आरोग्य के घातक शत्रु−मनोविकार

May 1962

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इस सृष्टि में चेतना और पदार्थ दो तत्व मिलकर विविध गतिविधियों को जन्म देते हैं। बिजली के संचालन में ऋण और धन दो धाराऐं जब तक पृथक-पृथक रहती हैं तब तक वे निष्प्रयोजक ही बनी रहती हैं पर जब, जहाँ वे इकट्ठी हो जाती हैं तभी शक्ति का प्रत्यक्ष दर्शन होने लगता है। जड़ और चेतन इसी प्रकार की दो धाराऐं हैं। प्राणियों में तथा वनस्पतियों में जो जीवन तत्व है वही उनके पंच भौतिक शरीरों को गतिवान बनाता है। यह जीवन तत्व जैसे−जैसे घटता जाता है वे शिथिल,जीर्ण,दुर्बल होने लगते हैं और जब यह तत्व उनमें से बिलकुल चला जाता है तो प्राणियों तथा वनस्पतियों के शरीर निष्क्रिय एवं चेतनाहीन होकर मृतक बन जाते हैं। यह चेतना तत्व जिस प्राणी में जितना अधिक होता है वह उतना ही चैतन्य, स्फूर्तिवान् बुद्धिमान एवं तेजस्वी होता है। इस चेतना की न्यूनाधिकता से ही एक जाति के प्राणियों में तुलनात्मक विशेषता एवं न्यूनता दृष्टिगोचर होती रहती है।

मन का शरीर पर नियंत्रण

जिस प्रकार परमात्मा का इस सारी सृष्टि पर नियंत्रण है, उसकी इच्छा, आज्ञा और प्रेरणा से ही सारे काम चलते हैं, उसी प्रकार इस शरीर रूपी सृष्टि के ऊपर आत्मा की सत्ता काम करती है। अन्तरात्मा की स्थिति के अनुरूप शरीर का ढाँचा भी संभलता और बिगड़ता रहता है। स्वास्थ्य का आधार केवल आहार−विहार आदि को ही मान लेना भूल है। बेशक खान−पान और दिनचर्या का शरीर पर बहुत प्रभाव पड़ता है पर उससे भी अधिक प्रभाव मनः स्थिति का पड़ता है। मन के प्रसन्न रहने का स्वास्थ्य पर इतना अच्छा प्रभाव पड़ता है कि गरीब आदमी जिसे भरपेट भोजन भी नहीं मिलता हट्टा−कट्टा और दीर्घजीवी बना रहता है। इसके विपरीत जिसका चित्त दुखी और चिन्तित रहता है सब कुछ सुख साधन होते हुए भी दिन−दिन दुर्बल होने लगता है। आरोग्य की रक्षा में आहार,चिकित्सा,दिनचर्या, नियम पालन आदि का बड़ा महत्व है पर यदि मन की स्थिति बिगड़ी हुई हो तो यह सारे साधन जुटा लेने पर भी कुछ उद्देश्य पूर्ण न हो सकेगा।

मानव जीवन की खोज करने वाले वैज्ञानिक अब इस निष्कर्ष पर पहुँचते जाते हैं कि प्राचीन काल में मनुष्य की आयु कई सौ वर्ष होती थी । महाभारत के कई प्रमुख पात्रों की आयु तीन सौ वर्ष से अधिक थी । इससे पूर्व का ऐतिहासिक क्रम तो ठीक जाना नहीं जा सका पर नृतत्व-विज्ञान अन्वेषकों का विचार है कि संभवतः बीस हजार वर्ष पूर्व मनुष्य पाँच सौ वर्ष तक जीवित रहता होगा। आहार−विहार की कितनी सुविधा उन दिनों रही होगी यह कहना तो कठिन है पर इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उस समय लोग मानसिक उलझनों में नहीं फंसे रहते थे। चिन्ता, भय, लोभ, शोक ,काम, क्रोध द्वेष, ईर्ष्या, ढोंग, अहंकार जैसे मनोविकार उन दिनों नहीं के बराबर थे, वासनाऐं और तृष्णाऐं उन्हें निरन्तर छेदती न रहती थी । सन्तोष और प्रसन्नता उनके दो प्रधान गुण थे और उन गुणों के कारण ही उनका विकासक्रम निरन्तर अग्रगामी बना रहता था।

हमारे दीर्घजीवी पूर्वज

दो हजार वर्ष पूर्व के ग्रीस इतिहास लेखक आरायन ने अपने ग्रन्थ में लिखा है कि—‟ भारतवासी आमतौर से एक सौ चालीस वर्ष तक जीते हैं। इससे अधिक आयु के भी वहाँ कितने ही मनुष्य पाये जाते हैं।” भारत ही नहीं संसार के अन्य भागों में भी ऐसा ही दीर्घजीवन कुछ शताब्दियों पूर्व तक देखा गया है। इन दिनों भी जिन लोगों ने अपने शरीर को प्रकृति के नियमों पर चलाया और मन को संतुलित रखा उनके लिए दीर्घजीवन अभी भी एक साधारण बात रही है। फ्राँस की नाटककार महिला अन्ना डी.विहच 112 वर्ष तक जीवित रहीं। रोम का डीमाक्रीटस नामक वैज्ञानिक 109 वर्ष जिया। स्विटजरलेण्ड का मिटल स्टेड नामक सैनिक 112 वर्ष की आयु में मरा। इण्डेल के आर्किगहम नामक श्रमजीवी ने 144 वर्ष की आयु पाई। यदि वह पेड़ से लकड़ी काटते समय गिरकर मर न गया होता तो संभवतः और भी अधिक समय तक जीता। इंग्लैण्ड के एक 152 वर्षीय टामस पार नामक व्यक्ति का सार्वजनिक अभिनंदन करके उसे सम्मानित किया गया था। नार्वे का डकन वर्ग नामक व्यक्ति 146 वर्ष तक जिया वह अपने को हर दृष्टि से युवक मानता था। 130 वर्ष की आयु में उसने अपना अन्तिम विवाह किया था। योरोप में पिछले ही दिनों थामस वार 152 वर्ष, हैनरी जेनिकिन्स 169 वर्ष, मेरी वििलंगडन 112 वर्ष, फाउण्ड डेस्माँड 140 वर्ष,केथराइन एलन 131 वर्ष जीवित रहे हैं। भारत में भी प्रभाकर शास्त्री 109 वर्ष ,रामसेठ मुरकी 105 वर्ष आदि सैकड़ों मनुष्य शतायु हो चुके हैं। अभी भी प्रसिद्ध व्यक्तियों में महर्षि कर्वे, विश्वेश्वरय्या आदि कितने ही दीर्घजीवी मौजूद हैं। अप्रसिद्ध साधारण नागरिकों में तो उनकी संख्या सैकड़ों तक हो सकती है। योगी और तपस्वियों में तो कितने ही शतायु शरीर अभी भी मौजूद हैं।

मनोविकारों का कुप्रभाव

इन दीर्घजीवी व्यक्तियों में आहार−विहार संबंधी कोई भिन्नताऐं रही हों तो बात अलग है पर उनमें से सभी ऐसे थे जो प्रसन्न रहते थे और मनोविकारों से मुक्त रहा करते थे। शरीर में उत्पन्न होने वाले रोग जिस प्रकार जीवन तत्व को तेजी से समाप्त करते हैं और मृत्यु को निकट ला देते हैं उसी प्रकार मनोविकार संक्रामक रोगों की तरह ही घातक सिद्ध होते हैं। आयु को कम करने और देह को धीरे−धीरे गलाते चलने में मनोविकारों से उत्पन्न होने वाला विष शारीरिक रोगों की अपेक्षा किसी भी प्रकार कम नहीं है। काम-वासना को ही लीजिए। यह सर्व विदित है कि वीर्य शरीर की एक अमूल्य सम्पदा है, उसका व्यय जब भी होगा तभी शक्ति का एक महत्वपूर्ण भाग नष्ट होगा। मानसिक काम सेवन से भी उसी प्रकार की हानि होती है। मस्तिष्क में अश्लील, वासना सम्बन्धी विचार घुमड़ते रहने से मानसिक तन्तु उत्तेजित बने रहते हैं और मानसिक तत्वों का बड़ी मात्रा में क्षरण होता रहता है। शरीर की वासना काम सेवन से कुछ समय के लिए शान्त हो सकती है पर मानसिक वासना की शान्ति इस प्रकार भी संभव नहीं है। जब भी गंदे विचार आते हैं तुरन्त मस्तिष्क उत्तेजित होना आरम्भ कर देता है और निरन्तर शरीर से काम सेवन करते वाले मनुष्य की तरह उसका भी शक्ति स्राव होता रहता है। ऐसे लोग देह में भले ही ब्रह्मचारी बने रहें मानसिक व्यभिचार के कारण ब्रह्मचर्य का लाभ कदापि प्राप्त नहीं कर सकते।

क्रोध की भयंकरता

क्रोध की भयंकरता के संबन्ध में जो वैज्ञानिक शोधें हुई हैं उनसे प्रतीत होता है कि यह दुुर्गुण भी किसी भयंकर रोग से कम नहीं है। डाक्टर अरोली और केनन ने अनेक परीक्षणों के बाद यह घोषित किया है कि—‛क्रोध के कारण अनिवार्यतः उत्पन्न होने वाली रक्त की विषैली शर्करा हाजमा बिगाड़ने के लिए सबसे अधिक भयावह है। ‛आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के स्वास्थ्य निरीक्षक डाक्टर हेमन वर्ग ने अपनी रिर्पोट में उल्लेख किया है कि—‟इस वर्ष परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों में अधिकाँश चिड़चिड़े मिज़ाज के थे।” पागलखाने की रिपोर्ट बताती है कि क्रोध से उत्पन्न होने वाले मानसिक रोगों ने अनेकों को पागल बना दिया। डाक्टर जे. एक्टर का कथन है कि—‛पन्द्रह मिनट क्रोध करने में शरीर की इतनी शक्ति खर्च हो जाती है जितनी से हम घण्टे परिश्रम कर सकते हैं’ न्यूयार्क के वैज्ञानिकों ने परीक्षा करने के लिए गुस्से में भरे हुए मनुष्य का कुछ बूँद खून लेकर पिचकारी द्वारा खरगोश के शरीर में पहुँचाया, नतीजा यह हुआ कि बाईस मिनट बाद खरगोश आदमियों को काटने दौड़ने लगा। पेंतीस मिनट पर उसने अपने को काटना शुरू कर दिया और एक घण्टे के अन्दर पैर पटक−पटक कर मर गया। क्रोध के समय शरीर में उत्पन्न होने वाले विष की भयंकरता का कुछ परिचय उस परीक्षण से सहज ही चल जाता है।

बाईबिल कहती है—‛क्रोध को लेकर सोना अपनी बगल में जहरीले साँप को लेकर सोना है।’ वैज्ञानिक सोन्हा का कथन है—‟क्रोध, शराब की तरह मनुष्य को विचारशून्य दुर्बल एवं लकवे की तरह शक्तिहीन कर देता है। दुर्भाग्य की तरह यह जिसके पीछे पड़ता है उसका सर्वनाश करके ही छोड़ता है। दार्शनिक अरस्तू का कथन है—‟जिसने क्रोध की अग्नि अपने हृदय में प्रज्ज्वलित कर रखी है उसे चिता से क्या प्रयोजन?”

हर मनोविकार एक रोग

निरन्तर संचय करने में लगे रहना,जोड़ते जाना,किसी को न देना, कन्जूसी के विचारों में डूबे रहना, अनुदारता और लोभ की मनोभूमि बनाये रखना सुप्त मन के संचारित भावना संस्थान एवं जागृत मन द्वारा प्रेरित चेतना प्रवाह को ‘संकोची’ बना देता है। शरीर की हर क्रिया में “न छोड़ने और पकड़े रहने” की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है। पेट पर इसका तुरन्त प्रभाव पड़ता है। दस्त साफ होने में रुकावट पड़ने लगती है। पेट भरा रहता है, उसमें मल इकट्ठा होता रहता है। आँतें मल त्यागने में कन्जूसी करती हैं। त्वचा के रोम कूप पसीना बाहर निकालने में संकोच करते हैं फलस्वरूप चर्मरोग उत्पन्न होते हैं। फेफड़े साँस को बाहर निकालते हुए झिझकते हैं अतएव रक्त की सफाई ठीक तरह न होने से कई प्रकार के रक्त विकार उठ खड़े होते हैं। सन्तान हीन व्यक्तियों में अधिकतर कन्जूस प्रकृति के होते हैं। उनकी गुप्त चेतना अपनी कमाई का उत्तराधिकार किसी को देना नहीं चाहती इसलिए वीर्य कोषों की ग्रन्थियाँ इस प्रकार सिकुड़कर बैठ जाती हैं कि संतान उत्पन्न होने की प्रक्रिया ही रुक जाती है।

रोग निवृत्ति के लिए दान देने की धार्मिक प्रथा में बड़ा भारी धार्मिक एवं मनोवैज्ञानिक तथ्य छिपा हुआ है। मृत्यु के समय अन्नदान एवं गौ दान करने से शान्तिपूर्वक प्राण त्याग होते देखा जाता है। साधारण रोगों के समय भी दीन दुखियों को या किन्हीं ज्ञानवर्धक, धर्म विस्तारक कार्यों में कुछ दान देने से रोगी के मन में एक प्रकार का सन्तोष एवं धर्म उल्लास पैदा होता है और उससे उसकी रोग निवृत्ति में भारी सहायता मिलती है। जेनेवा के मेडिकल जनरल में एक ऐसी ही घटना का उल्लेख कुछ दिन पूर्व छिपा था। घटना इस प्रकार बताई गई—‟एक लड़का बहुत दिन से जीर्ण ज्वर से ग्रस्त था। वह रोज डाक्टर के पास दवा खरीदने जाया करता था। एक दिन रास्ते में उसने भूख से तड़पती हुई एक बुढ़िया को देखा तो उसका मन दया से द्रवित हो गया। लड़के ने दवा के सारे पैसे उस स्त्री को दे दिये और स्वयं बिना दवा लिये ही वापिस लौट आया। अपने इस उदार काम की प्रसन्नता लड़के को तमाम दिन बनी रही। फलस्वरूप उसका कई महीने का रोग उसी दिन चला गया।”

भय, भ्रम, निराशा और चिन्ता में डूबे हुए कितने ही व्यक्ति अपना सर्वनाश करते रहते हैं। इन मानसिक दुर्बलताओं के कारण भले−चंगे लोग बीमार पड़ते हैं और बीमार आदमी मरने के लिए प्रस्तुत होते देखे गये हैं। कहते हैं कि एक बार यमराज ने महामारी को बुलाकर एक शहर से दस हजार मनुष्य मार लाने को भेजा। कुछ दिन बाद वह लौटी तो उसके साथ एक लाख मृत आत्माऐं खड़ी थीं। यमराज झल्लाये और कहा−हमने तो दस हजार मारने को कहा था यह एक लाख क्यों मारे गये? महामारी ने गिड़गिड़ाते हुए कहा− ‟भगवन! मैंने दस हजार से एक भी अधिक नहीं मारा। शेष 90 हजार तो डर के मारे स्वयं ही मर गये हैं और अकारण मेरे पीछे चले आये हैं।”

मनोबल की प्रचण्ड शक्ति

साहसी लोग प्राणघातक रोगों पर अपने मनोबल के सहारे विजय प्राप्त करते हैं पर कितने ही कमजोर तबियत के भय, आशंका और संशय से ग्रसित रह कर निरोग से रोगी ही नहीं बनते मामूली से कष्ट को बहुत बढ़ा−चढ़ा कर मानने से सचमुच ही बीमार पड़ जाते हैं। कितने ही डाक्टर, ज्योतिषी, भूत झाड़ने वाले ओझा और सहानुभूति दिखाने वाले बात को बढ़ा−चढ़ाकर बताते हैं और उस कष्ट को मिटाने में अपनी छोटी सहायता को बहुत बड़ी बताने के लिए बात का बतंगड़ खड़ा कर देते हैं। यदि मनुष्य इन पर विश्वास करने लगे तो सचमुच ही हड़बड़ा जाता है और वह घबराहट ही एक भारी विपत्ति बन जाती है। भूत,पलीतों से डरकर बीमार होने की ही नहीं प्राण गँवाने की भी कितनी ही घटनाऐं सामने आती रहती हैं। परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने, घाटा लग जाने, किसी प्रिय स्वजन के मरने, राजदंड का भय, अपमान, भविष्य की अशुभ आशंका आदि मानसिक उलझनों से कितने ही व्यक्ति पागल होते, कई आत्म−हत्या करते और कई उद्विग्न होकर न करने योग्य काम करते और न सोचने योग्य बातें सोचने से विपन्न स्थिति में पड़े देखे गये हैं। इसके विपरीत अनेकों व्यक्ति ऐसे होते हैं जो विपत्ति की घड़ी में भी हँसते और मौत के साथ ठठोली करते देखे गये हैं।

मौत के साथ ठठोली

सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी कन्हाईलाल दत्त को जब मृत्यु दण्ड सुनाया गया तो फाँसी की कोठरियों में रहने के दिनों में उनका वजन 15 पौण्ड बढ़ गया था। काकोरी षड़यन्त्र के कैदी श्री रामप्रसाद बिस्मिल फाँसी लगने से एक घण्टा पूर्व अपना दैनिक व्यायाम कर रहे थे। फाँसी घर चौकीदार ने आश्चर्यचकित होकर पूछा— आप तो एक घण्टा बाद मरने वाले हैं फिर व्यायाम से क्या लाभ? श्री बिस्मिल ने हँसते हुए कहा—‛जब मौत नियत समय पर अपना काम करना नहीं छोड़ेगी तो मैं ही क्यों लापरवाही बरतूँ और समय के दुरुपयोग का अपराधी बनूँ।” अद्योवा के युद्ध में एक आयरिश सिपाही शेरो थेडरी बुरी तरह घायल हुआ। गोलियाँ उसके दाहिने फेफड़े में पीछे से घुसीं और फेफड़ा, आमाशय, जिगर, पित्तकोश चीरती हुई आँतों में तेरह दुहरें छेद बनाकर पेट में पड़ी रह गईं। खून बहुत निकल चुका था, जख्म बहुत थे, गोलियों और छर्रों से पेट भरा पड़ा था। डाक्टर निराश थे। उसे आपरेशन रूम में ले जाया जा रहा था तो शेडरी ने डाक्टर का कन्धा पकड़ा और धीरे से कहा—‟डाक्टर परेशान होने की जरा भी जरूरत नहीं है। जब तक मेरी छाती में बिना छिदा दिल मौजूद है तब तक मरने की कोई बात नहीं। मैं मर नहीं सकता आपरेशन के बाद में जरूर अच्छा हो जाऊँगा।” सचमुच उसने अपने विश्वास को सही सिद्ध कर दिखा दिया। वह मरा नहीं इतने बड़े आपरेशन के बाद भी अच्छा हो गया। उसी अस्पताल में एक और अनेकों गोलियों से छिदा दूसरा सैनिक भर्ती हुआ तो उसने अपने पड़ौसी की स्थिति को समझने के बाद हँसते हुए कहा जब मेरा साथी इतने घावों के बाद बच सकता है तो मेरे मरने का सवाल ही नहीं उठता।

मन रोगी तो शरीर रोगी

इस प्रकार के अनेकों आशावादी व्यक्ति भयंकर विपत्तियों से अपने साहस के बल पर आपत्ति को पार कर लेते हैं। दूसरी ओर निराशावादी, जरा−जरासी बात पर खिन्न होकर अपना भविष्य ही अन्धकारमय नहीं बनाते वरन् स्वास्थ्य को भी चौपट कर लेते हैं। ऐसे कितने ही व्यक्ति हैं जिनकी शारीरिक स्थिति कुछ बहुत बुरी नहीं है पर आशंका, चिन्ता, क्रोध और क्षोभ ने उनका मानसिक स्तर बुरी तरह जर्जर कर रखा है। मन के रोगी होने पर कोई भी व्यक्ति निरोग नहीं रह सकता यह एक सुनिश्चित तथ्य है। ईर्ष्या और द्वेष की आग में जलने वाले अपने लिए सबसे बड़े शत्रु हैं । दूसरों की बढ़ोतरी देखकर जल भुन जाने की बुरी आदत अनेक व्यक्तियों की होती है, वे स्वयं तो उन्नति कर नहीं पाते दूसरों का रास्ता रोककर उन्हें अपने से पिछड़ा हुआ रखना चाहते हैं। ऐसे अहंकारी और तुच्छ मनोभूमि के व्यक्ति मन ही मन सदा कुढ़ते रहते हैं। उन्हें कुढ़ाने के लिए कोई न कोई कारण कहीं न कहीं से सामने आता ही रहता है। ऐसे लोग अपने मनोविकारों के कारण कोई न कोई रोग भी सदा शरीर में पाले रहते हैं। गंदे मन वाले व्यक्ति का शरीर भी सदा गंदा रहेगा और जहाँ गन्दगी रहेगी वहाँ रोग का निवास होगा ही। आरोग्य की आकाँक्षा रखने वालों को अपने शरीर की बाहरी और भीतरी गन्दगी ही साफ नहीं करनी पड़ती वरन् मानसिक गन्दगी को भी साफ करना अनिवार्य होता है। इसके अभाव में आहार−विहार की नियमितता से भी स्वास्थ्य की रक्षा नहीं हो सकती ।


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