पाचन प्रणाली का असाधारण महत्व

May 1962

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शरीर के द्वारा निरन्तर जो मानसिक एवं शारीरिक श्रम होता रहता है उसके कारण खर्च होने वाली शक्ति की क्षतिपूर्ति आहार द्वारा होती है। आहार ही पचकर रस, रक्त, माँस, मज्जा, अस्ति, मेद, वीर्य बनाता हुआ शक्ति से रूप में परिणत होता है। आहार को मुख में ठूँसते ही वह न तो शरीर का भाग बन जाता है और न शक्ति के रूप में परिणत होता है। वरन् यह कार्य पाचन यन्त्रों को करना पड़ता है। मुँह से स्रवित होने वाले रस, आमाशय की ग्रन्थियों से निकलने वाला पाचक रस, जिगर से निकलने वाला पित्त, आँतों से निकलने वाला रस अपने अन्दर एक ऐसा जादू भरा रहस्य छिपाये हुए हैं कि उनके संयोग से अन्न आदि से बने आहार का एक अद्भुत प्रकार का रूपान्तर होता है। अन्न, शाक दूध आदि वनस्पति जाति की वस्तुओं का परिवर्तन रक्त और माँस जैसे प्राणि जाति के तत्वों में हो पाना सचमुच एक जादू है। इसलिए पाचन क्रिया को एक जादू की पिटारी कहा जा सकता है। ईश्वर की इस अद्भुत क्रियाप्रणाली पर जितना आश्चर्य प्रकट किया जाय कम है।

पाचन प्रणाली का महत्व

यह पाचन प्रणाली ही हमारे जीवन की आधार शिला है। जिस शरीर में यह प्रक्रिया ठीक प्रकार चल रही है वह आरोग्य के मार्ग में आने वाली सभी बाधाओं पर विजय प्राप्त कर सकता है। इसके विपरीत जिसका पाचन संस्थान बिगड़ गया उसके लिए अन्य सब सुविधाऐं रहते हुए भी विपत्ति का पहाड़ सामने खड़ा दिखाई देता रहता है। लोग ऐसा सोचते रहते हैं कि हम दूध, घी, मेवा, फल आदि कीमती चीजें खावेंगे, पौष्टिक पकवान मिष्ठान सेवन करेंगे तो हृष्ट-पुष्ट एवं बलवान बन जावेंगे। इसी दृष्टिकोण से लोग बहुमूल्य भोजनों की व्यवस्था जुटाते हैं। स्वाद की तृप्ति के साथ बलवृद्धि की अभिलाषा भी कीमती भोजन बनाते समय रहा करती है। इस प्रकार की मान्यता बनाते समय लोग यह भूल जाते हैं कि भोजन को शक्ति के रूप में परिणत करने का सारा श्रेय पाचन प्रणाली को है। यदि वह ठीक नहीं है तो आहार पचेगा नहीं और यदि पचा नहीं तो रक्त के रूप में परिणत न होकर मल मार्ग से ज्यों का त्यों निकल जायेगा। यहाँ यह बात जान लेने की है कि जिस प्रकार ठीक तरह से पचा हुआ आहार शरीर का अंग बनकर शक्ति की वृद्धि करता है उसी प्रकार अनपचा भोजन व्यर्थ ही बर्बाद होकर मल ही नहीं बन जाता वरन् अनेक प्रकार की गड़बड़ी उत्पन्न करके शरीर को भारी हानि पहुँचाता है।

खिचड़ी पकाने के लिए चूल्हे पर पतीली चढ़ाई जाय तो वह तभी पकेगी जब उचित मात्रा में ईंधन हो। यदि ईंधन के नाम पर दो चार छोटी लकड़ी ही पास में हों तो पतीली का पानी भी ठीक तरह गरम न हो पावेगा। लकड़ी भी हाथ से चली जावेंगी और चूल्हा भी काला हो जावेगा। खिचड़ी कच्ची की कच्ची रहेगी। इसी प्रकार जब पाचन यन्त्र दुर्बल हो जाते हैं और उनमें से पचाने वाले रस पर्याप्त मात्रा में नहीं निकलते तो आहार पचने का लाभ तो मिलता नहीं जो थोड़ा बहुत पाचन रस शरीर में पड़ा था वह भी निरर्थक बर्बाद होता है। इस प्रकार देह का एक महत्वपूर्ण रस दिन-दिन नष्ट तो होता चलता है पर पचे अन्न से रक्त बनने पर वह पाचन रस भी पुनः बनते सो कार्य हो नहीं पाता। इस प्रकार संचित खजाना दिन-दिन खाली होता जाता है और नया रक्त न बनने पर शरीर में दुर्बलता और जीर्णता बढ़ती जाती है। प्रकृति माता को धन्यवाद है कि वह साँस द्वारा, जल द्वारा, निद्रा द्वारा और न जाने कैसे कैसे अपच के कारण शुद्ध रक्त न बनने पर भी कोई ऐसे प्रबन्ध करती रहती है कि हम जीवित बने रहें। यदि यह उदारता न मिली होती तो अपच जैसे भयंकर रोग के रोगी को कुछ ही दिन में मरखप कर समाप्त हो जाना चाहिये था।

आहार का परिपाक

अन्न एक सजीव पदार्थ है। यदि पेट की रासायनिक क्रियाओं द्वारा उसे पचाकर शरीर ने आत्म सात नहीं कर लिया है और मल मार्ग से बाहर निकलने तक उसे न सड़ने देने योग्य पाचन रस पर्याप्त मात्र में उसमें मिले नहीं रहें तो यह सजीव अपच की स्थिति में वायु और जल का सम्पर्क मिलने से पेट में सड़ना आरम्भ कर देता है। सड़ने से खमीर, विष, खटिक, गैस एवं तेजाब जैसी हानिकर वस्तुऐं पैदा होती हैं, जिनका कार्य शरीर को जलाना, गड़बड़ाना एवं नष्ट करना होता है। जिस प्रकार बिगड़ा हुआ हाथी अपने महावत मालिक एवं समीपवर्ती लोगों के लिए उपयोगी न रहकर प्राण घातक बन जाता है उसी प्रकार पेट में अनपचा, सड़ता हुआ आहार नाना प्रकार के उपद्रव खड़े करता है। मुँह से डकारें आते समय और मलद्वार से अपान वायु निकलते समय यह अपच के कारण उत्पन्न हुआ सड़न ही वायु रूप होकर बाहर निकलता है। यही सड़ी वायु यदि मस्तिष्क की ओर चलने लगे तो सिर दर्द, जुकाम, आधाशीशी, मृगी, मूर्च्छा, अनिद्रा, पागलपन जैसे रोग उत्पन्न करती है। मुख की ओर इसकी गतिविधि रहे तो मुँह में छाले, दाँत दर्द, पायेरिया, मसूड़े फूलना, लार बहना, कंठ बैठना, आदि बीमारियाँ उठ खड़ी होती हैं। पेट में यही विष घुमड़ने लगे तो वायु गोला, अफरा, पेट फूलना, डकारें, हिचकी, संग्रहणी, अतिसार, जलोदर, तिल्ली, जिगर की सूजन, बवासीर आदि रोग उठ खड़े होते हैं। थोड़ा बहुत जो पाचन होता है उसमें भी पेट में घुमड़ने वाले विष सम्मिलित हो जाते हैं। फल स्वरूप रक्त में विषैलापन बढ़ने लगता है। रक्त चाप, हृदय की धड़कन, पक्षाघात, गठिया, मधुमेह, पथरी, कोढ़ केन्सर फोड़े, चकत्ते जैसे रोग तभी होते हैं जब रक्त में विषैले तत्व अधिक मात्रा में बढ़ जाते हैं।

रक्त शुद्धि की महत्ता

आयुर्वेद शास्त्र में सब रोगों का एकमात्र कारण मलावरोध को माना गया है। जिसकी पाचन क्रिया ठीक नहीं है। छूत के रोग भी उन्हीं पर आक्रमण करते हैं। छूत के रोगों से पूरा बचाव हो सकना किसी भी प्रकार संभव नहीं, क्योंकि हवा में असंख्य प्रकार के रोग कीटाणु उड़ते रहते हैं। साँस के साथ वे निर्बाध गति से देह में भीतर प्रवेश करते ही रहते हैं। उनका बचाव केवल उन्हीं के लिए सम्भव है जिनका रक्त शुद्ध है। निर्दोष रक्त में इतनी तेजस्विता होती है कि भयंकर से भयंकर रोगों के कीटाणु उसके सम्पर्क में आते-आते नष्ट हो जाते हैं। महामारी फैलने के दिनों में कितने ही स्वयं सेवक रोगियों की सेवा तथा मृतकों की आन्त्येष्ठि क्रिया करने में तत्परतापूर्वक लगे रहते हैं उनका कुछ भी नहीं बिगड़ता। इसके विपरीत अपनी सुरक्षा का बहुत ध्यान रखने वाले लोग भी बचाव का हर संभव उपाय करने पर भी रोगी होकर मर जाते हैं। इस अन्तर का कारण रक्त की शुद्धता और अशुद्धता ही रहती है।

मलावरोध-अपच यों तो साधारण सा रोग मालूम पड़ता है पर लगभग समस्त बीमारियों की जड़ उसी में सन्निहित रहती है। लोग विभिन्न बीमारियों का इलाज करते रहते हैं पर जड़ को भूल ही जाते हैं। किसी विष वृक्ष के पत्ते तोड़ते रहने पर भी तब तक उससे छुटकारा न मिलेगा जब तक कि जड़ को न काटा जाय। लोग आये दिन नाना प्रकार के रोगों से ग्रसित रहते हैं और उनकी विविध विधि चिकित्सा करने के लिए नई-नई औषधियाँ और नये नये डाक्टर ढूँढ़ते रहते हैं। यह जड़ को छोड़कर पत्ते-पत्ते पर भटकने के समान है। यदि कब्ज का इलाज करके पाचन प्रणाली को ठीक कर लिया जाय तो पेट की गैस और विष उत्पन्न होना बन्द हो जाने पर सब रोगों की जड़ ही कट जायगी। जब शुद्ध रक्त समुचित मात्रा में बनने लगेगा तो उसकी तेजस्विता से जहाँ तहाँ पिछले जमे हुए विकार भी बाहर निकल जाएँगे।

अपच का अनिष्ट

बहुमूल्य कहे जाने वाले भोजन का लाभ तभी है जब पाचन क्रिया उसे ठीक तरह पचा सकने की स्थिति में हो अन्यथा भारी भोजन सस्ते साधारण भोजन की अपेक्षा लाभदायक नहीं हानिकारक ही सिद्ध होगा। इसलिए हमारी दृष्टि खाद्य पदार्थों के महँगे और बहुमूल्य होने की ओर नहीं, पाचन संस्थान को ठीक करने की ओर होनी चाहिए। आरोग्य शास्त्र के वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि रुग्ण पाचन प्रणाली के द्वारा कई बार अधपका आहार भी रक्त की ओर बढ़ने लगता है। चूँकि वह ठीक प्रकार पचा नहीं होता इसलिए उसे रक्त अपने में आत्मसात नहीं कर पाता और वह कच्चा रक्त इधर-उधर मारा-मारा फिरने के बाद शरीर से बाहर किसी कष्टकर प्रक्रिया द्वारा बाहर निकलने का प्रयत्न करता है। बलगम प्रायः ऐसे ही अधपके रक्त का एक रूप है। मुख के द्वारा तथा नाक के द्वारा कफ जिन्हें गिरता रहता है। उनमें से अधिकाँश अपच के रोगी होते हैं। मुहासे एवं फोड़ा फुन्सी के रूप में भी यही कफ त्वचा फोड़कर बाहर निकलता है। छाजन और दाद का रोग इस अधपके रक्त के किसी एक स्थान पर गौंद की तरह जम जाने के कारण होता है।

सौंदर्य का ठोस उपाय

सौंदर्य सभी को प्रिय है। उसके लिए अनेकों नर-नारी लालायित रहते हैं। चेहरे को सजाने के लिए वे कई प्रकार के रंग रोगन भी लगाते हैं। फिर भी नकली चीज नकली ही रहती है। वह बाहर से किया हुआ रंग-रोगन थोड़ी देर में मिट जाता है और अस्वस्थता की कुरुपता सामने आ खड़ी होती है। शरीर के जिस चमक को, अंगों की सुडौलता को, कोमलता को, लालिमा को, उभार को सौंदर्य कहा जाता है वह शुद्ध रक्त के प्रचुर परिमाण में उत्पन्न होने पर ही उपलब्ध होनी संभव है। देर तक काम करने की शक्ति, उत्साह, स्फूर्ति, मस्तिष्क की प्रखरता, गहरी नींद, आँख, कान, दाँत आदि की सामर्थ्य, अवयवों की सुदृढ़ता को निरोग शरीर का अंश माना जाता है। इन विशेषताओं से युक्त शरीर सौंदर्यवान कहे जाते हैं। सुन्दरता को देखकर स्वयं को नहीं दूसरों को भी प्रसन्नता होती है। लोग उससे प्रभावित भी होते हैं और आकर्षित भी। सौंदर्य के उपासकों और इच्छुकों को यह जान लेना चाहिए कि यह सब प्रताप पेट की शुद्ध पाचन क्रिया का है। जिसके अन्दर शक्ति के उत्पादन का कार्यक्रम ठीक प्रकार चल रहा है और जो उस उत्पादित शक्ति को अनावश्यक रूप से दुरुपयोग नहीं करता उसके अंग प्रत्यंगों में सुदृढ़ता और शोभा उत्पन्न करने वाले तत्व बढ़ेंगे ही और वह सुन्दर लगेगा ही। गोरे वर्ण का अच्छी बनावट का व्यक्ति भी यदि रक्ताल्पता और अपच का रोगी हो तो पके हुए पीले आम की तरह वह निर्जीव दिखाई देगा, उसकी आँखों पर होठों पर, चेहरे पर उदासी और मुर्दनी छाई हुई होगी। ऐसा व्यक्ति रंग या बनावट अच्छी होते हुए भी कुरूप ही लगेगा। इसके विपरीत जिसके अंग प्रत्यंगों में से रक्त की परिपूर्णता छलकती रहती है वह काला कुरूप होने पर भी असाधारण सुन्दर और तेजस्वी प्रतीत होता है। उत्साह और चैतन्यता की किरणें उसके प्रत्येक अंग से बिखरती रहती हैं। ऐसे लोगों को सुन्दर नहीं तो और क्या कहा जायेगा? सौंदर्य कोई वस्तु नहीं, आरोग्य का ही नाम सुन्दरता है और आरोग्य क्या है? इसका संक्षिप्त उत्तर पेट की पाचन-क्रिया का ठीक होना ही कहा जा सकता है।

दीर्घ जीवन और तेजस्विता

दीर्घ जीवन, सुन्दरता, कार्यक्षमता, तेजस्विता उत्साह, स्फूर्ति, साहस, पुरुषार्थ, पराक्रम, योगशक्ति आदि शरीर से सम्बन्धित विभूतियाँ निश्चय ही मानव जीवन को धन्य बनाती हैं। इनके बलबूते पर मनुष्य एक से एक बढ़कर साँसारिक सफलताऐं प्राप्त कर सकता है। इन्हीं के बल पर परमार्थ, धैर्यधारण, आत्म-कल्याण और जीवन मुक्ति जैसे आध्यात्मिक लाभों को प्राप्त कर सकना संभव होता है। यह लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार की विभूतियाँ केवल उन्हीं के लिए संभव हैं जो शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ और सुदृढ़ हैं। इसलिए इन लाभों के लिए हम सबका लालायित होना स्वाभाविक ही है। पर कितने खेद की बात है कि हम जानते हुए भी अनजान बने हुए हैं। समुद्र को रत्नों का भाँडागार कहा जाता है। जीवन का रत्न भाण्डागार हमारा पेट है। यदि पेट को सक्षम रखा जा सके तो वह निरन्तर हमें एक से एक बढ़कर रत्न देता रह सकता है। समुद्र मंथन से केवल 14 रत्न निकले थे पर हम चाहें तो अपने उदर-उदधि की आराधना करके उसके द्वारा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति करने का वरदान माँग सकते हैं। अगणित प्रकार के रत्न प्राप्त कर सकते हैं। अपनी पाचन प्रणाली को यदि हम ठीक कर सकें तो समझना चाहिए कि जीवन विकास की आधी समस्या का हल करने में हम सफल हो गये।


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