रास्ता केवल एक ही है।

May 1962

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनुष्य की अनेक मानसिक दुर्बलताओं में एक बहुत बुरी दुर्बलता यही है कि वह उचित मूल्य चुकाये बिना बहुत जल्दी में, बहुत आसानी से, बहुत कुछ प्राप्त कर सकना चाहता है। इसी का नाम लालच है। इस संसार में हर काम एक नियम, क्रम और व्यवस्था के अनुसार चल रहा है। सूर्य, चन्द्रमा तारे पृथ्वी सब अपनी यात्रा एक पूर्ण सुव्यवस्थित गतिविधि के आधार पर चलाते हैं। यदि उनकी चाल में क्षणभर का भी अन्तर आ जाय तो प्रलय जैसे अवसर उपस्थित हो सकते हैं। पृथ्वी, जल, हवा, अग्नि, आकाश पाँचों तत्व अपने गुण धैर्य को अत्यन्त दृढ़तापूर्वक धारण किये न रहें तो इस संसार का सारा संचार क्रम की अस्त-व्यस्त हो जाय। गेहूँ से गेहूँ, मनुष्य से मनुष्य और पशु से पशु उत्पन्न होने की, समय पर ऋतु के आने की, पुण्य और पाप का समुचित परिणाम मिलने की व्यवस्था यदि संसार में न रहे, सब कुछ अनियमित होने लगे तब तो इस दुनियाँ का काम एक दिन के लिए भी चलना कठिन हो जाय। निश्चय ही भगवान का विधान या प्रकृति की व्यवस्था पूर्ण सुव्यवस्थित है और यहाँ हर काम उचित समय पर उचित श्रम से, उचित व्यक्तियों द्वारा, उचित साधनों से पूर्ण होता है। किन्तु लालची लोग चाहते हैं कि हमारे लिए सृष्टि का नियम बदल जाय और जैसे हम चाहते हैं तुर्त-फुर्त हमारा उद्देश्य पूरा हो जाय।

स्वस्थ शरीर का सच्च सुख

स्वस्थ शरीर में अपार सुख हैं और सुख का लाभ हर कोई उठाना चाहता है। पर खेद है कि उसका उचित मूल्य चुकाने के लिए कटिबद्ध होने की अपेक्षा लोग कोई पगडंडी ढूँढ़ते हैं जिससे उन्हें लम्बी यात्रा न करनी पड़े और काम जल्दी ही बन जाय। इस लालच में बहुत से लोग कुछ उपाय सोचते और कुछ तरकीबें भिड़ाते रहते हैं फिर भी सृष्टि के नियमों को बदल सकने में अब तक किसी को सफलता नहीं मिली। उचित मूल्य चुकाकर ही महत्वपूर्ण वस्तु के लेने का क्रम ज्यों का त्यों बना हुआ है। व्यतिक्रम करने वाले जल्दबाज लोग समय-समय पर तरकीबें सोचते रहते हैं पर अन्ततः उन्हें निराश ही होना पड़ता है।

जादू के खेल मनुष्य की लालची वृत्ति की तृप्ति का एक मनोरंजक पहलू हैं। लोग चाहते हैं कि मिट्टी से रुपया बन जाय, झोली में से जानवर पैदा होने लगें, हथेली पर सरसों उग आवे, डिब्बी में से मिठाई पैदा होने लगे। बाजीगर इन बातों को इसी प्रकार करके दिखा भी देता है। पर वह सफलता देखने भर की होती है। बाजीगर आँखों में धूल झोंककर भुलावा देकर दर्शकों को थोड़ी देर के लिए बहका भर देता है, वे कुछ समय तक खुश भी हो जाते हैं, पर अन्ततः उसका परिणाम समय की बर्बादी और निराशा के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। बिना श्रम के रुपया, मिठाई, पौधे, जानवर आदि उपलब्ध करने की आकाँक्षा असफल ही रह जाती है। यदि इतनी जल्दी यह सब काम हो सके होते तो बेचारा बाजीगर क्यों दर-दर मारा फिरता, वह तो स्वयं ही कब का लखपती, करोड़पति बन गया होता। पर करे क्या, सारी बुद्धि लड़ाकर भी वह बेचारा प्रकृति के कठोर नियमों का उल्लंघन करने में समर्थ कहाँ हो पाता है। बाजीगरी केवल बच्चों का मन बहलाने का खेल बनकर रह जाती है। रुपया, मिठाई, पौधे, जानवर आदि दुनियाँ में जो लोग प्राप्त करते हैं वे बाजीगरी से नहीं, उचित श्रम के आधार पर प्राप्त करते हैं। बुद्धिमान लोग इस तथ्य को भली प्रकार जानते हैं इसलिए वे उचित मूल्य देकर अभीष्ट वस्तु प्राप्त करने की योजना बनाते हैं और अपना अभीष्ट मनोरथ पूरा करते हैं।

उचित मूल्य अनिवार्य है

स्वास्थ्य सुधार का मनोरथ जितना ही महत्व पूर्ण है उतना ही बड़ा उसका मूल्य भी है। जिनने भी अपने बिगड़े स्वास्थ्य को बनाया है, बने स्वास्थ्य को बढ़ाया है उनने उचित मूल्य चुकाने में आना कानी नहीं की है। जिन नियमों के तोड़ने से स्वास्थ्य खराब होता है उनके पालन से ही गलती में सुधार हो सकता है। गलती को दुहराते रहा जाय और किसी चालाकी से बात की बात में स्वास्थ्य की संपदा मिल जाय ऐसा सोचना किसी बुद्धिमान के लिए नहीं, लालची व्यक्ति के लिए ही उचित है। लालची पाता कुछ नहीं खोता बहुत है। ठग विद्या इसी तथ्य पर ठहरी हुई है। ठग लोग मनुष्यों की लालची प्रवृत्ति को जानते हैं, वे जिसमें अधिक लालच भाँपते हैं उसी पर अपना जाल फैला देते हैं और उसे बुरी तरह ठग लेते हैं। ठगों द्वारा लोगों को ठगने की नई-नई तरकीबें प्रयोग की जाती रहती हैं सब के मूल में एक ही तथ्य रहता है कि—किसी भोले लालची आदमी को बहुत जल्दी अत्यधिक लाभ मिलने की बात बताई जाय। लोभ में अन्धे मनुष्य का विवेक कुंठित हो जाता है। वह यह सोच नहीं पाता कि इतनी जल्दी, इतने स्वल्प प्रयास में इतना अधिक लाभ भला किसी प्रकार हो सकता है बेचारा बहक जाता है, ठग उसे अपने जाल में फंसा लेते हैं और वह नासमझ बहुत कुछ खोकर पछताता हुआ हाथ मलकर रह जाता है। घटनाऐं भिन्न-भिन्न प्रकार हो सकती हैं पर सारी ठग विद्या की मूल प्रक्रिया यही रहती है। हर ठगे जाने वाले को यही तथ्य दुहराये जाते हैं।

जादू जैसी तरकीबें

स्वास्थ्य के बारे में भी यही लालची प्रवृत्ति मनुष्यों में पाई जाती है। वे ऐसी तरकीबों के ही पीछे पड़े रहते हैं जिनसे वर्षों तक शरीर पर अत्याचार करके उसे बिगाड़ने में जो अस्वास्थ्यकर परिणाम सामने आये हैं, उन्हें क्षण भर में सुधार लिया जाय। इसके लिए एक ही तरकीब उन्हें सूझ पड़ती है, वह है—‛दवा’। दवाओं के विज्ञापनबाज अपनी मामूली सी चीज का लाभ, उसकी वास्तविकता की अपेक्षा सैकड़ों हजारों गुना बढ़ा चढ़ाकर बताते हैं। लम्बे-चौड़े आश्वासन देते हैं। अच्छे हुए लोगों के प्रमाणपत्र छापते हैं। दीवारों को पोस्टरों से और अखबारों को विज्ञापनों से भर देते हैं। सूचीपत्र, पर्चे, पोस्टर, पेम्पफलेट आदि अगणित विज्ञापन साधनों की गोलाबारी से बेचारा मरीज परास्त हो जाता है। वह अपना त्राण इन्हीं के आश्रय में देखता है। जल्दी निरोग होने की उसकी प्राकाँक्षा का दवादारू वाले अनुचित लाभ उठाते रहते हैं। उसके मामूली से रोग को बहुत बढ़ा−चढ़ा कर बता देते हैं। डरा हुआ व्यक्ति प्राण रक्षा के लिए अपना सब कुछ होमने को तैयार हो जाता है, डाक्टरों की जेबें गरम होती रहती हैं, कोठी बंगले और मोटरें बढ़ती रहती हैं। बेचारा मरीज बहुत कुछ गँवाकर भी मरीज का मरीज बना रहता है।

बिगड़े को बनाना

हमारा उद्देश्य यहाँ औषधियों या चिकित्सकों की निन्दा करना नहीं वरन् लोगों की इस भूल पर प्रकाश डालना है कि आरोग्य के जिन नियमों का उल्लंघन करने से शरीर के भीतरी कलपुर्जे जिस प्रकार दुर्बल और अशक्त होते गये और अन्ततः वे बीमारी के चंगुल में फँस गये, उस उल्टी चाल को पलटे बिना आखिर शरीर सुधर कैसे जायेगा? दवा की उपयोगिता हो सकती है। उसकी उत्तेजना और संहारक शक्ति से शरीर में बढ़ा हुआ विष परास्त किया जा सकता है। पर दवाओं के इस आक्रमण में केवल रोग कीटाणु ही नहीं मरते साथ में रक्त के स्वस्थ एवं संरक्षक जीवाणुओं का भी विनाश होता है। कोई दवा ऐसी नहीं हो सकती जो शरीर में भीतर जाकर केवल रोग कीटाणुओं को ही मारे और स्वस्थ कणों को बचा दे। दोनों ही प्रकार के अणु साथ साथ रहते हैं। दवाऐं रोगों को मारने का जितना लाभ पहुँचाती हैं उतनी ही हानि स्वस्थ जीवन तत्वों को मारकर साथ की साथ पहुँचा देती हैं। फिर जो विष दवाओं द्वारा परास्त किया गया था वह शरीर से बाहर कहाँ निकला? वह तो भीतर ही दबा हुआ किसी कोने में मूर्च्छित सा बना पड़ा रहता है। अवसर मिलते ही वह उसी रूप में या अन्य किसी रूप में पुनः प्रकट हो जाता है। देखा गया है कि एक रोग दूर हुआ नहीं कि दूसरा नया उपज पड़ा। फिर वह तीक्ष्ण दवाऐं भी तो विषैले और विजातीय पदार्थों से बनी होती हैं। उनका शरीर में प्रवेश होना एक प्रकार के नये रोग तत्वों का शरीर में प्रवेश करना है।

तीक्ष्ण औषधियों की प्रतिक्रिया

कुनैन के सेवन से मलेरिया बुखार दूर हो जाता है पर उसकी गर्मी दिमाग पर इतनी चढ़ जाती है कि बहरापन, या कान बहना जैसे नये रोग उठ खड़े होते हैं। ऐस्प्रीन खाने से ज्ञान तन्तु संज्ञा शून्य हो जाने से एक प्रकार का जो नशा सा आता है उस से दर्द की अनुभूति बन्द हो जाती है। इस प्रकार कुछ देर तक ऐस्प्रीन खाने से दर्द में लाभ हुआ तो प्रतीत होता है पर दिल पर उसका बुरा प्रभाव पड़ने से हृदय रोग उत्पन्न होने लगते हैं। अफीम मिली दवाओं से अतिसार तो बन्द हो जाता है पर आँते सिकुड़ जाने से मलावरोध की नई शिकायत शुरू हो जाती है। पेन्सलीन की प्रतिक्रिया कई बार प्राणघातक तक होती देखी गई है इसलिए डाक्टरों ने अब उसे अन्धाधुन्ध हर मर्ज में देते रहने की अपनी आदत पर पुनर्विचार करना शुरू कर दिया है और अब उसे सोच समझकर ही देते हैं। कई प्रकार के इंजेक्शन ऐसे होते हैं जो रोग कीटाणुओं पर असर करने से पहले, अपना बुरा असर दिखा देते हैं। सुई लगते ही बुखार जैसा असर शरीर में दीखने लगता है। इन बुराइयों की जानकारी हमें होनी ही चाहिए। अन्यथा स्वास्थ्य सुधार के लिए दवाओं की उपयोगिता के सम्बन्ध में जो अन्धविश्वास आज चल रहा है वह अन्ततः घातक ही सिद्ध होगा।

आदतों का सुधार

स्वास्थ्य सुधार के लिए अपनी आदतों की—आहार विहार की पद्धति को बदलता ही एकमात्र स्थायी उपाय है। चूँकि यह उपाय कष्टसाध्य है, इसमें मन मारना पड़ता है, आरम्भ से ही सुधरे स्वास्थ्य को प्राप्त करने के लिए अन्य निर्माण कार्यों की तरह धैर्यपूर्वक समय की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। इसके विपरीत दवा दारु के बल पर निरोग हो जाने की कल्पना में इस प्रकार का कोई प्रतिबन्ध नहीं रहता। डाक्टर लोग आहार-विहार पर कोई खास प्रतिबन्ध नहीं लगाते, जी चाहे सो खाते-पीते रहने और चाहे जैसे रहने सहने की छूट देते हैं। दवा सेवन या इञ्जेक्शन लगने में कुछ मिनट ही खर्च होते हैं और कभी न पूरे होने वाले-जल्दी स्वास्थ्य लाभ करा लेने वाले चिकित्सक के आश्वासनों में रोगी का मन बहलता रहता है। इस प्रकार तुलनात्मक दृष्टि से मनुष्य को लाभ इसी में दीखता है कि आहार-विहार में परिवर्तन करने की कष्टकर प्रक्रिया को अपनाने, उसमें समय लगाने और मन मारने की अपेक्षा दवा दारु के बलबूते पर निरोग हो जाना सस्ता और अच्छा है। यही सोचकर आज कोटि कोटि जनता अपनी रोगमुक्ति के लिए दवाखानों की शरण में पड़ी डाक्टरों के पैर पलोटती रहती है। जादूगर की मिठाई की तरह तत्काल कुछ लाभ भी इसमें दीखता है। तत्काल का चमत्कार लोगों की बाल बुद्धि को संतुष्ट कर देने के लिए पर्याप्त माना जाता है।

एक रोगी ने अपने ऊपर अब जो चमत्कार किसी दवा या डाक्टर का देखा था वह उसकी चर्चा किसी दूसरे रोगी से करता है। वह रोगी अपना कोई ऐसा ही अनुभव अन्य रोगी को बताता है। इस प्रकार दवाओं की प्रशंसा भी चलती रहती है, चिकित्सकों का गुणगान भी होता रहता है और साथ ही रोगों का कष्ट भी यथावत् बना रहता है। यह भूल-भुलैया आज व्यापक रूप से एक गहरे अन्धविश्वास की तरह सर्वत्र व्याप्त हो रही है। अमुक तालाब या कुँड में स्नान कर लेने से, अमुक बाबा की भभूत लगा लेने से समस्त रोग दूर हो जाते हैं, ऐसी बातों को तो अब अन्ध-विश्वास माना जाने लगा है पर दवाओं से आरोग्य प्राप्त हो सकता है यह अन्ध-विश्वास अभी भी अत्यन्त भयावह रूप से मानव जाति के मस्तिष्कों पर चढ़ा हुआ है। चूँकि तालाब कुण्ड के स्नान से, भभूत से या मियाँ मसान की पूजा से आरोग्य लाभ की बात अशिक्षित और सयाने, ज्योतिषी, बाबाजी कहते हैं इसलिए उनकी बात संदेहास्पद मानी जाने लगी, पर जिस बात को मोटर बंगले वाले, उच्च शिक्षित कहे जाने वाले प्रमाण पत्र प्राप्त सरकार में सम्मान्य डाक्टर लोग कहें उस बात को कैसे झुठलाया जाय? दवा से आरोग्य प्राप्त हो सकता है, दीर्घ जीवन मिल सकता है यह मान्यता विशुद्ध रूप से अन्धविश्वास है। इस तथ्य को आज नहीं तो कल स्वीकार किया ही जाने वाला है।

अनियमिततायें स्वास्थ्य की शत्रु

अपना वर्षों का समय और सारी कमाई गंवा कर भी जिनने भूल भुलैयों में भटकने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं पाया है वे रोगग्रस्त एवं दुर्बलकाय व्यक्ति कभी न कभी तो वास्तविकता पर विचार करने के लिये विवश होंगे ही। जब भी वे इस समस्या पर ठंडे दिल से विचार करेंगे, तब उन्हें इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि अनियमितताऐं ही आरोग्य नाश का एकमात्र कारण होती हैं और स्वास्थ्य सुधार के लिए एक ही उपाय है−स्वास्थ्य के सनातन नियमों का पालन। आज असंयम का युग है। सर्वत्र उच्छृंखलता का बोलबाला हो रहा है। ऐसी स्थिति में संयम की बात को उपहास एवं उपेक्षा में ही डाला जा सकता है। इतना होते हुए भी सत्य, सत्य ही रहेगा। तथ्यों को कोई बदल नहीं सकता है। आरोग्य केवल एक ही उपाय से प्राप्त हो सकता है और वह है स्वास्थ्य के नियमों का कठोरता से पालन-बात कठिन है और अरुचिकर भी, पर स्वास्थ्य सम्पदा भी तो अमूल्य वस्तु है। उसे जो प्राप्त करना चाहेंगे उन्हें उसका उचित मूल्य भी चुकाने के लिए तैयार रहना होगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: