हम आरोग्य का महत्व समझें

May 1962

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जीवन-क्रम को सुव्यवस्थित रीति से चलाने के लिए आवश्यक साधनों में आरोग्य का स्थान सर्वप्रथम है। सुख, शाँति और प्रगति के साधनों को जुटाने के लिए स्वस्थ शरीर ही समर्थ हो सकता है। जब शरीर की शक्तियाँ क्षीण हो जाती हैं बुढ़ापा आ घेरता है अथवा रोगों के चंगुल में जकड़ जाता है तो मनुष्य की स्थिति दीन−हीन एवं आर्त कातर जैसी हो जाती है। युवावस्था में जो लोग सिंह की तरह गरजते और हिरन की तरह उछलते रहते हैं उन्हें वृद्धावस्था में शक्तियों के क्षीण हो जाने पर एक असहाय एवं लुञ्ज-पुञ्ज असमर्थ प्राणी की तरह छोटी-छोटी बातों के लिए दूसरों की सहायता के लिए तरसते देखा है। यों वृद्धावस्था शाँति की अवस्था है। यदि युवावस्था में शक्तियों का दुरुपयोग करके शरीर के जीवन तत्व को क्षत, विक्षत न कर लिया गया हो तो साधारणतः वृद्धावस्था में भी काम चलाऊ शक्ति बनी रहती है। 84 वर्ष के राजगोपालाचार्य, 72 वर्ष के जवाहर लाल नेहरू, 86 वर्ष के लोकनायक अणे, 100 वर्ष के विश्वेसरैया, 100 से अधिक के महर्षि कर्वे जैसे अगणित व्यक्ति ऐसे हैं जो वृद्ध कहे जा सकने की आयु के होते हुए भी तरुणों जैसी सक्षमता बनाये हुए हैं। इसके विपरीत 50 वर्ष की आयु के ऐसे व्यक्ति भी बहुत बड़ी संख्या में देखे जा सकते हैं जिनके लिए जिन्दगी भार हो रही है। शक्ति का भण्डार चुक जाने पर खोखला बना हुआ शरीर किसी भी आयु का क्यों न हो असहाय स्थिति को पहुँच जाता है और जीवित रहते हुए भी मृतक से अधिक दुख भुगतता है।

रोग जनित कष्ट

बीमारियों ने जिन्हें घेर लिया है उनके कष्टों का तो कहना ही क्या है। प्रत्येक रोग अपने साथ एक जलन, अशान्ति एवं पीड़ा लिये हुए होता है। रोगों की भिन्नता के कारण यह कष्ट न्यूनाधिक हो सकता है पर अशान्ति हर रोगी को रहती है। कुछ रोग ऐसे होते हैं जिनके शरीर में रहते हुए भी मनुष्य किसी प्रकार अपना दैनिक कार्य-क्रम चलाता रहता है और कुछ ऐसे होते हैं जिनकी तीव्र व्यथा के कारण चारपाई पकड़नी पड़ती है। आम तौर से रोगी उन्हें ही माना जाता है जो काम करने में असमर्थ होकर चारपाई पर गिर पड़ें, दर्द से कराहें, दूसरों की सहायता की अपेक्षा करें और जिनकी सहायता के लिए डाक्टर बुलाना पड़े। अब अस्वस्थता इतनी व्यापक होती चली जा रही है कि जो लोग किसी प्रकार अपनी देह को घसीटते ले चलते हैं, कष्ट को बाहर प्रकट न करके भीतर सहते रहते हैं उन्हें मोटे तौर से रोगी भी नहीं माना जाता। कुछ न कुछ व्यथा बनी रहना तो आज एक फैशन जैसा आम रिवाज हो गया है। कुल्ला, दातौन की तरह दवाओं का सेवन भी एक दैनिक आवश्यकता बनती जा रही है।

तीव्र और मन्द रोगों का अन्तर

रोग मन्द हो या तीव्र शरीर की शक्तियों का उत्पादन रोकता है और संग्रहीन बल को दिन-दिन नष्ट करता चलता है। मंद रोगों में यह विनाश प्रक्रिया धीरे-धीरे चलती है और मनुष्य अकाल मृत्यु की ओर धीरे-धीरे घिसटता चलता है। तीव्र रोगों में यह कार्य आँधी तूफान की तरह होता है और यदि समुचित रोक-थाम न हुई तो असह्य पीड़ा को सहता हुआ रोगी तेजी से दौड़ता हुआ काल के मुख में प्रवेश कर जाता है। जो लोग बीमारियों से ग्रसित हैं उनको जीवन धारण किये रहना ही एक समस्या है, जिन्दगी के दिन किसी प्रकार काट लें तो यही उनके लिए एक बड़ा पुरुषार्थ है,अन्यथा एक-एक दिन पीड़ा और परेशानी के कारण पहाड़ की तरह भारी मालूम पड़ता है। ऐसी परिस्थिति में फंसे हुए मनुष्य उन्नति और प्रगति की कल्पनाऐं ही कर सकते हैं, उसके लिए उन्हें वह अवसर कहाँ मिल पाता है जो स्वस्थ और पुष्ट शरीर वालों के लिए संभव होता है।

रोग मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। यह भीतर ही भीतर जीवन तत्व को चूसता रहता है और उसे ऐसा खोखला एवं निकम्मा बना देता है कि किसी दिशा में पुरुषार्थ करने की क्षमता शेष नहीं रही। प्रगति पथ में बाधा पहुँचाने वाली संसार में अनेक कठिनाइयाँ हैं, गरीबी, अविद्या, शत्रुता, शोषण, अविवेक, अनुपयुक्त शासन, अविवेक समाज, दैवी प्रकोप आदि बहुत से कारण ऐसे हैं जो मनुष्य की उचित प्रगति को रोकते हैं। आलस्य, असभ्यता, उत्तेजना, निराशा, मूर्खता आदि कई व्यक्तिगत दोष भी ऐसे हैं जो जीवन को ऊपर उठने नहीं देते और बार-बार नीचे दबोचते रहते हैं। पर इन सबसे बढ़कर मनुष्य का शत्रु रोग है। बीमार आदमी यदि सद्गुणी भी हो और साँसारिक परिस्थितियाँ प्रतिकूल न भी हों तो भी वह हीन स्थिति में ही पड़ा रहेगा। प्रगति के लिए जिस पुरुषार्थ की आवश्यकता है वह तभी बन पड़ता है जब शरीर निरोग हो। बीमार का सारा ध्यान अपनी व्यथा पर केन्द्रित रहता है। दिन काटने की आवश्यक बातें तो उसे विवश होकर पूरी करनी ही पड़ती है पर उन मजबूरियों से ऊपर उठकर मनः क्षेत्र में कुछ ऐसा उत्साह शेष नहीं रहता जिसके आधार पर उन्नति की किसी बड़ी योजना को पूरा किया जा सके।

जमा पूँजी का क्षरण

रोग के साथ-साथ क्षरण और कष्ट की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। देह में जो कुछ जमा पूँजी है, बीमारी उसे दिन-दिन घटाती और बर्बाद करती चलती है। कष्ट में कराहता हुआ बेचैनी और अशान्ति अनुभव करता हुआ मनुष्य क्या तो प्रगति की बात सोचेगा और क्या उस मार्ग पर दूर तक चल सकेगा? महत्वाकाँक्षी व्यक्ति आगे तो बढ़ना चाहते हैं उनकी कामनायें तो बड़ी-बड़ी होती हैं पर शरीर साथ नहीं देता। ऐसी दशा में वे शक्ति से बाहर खींचतान करके शरीर पर कुछ देर अत्याचार भी करते रहते हैं पर इतने से भी क्या काम बनने वाला था। पूरे पुरुषार्थ की शरीर में क्षमता नहीं होती, स्वल्प प्रयत्न से वह महत्वाकाँक्षाऐं पूरी नहीं होती ऐसी दशा में उन्हें निराशा, दुर्भाग्य, क्षोभ आदि के खीज भरे विचार और उठने लगते हैं जिससे एक विशेष प्रकार का मानसिक कष्ट और बढ़ जाता है।

शरीर बल की अपेक्षा

आजीविका उपार्जन के लिए अच्छे अवसर प्राप्त कर सकना मनुष्य के लिए ही संभव है। क्या व्यापार,क्या नौकरी दोनों ही कार्य शरीर बल की अपेक्षा रखते हैं। विद्या और बुद्धिबल बढ़ाने के लिए जिस शिक्षण और अध्यवसाय की जरूरत है वह भी निरोग रहने पर ही बन पड़ता है। समाज सेवा, परमार्थ, साधना, भजन, ध्यान, धर्म−कर्म जैसे पुण्य कर्मों के लिए जिस मनोबल की आवश्यकता है वह अस्वस्थ रहने वालों में कहाँ होता है। थोड़ी खींचतान कर गाड़ी आगे चलाते हैं पर दूर तक वह भी चल नहीं पाती। यश कीर्ति की कामना करने वालों को जो त्याग करना पड़ता है उसके लायक अस्वस्थ व्यक्ति में न तो साहस होता है और न साधन ही जुड़ पाता है। मौज-मजा करने की कामना भी ऐसे लोग कहाँ पूरी कर पाते हैं। विनोद और मनोरंजन के लिए अवकाश की भी जरूरत पड़ती है और मनः स्थिति की भी, यह दोनों ही बातें अस्वस्थता की स्थिति में नहीं बन पड़ती। इन्द्रियों की शक्ति घट जाने से कोई भी रोग भोगते हुए दूनी पीड़ा बढ़ जाने की आशंका सामने खड़ी रहती है। इस प्रकार आशा और आनंद के सभी द्वार रोगी व्यक्ति के लिए अवरुद्ध बने रहते हैं।

अस्वस्थता की अन्तर्व्यथा

संसार में कोई महत्वपूर्ण काम करने की, उन्नति एवं सफलता की, आनन्द उल्लास की, सन्तोष और शान्ति प्राप्त करने की आकाँक्षा हर व्यक्ति को रहती है पर कितने लोग हैं जो अपना अभीष्ट मनोरथ पूरा कर पाते हैं? इन मन मसोस कर असफल रहने वाले व्यक्ति यों में से अधिकाँश वे होते हैं जिन्हें अस्वस्थता घेरे रहती है। उनके लिए न तो अपने लिए प्रसन्नता प्राप्त करना संभव होता है और न अपने परिवार की कोई महत्वपूर्ण सेवा बन पड़ती है। रोगी की सेवा में घर के लोगों को समय लगाना पड़ता है। यह परिचर्या किन्हीं बिरले ही मनस्वी व्यक्तियों को रुचती है अन्यथा सब लोग हँसते-खेलते वातावरण में रहना पसंद करते हैं और दुखी बीमार की मनोव्यथा के सम्पर्क में आकर अपने को उदास बनाने से बचना चाहते हैं। कुछ समय तो भले ही उत्साहपूर्वक रोगी की सेवा बन पड़े पर देर तक उसमें लगना पड़े तो घृणा और खिन्नता उत्पन्न होती है। रोगी की परिचर्या करने वाले घर के लोग बाहर से भले ही शिष्टाचार बरतें, पर भीतर ही भीतर घृणा और खिन्नता के भाव भरे रहते हैं। इस प्रकार की मनोभावनाओं के बीच रोगी अपने दिन काट सकता है पर शान्ति एवं प्रसन्नता अनुभव नहीं कर सकता। छूत का भय, घर और वस्त्रों में बढ़ने वाली गंदगी, परिचर्या में लगने वाला समय, कष्टमय वातावरण की मनहूसियत, दवा दारु का खर्च, उपार्जन में कमी आदि का चिड़चिड़ापन आदि कितनी ही बातें ऐसी उत्पन्न हो जाती हैं जिससे रोगी व्यक्ति से उसके घर वाले भी खिन्न रहते हैं और उसके सम्पर्क में आने से कतराने एवं पीछा छुड़ाने की भावनाएं व्यक्त करने लगते हैं। ऐसी परिस्थितियों से घिरा हुआ रोगी जो अपने आपके लिए ही भार रूप है, क्या अपने परिवार की सेवा करेगा? और क्या उन्हें सुखी रखेगा?

अस्वस्थता की भयंकरता

रोग को आज जिस प्रकार एक फैशन मान लिया गया है और उसकी हानियों को गंभीरता से न सोचने का जो स्वभाव बनता जा रहा है वह बीमारी से भी अधिक भयंकर है। किसी चीज को हटाने या मिटाने का प्रयत्न मनुष्य तभी करता है जब उसकी भयंकरता और हानियों को भली प्रकार समझे। बीमारी और कमजोरी मानव जीवन की सबसे बड़ी क्षति है। लोग धन की हानि को प्रधानता देते हैं पर वस्तुतः स्वास्थ्य की हानि ही सबसे बड़ी हानि है। कमाई में लोग, धन सम्पत्ति या प्रतिष्ठा को सब कुछ समझते हैं पर यह भूल जाते हैं कि स्वस्थ शरीर के बिना न तो किसी भी बड़ी सफलता को उपलब्ध किया जा सकता है और न उसे स्थिर रखा जा सकता है। विभूतियाँ उसी के पास ठहरती हैं जो उनकी सुरक्षा रखने में समर्थ हैं। दुर्बल व्यक्ति को लक्ष्मी ही नहीं विभूति तिरस्कृत करती हुई विदा हो जाती है। इसलिए लक्ष जो भी हो उसे प्राप्त करने एवं सुरक्षित रखने के लिए सर्वोपरिसाधन स्वास्थ्य की चिन्ता, अभिवृद्धि एवं सुरक्षा करनी ही चाहिए।

स्वास्थ्य की उपयोगिता हमें समझनी चाहिये और यह भी जानना चाहिए कि इस बहुमूल्य विभूति को खो देने पर मनुष्य मणिहीन सर्प की तरह निस्तेज हो जाता है। उपेक्षा करने से हर चीज घटती और नष्ट होती है। हमारे स्वास्थ्य का विनाश भी इस बुरी आदत के कारण ही होता है कि हम स्वास्थ्य की उपयोगिता की ओर ध्यान नहीं देते और न यह सोचते हैं कि उसकी क्षति जीवन की कितनी भयानक क्षति है। यदि इस ओर हमारा समुचित ध्यान हो तो जिस प्रकार धन दौलत की चिन्ता में बहुत सारा समय लगाते हैं उसी प्रकार आरोग्य की रक्षा के लिए क्यों समय न लगावेंगे? क्यों ध्यान न देंगे? जिस ओर ध्यान दिया जायेगा उस ओर प्रगति का होना अवश्यम्भावी है। मनुष्य का चित्त एक जादू भरी शक्ति अपने अन्दर छिपाये बैठा है। उस शक्ति को जिस दिशा में भी प्रयुक्त किया जाने लगे उसी ओर भारी सफलता के उपकरण देखते-देखते इकट्ठे होने लगते हैं।

गम्भीर एवं महत्त्वपूर्ण समस्या

जिस प्रकार बिना विद्या पढ़े कोई विद्वान नहीं बन सकता, उसी प्रकार स्वास्थ्य की दिशा में जागरुक रहे बिना और उसकी सुरक्षा के लिए सचेष्ट रहे बिना कोई व्यक्ति न तो निरोग रह सकता है और न दीर्घजीवी बन सकता है। इसलिए जिन्हें जीवन से प्यार है। जो मनुष्य जीवन का कुछ लाभ लेना चाहते हैं उन्हें सबसे प्रथम एक ही काम करना चाहिए कि स्वास्थ्य के महत्व पर गम्भीरतापूर्वक विचार करें, उसके अभाव में होने वाली हानियों तथा स्वस्थ शरीर की संभावनाओं पर देर तक सोचें। यदि यह महत्व ठीक तरह समझ में आ जाय तो हम आरोग्य को प्राप्त करने के लिए सच्चे मन से सचेष्ट होंगे और तब दुर्बल शरीर को सबल बनाना और रोगों से छुटकारा प्राप्त करना कुछ भी कठिन न रहेगा।


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