ही रसों से नहीं पचता वरन् उसमें मुख से निकलने वाली लार का भी पर्याप्त मात्रा में सम्मिश्रण होना चाहिए। यह तभी हो सकता है जब धीरे−धीरे भली प्रकार चबाते हुए प्रत्येक ग्रास को देर तक मुँह में रख के निगलें। उसे बाईस बार चबाने का नियम स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने बनाया है। इसके तीन लाभ हैं (1) आहार में मुँह से निकलने वाले पाचक रसों का समावेश पर्याप्त मात्रा में हो जावे (2) ग्रास पिसकर इतना पतला हो जावे कि कंठ के छिद्र पर अनावश्यक दबाव न पड़कर आसानी से नीचे उतर जाय (3) परिपूर्ण पिसे हुए आहार को पेट आसानी से हजम कर सके।
जो लोग जल्दी में दो चार दाँत मारकर अधकुचले ग्रासी को निगलते रहते हैं उनके दाँतों का काम आँतों को करना पड़ता है। पीसने की शक्ति दाँतों में है आमाशय में नहीं। अधकुचले आहार को बेचारा पेट स्वयं ही पीसे भी और स्वयं भी पचावे भी तो उसे दूनी शक्ति खर्च करनी पड़ती है। साथ ही बिना चबाया हुआ ग्रास मोटा भी रहता है जिससे गले के छिद्र को उसे निगलने में असुविधा होती है। छिद्र चौड़ा हो जाता है और रगड़ पड़ने से भोजन नली की खराबी से दाह, खाँसी, कफ़ जैसे रोगों की जड़ जमने लगती है। मुँह की लार पर्याप्त मात्रा में न मिल पाने से सूखा जैसा ग्रास निगलते समय कष्टकारक होता ही है। इस कमी को लोग रसाली दाल आदि के साथ ग्रास को भिगोकर पूरी करते हैं। जल्दी−जल्दी बिना पूरी तरह चबाये भोजन करने की आदत बहुत ही बुरी है। पाचन यंत्र को बिगाड़ने में इस बुरी आदत का भी एक बड़ा हिस्सा रहता है। कहावत है कि—‟रोटी को पीना चाहिए और पानी को खाना चाहिए” इसका तात्पर्य यह है कि रोटी को इतना चबाया जाय कि वह पानी की तरह पतली हो जाय और पानी को धीरे−धीरे चूस−चूस कर एक−एक घूँट को कुछ देर मुँह में रखकर इस प्रकार पिया जाय कि वह कार्य भी रोटी खाने जैसा लाभदायक हो जाय। पानी पीते समय यदि कुछ देर मुँह में उसे रखे रहा जाय तो मुँह की लार का समावेश होने से वह पानी भी पाचक एवं गुणकारक बन जायेगा।
हानिकारक अभक्ष पदार्थ
मसाले और मिठाई अनावश्यक ही नहीं हानिकारक भी हैं। आरम्भ में वे पाचक जैसे दिखाई पड़ते हैं पर उनमें पाचन का नहीं भड़काने मात्र का गुण है। घोड़े को दौड़ाने में जो कार्य चाबुक कर सकती है वही कार्य पेट को पीटने में मसाले करते हैं। आरंभ में इससे कुछ लाभ भले ही दिखाई दे पर पीछे पेट की शक्ति जब दिन−दिन क्षीण होती जाती है तो यह मसाले भी कुछ काम नहीं करते। इतना ही नहीं इनकी आदत भी पड़ जाती है। कमजोर घोड़ा जैसे चाबुक से पिटे बिना दौड़ना तो दूर साधारण चाल से भी नहीं चल पाता वही दशा पेट की भी हो जाती है। अरुचि, अपच, आदि अनेक व्यथाओं से ग्रसित उदर फिर नशे के आधार पर ही जीवित रहने वाले शराबी की स्थिति में पहुँचकर दिन−दिन अशक्त होता जाता है। स्वाद के नाम पर बिना भूख, अधिक मात्रा में भोजन होते रहने की हानि तो प्रत्यक्ष ही है। इसलिए जिन्हें आरोग्य प्यारा है उन्हें खटाई मिठाई से मिर्च, मसालों से भरे हुए ‘स्वादिष्ट’ कहलाने वाले व्यंजनों का मोह छोड़ना ही होगा।
प्रातः काल थोड़ा दूध या छाछ ली जा सकती है। शरीर से कठोर काम करने वाले मजदूरों को छोड़कर और किसी को भी प्रातःकाल भारी नाश्ता नहीं करना चाहिए। रात को सोते रहने के कारण सबेरे तक पिछला भोजन ठीक तरह हजम नहीं हो पाता। इसलिए उसे दोपहर तक पचाने का अवसर देना चाहिए। प्रातः थोड़ा दूध या छाछ ही पर्याप्त है। अधिक कमजोर पाचन प्रकृति के लिए नींबू और शहद गर्मियों में ठंडे और जाड़ों में गरम जल में मिलाकर पी लिया करें तो उनके लिए इतना ही जलपान पर्याप्त हैं। मध्याह्न और सायंकाल भोजन के लिए दो समय पर्याप्त है। पचास वर्ष से अधिक उम्र वालों के लिए दोपहर को एक समय भोजन और शाम को फल दूध जैसी कोई हलकी चीज लेनी चाहिए। नियत दो समयों के अतिरिक्त बीच में थोड़ी−थोड़ी चाट पकौड़ी लेते रहने की आदत को बिलकुल ही छोड़ देना चाहिए।
इन नियमों का ध्यान रखा जाय
सप्ताह में एक दिन पेट को पूर्ण विश्राम देने के लिए उपवास भी करना चाहिए। सरकारी कर्मचारियों को सप्ताह में एक दिन छुट्टी मिलती है। बाजार भी अब सप्ताह में एक बार बन्द रहते हैं। चौबीस घंटे के नौकर पेट को भी सप्ताह में एक दिन की फुरसत मिलनी चाहिए ताकि वह छह दिन की थकान मिटाकर अगले सप्ताह मुस्तैदी से काम करने के लिए ताजगी प्राप्त कर सके। उपवास के दिन जो केवल जल, नींबू, शहद आदि पर न रह सकें वे दूध−छाछ, शाक फल जैसा रसीला हलका अल्पाहार ले सकते हैं। आजकल अन्न छोड़कर मावा की मिठाइयाँ, कूटू सिंघाड़े आदि की बनी गरिष्ठ चीजें खाने की जो रूढ़ी चल रही है वह तो उपवास करने से भी अधिक खराब है। उपवास का लाभ तभी है जब वह अन्ध परम्परा के रूप में नहीं, विवेक−पूर्वक किया जाय।
“क्या खायें?” यह प्रश्न उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना “कैसे खायें’ की बात महत्वपूर्ण है। कीमती पौष्टिक पदार्थों की सुविधा जुटाने या विटामिनों की सूची तलाश करने की उतनी आवश्यकता नहीं, जितनी खाने में सावधानी रखना। हाथी, घोड़े, हिरन, लंगूर सरीखे प्राणी जब घासपात जैसी चारण समझी जाने वाली चीज से आवश्यक बल प्राप्त कर सकते हैं तो हम अन्न, दूध, शाक, फल जैसी सात्विक और परिपूर्ण पौष्टिक चीजों से क्यों समुचित शक्ति प्राप्त नहीं कर सकते हैं। उन्हें पकाने और खाने का ढंग बदल देने मात्र से काम चल सकता है। सूखे अन्नों को पानी में भिगोकर अंकुरित करके फल और मेवों की तरह उपयोगी बनाया जा सकता है। अन्न या शाक पकाने हों तो उन्हें छिलके समेत थोड़ा कुचल कर भाप से उबाल लिया जाय तो उनके पोषक तत्व पकाने में नष्ट न होकर काफी अंशों में सुरक्षित रह सकते हैं और हमें समुचित शक्ति दे सकते हैं। थोड़ा नमक काम में लिया जा सकता है पर मिर्च मसाले तो छोड़ ही देने चाहिए। चीनी निरर्थक ही नहीं हानिकारक भी है। जरूरत प्रतीत हो तो गुड़, शहद, खजूर, शहद, किशमिश आदि की सहायता से मिठास की जरूरत पूरी की जा सकती है। मिठाइयाँ, पकवान, चाट पकौड़ी, अचार आदि चीजों से जितना बचा जा सके बचना ही चाहिए। हरे शाक भाजी सलाद बनाकर खाये जा सकते हैं। गाजर, मूली, शलजम, टमाटर, ककड़ी, पालक आँवला, अदरक, नीबू, आदि जो चीजें समय पर मिल सकें उन्हें काटकर भोजन के समय कच्चा खाने से स्वाद भी प्राप्त होता है और पोषण भी। फलों में संतरा, पपीता आदि सस्ते भी हैं और अच्छे भी। अंगूर, अनार सेब आदि महंगे फल जो लोग नहीं खा सकते उनके लिए अमरूद, खीरा, आम, जामुन, ककड़ी, बेर, खरबूजा, तरबूज केला आदि की कुछ व्यवस्था करते रहना चाहिए। घी तेल को केवल तीव्र पाचन क्रिया वाले ही पचा सकते हैं। दुर्बल पेट वालों को दूध, दही एवं फल, शाकों में घी वाले पैसे खर्च करने चाहिए इससे उन्हें पोषण भी मिलेगा और पेट पर अनावश्यक दबाव भी न पड़ेगा।
सात्विकता की प्रधानता
जो कुछ भी हम खायें, भगवान को भोग लगा कर एक दिव्य प्रसाद समझकर प्रसन्न मन से खावें। अन्न को देवता मानकर उसका सम्मान करते हुए उसकी पोषण शक्ति का ध्यान करते हुए प्रमुदित चित्त से खाया हुआ भोजन एक विशेष प्राणशक्ति से सम्पन्न हो जाता है। सात्विक कमाई का सात्विक प्रकृति के स्नेही स्वजनों द्वारा पकाया हुआ शान्तिमय वातावरण में, प्रसन्न चित्त होकर ग्रहण किया हुआ साधारण भोजन भी दूषित परिस्थितियों के बहुत कीमती भोजन की अपेक्षा कहीं अधिक लाभदायक होता है। आहार से हमारे पोषण का सीधा संबन्ध है इसलिए उसे उपेक्षा पूर्वक नहीं, विचारपूर्वक ग्रहण करना चाहिए। शौक, स्वाद को छोड़कर हमारा भोजन प्रकृति की प्रेरणा और उपयोगिता का पूरा−पूरा ध्यान रखकर ही उदरस्थ किया जाने लगे तो स्वास्थ्य की एक पेचीदा समस्या का सहज ही हल हो सकता है।